तज्जयति परं ज्योति:, समं समस्तैरनंतपर्यायै:।
दर्पणतल इव सकला, प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र।।
आचार्य श्री अमृतचंद्रसूरि परमागम के प्रमाणस्वरूप अनेकांत को नमस्कार करके कहते हैं कि व्यवहार और निश्चय को जानने वाले ही इस जगत में तीर्थ की प्रवृत्ति करते हैं। निश्चयनय भूतार्थ है और व्यवहारनय अभूतार्थ है, प्राय: करके यह संसार भूतार्थ ज्ञान से विमुख हो रहा है। आचार्य का कहना है कि अज्ञानीजनों को समझाने के लिए अभूतार्थ-व्यवहार का उपदेश करना ही चाहिए और जो केवल व्यवहार को ही साध्य समझते हैं उनके लिए उपदेश नहीं है। कहा भी है कि यदि जिनमत में प्रवृत्ति करना चाहते हो, तो व्यवहार और निश्चय को मत छोड़ो क्योंकि व्यवहार के बिना धर्मतीर्थ का एवं निश्चय के बिना तत्त्व का अभाव हो जावेगा।
जीव के लिए किये हुए रागादि परिणामों का निमित्त मात्र पाकर अन्य पुद्गल स्कंध स्वत: ही कर्मरूप परिणत हो जाते हैं और अपने चेतनास्वरूप रागादि परिणामों की परिणति के लिए जीव के भी पुद्गल संबंधी ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्म कारण मात्र हो जाते हैं। विपरीत श्रद्धान को छोड़कर और सम्यक् प्रकार से निज तत्त्व को समझकर जो उस अपने स्वरूप से च्युत नहीं होता है उस ही पुरुष के मोक्ष की सिद्धि का उपाय है। इस रत्नत्रय रूप पद को प्राप्त हुए मुनियों की प्रवृत्ति पाप क्रियाओं से सर्वदा पराङ्मुख तथा परद्रव्यों से सर्वथा उदासीन रूप और अलौकिक होती है। जो जीव बारम्बार दिखलाई हुई पापरहित मुनिवृत्ति को कदाचित् ग्रहण न कर सके तो उसे एकदेशरूप गृहस्थ धर्म का उपदेश देना चाहिए अर्थात् आचार्य कहते हैं कि जो जीव उपदेश सुनने के इच्छुक हैं उन्हें पहले मुनिधर्म का उपदेश देना चाहिए।
आचार्यश्री अमृतचन्द्रसूरि ने पुरुषार्थसिद्धि उपाय में कहा है-
यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमति:।
तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानं।।
अर्थात् जो अल्पज्ञ उपदेशक मुनिधर्म का उपदेश न दे करके श्रावकधर्म का उपदेश देता है उस उपदेशक को जिनेन्द्र भगवान के सिद्धान्त में प्रायश्चित्त का भागी बतलाया है क्योंकि अक्रम से कथन करने से वह श्रोता अत्यंत दूर तक उत्साहित होता हुआ भी तुच्छस्थान में संतुष्ट होकर ठगाया जाता है। मतलब किसी शिष्य को प्रारंभ में अत्यधिक उत्साह रहता है। पहले ही उत्तम वस्तु का लाभ मिल जाने से वह उसे ग्रहण भी कर लेता है किन्तु तुच्छ श्रावकधर्म को सुनकर वह उसमें ही संतुष्ट हो गया अतएव पहले मुनिधर्म का ही उपदेश देना चाहिए। यहाँ इस बात को अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि उपदेश देने के अधिकारी साधु ही होते हैं। वे ही पूर्ण त्याग का उपदेश कर सकते हैं, गृहस्थ स्वयं ही पूर्णत्यागी नहीं हैं तब उन्हें दूसरों को त्याग का उपदेश देना कैसे घटेगा ?
प्रत्येक जीव को अपनी शक्ति के अनुसार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र इन तीन भेद रूप मुक्ति का मार्ग सर्वदा सेवन करने योग्य है। इन तीनों में पहले समस्त उपायों से सम्यग्दर्शन को ग्रहण करना चाहिए क्योंकि इसके होने पर ही ज्ञान और चारित्र सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र कहे जाते हैं। सम्यक्त्व के बिना ग्यारह अंगपर्यंत पठन किया हुआ ज्ञान भी ‘अज्ञान’ है और महाव्रतों की साधना से अंतिम ग्रैवेयकपर्यंत बंध योग्य विशुद्ध परिणामों को प्राप्त करते हुए भी वह असंयमी है परन्तु सम्यक्त्व सहित थोड़ा सा ज्ञान भी सम्यग्ज्ञान और अल्प त्याग भी सम्यक्चारित्र है अत: सम्यग्दृष्टि बनना चाहिए। जीव, अजीव आदिक तत्त्वों के अर्थों का विपरीत हठाग्रहरहित दृढ़ विश्वास करना ही सम्यग्दर्शन है और वही श्रद्धान आत्मा का स्वरूप है।
चैतन्य लक्षण सहित जीव है, इससे विपरीत अजीव है। जीव के रागादि परिणामों से पुद्गल कर्मों का आना आस्रव है। आये हुए कर्म परमाणुओं का आत्मप्रदेशों से संबंध रूप होना बंध है। जीव के गुप्ति आदि परिणामों से आते हुए कर्मों का रुकना संवर है। जीव के शुद्धोपयोग के बल से पूर्व संचित कर्मों का सर्वथा पृथक् हो जाना मोक्ष है। सम्यक्त्व के लिए कारणभूत लब्धियों के प्रकरण को लब्धिसार आदि ग्रंथों से देखना चाहिए।
