(‘‘विद्या ददाति विनयं’’)
मंच पर सूत्रधार प्रवेश करके कहता है—
प्यारे भाईयों एवं बहनों!
मार्दव धर्म मृदुता से उत्पन्न होता है । मान कषाय के साथ इस धर्म की पूर्ण शत्रुता है । ज्यों-ज्यों आपके हृदय से अहंकार नष्ट होता जाएगा त्यों-त्यों इस गुण का विकास प्रारम्भ होगा एवं पूर्ण अहंकार के नाश हो जाने पर आप उत्तम मार्दव धर्म से युक्त परमात्म पद प्राप्त कर सकते हैं।
वास्तव में मानव का मान — अहं ही समस्त अनर्थों का मूल है इसीलिए वह इंसान से कभी-कभी हैवान भी बन जाता है । मान— अहंकार और इससे विपरीत मृदुता—नम्रवृत्ति (विनय) इन दोनों के बीच द्वन्द्व के साथ प्रस्तुत है एक रूपक — अहंकार के कितने रूप ?
(मंच पर मान/ अहंकार नामक एक व्यक्ति हाथ में थैला आदि सामान लिए प्रवेश करता है और गीत गाता हुआ टहल रहा है)—
तर्ज-मेरा जूता है जापानी ……..
अहंकार— मेरा अहंकार है नाम, सारे जग में मेरी शान ,
आओ मेरे भाई बहनों! सीखो मुझसे मेरा काम।- २
मस्तक ऊँचा करना सीखो , थोड़ा अकड़ के चलना सीखो,
कभी न झुकना किसी के सम्मुख, ये ही मान का है वरदान ।। ……२
हंसता है — अ: ह: ह: ह: …… कितनी सुंदर सूक्ति मैंने बताई है तुम सभी लोगों को।
मैं तुम सबको आह्वान करता हूँ आओ ! मेरे पास वह बहू आवे जिसकी सास से न बनती हो, वह शिष्य आवे जिसके गुरू से न पटती हो, वह पुत्र आवे जिसकी बाप से न बनती हो, मैं सबको एक जड़ी—बूटी दूँगा जिससे उन लोगों की अकल ठिकाने लग जायेगी। फिर हंसता है और थैले से कुछ बूटियाँ निकालकर दिखाता है इतना सुनते ही २-३ स्त्री-पुरूष उसके पास आकर अपना दुखड़ा कहने लगते हैं—
एक स्त्री—अरे बाबा! मुझे तो कोई अच्छी सी जड़ी-बूटी दे दो ताकि
मेरी सासू मेरे बस में हो जाए । उसके पास बड़ा माल है, बस, उसकी चाबी मुझे मिल जावे। भला मैं उसकी सेवा कब तक करूंगी ?
एक लड़का—सुनो बाबा, मुझे तो ऐसा मंत्र चाहिए कि स्कूल के सारे मास्टरजी मुझे बिना पढ़े पास कर दें और सारे स्कूल में मेरा खूब रौब जमा रहे।
दूसरा लड़का— बस तंग आ गया हूँ पिताजी से । हर वक्त दुकान पर ही बैठे रहते हैं । किसी दोस्त को अपने मन से चाय भी नहीं पिला सकता। वैâसे इस पराधीनता से छूटूँ ? रे बाबा, है कोई जादू—टोना तेरे पास , जिससे पिताजी अपने आप मुझे सारी जिम्मेदारी सौंप दें। बस मैं तो सुखी हो जाऊँगा।
अहंकार— बैठो-बैठो, घबड़ाओ मत, मेरे पास तुम सबके दुःखों की दवा है। बस, दो-चार दिन में ही सबकी समस्या हल हो जायेगी। न कोई जड़ी और न बूटी, सुन लो मेरी बात अनूठी।
सभी लोग— तो जल्दी बताओ बाबा, जल्दी।
अहंकार— अरे भाई ! तुम सब मानव हो। किसी के सामने झुकना तुम्हारा अपमान है।ऐ बहू! देख, जरा घर में अकड़कर रहा कर, सबके साथ घमंड से बात किया कर फिर तो तेरी सास तेरे खूब नखरे देखेगी और अपने आप तुझे मालकिन बनाएगी। और मेरे बच्चों सुनो ! स्कूल हो या घर, जरा रौब दिखाकर , मूँछों पर ताव देते हुए घुसा करो तो स्वयं ही तुमसे सब डरेंगे । आजकल बिना गुण्डागर्दी के कोई भी नहीं डरता है।
(इतने में ही एक मृदुता नामक लड़की मंच पर आती है और इस प्रकार से सबको भड़काते देखकर कहती है।)
मृदुता—अरे बाबा ! ऐसी शिक्षाएं देकर आप हमारी समाज और देश को कहाँ ले जाना चाहते हैं ?
