विजिदचउघाइकम्मे केवलणाणेण णादसयलत्थे।
वीरजिणे वंदित्ता जहाकमं मग्गणासवं वोच्छे।।२४।।
विजितचतुर्घातिकर्माणं केवलज्ञानेन ज्ञातसकलार्थं।
वीरजिनं वन्दित्वा यथाक्रमं मार्गणायामास्रवान् वक्ष्ये।।
जिन्होंने चार घातिया कर्मों को जीत लिया है एवं केवलज्ञान के द्वारा संपूर्ण पदार्थों को जान लिया है ऐसे श्री वीर जिनेन्द्र को नमस्कार करके मैं क्रम से मार्गणाओं में आस्रवों को कहूूँगा।।२४।।
मिस्सतियकम्मणूणा पुण्णाणं पच्चया जहाजोगा।
मणवयणचउ-सरीरत्तयरहिदा पुण्णगे होंति।।२५।।
मिश्रत्रिककार्मणोना: पूर्णानां प्रत्यया यथायोग्य:।
मनोवचनचतु: शरीरत्रयरहिता अपूर्णके भवन्ति।।
पर्याप्त अवस्था में औदारिकमिश्र, वैक्रियकमिश्र, आहारकमिश्र और कार्मण से रहित यथायोग्य अपने-अपने गुणस्थानों के अनुसार आस्रव होते हैं एवं अपर्याप्तक अवस्था में चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक, वैक्रियक, आहारक ये तीन काययोग, इन ग्यारह योगों से रहित आस्रव होते हैं।।२५।।
इत्थीपुंवेददुगं हारोरालियदुगं च वज्जित्ता।
णेरइयाणं पढमे इगिवण्णा पच्चया होंति।।२६।।
स्त्रीपुंवेदद्विकं १आहारकौदारिकद्विकं वर्जयित्वा।
नारकाणां २प्रथमे एकपंचाशत्प्रत्यया भवन्ति।।
नारकियों के प्रथम नरक में स्त्रीवेद, पुरुष वेद, आहारक, आहारकमिश्र, औदारिक, औदारिकमिश्र इन छह आस्रव के बिना इक्यावन आस्रव होते हैं।।२६।।
विदि१यगुणे णिरयगिंद ण यादि इदि तस्स णत्थि कम्मइयं।
वेगुव्वियमिस्सं च दु ते होंति हु अविरदे ठाणे।।२७।।
द्वितीयगुणेन नरकगतिं न याति इति तस्य नास्ति कार्मणं।
वैक्रियिकमिश्रं च तु तौ भवतो हि अविरते स्थाने।।
द्वितीय गुणस्थान से नरकगति में नहीं जाता है अत: नरक में द्वितीय गुणस्थान में कार्मण, वैक्रियकमिश्र नहीं रहते हैं। ये दोनों अविरतगुणस्थान में रहते हैं अर्थात् प्रथम नरक में चौथे गुणस्थान में ही वैक्रियकमिश्र कार्मण रहते हैं, सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व सहित मरकर पहले नरक तक ही जा सकता है।।२७।।
सक्करपहुदिसु एवं अविरदठाणे ण होइ कम्मइयं।
वेगुव्वियमिस्सो वि य तेसिं मिच्छेव वोच्छेदो।।२८।।
शर्कराप्रभृतिषु एवं, अविरतस्थाने न भवति कार्मणं।
वैक्रियिकमिश्रमपि च तयो: मिथ्यात्वे एव व्युच्छेद:।।
द्वितीय नरक से लेकर सातवें नरक तक इसी प्रकार आस्रव हैं, अंतर केवल इतना ही है कि अविरत गुणस्थान में वैक्रियक मिश्र और कार्मण नहीं होता है क्योंकि इन दोनों की व्युच्छित्ति मिथ्यात्व गुणस्थान में ही हो जाती है।।२८।।
वेगुव्वाहारदुगं ण होइ तिरियेसु सेसतेवण्णा।।
एवं भोगावणिजे संढ विरहिऊण वावण्णा।।२९।।
वैक्रियिकाहारद्विकं न भवति तिर्यक्षु शेषत्रिपंचाशत्।