सम्यक्त्व के आठ अंग हैं–नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना।
नि:शंकित-सर्वज्ञ भगवान ने प्रत्येक वस्तु को अनंतधर्मात्मक कहा है सो क्या यह सत्य है या असत्य ? ऐसी शंका कदाचित् भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि-
सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं, हेतुभिर्नैव हन्यते।
आज्ञासिद्धं तु तद्ग्राह्यं, नान्यथावादिनो जिना:।।
जिनेन्द्र भगवन के द्वारा कहा गया तत्त्व सूक्ष्म है फिर भी हेतुओं के द्वारा उसका व्यवधान नहीं किया जा सकता क्योंकि जिनेन्द्र भगवान असत्यवादी नहीं हो सकते। इस प्रकार आज्ञासिद्ध जिनवचनों को प्रमाण मानना चाहिए। यदि किसी विषय में शास्त्र में दो बातें मिल जाती हैं तो हमें किसी एक को सत्य और दूसरे को असत्य का निर्णय नहीं देना चाहिए प्रत्युत् वीरसेनाचार्य आदि पूर्वाचार्यों के समान उसका निर्णय केवली या श्रुतकेवली पर छोड़ देना चाहिए।
नि:कांक्षित-इस लोक में ऐश्वर्य, संपदा आदि की, परलोक में चक्रवर्ती, नारायण आदि पदों की और एकांतवाद से दूषित अन्य धर्मों की भी कांक्षा कभी नहीं करना चाहिए।
निर्विचिकित्सा-भूख, प्यास, शीत, उष्ण आदि भावों में और विष्टादि पदार्थों में अथवा रत्नत्रय से पवित्र मुनियों के शरीर में ग्लानि कभी नहीं करना चाहिए।
अमूढ़दृष्टि-लोक में शास्त्राभास, धर्माभास और देवताभासों में मूढ़दृष्टि नहीं रखना चाहिए अर्थात् जो शास्त्र, धर्म और देव सच्चे नहीं हैं उनमें श्रद्धान नहीं करना चाहिए। दु:खदायक कुत्सित मार्गों या धर्मों में प्रमाणता, मन, वचन व काय से प्रशंसा और स्तुति नहीं करना चाहिए।
उपगूहन-मार्दव आदि गुणों के द्वारा अपनी आत्मा के धर्म को वृद्धिंगत करना और दूसरों के दोषों को छिपाना उपगूहन अंग है।
स्थितिकरण-धर्ममार्ग से विचलित करने वाले काम, क्रोध, मद आदि भावों के प्रगट हो जाने पर आगम के अनुसार अपनी और दूसरों की स्थिरता करना स्थितिकरण अंग है।
वात्सल्य-मोक्षस्वरूप संपदा के कारणभूत धर्म में, अहिंसा में और समस्त ही साधर्मीजनों में हमेशा परम प्रीति को करना चाहिए।
प्रभावना-रत्नत्रय के तेज से निरंतर ही अपनी आत्मा को प्रभावित करना चाहिए एवं दान, तप, जिनपूजन और विद्या के अतिशय से इनकी उन्नति करके जिनधर्म की प्रभावना करनी चाहिए। इस प्रकार से अष्टांग सहित ही सम्यग्दर्शन संसार की परम्परा को नाश करने में समर्थ है।
अब सम्यक्त्व को प्राप्त करने के बाद यत्नपूर्वक सम्यग्ज्ञान की उपासना करना चाहिए।
यद्यपि सम्यक्त्व के प्रकट हो जाने पर जो भी ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान बन जाता है फिर भी उसकी पृथक आराधना करना उचित है। यह सम्यग्ज्ञान संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित होता है।
ग्रन्थरूप, अर्थरूप और उभयरूप शुद्धि से सहित, अध्ययन काल में मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक, विनय और धारणायुक्त देवादि की वंदना करके तथा विद्यागुरु की गोपना से रहित ज्ञान की आराधना करना चाहिए अर्थात् ज्ञान की उपासना के शब्दाचार आदि आठ अंग कहे हैं-
शब्दाचार-व्याकरण के अनुसार शुद्ध पठन-पाठन करना।
अर्थाचार-यथार्थ शुद्ध अर्थ समझना।
उभयाचार-अर्थ और शब्द दोनों से शुद्ध पठन-पाठन करना।
कालाचार-पूर्वाण्ह-अपराण्ह, पूर्वरात्रि और अपररात्रि इन चार उत्तम कालों में पठन-पाठन करना अर्थात् सूर्योदय और सूर्यास्त के दो घड़ी पहले, पीछे तक के काल को छोड़कर तथा मध्यान्ह और मध्यरात्रि के चार-चार घड़ी को छोड़कर चार काल स्वाध्याय के माने हैं। इनके अतिरिक्त सामायिक काल, दिग्दाह, उल्कापात आदि में सिद्धान्त ग्रंथों का पठन-पाठन वर्जित है।
विनयाचार-शुद्ध जल से हाथ, पैर धोकर शुद्ध स्थान में विनयपूर्वक पढ़ना।
उपधानाचार-कुछ त्याग का नियम लेकर पढ़ना।
बहुमानाचार-ज्ञान, पुस्तक और गुरू का आदर करना।
अनिन्हवाचार-जिस गुरु से, जिस शास्त्र से ज्ञान प्राप्त किया है उसके नाम को न छिपाना।
