विपरीत या गलत धारणा का नाम मिथ्यात्व है अथवा सच्चे देव, शास्त्र गुरू पर श्रद्धान न करना या झूठे देव, शास्त्र, गुरू का श्रद्धान करना मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व के उदय से जीव को सच्चा धर्म नहीं रुचता है।
जैसे—पित्त के रोगी को दूध भी कड़वा लगता है। इसके मुख्य दो भेद हैं-गृहीत और अगृहीत। पर के उपदेश आदि से कुदेवादि में जो श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है, उसे गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं। अनादिकाल से बिना किसी के उपदेश के शरीर को ही आत्मा मानना व पुत्र, धन आदि में अपनत्व करना अथवा कुदेवादि की भक्ति करना अगृहीत मिथ्यात्व है।
मिथ्यात्व के पाँच भेद हैं-एकान्त, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान। जीवादि वस्तु को सर्वथा नित्य अथवा अनित्य ही मानना इत्यादि एकान्त मिथ्यात्व है। अधर्म को धर्म मानना विपरीत मिथ्यात्व है जैसे-यह मानना कि िंहसा से स्वर्गादि की प्राप्ति होती है।
सच्चे देव-गुरु तथा झूठे देव-गुरु आदि सबकी समान विनय करना विनय मिथ्यात्व है। सच्चे या झूठे धर्म में से किसी एक का निश्चय न होना संशय मिथ्यात्व है। जैसे-वस्त्र सहित वेष से मोक्ष होता है या निग्र्रन्थ मुद्रा से, इत्यादि संशय करते रहना। जीवादि पदार्थों को ‘यही है, इसी प्रकार से है’ इस तरह सही स्वरूप को न समझना अज्ञान मिथ्यात्व है।
इस तरह सामान्य से मिथ्यात्व के पाँच भेद हैं। अधिक भेद करने से ३६३ भेद भी होते हैं अथवा विस्तार से असंख्यात लोकप्रमाण भेद भी हो जाते हैं। श्रीवंदक की कथा कानपुर के राजा धनदत्त का मंत्री श्रीवंदक बौद्धधर्मी था। एक दिन राजा और मंत्री राजमहल की छत पर कुछ विचार-विमर्श कर रहे थे। अकस्मात् आकाशमार्ग से आते हुए दो चारण ऋद्धिधारी मुनि दिखे। राजा ने विनय से नमस्कार करके उन्हें काष्ठासन पर विराजमान किया। मुनिराज ने वहीं पर धर्मोपदेश दिया। उनसे प्रभावित होकर श्रीवंदक मंत्री ने सम्यक्त्व सहित श्रावक के व्रत ग्रहण कर लिए। उस दिन श्रीवंदक अपने बौद्ध गुरुओं की वन्दना के लिये नहीं गया। यह देख बौद्ध गुरु ने उसे बुलाया, तब उसने नमस्कार नहीं किया और सारी बातें बता दीं। बौद्ध संघश्री ने उसे अनेकों उपायों से उपदेश देकर वापस बुद्धधर्मी बना लिया। बेचारा श्रीवंदक फिर संघश्री गुरु की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गया और सम्यक्त्व से चलित हो गया।
दूसरे दिन राजसभा में राजा ने बड़े आनन्द से चारण ऋद्धिधारी मुनियों के आने का समाचार सुनाया। उनमें से कुछ लोग आश्चर्य से राजा की तरफ देख रहे थे। राजा ने अपनी बात के समर्थन के लिए मंत्री से कहा-मंत्री जी! कल मध्यान्ह की घटना का शुभ समाचार सुनाइये। मंत्री ने कहा-महाराज! मैंने तो मुनियों को नहीं देखा और यह बात सम्भव भी नहीं कि कोई मनुष्य आकाश में चल सके। पापी श्रीवंदक का इतना कहना ही था कि उसी समय उसकी दोनों आंखें मुनििंनदा और मिथ्यात्व के पाप से पूâट गयीं। उक्त घटना को देखकर राजा वगैरह ने जिनधर्म की खूब प्रशंसा की और सभी सभासदों ने प्रत्यक्ष में मिथ्यात्व का दुष्परिणाम देखकर जैनधर्म को धारण कर लिया। पाठकों! अनंतकाल तक संसार में दु:ख देने वाले मिथ्यात्व को दूर से ही छोड़ देना चाहिये और आत्मा को परमात्मा बनाने में समर्थ इस सम्यक्त्व-रत्न को ग्रहण करना चाहिये।