एवं भोगावनीजेषु षंढं विरह्य द्वापंचाशत्।।
तिर्यंचों में वैक्रियकद्विक, आहारकद्विक नहीं होते हैं अत: त्रेपन आस्रव होते हैं। इसी प्रकार से भोगभूमियों में वैक्रियकद्विक, आहारकद्विक एवं नपुंसकवेद से रहित ५२ आस्रव होते हैं।।२९।।
लद्धि अपुण्णतिरिक्खे हारदु मणवयण अट्ठ ओरालं।
वेगुव्वदुगं पुंवेदित्थीवेदं ण बादालं।।३०।।
लब्ध्यपूर्णतिर्यक्षु आहारकद्विकं मनवचनाष्टकं औदारिकं।
वैक्रियिकद्विकं पुंवेदस्त्रीवेदौ न द्वाचत्वािंरशत्।।
लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंचों में आहारकद्विक, मनोयोग चार, वचनयोग ४, औदारिक, वैक्रियकद्विक, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, इन पंद्रह आस्रवों के बिना ४२ आस्रव होते हैं।
भावार्थ-कर्मभूमिज तिर्यंचों में ५ गुणस्थान, भोगभूमिज में ४ एवं
लब्ध्यपर्याप्त तिर्यंच में ४२ आस्रव होते हैं, मिथ्यात्व ही गुणस्थान है। यहाँ कर्मभूमिज तिर्यञ्चों के चौथे गुणस्थान में औदारिक मिश्र और कार्मण सम्भव नहीं है क्योंकि सम्यग्दृष्टि मरकर कर्मभूमिज तिर्यंच नहीं हो सकता, बद्धायुष्क हुआ तो भोगभूमिज तिर्यंच हो जाता है अत: यह ४४ संख्या अशुद्ध है।
मणुवेसु ण वेगुव्वदु पणवण्णं संति तत्थ भोगेसु।
हारदुसंढविवज्जिद दुवण्णऽपुण्णे अपुण्णे वा।।३१।।
मनुजेषु न वैक्रियिकद्विकं पंचपंचाशत् सन्ति तत्र भोगेषु।
आहारद्विकषंढविवर्जितं द्विपंचाशत् १अपूर्णे अपूर्णे इव।।
कर्मभूमिज मनुष्यों के वैक्रियकद्विक के बिना ५५ आस्रव होते हैं। भोगभूमिज मनुष्यों में आहारकद्विक और नपुंसकवेद रहित ५२ होते हैं एवं लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य में लब्ध्यपर्याप्त तिर्यंच के समान ४२ आस्रव होते हैं अर्थात् आहारकद्विक, मनोयोग चार, वचनयोग चार, औदारिक, वैक्रियकद्विक, स्त्री, पुरुषवेद इन १५ से रहित ४२ आस्रव होते हैं।।३१।।
लब्ध्यपर्याप्त में ४२ आस्रव एवं प्रथम ही गुणस्थान है।
देवे १हारोरालियजुगलं संढं च णत्थि तत्थेव।
२देवाणं देवीणं णेवित्थी णेव पुंवेदो।।३२।।
देवेषु आहारकौदारिकयुगले षंढं च नास्ति तत्रैव।
देवानां देवीनां नैव स्त्री नैव पुंवेद:।।
देवों में आहारक युगल, औदारिक युगल और नपुंसक वेद ऐसे ५ नहीं होने से ५२ आस्रव होते हैं। मात्र देवों में स्त्रीवेद और देवियों में पुरुषवेद नहीं है।।३२।।
भवणतिकप्पित्त्थीणं असंजदठाणे ण होइ कम्मइयं।
वेगुव्वियमिस्सो वि य तेसिं पुणु सासणे छेदो।।३३।।
भवनत्रिकल्पस्त्रीणां असंयतस्थाने न भवति कार्मणं।
वैक्रियिकमिश्रमपि च तयो: पुन: सासादने व्युच्छेद:।।
भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिर्वासी देव और कल्पवासी देवियों में चौथे गुणस्थान में कार्मण एवं वैक्रियकमिश्र योग नहीं होता है, इन दोनों का सासादन में व्युच्छेद हो जाता है।।३३।।
एवं उवरिं णवपणअणुदिसणुत्तरविमाणजादा जे।
ते देवा पुणु सम्मा अविरदठाणुव्व णायव्वा।।३४।।
एवं उपरि नवपंचानुदिशानुत्तरविमानजाता ये।
ते देवा: पुन: सम्यक्त्वा अविरतस्थानवज्ज्ञातव्या:।।
इसके ऊपर नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं अत: इनमें चौथा गुणस्थान ही होता है।।३४।।
अनुदिश, अनुत्तर में सम्यग्दृष्टि देवों के ४२ आस्रव हैं, चौथा ही गुणस्थान है।
इति गतिमार्गणा
अथ इंद्रिय मार्गणा, कायमार्गणा
पुंवेदित्थिविगुव्वियहारदुमणरसणचदुहि एयक्खे।।
मणचदुवयणचदूहि य रहिदा अडतीस ते भणिदा।।३५।।
पुंवेदस्त्रीवैक्रियिकाहारकद्विकमनोर१सनाचतुर्भि: एकाक्षे।
मनचतुर्वचनचतुर्भिश्च रहिता अष्टािंत्रशते भणिता:।।
एकेन्द्रिय जीवों में पुरुषवेद, स्त्रीवेद, वैक्रियकद्विक, आहारकद्विक, स्पर्शन इंद्रिय के सिवाय रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र और मन इन पाँच इंद्रियों की अविरति, चार मनोयोग, चार वचनयोग, इन १९ आस्रव से रहित ३८ आस्रव होते हैं।।३५।।
एयक्खे जे उत्ता ते कमसो अंतभासरसणेहिं।
घाणेण य चक्खूहिं य जुत्ता वियलिंदिए णेया।।३६।।
एकाक्षे ये उक्तास्ते क्रमश: अन्तभा२षारसनाभ्यां।
घ्राणेन च चक्षुर्भ्यां च युक्ता विकलेन्द्रिये३ ज्ञातव्या:।।
दो इंद्रिय जीवों में इन्हीं ३८ में अनुभय वचनयोग और रसना इंद्रिय मिलाने से ४० आस्रव होते हैं ऐसे ही तीन इंद्रिय जीवों में घ्राण इंद्रिय मिलाने से ४१ हुये, चतुरिन्द्रिय में एक चक्षु इंद्रिय मिलाने से ४२ हुये, ऐसे समझना चाहिए।।३६।।
इगविगलिंदियजणिदे सासणठाणे ण होइ ओरालं।
इणमणुभयं च वयणं तेसिं मिच्छेव वोच्छेदो।।३७।।
एकविकलेन्द्रियजाते सासादनस्थाने न भवति औदारिकं।
एषामनुभयं च वचनं तयो: मिथ्यात्वे एव व्युच्छेद:।।
एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय में उत्पन्न होने वालों के सासादन गुणस्थान में औदारिक योग, अनुभयवचन नहीं होता है अत: इन दोनों की व्युच्छित्ति मिथ्यात्व गुणस्थान में ही हो जाती है।।३७।।
पंचेंदियजीवाणं तसजीवाणं च पच्चया सव्वे।
पुढवीआदिसु पंचसु एइंदिय कहिद अडतीसा।।३८।।
पंचेन्द्रियजीवानां त्रसजीवानां च प्रत्यया: सर्वे।
पृथिव्यादिषु पंचसु एकेन्द्रिये कथिता अष्टात्रिंशत्।।
पंचेन्द्रिय जीवों में और त्रस जीवों में सभी आस्रव पाये जाते हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पतिकायिक इन पाँच स्थावरों में एकेन्द्रिय के समान ३८ आस्रव होते हैं।।३८।।