अहंकार—तो क्या देवी ! ये लोग अपने सिर सबके पैरों में रगड़ते फिरें। अब पुराने जमाने की बातें छोड़ दो । मानव का मस्तक उत्तमांग है, कोई नारियल थोड़े ही है जहाँ पाया वही फोड़ दिया।
मृदुता—
(गीत) सुनो रे सुनो अहंकार की कहानी,
इसकी है सबसे बड़ी ये निशानी,
मान कषाय के वश में होकर किसी की एक न मानी।। सुनो रे………
रावण ने इस मान के कारण, सीताजी का हरण किया था
सबके समझाने पर भी नहिं, राम को उसने नमन किया था।
जिसके कारण लंका जल गई स्वयं मरा अभिमानी —सुनो रे सुनो…।।१।।
(सभी लोग उस लड़की के आसपास खड़े होकर गीत सुनने लग जाते हैं।)
मृदुता अपना गीत गाती है—
अहंकार को कभी न पालो, यदि अपना हित चाह रहे तुम।
तुम बदलोगे जग बदलेगा, यदि विनम्र व्यवहार करो तुम।।
सारी चीजें स्वयं मिलेंगी, विनय की यही निशानी ।। सुनो रे……..।।२।।
मृदुता कहती है—
सुनो मेरी प्यारी बहनों और भाइयों ! अपने जीवन में कभी मान-घमंड को स्थान मत देना । खुशहाल जीवन का राज है—नम्रता, मृदुता । जहाँ छोटे लोग अपने से बड़ों की पग-पग पर विनय करते हैं वहाँ बड़े स्वयं उन्हें अपना अधिकार सौंप देते हैं। अधिकार कभी अहंकार के बल पर प्राप्त नहीं हो सकते, विनयी बनकर कर्तव्य पालन करने से अधिकार तो तुम्हारे चरणों में खेलेंगे।
अहंकार— तुम तो मेरी सारी मेहनत पर पानी फेरना चाहती हो। यह उपदेश जाकर किसी साधु सभा में देना, यहाँ तो संसार की बातें चल रही हैं जहाँ थोड़ा बहुत गर्व किए बिना काम ही नहीं चल सकता । देखो! भगवान् रामचन्द्र को भी कितना गर्व था अपने कुल और परिवार का ।
मृदुता— यही तो भूल कर रहे हो , रामचन्द्र को अपने कुल का गर्व नहीं बल्कि गौरव था। गर्व और गौरव में महान अन्तर होता है । गर्व से अपना और दूसरे का अहित होता है लेकिन गौरव से आत्मसम्मान बढ़ता है। यदि रामचन्द्र को घमण्ड ही होता तो वे पिताजी के वचनों का पालन न करके अपने बाहुबल से अयोध्या का राज्य उसी दिन प्राप्त कर लेते किन्तु वे तो पिता के वचनों की रक्षा हेतु निर्जन वन में निकल पड़े। उनके लिए आज भी पंक्तियाँ कही जाती हैं—
रघुकुल रीति सदा चली आई ।
प्राण जायं पर वचन न जाई।।
(पास में खड़ी महिला कहती है)-
महिला—तो फिर आप ही बताइए बहन ! मैं क्या उपाय करूँ जिससे मेरी सासू का धन मुझे मिल जावे।
मृदुता—यह तो बड़ा आसान है, आप इतना परेशान क्यों होती हैं ? मैं आपसे पूछती हूँ कि क्या आपने अपने पीहर में अपनी माँ की चाबी से भी इतना राग किया था ? यदि नहीं, तो ससुराल में इतनी उतावली क्यों ? पहले आप बहू के कर्त्तव्यों का पालन तो करें, सासूजी के मनोनुकूल प्रवृत्ति करें, सभी ननद, देवर, जेठ आदि के साथ विनय का व्यवहार करें। सबसे बड़ी समझदारी की बात तो यह है कि अपने पति की कमाई पर भरोसा करें। दूसरे की संपत्ति हड़पने का भाव भी मन में न आने दें इससे व्यक्ति कभी भी धनवान नहीं बन सकता। मेरी प्यारी बहना ! यदि तुम देश की एक आदर्श नारी बनना चाहती हो तो आज से ही अपने घरेलू व्यवहार को नम्रता में बदल दो। जैसे वृक्ष में फल लगते ही वह झुक जाता है न कि तन कर खड़ा हो जाता है उसी प्रकार गुणरूपी फलों से युक्त व्यक्ति सदैव झुकता है न कि घमंड करता है ।
दोनों लड़के— और बहन! हम लोगों को क्या करना चाहिए ?
