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(मंदिर निर्माण के साथ [[मानस्तम्भ]] की रचना का समावेश होता रहा है । यह निर्माण विधि सम्मत हो इस बात को ध्यान में रखकर समाज के मार्गदर्शन के लिये यह लेख प्रस्तुत किया जा रहा है । मैं आभारी हूँ पं. हंसमुख जी जैन, धरियावाद का जिनके कुलपतित्व में [[अतिशय क्षेत्र पदमपुरा]] में आचार्यश्री १०८ चैत्यसागरजी महाराज के सान्निध्य में दिनांक ५ से ८ अक्टूबर, २०१३ को आयोजित ‘जिन मंदिर एवं मूर्ति का स्वरूप एक अनुिचतन’ विद्वत संगोष्ठी में मुझे इस विषय पर उनका मार्गदर्शन एवं वाचन करने का अवसर मिला ।)
ज्ञान के गर्व से घिरे हुए इन्द्रभूति में तीर्थंकर महावीर स्वामी के समवसरण में द्वार के समीप दिव्य [[मानस्तम्भ]] को देखा, गर्व हीन हो गया । मिथ्यात्व का विसर्जन हुआ एवं निर्मल सम्यक्त्व के साथ सम्पूर्ण मिथ्या ज्ञान सम्यक् ज्ञान में परिर्वितत हो गया । इस घटना में मंदिर के साथ [[मानस्तम्भ]] का रूप जोड़ने में प्रबल योग प्रदान किया ।
जैन दर्शन कला शिल्प में जिनालय के साथ [[मानस्तम्भ]] रचना के विस्तृत प्रमाण तो उपलब्ध नहीं होते लेकिन समवसरण के चारों दिशा की वीथि (मार्ग) में [[मानस्तम्भ]] रचना का उल्लेख एवं प्रमाण अवश्य है । यही कारण रहा है कि मंदिर को समवसरण का रूप मानकर [[मानस्तम्भ]] की रचना को मंदिर के साथ जोड़ा गया है । इसे कुछ एक स्थानों पर र्कीित स्तम्भ के नाम से भी जाना गया है ।
मंदिर निर्माण के शिल्प ग्रंथों में [[मानस्तम्भ]] निर्माण का परिचय सुलभ नहीं है । लेकिन धर्म एवं सिद्धान्त ग्रंथों में जैसे तिलोयपण्णत्ती, त्रिलोकसार के अनुसार समवसरण एवं अकृत्रिम स्थलों के देवालयों के सम्मुख [[मानस्तम्भ]] रचना के आकार प्रकार, पीठ, स्तम्भ, वेदी एवं र्मूित के गणितीय विभाग प्रमाण विस्तृत रूप से उपलब्ध है । इस आधार को प्रमाण मानकर यहाँ [[मानस्तम्भ]] रचना के विभिन्न भागों को ज्योतिष एवं गणितीय मान से प्रस्तुत किया जा रहा है ।
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[[मानस्तम्भ]] की भूमि
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गर्भगृह, श्रीमण्डप, त्रिकमंडप, रंगमण्डप एवं शृंगार चौकी की भूमि छोड़कर मूल शिखर के कलश से शृंगार चौकी के कलश तक गिरता हुआ सूत्र भूमि के जिस भाग को स्पर्श करे वह [[मानस्तम्भ]] की भूमि होगी। (देखें प्रमाण)
मानस्तम्भ की ऊँचाई मंदिर के शिखर की ऊँचाई व कलश व आंवलसार तक करना चाहिए। शिखर की शुकनासा (शेर की दृष्टि) तक भी कर सकते हैं । जिनालय की सांजली तक भी स्तम्भ बना सकते हैं ।
२. जिनालय की मूल प्रतिमा (मूलनायक वेदी) के सम्मुख ही मानस्तंभ बनाना विधि सम्मत है ।
३. मूलवेदी के सम्मुख द्वार के अभाव में मानस्तम्भ बनाना निषेध है ।
४. मानस्तम्भ में सर्वतोभद्र (चारों दिशाओं में) प्रतिमाएँ होने के कारण मूल वेदी के सामने होने पर भी द्वार भेद नहीं माना जाता ।