भावार्थ-पंचेन्द्रिय जीवों की एवं त्रस जीवों की रचना गुणस्थानवत् समझना। पृथ्वी, जल, वनस्पतिकाय की रचना एकेन्द्रिय में कहे गये प्रथम, द्वितीय गुणस्थानवत् समझना। अग्निकायिक, वायुकायिक जीवों की रचना एकेन्द्रिय में कहे गये प्रथम गुणस्थान में समझना क्योंकि पृथ्वी, जल, वनस्पति में दो गुणस्थान होते हैं एवं अग्निकाय, वायुकाय में मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है।
हारदुगं वज्जित्ता जोगाणं तेरसाणमेगेगं।
जोगं पुणु पक्खित्ता तेदाला इदरयोगूणा।।३९।।
आहारद्विकं वर्जयित्वा योगानां त्रयोदशानां एवैâकं।
योगं पुन: प्रक्षिप्य त्रिचत्वािंरशत् इतरयोगोना:।।
आहारकद्विक को छोड़कर तेरह योग में जिसमें आस्रव को घटित करना है वह एक योग, पाँच मिथ्यात्व, १२ अविरति और २५ कषाय ये ४३ आस्रव होते हैं, सभी में उस योग के सिवाय शेष योग घट जाते हैं अर्थात् औदारिक काययोग में औदारिक काययोग, ५ मिथ्यात्व , १२ अविरति, २५ कषाय रहते हैं, ऐसे तेरह योगों में सभी में अपना-अपना योग मिलाकर शेष घटा देने से ४३-४३ आस्रव होते हैं।।३९।।
ओरालमिस्स साणे संढत्थीणं च वोच्छिदी होदि।
वेगुव्वमिस्स साणे इत्त्थीवेदस्स वोच्छेदो।।४०।।
औदारिकमिश्रस्य सासादने षंढस्त्रियोश्च व्युच्छित्ति: भवति।
वैक्रियिकमिश्रस्य सासादने स्त्रीवेदस्य व्युच्छेद:।।
औदारिकमिश्र के सासादन गुणस्थान में नपुंसकवेद, स्त्रीवेद की व्युच्छित्ति हो जाती है, वैक्रियकमिश्र के सासादन गुणस्थान में स्त्रीवेद की व्युच्छित्ति होती है।।४०।।
तेसिं साणे संढं णत्थि हु सो होइ अविरदे ठाणे।
कम्मइए विदियगुणे इत्थीवेदच्छिदी होइ।।४१।।
तेषां सासादने षंढं नास्ति हु स भवति अविरते स्थाने।
कार्मणे द्वितीयगुणे स्त्रीवेदच्छित्ति: भवति।।
वैक्रियकमिश्र में सासादन में नुपंसकवेद नहीं है किन्तु चौथे गुणस्थान में अवश्य है अर्थात् देवों को वैक्रियकमिश्र होता है, वहाँ नपुंसकवेद है ही नहीं और नरक में होता है तो वहाँ सासादन से मरकर जाता नहीं है। कार्मण काययोग में द्वितीय गुणस्थान में स्त्रीवेद की व्युच्छित्ति होती है।।४१।।
संजलणं पुंवेयं हस्सादीणोकसायछक्कं च।
णियएक्कजोग्गसहिया वारस आहारगे जुम्मे।।४२।।
संज्वलनं पुंवेदं हास्यादिनोकषायषट्कं च।
निजैकयोगसहिता द्वादश आहारके युग्मे।।
आहारक काययोग में चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्यादि नो कषाय छह और आहारक योग ये १२ आस्रव होते हैं, ये ही बारह आहारकमिश्र में होते हैं केवल योग के स्थान में आहारक निकालकर आहारकमिश्र कर दीजिये।।४२।।
आहारकद्विक में छठा गुणस्थान ही होता है उसमें १२ आस्रव हैं।
-वेद मार्गणा-
पुंवेदे थीसंढं वज्जित्ता सेसपच्चया होंति।