मृदुता— आप तो हमारे देश के महान कर्र्णधार हैं। घमण्ड को स्थान देना आपके लिए कतई शोभा नहीं देता । देखो! अपने इतिहास को, महात्मा गांधी ने अपने नम्र व्यवहार से अंग्रेजों को भी झुका लिया अपने चरणों में। उन्हें आज भी प्यार से सभी राष्ट्रपिता कहते हैं।
आप लोग अपने माता-पिता एवं गुरुओं की पूरी विनय करें तो आपको थोड़ा परिश्रम करने पर भी अधिक फल मिलेगा क्योंकि संसार में माता-पिता और गुरू ही सच्चे हितैषी होते हैं वे कभी तुम्हें गलत बनने की सलाह नहीं दे सकते। कडुवी दवाई के समान अभी भले ही उनके वचन तुम्हें कटु प्रतीत होंगे किंतु जीवन को खुशहाल बनाने में वे वचन ही असली औषधि का काम करेंगे।
(अहंकार की ओर दृष्टिपात करती हुई मृदुता कहती है)
मृदुता— भाई अहंकार जी! आप मेरी बातों का बुरा मत मानना । हम तो किसी व्यक्ति से घृणा नहीं करते बल्कि उसके अवगुणों से घृणा करते हैं।यदि आप अहंकार को अपने जीवन से निकाल दें तो सभी लोग आपकी पूजा करने लग जाएँगे। किसी व्यक्ति से घृणा नहीं करते अपितु उसके अवगुणों से घृणा करते हैं।
अहंकार— मेरा अहंकार ही नाम, मेरा अहंकार ही काम,
यदि मैं इसको ही तज दूँ तो वैâसे मेरा चलेगा नाम।
मेरे अहंकार गुण को छोड़कर तो मेरा अस्तित्व ही क्या रह जाएगा? तुम्हारा प्रभाव मेरे ऊपर तो पड़ नहीं सकता । हाँ, जो मुझे पराजित कर देगा मैं उसके साथ कुछ भी अहित नहीं करूंगा लेकिन अपना व्यापार तो चलाऊँगा ही, वर्ना धन्धा चौपट हो जायेगा।
मृदुता—खैर ! तुम तुम्हारी जानो । मैं तो सारी दुनिया के लिए यही कहूंगी कि विनय के बल पर संसार की क्या मोक्ष की सम्पत्ति भी मिल जाती है अत: अहंकार से दूर रहकर विनय गुण अपनावें। एक छोटी सी पौराणिक कथा के द्वारा मैं इसका मर्म बताती हूँ — एक गुरूजी के पास दो शिष्य निमित्तशास्त्र पढ़ते थे। उनमें से एक बड़ा घमण्डी था और दूसरा विनयी था। एक बार दोनों शिष्य कहीं देशाटन को जा रहे थे। (मंच पर एक ओर दो बालकों को पगडंडी पर चलते हुए दिखाएं। पगडंडी की दोनों ओर छोटे-छोटे पेड़ हैं) —
घमंडी शिष्य—मेरा निमित्त शास्त्र कहता है कि इस रास्ते से अभी कोई हाथी निकलकर गया है ।
विनयी—भााई! मुझे तो लगता है कि इस रास्ते से कोई हथिनी निकली हो जो एक आँख से कानी है और उस हथिनी के ऊपर कोई गर्भवती रानी बैठी थी।
घमंडी शिष्य—नहीं, नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता है। मैं जो कहता हूँ वही ठीक है। देखो! साफ हाथी के पैर दिख रहे हैं।
मृदुता सुनाती है—दूसरा लड़का बेचारा चुप हो जाता है । दोनों चलते-चलते एक नगर में पहुंचते हैं। वहां मनाई जा रही खुशियां देखकर दोनों मित्र एक व्यक्ति से पूछते हैं । मंच पर किनारे एक व्यक्ति दिखावें।
दोनों मित्र—अरे भाई ! आज क्या बात है, यहां इतनी खुशियाँ क्यों मनाई जा रही हैं ?
