किसी पर्वत पर गुणनिधि मुनि चार महिने का उपवास कर विराजमान थे। उन ऋद्धिधारी मुनि की देवगण स्तुति कर रहे थे। चातुर्मास समाप्त होने पर वे मुनि आकाश मार्ग से विहार कर गये। इधर मृदुगति नाम के दूसरे मुनि उसी क्षण आहार के लिए गाँव में आ गये। श्रावकों ने इन्हें गुणनिधि मुनि समझकर बहुत ही स्तुति भक्ति की। मुनि ने मायाचारी रखी और अपना नाम इसलिए नहीं बताया कि मेरी भक्ति कम हो जायेगी अन्त में वे मुनि मरकर देव हो गये किन्तु इस मायाचार के पाप से वे वहाँ से च्युत होकर ‘‘त्रिलोक मण्डन’’ हाथी हो गये जिसे कि रावण ने अपने वश में किया था। मायाचारी से तिर्यंचगति होती है इसलिए मायाचार का त्याग करके सरल प्रवृत्ति रखनी चाहिए।