इस तरह विधिवत् ज्ञान की आराधना से ज्ञान वृद्धिंगत होता है जो कि केवलज्ञान को प्राप्त करा देता है। यदि इन आठ विधियों की उपेक्षा हो जाती है तो वह पठन-पाठन ज्ञानावरण कर्म का बंध करा देता है। इस ज्ञान की आराधना में प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इन चारों प्रकार के ग्रंथों का स्वाध्याय करना चाहिए।
मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञान:।
रागद्वेष-निवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधु:।।
(रत्नकरण्ड श्रावकाचार)
दर्शनमोह का अभाव हो जाने पर सम्यक्त्व का लाभ हो जाने से ज्ञान सम्यग्ज्ञान बन जाता है पुन: महापुरुष राग-द्वेष की निवृत्ति के लिए सम्यक्चारित्र का अवलंबन लेते हैं।
सम्यक्चारित्र-समस्त पापयुक्त मन-वचन-काय के योगों के त्याग से, संपूर्ण कषायों से रहित निर्मल परपदार्थों से विरक्ततारूप और आत्मस्वरूप सम्यक्चारित्र होता है। यह संपूर्ण कषायों के अभाव से होने वाला चारित्र यथाख्यातचारित्र कहलाता है। इसको प्राप्त करने के लिए पाँचों पापों का त्याग किया जाता है।
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों का सर्वदेश त्याग करना सकल चारित्र है और एकदेश त्याग करना देशचारित्र कहलाता है। सकलचारित्रधारी मुनि समयसारभूत-शुद्धोपयोगरूप स्वरूप में आचरण करने वाला होता है और जो एकदेशविरत है वह उपासक श्रावक कहलाता है। कषायरूप परिणत हुए योग से द्रव्य तथा भावरूप दो प्रकार के प्राणों का घात करना हिंसा है। रागादि परिणामों का उत्पन्न न होना अहिंसा है और रागादि परिणामों की उत्पत्ति होना ही हिंसा है, ऐसा जैनसिद्धान्त का सार है क्योंकि कषाय सहित आत्मा पहले अपनी आत्मा का घात कर लेता है पश्चात् दूसरे प्राणियों की हिंसा हो या न हो।
परजीव के घातरूप हिंसा दो प्रकार की होती है-हिंसा से विरक्त न होना और हिंसारूप प्रवृत्ति करना। जो मनुष्य निश्चय का स्वरूप न समझकर उसका आश्रय ले लेते हैं वे बाह्य क्रियाओं में आलसी होकर तेरह प्रकार की क्रिया और तेरह प्रकार के चारित्र का नाश कर देते हैं अत: निश्चय और व्यवहार दोनों नयों का अवलंबन लेना चाहिए।
(१) एक जीव हिंसा नहीं करके भी हिंसा के फल का भागी होता है। जैसे उसने हिंसा के भाव किये किन्तु हिंसा कर नहीं सका फिर भी पाप बंध तो होता ही है।
(२) एक जीव हिंसा करके भी फल नहीं भोगता है क्योंकि यत्नाचारपूर्वक चलने वाले के द्वारा हिंसा हो जाने पर भी प्रमादरहित होने से उसे पाप नहीं लगता।
(३) किसी की अल्प हिंसा उदय के समय बहुत बड़ा फल देती है। मतलब यदि परिणाम में तीव्र कषाएं हैं और हिंसा थोड़ी हुई है फिर भी फल अधिक भोगना पड़ेगा।
(४) किसी की महाहिंसा भी परिपाक में अल्पफल देती है, जैसे-किसी के भाव हिंसा के अल्प थे, अचानक हिंसा बहुत हो गई।
(५) एक ही हिंसा का कार्य किसी को अल्प फल देता है और दूसरे को बहुत बड़ा फल देता है। उसमें मंद कषाय और तीव्र कषाय का निमित्त है।
(६) कोई हिंसा करने के पहले ही फल दे देती है जैसे किसी ने हिंसा के भाव किये किन्तु हिंसा कर नहीं सका, कर्मबंध होकर फल मिल गया फिर कभी हिंसा करेगा, कोई करते-करते फल देती है, कोई कर चुकने पर भी फलती है और कोई हिंसा का आरंभ करके न करने पर भी फल देती है क्योंकि हिंसा कषाय भावों के अनुसार ही फल देती है।
(७) हिंसा एक पुरुष करता है परन्तु अनुमोदना करने से फल भोगने वाले बहुत हो जाते हैं। इसी प्रकार बहुत जन हिंसा करते हैं किन्तु फल को भोगने वाला एक होता है। जैसे-राजा।
(८) कोई अहिंसा उदय काल में हिंसा के फल को देती है और किसी पुरुष को वही हिंसा बहुत से अहिंसा के फल को देती है।
(९) किसी की अहिंसा उदयकाल में हिंसा के फल को देती है, जैसे किसी ने दूसरे का बुरा करने का यत्न किया किन्तु उसके पुण्य से उस जगह उसका भला हो गया। इसी प्रकार किसी की हिंसा अहिंसा के फल को देती है, जैसे वैद्य ने रोगी की शल्य चिकित्सा की किन्तु वह मर गया फिर भी वैद्य को अहिंसा का ही फल मिलता है।