५. मानस्तंभ कला की दृष्टि से विभिन्न प्रकार के बनाये जा सकते हैं । पीठ, स्तम्भ, वेदी एवं शिखर में कालानुपाति शैली एवं आकृति को मण्डित कर उसकी सुन्दरता एवं आकर्षकता बढ़ाई जा सकती है । लेकिन आकार परिवर्तन योग्य नहीं है ।
६. स्तम्भ चौकोर, अष्टमांश एवं वृत्ताकार तीनों आकृति के बनाए जा सकते हैं । इतना अवश्य ज्ञात रहे यदि पीठ चौकोर बनी है तो स्तम्भ के तीनों प्रकार बनाए जा सकते हैं । लेकिन यदि पीठ अष्टमांश है तो स्तम्भ अष्टमांश या वृत्ताकार ही बनाये जा सकते हैं । वृत्ताकार पीठ पर वृत्ताकार स्तम्भ ही अनुकूल है ।
७. स्तम्भ की ऊँचाई [[मानस्तम्भ]] की सम्पूर्ण ऊँचाई के आधे भाग प्रमाण होती है । स्तम्भ नीचे मोटा एवं क्रमश: ऊपर घटता—घटता बनता है ।
८. स्तम्भ के पर्व विषम संख्या में एवं ग्रंथि (चूड़ी) समसंख्या में सुखदायक होती है ।
९. तीर्थंकरों के अतिरिक्त सामान्य केवली की प्रतिमा के सम्मुख [[मानस्तम्भ]] का निर्माण प्रमाणहीन है ।
१०. तिलोयपण्णत्ती, अरिहंत, त्रिलोकसार, [[अकृत्रिम चैत्यालय]] एवं समवसरण रचना के अनुसार [[मानस्तम्भ]] में सिद्ध प्रतिमाओं की स्थापना होती है । तीर्थंकर प्रतिमा का विधान उपलब्ध नहीं है ।
११. तिलोयपण्णत्ती एवं कल्पद्रुम पूजा के अनुसार [[मानस्तम्भ]] तीर्थंकर प्रतिमा की अवगाहना (ऊँचाई) से १२ गुना ऊँचा होता है ।
१२. [[मानस्तम्भ]] की प्रथम पीठ पर जैन दर्शन के मूल सिद्धान्तों की चित्रावली या आधारमान जिनालय के मूल तीर्थंकर के जीवन संबधित चित्र या [[मानस्तम्भ]] की महिमा दर्शाने वाले चित्रों का उत्कीर्ण किया जाना योग्य है । [[मानस्तम्भ]] की द्वितीय पीठ पर अष्ठमंडल द्रव्य बनाये जाते हैं । मानस्तंभ की तृतीय पीठ ध्वज पंक्ति से सज्जित होती है । आधार पदक कमल की आकृति का बनाया जाता है । स्तम्भ पर वल्लरियाँ सांकल शृंखलाएँ, घंटियाँ, तोरण बनाये जाते हैं । जिनवेदी स्तम्भ पर चँवरधारी इन्द्र तथा तोरण बनाना चाहिए। शिखर उशृंग एवं अण्डक युक्त होता है ।
१३. मंदिर आंगन के छह भाग इस प्रकार होने चाहिये
१. गर्भ गृह
२. रंग मण्डप
३. चौकी
४. हवन कुंड
५. [[मानस्तम्भ]]
६. ध्वजा स्थल
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[[मानस्तम्भ]] ऊँचाई के विभाग
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१. जगती : भूमि में मंदिर के खरतल तक की ऊँचाई प्रमाण भूमि का होगा। जगती के ऊपर से [[मानस्तम्भ]] की पहली पीछ प्रारम्भ होती है । [[मानस्तम्भ]] के ३० भाग बनाकर निम्नभाग, प्रमाण निर्माण करना चाहिये।
प्रथम पीठ : ४ भाग प्रमाण ऊँची
द्वितीय पीठ : २ भाग प्रमाण ऊँची
तृतीय पीठ : २ भाग प्रमाण ऊँची
आधार पदम : २ भाग प्रमाण ऊँची
स्तम्भ : १५ भाग प्रमाण ऊँची
ऊर्ध्वपद्म : १ भाग प्रमाण ऊँची
वेदी : डेढ़ भाग प्रमाण ऊँची
शिखर : डेढ़ भाग प्रमाण ऊँची
कलश : १ भाग प्रमाण ऊँची
[[मानस्तम्भ]] की जगती एवं तीनों पाठ चौकोर वर्गाकार एवं अष्टकोण की बनाई जा सकती है ।
[[मानस्तम्भ]] के शिखर को गुम्बद या साभरण की आकृति भी दी जा सकती है । इसके बचे शेष ऊँचाई को स्तम्भ वेदी या पीठ इन तीनों में किसी में भी समायोजित किया जा सकता है ।