इत्थीवेदे हारदु पुंसंढं च वज्जिदा सव्वे।।४३।।
पुंवेदे स्त्रीषंढाभ्यां वर्जिता शेषप्रत्यया भवन्ति।
स्त्रीवेदे आहारद्विकेन पुंषंढाभ्यां च वर्जिता सर्वे।।
पुरुषवेद में स्त्रीवेद, नपुंसकवेद को छोड़कर सभी आस्रव होते हैं। स्त्रीवेद में आहारकद्विक, पुरुषवेद, नपुंसकवेद को छोड़कर ५३ आस्रव होते हैं।।४३।।
मिस्सदुकम्मइयच्छिदी साणे१ संढे ण होइ पुरसिच्छी।
हारदुगं विदियगुणे ओरालियमिस्स वोच्छेदो।।४४।।
मिश्रद्विककार्मणच्छित्ति: सासादने, षंढे न भवत: पुरुषस्त्रियौ।
आहारद्विकं द्वितीयगुणे औदारिकमिश्रस्य व्युच्छेद:।।
स्त्रीवेद के सासादन गुणस्थान में औदारिकमिश्र, वैक्रियकमिश्र और कार्मण की व्युच्छित्ति हो जाती है। नपुंसकवेद में पुरुषवेद, स्त्रीवेद, आहारकद्विक चार आस्रव न होने से ५३ होते है। नपुंसकवेद के द्वितीय गुणस्थान में औदारिकमिश्र की व्युच्छित्ति हो जाती है।।४४।।
तेसिं अवणिय वेगुव्वियमिस्स अविरदे हु णिक्खेवे।
कोहचउक्के माणादिबारसहीण पणदाला।।४५।।
तेषां अपनीय वैक्रियिकमिश्रं अविरते हि निक्षिपेत्।
क्रोधचतुष्के मानादिद्वादशहीना: पंचचत्वािंरशत्।।४५।।
इस नपुंसकवेद के सासादन गुणस्थान में वैक्रियकमिश्र नहीं है परन्तु चतुर्थ गुणस्थान में वैक्रियक मिश्र होता है।।४५।।
विशेष-यहाँ स्त्रीवेद, नपुंसकवेद नव गुणस्थानों में हैं यह भाववेद का कथन है।
अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन इन चारों क्रोध कषायों में चार मान, चार माया और चार लोभ ऐसे १२ कषाय नहीं रहने से ४५ आस्रव होते हैं।।४५।।
ऐसे ही कोष्ठक रचना मानचतुष्क, मायाचतुष्क, लोभचतुष्क में है, अंतर इतना ही है कि संज्वलन मान का नवमें के पंचमभाग में, माया का छठे भाग में एवं लोभ का दशवें गुणस्थान में व्युच्छेद होता है।
माणादितिये एवं इदरकसाएहिं विरहिदा जाणे।
कुमदिकुसुदे ण विज्जदि हारदुगं होंति पणवण्णा।।४६।।
मानादित्रिके एवं इतरकषायै: विरहितान् जानीहि।
कुमतिकुश्रुतयो: न विद्यते आहारद्विकं भवन्ति पंचपंचाशत्।।
मानादि तीनों कषायों में भी इसी प्रकार से इतर कषायों से रहित समझो।
कुमति, कुश्रुत में आहारकद्विक न होने से ५५ आस्रव हैं।।४६।।
वेभंगे वावण्णा कमणमिस्सदुगहारदुगहीणा।
णाणतिये अडदालं पणमिच्छाचारिअणरहिदा।।४७।।
विभंगे द्विपंचाशत् कार्मणमिश्रद्विकाहारद्विकहीना:।
ज्ञानत्रिके अष्टचत्वािंरशत् पंचमिथ्यात्वचतुरनरहिता:।।
विभंग अवधिज्ञान में आहारकद्विक, वैक्रियकमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण, ये पाँच आस्रव न होने से ५२ होते हैं। मति, श्रुत, अवधिज्ञान में पाँच मिथ्यात्व और चार अनंतानुबंधी से रहित ४८ आस्रव होते हैं।।४७।।