इस प्रकार नाना भंगों से गहन वन में मार्ग भूले हुए पुरुषों को अनेक प्रकार के नय समूह को जानने वाले श्रीगुरू ही शरण हैं। यह जिनेन्द्र भगवान का नय चक्र अत्यंत तीक्ष्ण धार वाला है। मिथ्यादृष्टि पुरुषों के मस्तक को खंड-खंड कर देता है अर्थात् मूढ़ लोग इस नयचक्र को नहीं समझ सकते हैं, सम्यग्दृष्टि ही नय विवक्षा से हिंसा-अहिंसा के स्वरूप को ठीक से समझ सकते हैं अत: जैनसिद्धान्त के मर्म को समझाने के लिए सबसे पहले नयों के स्वरूप को गुरुमुख से अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए।
प्रत्येक प्राणी को हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसा का फल इन चारों को अच्छी तरह समझकर अपनी शक्ति के अनुसार हिंसा का त्याग कर देना चाहिए।
हिंस्य-जिनकी हिंसा की जावे, ऐसे अपने अथवा परजीव के द्रव्यप्राण और भावप्राण अथवा एकेन्द्रियादि जीव समुदाय।
हिंसक-हिंसा करने वाला जीव।
हिंसा-जीवों के प्राणघात की क्रिया।
हिंसा का फल-हिंसा से प्राप्त होने वाली नरक, निगोद आदि गतियाँ।
अष्टमूलगुण-हिंसा को छोड़ने की इच्छा करने वालों को मद्य (मदिरा), मांस, मधु (शहद) और पाँच उदम्बर फल (बड़, पीपल, पाकर, ऊमर, कठूमर) इन आठों का त्याग कर देना चाहिए। इनका त्याग करना ही श्रावक के अष्टमूलगुण हैं।
मदिरा चित्त को मोहित करके धर्म से छुड़ा देती है। मांस भी प्राणी के घात बिना असंभव है। स्वयं छत्ते से गिरा हुआ मधु भी भक्ष्य नहीं है क्योंकि उसमें भी अनंत जीवों का समुदाय मौजूद है। उसी प्रकार ये पंच उदंबर फल भी त्रस जीवों के रहने के स्थान हैं इसलिए इन्हें सुखाकर खाना भी दोष है।
अष्टावनिष्टदुस्तरदुरितायतनान्यमूनि परिवज्र्य।
जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्धधिय:।।७४।।
(अमृतचन्द्रसूरि)
मद्य, मांस आदि आठ पदार्थ, अनिष्ट, दुस्तर और पाप के स्थान हैं। इनका त्याग करके ही शुद्ध बुद्धि वाला व्यक्ति जिनेन्द्र भगवान के उपदेश को सुनने का पात्र होता है अर्थात् इनका त्याग किये बिना कोई भी व्यक्ति जैनधर्म के मर्म को नहीं समझ सकता है।
यह धर्म तो अहिंसारूप ही है, ऐसा सुनते हुए जो व्यक्ति पूर्णरूप से हिंसा का त्याग करने में असमर्थ हैं अर्थात् स्थावर हिंसा का त्याग करने में असमर्थ हैं, गृहस्थाश्रम में रहते हैं उनका भी कर्तव्य है कि त्रस हिंसा का त्याग अवश्य ही कर देवें। इंद्रियों के विषयों का न्यायपूर्वक सेवन करने वाले श्रावकों का कर्तव्य है कि अल्प एकेन्द्रिय घात के अतिरिक्त शेष स्थावर जीवों के घात का त्याग कर देना चाहिए। जैसे-आलू, मूली आदि अभक्ष्य पदार्थ अनंत स्थावर जीवों के पिंड हैं, वर्षा ऋतु में किसी खाद्य वस्तु पर फफूंदी आ जाती है। अचार, मुरब्बा, अनेक दिनों के पापड़ आदि अभक्ष्य हैं, अनंत स्थावर जीवों के स्थान हैं अत: इनका भी त्याग कर देना चाहिए।
अहिंसाणुव्रत-अमृत-मोक्ष के कारणभूत उत्कृष्ट अिंहसारूपी रसायन को प्राप्त करके अज्ञानी जीवों के असंगत बर्ताव को देखकर धर्मात्माजनों को अपना मन चलायमान नहीं करना चाहिए। कोई-कोई कहते हैं कि-
(१) ‘भगवान का कहा हुआ धर्म बहुत ही सूक्ष्म है अतएव धर्म के निमित्त हिंसा करने में कोई दोष नहीं है।’
(२) धर्म देवताओं से ही उत्पन्न होता है अतएव इस लोक में उन देवताओं को सभी कुछ दे देना योग्य है। ऐसा कहने वाले लोग यज्ञ और बलि में हिंसा का विधान करते हैं किन्तु हिंसा में धर्म कदापि नहीं हो सकता है।
(३) पूज्य पुरुषों के लिए बकरा आदि का घात करने में कोई भी दोष नहीं है, ऐसा सोचकर अतिथि व शिष्ट पुरुषों के लिए जीवों का घात करना योग्य नहीं है।
(४) ‘बहुत प्राणियों के घात से उत्पन्न हुए भोजन से एक जीव के घात से उत्पन्न हुआ भोजन अच्छा है अर्थात् अन्नादिक के आहार में अनेक जीव मरते हैं अतएव उनके बदले एक बड़े भारी जीव को मारकर खाना अच्छा है’ ऐसा कुतर्वâ भी मूर्खतापूर्ण है क्योंकि एकेन्द्रियों की अपेक्षा पंचेन्द्रिय जीवों के द्रव्य प्राण और भाव प्राण अधिक होने से उनके घात में हिंसा का पाप अधिक ही है।
(५) सर्प-बिच्छू आदि हिंसक जीवों के मार डालने से बहुत से जीवों की रक्षा होती है, ऐसा सोचकर हिंसक जीवों का घात नहीं करना चाहिए क्योंकि संसार में अनंत जीव एक-दूसरे के घातक हैं, उनकी चिंता हम कहाँ तक कर सकते हैं ?
