ग.प्र.आ.शि.ज्ञानमती माताजी : संयोगवश मेरे पूर्वजन्म के संस्कार भी ऐसे द्रुढ थे कि मैंने इतनी छोटी उमर् में घर में त्योहारों पर मिथ्यात्व पूजना और बायना निकालना बंद करा दिया था। पद्मनंदिपंचविंशतिका शास्त्र का स्वाध्याय कर तथा छहढाला पढ़कर मैं मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का लक्षण समझ चुकी थी। कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु को पूजना मिथ्यात्व है जो कि अनंत संसार में घुमाने वाला है और सच्चे देव, शास्त्र, गुरु पर दृढ़ श्रद्धा रखना सम्यग्दर्शन है जो कि संसार के जन्ममरण के दुखों से छुटाने वाला है इतना मैं समझ लेती थी।
एक समय की घटना है-पड़ोस में एक सोलह वर्ष के जवान पुत्र को चेचक निकली। उनकी माँ हर किसी के कहने से नीम के वृक्ष पूजना, ‘‘माता निकली है’’ ऐसा कहकर शीतला माता की पूजा के लिए मालिन को पूजा सामग्री देना आदि करने लगीं। उन्हीं दिनों मेरे घर में छोटे भाई प्रकाशचंद और सुभाषचंद को भी बहुत जोरों से चेचक निकल आई। अड़ोस-पड़ोस के व घर की दादी, बुआ आदि सभी ने माँ से कहा कि- ‘‘शीतला माता की पूजा के लिए मालिन को सामग्री दे दो, तुम मिथ्यात्व मत करो, मालिन को सामग्री देने में क्या होता है? बहुत भयंकर माता निकली है। पता नहीं क्या अनिष्ट हो सकता है?’’
उस प्रांत में उस समय अग्रवाल वैष्णव के संस्कारों से जैन अग्रवालों के यहाँ भी घर-घर में महिलाएं करुवा चौथ आदि त्यौहार मनाया करती थीं। जिसमें घर में गौरी बनाकर उसको फूल चढ़ाना, सिन्दूर लगाना, माथा झुकाना आदि करतीं पुनः नैवेद्य-पकäवान चढ़ाकर सास, ननद आदि को बायना देती थीं।