मणपज्जे संढित्थीवज्जिदसगणोकसाय संजलणं।
आदि मणवजोगजुदा पच्चयवीसं मुणेयव्वा।।४८।।
मन:पर्यये षंढस्त्रीवर्जितसप्तनोकषाया: संज्वलना:।
आदिमनवयोगयुक्ता: प्रत्ययिंवशति: ज्ञातव्या।।
मन:पर्यय ज्ञान में हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध,मान, माया, लोभ, चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक योग ये २० आस्रव होते हैं। स्त्रीवेद, नपुंसक वेद में मन:पर्ययज्ञान नहीं होता है।।४८।।
ओरालं तंमिस्सं कम्मइयं सच्चअणुभयाणं च।
मणवयणाण चउक्के केवलणाणे सगं जाणे।।४९।।
औदारिकं तन्मिश्रं कार्मणं सत्यानुभयानां च।
मनोवचनानां चतुष्कं केवलज्ञाने सप्त जानीहि।।
केवलज्ञान में औदारिक, औदारिकमिश्र, कार्मण, सत्य मनोयोग, अनुभय मनोयोग, सत्यवचनयोग, अनुभयवचनयोग ये सात आस्रव होते हैंं।।४९।।
मन:पर्ययज्ञान में छठे से बारहवें गुणस्थान तक एवं केवलज्ञान में सयोगी, अयोगी होते हैं।
केवलज्ञान में सयोगी के ७ योग हैं एवं इसी के अंत में व्युच्छित्ति होकर अयोगी योगरहित होते हैं।
अडमणवयणोरालं हारदुगं णोकसाय संजलणं।
सामाइयछेदेसु य चउवीसा पच्चया होंति।।५०।।
अष्टमनोवचनौदारिका आहारद्विकं नोकषाया: सजलना:।
सामायिकच्छेदयोश्च चतुर्विंशति: प्रत्यया भवन्ति।।
सामायिक, छेदोपस्थापना चारित्र में चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक योग, आहारकद्विक, नव नोकषाय, चार संज्वलन ऐसे २४ आस्रव होते हैं।।५०।।
विंसदि परिहारे संढित्थीहारदुगवज्जिया एदे।
सुहुमे णवआदिमजोगा संजलणलोहजुदा।।५१।।
विंशति: परिहारे षंढस्त्री-आहारद्विकवर्जिता एते।
सूक्ष्मे नवादिमयोगा संज्वलनलोभयुता:।।
परिहारविशुद्धि संयम में नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, आहारकद्विक से रहित २० आस्रव होते हैं। सूक्ष्मसांपराय में आदि के नौ योग, संज्वलन लोभ ये १० आस्रव होते हैं।।५१।।
एदे पुण जहखादे कम्मणओरालमिस्ससंजुत्ता।
संजलणलोहहीणा एगादसपच्चया णेया।।५२।।
एते पुन: यथाख्याते कार्मणौदारिकमिश्रसंयुक्ता:।
संज्वलनलोभहीना एकादशप्रत्यया ज्ञेया:।।
यथाख्यात चारित्र में औदारिक मिश्र और कार्मण से सहित एवं संज्वलन लोभ से रहित १०±२·१२, १२-१·११ आस्रव होते हैं।।५२।।
तसऽसंजमवज्जिता सेसऽजमा णोकसाय देसजमे।
अट्ठंतिल्लकसाया आदिमणवजोग सगतीसा।।५३।।
त्रसासंयमवर्जिता: शेषायमा नोकषाया देशयमे।
अष्टौ अन्तिमकषाया आदिमनवयोगा: सप्तत्रिंशत्।।
देशसंयम में त्रसवध से रहित ११ अविरति, नव नोकषाय और प्रत्याख्यान, संज्वलन की ८ कषाय आदि के नव योग ये ३७ आस्रव होते हैं।।५३।।
आहारयदुगरहिया पणवण्ण असंजमे दु चक्खुदुगे।
सव्वे णाणतिकहिदा अडदाला ओहिदंसणे णेया।।५४।।