(६) बहुत जीवों के घाती ये जीव जीते रहेंगे तो अधिक पाप उपार्जन करेंगे इस प्रकार दया करके हिंसक जीवों को नहीं मारना चाहिए।
(७) रोग अर्थात् दरिद्र आदि अनेकों दु:खों से अत्यधिक दु:खी जीव यदि मार डाले जायेंगे तो वे सब दु:खों से छूट जायेंगे, ऐसा विश्वास करके किसी भी जीव को नहीं मारना चाहिए।
(८) सुखों की प्राप्ति बड़े कष्ट से होती है इसलिए सुखी जीवों को मार डालने से वे हमेशा सुखी ही रहेंगे, फिर कभी दु:खी नहीं होंगे, ऐसा सोचकर सुखी जीवों का भी घात नहीं करना चाहिए।
(९) ‘गुरु महाराज अधिक काल तक अभ्यास करके अब समाधि में मग्न हो रहे हैं, इस समय यदि ये मार दिये जावें तो उच्चपद प्राप्त कर लेंगे।’ ऐसा श्रद्धान करके शिष्य को अपने गुरू का शिरच्छेदन नहीं करना चाहिए।
(१०) खारपटिक शास्त्रों में घड़े के पूâटने से चिड़िया के उड़ जाने के समान शरीर के छूटने मात्र से मोक्ष हो जाता है, ऐसा श्रद्धान करके भी जीवों की हिंसा नहीं करना चाहिए।
(११) भोजन के लिए सन्मुख आये हुए भूखे पुरुष को देखकर अपने शरीर का मांस दान करना चाहिए, ऐसा समझकर आत्मघात करना श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि मांसभोजी दान का पात्र नहीं है और मांस का दान धर्म से बहिर्भूत और निंद्य है।
नय भंगों के जानने में प्रवीण गुरुओं की उपासना करके जिनमत के रहस्यों का जानने वाला ऐसा कौन सा निर्मल बुद्धिधारी है, जो अहिंसा का आश्रय लेकर मूढ़ता को प्राप्त होगा ?
सारांश यह निकला कि मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से संकल्पपूर्वक किसी भी जीव की हिंसा नहीं करना अहिंसा अणुव्रत कहलाता है। इस व्रत का धारी श्रावक धर्म या परोपकार आदि भावना से भी हिंसा को महापाप ही समझता है, सर्वत्र जीवदया का पालन करता है।
सत्याणुव्रत-जो कुछ भी प्रमाद और कषाय के योग से स्व-पर को हानिकारक अथवा अन्यथारूप वचन हैं वे सब असत्य हैं। असत्य के चार भेद हैं-अस्तिरूप वस्तु को नास्तिरूप कहना जैसे-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से यहाँ घट मौजूद है, उसे ‘यहाँ नहीं है’, ऐसा कहना अथवा अकालमृत्यु आगम में कही है उसे नहीं मानना प्रथम असत्य है।
जिस वचन में अविद्यमान वस्तु को विद्यमानरूप कहा जाता है, जैसे-घट वहाँ नहीं है फिर भी ‘है’ ऐसा कहना यह द्वितीय असत्य है।
जिस वचन में अपने चतुष्टय से विद्यमान भी पदार्थ अन्य के स्वरूप से कहा जाता है। जैसे-बैल को घोड़ा कह देना यह तृतीय असत्य है।
गर्हित आदि वचन बोलना चतुर्थ असत्य है। इसके तीन भेद हैं-गर्हित, सावद्य और अप्रिय।
दुष्टता अथवा चुगलीरूप, हास्ययुक्त, कठोर, प्रलापरूप तथा शास्त्र विरुद्ध वचन गर्हित वचन हैं।
जो छेदन, भेदन, मारण, शोषण, व्यापार आदि के पापसहित वचन हैं, वे सावद्य वचन हैं।
जो वचन दूसरे जीव को अप्रीतिकर, भयकारक, खेदकारक, वैर, शोक, कलह करने वाले हैं, वे सब अप्रिय वचन हैं।
इन सभी असत्य वचनों में हिंसा अवश्य ही संभव है क्योंकि असत्य भाषण मेें कषायों का निमित्त अवश्य है।
इन असत्य वचनों का स्थूलरूप से त्याग करना सत्याणुव्रत है।
जो भोगोपभोग के साधन मात्र सावद्य वचन को छोड़ने में असमर्थ हैं, उनका भी कर्तव्य है कि बाकी के असत्य वचनों का अवश्य ही त्याग कर देवें।
अचौर्याणुव्रत-जो प्रमाद और कषाय के योग से बिना दिये हुए किसी की वस्तु को ग्रहण कर लेता है, वह चोरी है। जो मनुष्य किसी के धन को हरण करता है समझना चाहिए कि उसने उसके प्राणों का हरण किया है क्योंकि जगत् में ‘धन’ यह मनुष्यों का बाह्य प्राण है अर्थात् ग्यारहवाँ प्राण है। मतलब यह धन मनुष्यों को प्राणों से भी अधिक प्यारा है इसके हरण करने वाले हिंसक ही हैं। जो लोग दूसरों के कुआं आदि के जल को ग्रहण करने का त्याग करने में असमर्थ हैं उनका भी कर्तव्य है कि वे अन्य सम्पूर्ण बिना दी हुई वस्तुओं का त्याग अवश्य ही कर देवें। अन्यत्र भी कहा है ‘जलमृतिका बिन और नाहिं कछु गहे अदत्ता’ जल और मिट्टी के सिवाय बिना दिये हुए कुछ नहीं लेना चाहिए, यह अचौर्याणुव्रत है। स्थूलरूप से चोरी का त्याग करना श्रावक का कर्तव्य है।