व्यक्ति—अभी—अभी यहाँ राजमहल में रानी को पुत्र हुआ है इसीलिए खुशियाँ मनाई जा रही हैं। जाओ, जाओ, राजा आज सबको दान बांट रहे हैं, तुम्हें भी देंगे।
विनयी—क्यों भाई! क्या वह रानी अभी इसी मार्ग से हथिनी पर बैठकर गईं थीं ?
व्यक्ति—हाँ, हाँ अभी—अभी हथिनी पर बैठकर घूमती हुई इसी रास्ते से रानी साहब पधारी ही थीं कि पुत्ररत्न की प्राप्ति हो गई।
विनयी—क्या वह हथिनी कानी थी ?
व्यक्ति—हाँ ! वह तो जन्म से ही एक आंख से अन्धी है, लेकिन आपको यह वैâसे पता लगा?
मृदुता कहती है —
(इतना सुनकर घमंडी शिष्य का मुंह उतर जाता है, पुनः दोनों चलते-चलते एक तालाब के पास पहुँचते हैं।वहाँ एक बुढ़िया पानी भरकर घड़ा सिर पर रखे हुए घर जा रही थी। रास्ते में दो पण्डित देखकर रुक जाती है और खड़ी-खड़ी उनसे पूछने लगती है)
(एक बुढ़िया मिट्टी का घड़ा सिर पर लिए दिखावें, उसमें थोड़ा पानी भी हो)
बुढ़िया— अरे पण्डित जी। जरा मेरे एक प्रश्न का उत्तर बता दोगे ?
दोनों मित्र— पूछो माँ जी, पूछो, क्या पूछ रही हो ?
बुढ़िया—बारह वर्ष हो गए , मेरे बेटे को विदेश गए हुए । उसका कोई समाचार नहीं है, वह वापस मेरे पास आएगा या नहीं ?
घमंडी— (तपाक से बोल पड़ा) अरी बुढ़िया! तेरा लड़का अब वापस नहीं आएगा।
मृदुता— (इतना सुनते ही बुढ़िया घबड़ा गई और उसका घड़ा गिरकर फूट गया, तब वह घमंडी बोला कि तेरा लड़का तो मर गया। लेकिन तभी विनयी शिष्य बोल पड़ा)
विनयी— घबड़ाओ मत माँ जी ! तुम्हारा बेटा मिलने ही वाला है, जाओ घर में जाकर देखो।
बुढ़िया— (रोती हुई) बेटा, तेरे मुँह में घी-शक्कर ( दौड़कर घर जाती है)
मृदुता—घर जाते ही उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, बेटा सामने खड़ा था । बारह वर्ष के बिछड़े माँ-बेटे मिल जाते हैं । बुढ़िया जल्दी वापस आकर पण्डितजी को खूब बधाइयाँ देती है । यह देखकर घमंडी शिष्य और भी उदास हो गया । दोनों वापस गुरुजी के पास आ जाते हैं । घमण्डी शिष्य गुरूजी से कहता है! —
(गुरू और दोनों शिष्य मंच पर आते हैं)
शिष्य — (झुककर प्रणाम करते हुए) नमस्कार गुरूजी!
घमण्डी— (खड़े—खड़े ही हाथ जोड़कर ) नमस्कार महाराज!
गुरूजी— क्यों बच्चों। सकुशल यात्रा हो गई ?
घमण्डी— (गुस्से में) आपने हम दोनों को निमित्त शास्त्र पढ़ाने में बहुत पक्षपात किया है। आपने इसे पता नहीं क्या-क्या अलग से पढ़ा दिया और मुझे वे विषय बताए भी नहीं। इसीलिए मेरी बातें झूठी हो गईं।
गुरूजी— मैने कभी भी उसे अलग से नहीं पढ़ाया, सब कुछ तुम दोनों को साथ ही पढ़ाया है। जरूर तुमने अपने घमण्ड में आकर कोई गलती की है। मैं सदैव तुम लोगों से यही कहा करता हूँ कि हर जगह विनय से काम लो , सोच-समझ कर उत्तर दो, लेकिन तुम तो मेरी मानते कब हो ? अच्छा बोलो क्या हुआ?
घमंडी—अपने लाड़ले शिष्य से ही पूछो कि रास्ते में हाथी के पैर स्पष्ट देखकर हथिनी का अनुमान, उसके कानी होने का और गर्भवती रानी को उस पर बैठने की सारी बातें वैâसे जान गया ?
गुरूजी—(विनयी शिष्य की ओर देखते हुए) क्यों वत्स ! तुम सत्य बताओ, तुमने वैâसे यह सब बताया ?