आहारकद्विकरहिता: पंचपंचाशदसंयमे तु चक्षुर्द्विके।
सर्वे, ज्ञानत्रिककथिता अष्टचत्वािंरशत् अवधिदर्शने ज्ञेया:।।
असंयम में आहारकद्विक से रहित ५५ आस्रव होते हैं।।५४।।
भावार्थ-सामायिक, छेदोपस्थापना छठे गुणस्थान से, नवमें तक, परिहार विशुद्धि छठे-सातवें में, सूक्ष्मसांपराय दशवें में, यथाख्यात चारित्र ११, १२, १३, १४ वें तक होता है। देशसंयम पाँचवें गुणस्थान में होता है एवं असंयम प्रथम से चौथे तक होता है।
चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन में सभी आस्रव हैं। अवधिदर्शन में अवधि ज्ञानवत् ४८ हैं।।५४।।
परिहारविशुद्धि में छठे, सातवें में २० आस्रव होते हैं। सूक्ष्मसांपराय में १० आस्रव हैं।
सगजोगपच्चया खलु केवलणाणव्व केवलालोए।
किण्हतिए पणवण्णं हारदुगं वज्जिऊण हवे।।५५।।
सप्तयोगप्रत्यया: खलु केवलज्ञानवत् केवलालोके।
कृष्णत्रिके पंचपंचाशत् आहारद्विकं वर्जयित्वा भवेत्।।
केवलदर्शन में केवलज्ञानवत् सात योगजन्य आस्रव होते हैं।
भावार्थ-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन में १२ गुणस्थान होते हैं अत:
१२ गुणस्थान तक कोष्ठक रचना है। अवधिदर्शन में कोष्ठक २६ वत् रचना है यहाँ पर गुणस्थान चौथे से १२ तक हैं। केवलदर्शन में सयोगी के सात आस्रव होते हैं।।५५।।
कृष्ण, नील, कापोत लेश्याओं में आहारकद्विक को छोड़कर ५५ आस्रव होते हैं।।५५।।
किण्हदुसाणे वेगुव्वियमिस्सछिदी हवेइ तेउतिए।
मिच्छदुठाणे ओरालियमिस्सो णत्थि अविरदे अत्थि।।५६।।
कृष्णद्विकसासादने वैक्रियिकमिश्रच्छित्ति: भवेत् तेजस्त्रिके।
मिथ्यात्वद्विस्थाने औदारिकमिश्रं नास्ति अविरतेऽस्ति।।
कृष्ण, नील लेश्या में सासादन गुणस्थान में वैक्रियकमिश्र की व्युच्छित्ति होती है। पीत, पद्म, शुक्ल लेश्या में मिथ्यात्व, सासादन गुणस्थान में औदारिक मिश्र नहीं है और चौथे गुणस्थान में है।।५६।।
सुहलेस्सतिये भव्वे सव्वेऽभव्वे ण होदि हारदुगं।
पणवण्णुवसमसम्मे ते मिच्छोरालमिस्सअणरहिदा।।५७।।
शुभलेश्यात्रिके भव्ये सर्वे अभव्ये न भवात्याहारद्विकं।
पंचपंचाशदुपशमसम्यक्त्वे ते मिथ्यात्वौदारिकमिश्रानरहिता:।।
शुभ तीन लेश्याओं में सभी आस्रव हैं। भव्य जीवोें के सभी आस्रव होते हैं। अभव्य जीवों में आहारकद्विक रहित ५५ आस्रव होते हैं। इनमें पूर्वोक्त कोष्ठक रचना समझना।
उपशम सम्यक्त्व में ५ मिथ्यात्व, औदारिकमिश्र, अनंतानुबंधीचतुष्क, आहारकद्विक इन १२ आस्रवों को घटा देने से ४५ आस्रव रहते हैं। गुणस्थान चौथे से ग्यारहवें तक होते हैं।।५७।।
एदे वेदगखइए हारदुओरालमिस्ससंजुत्ता।
मिच्छे सासण मिस्से सगगुणठाणव्व णायव्वा।।५८।।
एते वेदकक्षायिकयो: आहारद्विकौदारिकमिश्रसंयुक्ता:।