ब्रह्मचर्याणुव्रत-वेद के रागरूप योग से जो स्त्री-पुरुषों का परस्पर में सहवास है उसे मैथुन कहते हैं। यह अब्रह्म कहलाता है। स्त्रियों के योनि, कांख आदि स्थानोें में सम्मूच्र्छन पंचेन्द्रिय जीव सदा उत्पन्न होते रहते हैं और मैथुन में उनके द्रव्य प्राणों का घात अवश्य ही होता है तथा कामरूप परिणामों के होने से स्त्री पुरुष के भाव प्राणों का घात होता है। इस प्रकार से मैथुन में द्रव्य, भाव दोनों ही प्राणों का घात संभव है। जिस प्रकार तिलों की नली में तप्त लोहे के डालने से तिल नष्ट हो जाते हैं, उसी प्रकार मैथुन के समय योनि के आश्रित बहुत से जीव मर जाते हैं अत: जो जीव मोह के कारण अपनी विवाहिता स्त्री को छोड़ने में असमर्थ हैं उनका कर्तव्य है कि वे परस्त्री मात्र का सर्वथा ही त्याग कर देवें अर्थात् सम्पूर्ण स्त्री मात्र का त्याग करके पूर्णतया ब्रह्मचर्य का पालन करना तो श्रेयस्कर ही है किन्तु यदि पूर्णतया स्त्री मात्र का त्याग न हो सके तो परस्त्री, वेश्या आदि का त्याग कर देना चाहिए। एकदेश ब्रह्मचर्य पालन करने वालों की भी देवता तक स्तुति करते हैं। सेठ सुदर्शन, सती सीता, मनोरमा आदि महान जीव प्रसिद्ध भी हो चुके हैं। पुरुषों के सदृश स्त्रियों को भी अपने पति के सिवाय सम्पूर्ण पुरुषों को पिता-पुत्रवत् समझना चाहिए। स्त्रियों का शीलव्रत ही भारतीय संस्कृति और सज्जातीयत्व का मूल है।
व्यभिचारिणी स्त्री तो निन्द्य है ही किन्तु उसकी संतान भी सज्जातीयत्व से रहित मानी जाती है। ऐसा समझकर प्रत्येक स्त्री-पुरुषों को ब्रह्मचर्य अणुव्रत का पालन करना चाहिए।
परिग्रहपरिमाण अणुव्रत-आत्मा का जो ममत्व रूप परिणाम है निश्चय से वही परिग्रह है क्योंकि ‘मूच्र्छा परिग्रह:’ सूत्र के अनुसार ममत्व को ही मूच्र्छा कहते हैं। ममत्व परिणाम को दूर करने के लिए बाह्य धन, धान्य आदि परिग्रह का भी त्याग कर देना चाहिए। यदि पूर्णतया परिग्रह का त्याग न हो सके तो अपनी आवश्यकता के अनुसार थोड़े परिग्रह का प्रमाण करके बाकी का ममत्व छोड़ देना चाहिए अर्थात् प्रमाण से अधिक धन का दान आदि में सदुपयोग कर देना चाहिए।
यदि कोई कहे कि वीतरागी पुरुष को कार्मण वर्गणाओं के ग्रहण करने में परिग्रह का दोष आता है तो आचार्य कहते हैं कि ऐसा नहीं कहना, क्योंकि ‘वीतराग मुनियों के कर्मवर्गणा के ग्रहण करने में मूच्र्छा नहीं है-वहाँ परिग्रह नहीं है तथा जहाँ-जहाँ परिग्रह है वहाँ-वहाँ मूच्र्छा अवश्य है। इस कथन से यह स्पष्ट हो गया कि बाह्य परिग्रह के होने से अंतरंग में ममत्व परिणाम अवश्य होगा ही होगा और बाह्य परिग्रह का त्याग कर देने के बाद अंतरंग में मूच्र्छा का अभाव हो जाता है तथा किसी के रह भी सकता है। जैसे चावल के धान का ऊपरी तुष (छिलका) हटे बिना अंतरंग ललाई दूर नहीं हो सकती है वैसे ही बाह्य परिग्रह के छोड़े बिना अंतरंग परिग्रह का अभाव नहीं हो सकता है।
परिग्रह के दो भेद हैं-अंतरंग और बहिरंग। मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये चौदह अंतरंग परिग्रह हैं।
बहिरंग परिग्रह के सचित्त और अचित्त ये दो भेद हैं। स्त्री, पुत्र, दास आदि सचित्त एवं धन-धान्य, मकान आदि अचित्त परिग्रह हैं अथवा धन, धान्य आदि के भेद से बाह्य परिग्रह के दस भेद भी माने गये हैं। दोनों प्रकार के परिग्रह का त्याग करने वाले मुनिगण होते हैं। इनका प्रमाण करने वाले परिग्रहपरिमाण अणुव्रतधारी श्रावक होते हैं।
इस प्रकार से अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँचों व्रतों का एकदेश पालन करने वाले श्रावक नियम से स्वर्ग को प्राप्त करते हैं। कहा भी है-
‘‘अणुवद महव्वदाइं ण लहइ देवाउगं मोत्तुं’’
(गोम्मटसार कर्मकाण्ड)
जिसके देवायु के सिवाय अन्य नरक, तिर्यंच या मनुष्य आयु का बंध हो गया है वह मनुष्य अणुव्रत या महाव्रत को ग्रहण नहीं कर सकता है अत: प्रत्येक श्रावक को पंच अणुव्रत अवश्य ही ग्रहण करना चाहिए। श्री पूज्यपाद स्वामी ने कहा है कि-
वरं व्रतै: पदं दैवं, नाव्रतैव्र्रत नारकम्।
छायातपस्थयोर्भेद: प्रतिपालयतोर्महान्।।
(इष्टोपदेश)
अणुव्रत, महाव्रतों को ग्रहण करके स्वर्गगति को प्राप्त कर लेना अच्छा है किन्तु अव्रती रहकर नरक जाना अच्छा नहीं है। जैसे किसी मित्र की प्रतीक्षा में दो व्यक्ति थे, एक छाया में बैठ गया और एक भयंकर धूप में बैठ गया, इन दोनों में सुख शांति की अपेक्षा बहुत ही भेद है, वैसे ही स्वर्ग के सुख और नरक के दु:खों में भी महान भेद है, ऐसा समझकर अव्रती रहना अच्छा नहीं है।
