जो जीव मिथ्यात्व से ग्रस्त होता है, उसकी दृष्टि विपरीत हो जाती है। उसे धर्म भी रुचिकर नहीं लगता, जैसे ज्वरग्रस्त मनुष्य को मीठा रस भी अच्छा नहीं लगता। यो यथावादं न करोति, मिथ्यादृष्टि: तत: खलु क: अन्य:। वर्धते च मिथ्यात्वं, परस्य शंकां जनयमान:।।
जो तत्त्व—विचार के अनुसार नहीं चलता, उससे बड़ा मिथ्यादृष्टि और दूसरा कौन हो सकता है ? वह दूसरों को शंकाशील बताकर अपने मिथ्यात्व को बढ़ाता रहता है। तं मिच्छत्तं जमसद्दहणं, तच्चाण होदि अत्थाणं।
तत्त्वार्थ के प्रति श्रद्धा का अभाव ही मिथ्यात्व है। जो ण पमाणणयेहिं, णिक्खेवेणं णिरिक्खदे अत्थं। तस्साजुत्तं जुत्तं, जुत्तमजुत्तं च पडिहादि।।
जो प्रमाण, नय और निक्षेप के द्वारा अर्थ का बोध नहीं करता, उसे अयुक्त युक्त और युक्त अयुक्त प्रतीत होता है। मिच्छत्तपरिणदप्पा, तिव्वकसाएण सुट्ठु आविट्ठो। जीवं देहं एक्कं, मण्णंतो होदि बहिरप्पा।।
मिथ्यात्व से ग्रस्त होने वाला जीव तीव्र कषायों से आविष्ट होकर आत्मा और शरीर को एक ही माना करता है। वह बहिरात्मा होता है।