मिथ्यात्वे सासादने मिश्रे स्वकगुणस्थानवज्ज्ञातव्या।।
वेदक और क्षायिक सम्यक्त्व में उपर्युक्त ४५ में आहारकद्विक और औदारिक मिश्र मिलाकर ४८ आस्रव होते हैं। वेदक सम्यक्त्व चौथे से सातवें तक रहता है। मिथ्यात्व, सासादन एवं मिश्र में अपने-अपने गुणस्थान के समान व्यवस्था समझना।।५८।।
मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र में गुणस्थानवत् रचना है। क्षायिक सम्यक्त्व में गुणस्थानवत् रचना है, चौथे से चौदह तक गुणस्थान पाये जाते हैं।
सण्णिस्स होंति सयला वेगुव्वाहारदुगमसण्णिस्स।
चदुमणमादितिवयणं अणिंदियं णत्थि पणदाला।।५९।।
संज्ञिन: भवन्ति सकला वैक्रियिकाहारद्विकमसंज्ञिन:।
चतुर्मनांसि आदित्रिवचनानि अनिन्द्रियं न संति पंचचत्वािंरशत्।।
संज्ञी जीवों में संपूर्ण आस्रव होते हैं। असंज्ञी जीवों में आहारकद्विक, वैक्रियकद्विक, चार मनोयोग, सत्यवचन योग, असत्यवचनयोग, उभयवचनयोग, मननिमित्तक अविरति ये १२ आस्रव नहीं होते हैं।।५९।।
संज्ञी जीवों में गुणस्थान १२ होते हैं अत: गुणस्थानवत् रचना समझना। असैनी में दो गुणस्थान होते हैं। यथा-
कम्मइयं वज्जित्ता छपण्णासा हवंति आहारे।
तेदाला णाहारे कम्म १इयरजोगपरिहीणा।।६०।।
कार्मणं वर्जयित्वा षट्पंचाशद्भवन्त्याहारे।
त्रिचत्वािंरशदनाहारे कार्मणेतरयोगपरिहीना:।।
आहारक अवस्था में कार्मण योग को छोड़कर ५६ आस्रव होते हैं। अनाहारक अवस्था में कार्मणयोग के सिवाय चौदह योगों से रहित ४३ आस्रव होते हैं। आहारक में पहले से लेकर तेरह तक गुणस्थान होते हैं।
अनाहारक में प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ और सयोगी ये गुणस्थान होते हैं।।६०।।
इदि मग्गणासु जोगो पच्चयभेदो मया समासेण।
कहिदो सुदमुणिणा जो भावइ सो जाइ अप्पसुहं।।६१।।
इति मार्गणासु योग्य: प्रत्ययभेदो मया समासेन।
कथित: श्रुतमुनिना यो भावयति स याति आत्मसुखं।।
इस प्रकार से मार्गणाओं में योग्य आस्रव के भेदों को मुझ श्रुतमुनि ने संक्षेप से कहा है, जो भव्य जीव पठन, पाठन, मनन करके इसकी भावना करते हैं वे आत्मसुख को प्राप्त कर लेते हैं।।६१।।
पयकमलजुयलविणमियविणेयजणकयसुपूयमाहप्पो।
णिज्जियमयणपहावो सो वालिंदो चिरं जयऊ।।६२।।
पदकमलयुगलविनतविनेयजनकृतसुपूजामाहात्म्य:।
निर्जितमदनप्रभाव: स बालेन्द्र: चिरं जयतु।।
जिनके चरणकमल युगल में विनत हुये, विनेय शिष्यजन जिनकी पूजा माहात्म्य को करते हैं, जिन्होंने कामदेव के प्रभाव को जीत लिया है, ऐसे वे श्री बालचंद्र मुनिराज इस पृथ्वी पर चिरकाल तक जयशील होवें।।६२।।
इति श्री श्रुतमुनि विरचित आस्रव त्रिभंगी समाप्ता।
इस प्रकार से मार्गणा में आस्रव त्रिभंगी का प्रकरण पूर्ण हुआ।
।। मंगलं भूयात् ।।