जो आत्मा को कषें अर्थात् घात करें वे कषायें कहलाती हैं। उनमें से अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ ये सम्यक्त्व का घात करती हैं। अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ देशचारित्र का घात करते हैं। प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ सकल संयम का घात करते हैं एवं संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ ये चारों कषायें यथाख्यातचारित्र का घात करती हैं। संसार से भयभीत जीवों का कर्तव्य है कि इन अंतरंग कषायों का यदि सम्पूर्णतया त्याग न कर सवेंâ तो कम से कम अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण की आठ कषायों का तो अवश्य ही त्याग कर देवें। उसी प्रकार से धन, धान्य आदि बाह्य परिग्रहों को यदि पूर्णतया त्याग करने में समर्थ न हों तो वह भी अपनी शक्ति के अनुसार परिग्रह का परिमाण करके बाकी के परिग्रह का त्याग कर देवें क्योंकि ‘त्यागरूप ही तत्त्व है’ ऐसा कहा गया है।
रात्रिभोजन त्याग-पंच अणुव्रतधारी का कर्तव्य है कि वह रात्रिभोजन का त्याग कर देवे क्योंकि रात्रि में भोजन करने से नियम से हिंसा होती है। दीपक आदि (लाइट) के प्रकाश में सूक्ष्म जन्तु दृष्टिगोचर नहीं हो सकते तथा रात्रि में दीपक के प्रकाश से नाना प्रकार के ऐसे छोटे-बड़े जीवों का संचार होता है जो दिन में कभी दिखाई भी नहीं देते अतएव रात्रिभोजन में प्रत्यक्ष में हिंसा है। जिस महाभाग्य ने रात्रि भोजन का सर्वथा त्याग कर दिया है, वही सच्चा अहिंसक है। रात्रिभोजन त्याग के बिना अहिंसाणुव्रत की सिद्धि नहीं होती अतएव कोई-कोई आचार्य इसे अहिंसा अणुव्रत में गर्भित करते हैं।
इस प्रकार से यहाँ तक पंच अणुव्रतों का वर्णन हुआ है, अब आगे सात शील व्रतों का वर्णन करते हैं।
तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये सात शील कहलाते हैं। जैसे परिधि नगर की रक्षा करती है वैसे ही ये सातों व्रत पंच अणुव्रतों की रक्षा करते हैं अतएव ये शील कहलाते हैं।
गुणव्रत के तीन भेद हैं-दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत।
दिग्व्रत-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, अध: और ऊध्र्व इन दश दिशाओं में सीमा करके उसके आगे यावज्जीवन नहीं जाना दिग्व्रत है। जहाँ तक मर्यादा की जाती है उसके बहिर्गत समस्त त्रस, स्थावरों के घात का त्याग हो जाता है, इस कारण मर्यादा के बाहर उपचार से महाव्रत हो जाते हैं अतएव दिग्व्रत धारण करना अति आवश्यक है।
देशव्रत-इस देशव्रत में काल की मर्यादापूर्वक वर्ष, छह महीना, मास, पक्ष आदि तक के लिए ग्राम, मोहल्ला में जाने का त्याग किया जाता है। दिग्व्रत में त्याग यावज्जीवन के लिए होता है और देशव्रत में त्याग कुछ दिन के लिए होता है तथा दिग्व्रत के क्षेत्र की मर्यादा के अन्दर ही थोड़े-थोड़े क्षेत्र की प्रतिज्ञा करना देशव्रत है अर्थात् दिग्व्रत में क्षेत्र बहुत होता है किन्तु देशव्रत में काल की मर्यादापूर्वक थोड़ा सा क्षेत्र रखा जाता है।
अनर्थदण्डव्रत-बिना प्रयोजन पाप करने को अनर्थदण्ड कहते हैं और उसके त्याग करने को अनर्थदण्ड विरति कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं-अपघ्यान, पापोपदेश, प्रमादचर्या, हिंसादान और दु:श्रुति।
अपध्यान-शिकार, जय, पराजय, चोरी, युद्ध आदि का चिंतन अपध्यान है।
पापोपदेश-व्यापार, खेती, नौकरी आदि का उपदेश देना।
प्रमादचर्या-पृथ्वी खोदना, वृक्ष उखाड़ना, पानी सींचना आदि। बिना प्रयोजन स्थावर जीवों का अधिक घात करना।
हिंसादान-छुरी, विष, अग्नि, हल, तलवार आदि को दूसरों को देना।
दु:श्रुति-राग, द्वेषवर्धक दुष्ट कथाओं का सुनना-पढ़ना आदि।
इन पाँचों प्रकार के पापों का त्याग कर देना चाहिए। उसी प्रकार से सम्पूर्ण अनर्थों का मूल, मायाचार का घर चोरी और असत्य का स्थान ऐसे जुआ का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। इस प्रकार जो पुरुष अन्य भी अनर्थदण्डों को जानकर त्याग कर देते हैं वे निर्दोष अहिंसा व्रत का पालन करते हैं।
शिक्षा व्रत के चार भेद हैं–सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगपरिमाण और अतिथि- संविभागव्रत।