विनयी—गुरुदेव। वे पैर हाथी के पैर से छोटे थे इसलि मैंने हथिनी का पैर बताया । दूसरी बात आपने हम सभी को बताई थी कि हथिनी पर राजघराने की रानियाँ बैठा करती हैं। एक जगह मार्ग में हथिनी के बैठने के और रानी के हाथ टेककर उतरने के चिन्ह थे अतः मैंने सोचा कि गर्भवती रानी ही हाथ टेककर उतरेगी इसीfिलए मैंने ऐसा बताया । तीसरी बात हथिनी कानी वैâसे बताई सो सुनिये —पगडंडी के दोनों ओर पेड़ पौधे थे उनमें से एक ओर के पेड़—पौधे खाए हुए उजड़े मालूम पड़ते थे दूसरी ओर के बिलकुल ठीक थे इसीलिए मैंने अनुमान लगाया कि हथिनी कानी अवश्य होगी अन्यथा दोनों ओर के पौधे खाती।
गुरूजी—(घमंडी की ओर देखकर) सुनी तुमने इसकी बातें! मैंने सारी बातें दोनों को साथ ही बताई थी न ! अच्छा सुनाओ, दूसरी क्या घटना है ?
घमंडी— गुरूजी ! मैंने बुढ़िया के प्रश्न के समय उसका चेहरा उदास देखकर बताया कि तेरा बेटा नहीं आएगा, फिर घड़ा फूटा देखकर बताया कि बेटा मर गया है । यही तो आपने बताया था लेकिन मेरी बात झूठी निकल गई।
गुरूजी— (विनयी की ओर देखकर ) तुमने क्या बताया ?
विनय— गुरुदेव । यद्यपि निमित्त तो कुछ ऐसा ही बता रहा था किन्तु बुढ़िया के सिर से घड़ा गिरकर फूटते ही पानी उसी नदी में मिल गया अतः इस मिलन को देखकर मैंने बताया कि लड़का आ चुका है । आपने यही तो बताया था, मुझे लगता है कि ये भाईसाहब पाठ भूल गए हैं और जल्दी में इन्होंने ऐसा उत्तर दे दिया।
(घमंडी शिष्य शर्मिन्दा सा मुँह लटकाए खड़ा है, गुरूजी उसे संबोधित करते हुए कहते हैं)
गुरूजी—देखो बेटा! यदि घमण्ड से तुम पढ़ोगे तो कभी भी पूर्ण ज्ञान अर्जित नहीं कर सकते । गुरू की विनय, शास्त्र की विनय, सहपाठियों की विनय से ज्ञान सदैव बढ़ता है। तुम्हें उसका फल भी मिल चुका है अतः अपने इसी मित्र की भाँति विनयी बनोगे तो समस्त शास्त्रों में पारंगत हो जाओगे। गुरू की समस्त विद्याएँ तुम्हें प्राप्त करने में देर नहीं लगेगी।
(मंच पर खड़े अहंकार तथा अन्य समस्त स्त्री-पुरूषों से मृदुता कहती है)—
मृदुता— देखा तुमने अहंकार का फल। इसके कारण प्राप्त हुई विद्याएँ भी पलायमान हो जाती हैं। अब आप लोग स्वयं निर्णय करें कि आपको मान अच्छा लगता है या मार्दव ?
सभी एक साथ—हम तो मार्दव धर्म को ही स्वीकार करेंगे। (गीत गाते हैं)—
मार्दव धरम हम सबको विनयभाव सिखाता ।
मत मान औ घमण्ड करो पाठ पढ़ाता।। तुम मान वश में किसी भी पर को न सताना।
अमृत न दे सको तो कभी विष न पिलाना।।१।।
यदि प्यार से बोलोगे सभी मित्र बनेंगे।
मानी पुरुष के जग में सभी शत्रु बनेंगे।।
रहता न अहंकार चक्रवर्तियों का भी ।
हम क्षुद्र प्राणियों की क्या गणना हुआ करती।।२।।
परिवार में भी नम्रता से शांति बनेगी।
मृदुता से ही समाज में शुभ क्रान्ति बढ़ेगी।
भारत के सपूतों ! यदी तुम नम्र बनोगे।
श्री राम सदृश देश के सरताज बनोगे।।३।।
उत्तम धरम मार्दव को मुनीश्वर ही पालते ।
निज आत्म में रमण करें सब मद को टाल के।।
हम तुम भी एकदेश रूप धर्म को करें ।
तब ‘‘चन्दनामती’’ सभी गुण स्वयं को वरें।।४।।
‘‘बोलिए उत्तम मार्दव धर्म की जय’’