सामायिक-एकरूप होकर स्वरूप में प्राप्त होने को ‘समय’ कहते हैं तथा समय जिसका प्रयोजन है उसे सामायिक कहते हैं। इसकी सिद्धि साम्यावस्था में होने से इष्ट-अनिष्ट विषयों में रागद्वेष के त्याग को सामायिक कहते हैं। यह आत्मतत्त्व की प्राप्ति का मूल कारण है। कदाचित् आत्मतत्त्व में एकाग्रता न हो सके तो प्रारंभ में शुभोपयोगरूप स्तुति आदि में प्रवृत्त होना चाहिए। सामायिक में विधिवत् ईर्यापथशुद्धि करके नमस्कार, आवर्त, शिरोनतिपूर्वक चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति करना चाहिए।१ श्रावकों की सामायिक देवपूजापूर्वक भी बताई गई है। गृहस्थ के लिए सामायिक दिन में दो बार (प्रात:, सायं) अवश्य करना चाहिए। तृतीय प्रतिमाधारी तीन बार करता है, अव्रती को एक बार तो अवश्य ही करना चाहिए। सामायिक के बल से निग्र्रंथ मुनिलिंगधारी ग्यारह अंग का पाठी अभव्य भी अहमिन्द्र हो जाता है, तब सम्यग्दृष्टि जीव तो उत्तम पद-मोक्ष को पाते ही पाते हैं।
प्रोषधोपवास-सामायिक रूप संस्कार को स्थिर करने के लिए दोनों पक्षों में अष्टमी-चतुर्दशी को उपवास करना चाहिए अर्थात् सप्तमी को एकाशन, अष्टमी को उपवास और नवमी को एकाशन करना यह उत्कृष्ट प्रोषधोपवास की विधि है तथा जघन्य विधि में अष्टमी को एकाशन करना चाहिए। दूसरी बार जल भी नहीं लेना चाहिए। इस प्रकार व्रत में स्वाध्याय, ध्यान करते हुए विधिवत् भगवान की पूजा करें। सम्पूर्ण गृहस्थ संबंधी आरंभ का त्याग करके धर्मध्यान में समय व्यतीत करना चाहिए।
भोगोपभोगपरिमाण व्रत-गृहस्थों के भोगोपभोग पदार्थों के निमित्त से ही मोक्ष की अंतरायभूत स्थावर हिंसाकृत बंध होता है। इसको टालने के लिए भोग और उपभोग रूप वस्तुओं का भी शक्ति अनुसार त्याग करना चाहिए। त्याग के दो भेद हैं-यम और नियम। यावज्जीवन त्याग को यम और मर्यादित त्याग को नियम कहते हैं। कंदमूल, नवनीत, अन्तर्मुहूर्त के अनन्तर कच्चा दूध, चौबीस घंटे के बाद का दही, मुरब्बा, अचार आदि अनछना जल (छने जल की मर्यादा ४८ मिनट) घुना अन्न आदि चीजों का तो यावज्जीवन त्याग कर देना चाहिए। भक्ष्य पदार्थों का भी कुछ मास, दिन आदि के लिए त्याग करना नियम कहलाता है। यथाशक्ति भोग्य पदार्थों का त्याग करते रहने से त्याग का अभ्यास बढ़ जाता है।
अतिथिसंविभाग व्रत-उत्तम दातार दिगम्बर मुनि आदि उत्तम पात्रों को उत्तम विधि से आहारदान देवें, इस प्रकार का दान अपने और पर के उपकार के लिए होता है।२ अतिथि के लिए भाग करके देना दान है। मुनियों को पड़गाहन करना, उच्च स्थान देना, चरण धोना, पूजन करना, नमस्कार करना, मन-वचन-काय और भोजन की शुद्धि कहना ये नवधाभक्ति कहलाती है। दाता ईष्र्या आदि दुर्गुणों से रहित, संतोषवान नवधाभक्तिपूर्वक उत्तम पात्रों को दान देता है। दान में द्रव्य ऐसा होना चाहिए जो राग-द्वेषादि को न करके स्वाध्याय, ध्यान और तपश्चरण की वृद्धि करे, ऐसा प्रासुक३ आहार देना चाहिए। जो रत्नत्रय से युक्त हैं वे उत्तम पात्र हैं। पात्र के तीन भेद हैं-उत्तम, मध्यम, जघन्य। मुनिगण उत्तम पात्र हैं, देशव्रती श्रावक मध्यम एवं अविरत सम्यग्दृष्टी जघन्य पात्र कहे जाते हैं। जो दाता सम्यग्दृष्टी है वह इन पात्रों को दान देकर स्वर्ग, मोक्ष प्राप्त करता है अन्यथा उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमि को प्राप्त करता है। कुपात्र (मिथ्यात्व सहित, पाखंडी आदि) में दिया गया दान कुभोगभूमि आदि को देता है और अपात्र में दिया गया दान निष्फल को जाता है। जो घर में आये हुए मुनियों को दान नहीं देते हैं वे अवश्य ही लोभी, कर्तव्यशून्य गृहस्थ कहलाते हैं। मुनि, आर्यिका आदि की सेवा, वैयावृत्ति, अभयदान, औषधिदान, शास्त्रदान आदि भी इस व्रत में शामिल हो जाते हैं, ऐसा श्री समंतभद्र स्वामी ने कहा है।
इस प्रकार मुनि बनने की शिक्षा ग्रहण करने के लिए इन चार शिक्षाव्रतों को अवश्य ही पालन करना चाहिए।
सल्लेखना-यह एक मरण के अंत में होने वाली सल्लेखना ही मेरे धर्मरूपी धन को मेरे साथ ले चलने को समर्थ है, इस प्रकार भक्ति करके निरन्तर भावना भाना चाहिए। सत्-सम्यक् प्रकार से लेखना- कषाय के कृश करने को कहते हैं। यह अभ्यंतर और बाह्य दो भेदरूप है। काय के कृश करने को बाह्य और आंतरिक क्रोधादि कषायों को कृश करने को अभ्यन्तर सल्लेखना कहते हैं। ‘मैं मरणकाल में अवश्य ही शास्त्रोक्त विधि से समाधिमरण करूँगा’ इस प्रकार भावना रूप होकर मरणकाल के आने के पहले ही यह शीलरूप सल्लेखना अंगीकार करना चाहिए।
सल्लेखना आत्मघात नहीं है-शरीर स्वभाव के विकाररूप चिन्हों से तथा शुभ-अशुभ सूचक निमित्तज्ञान शक्ति से मरणकाल जब निश्चित कर लिया है तब ही सन्यासमरण अंगीकार किया जाता है और इसलिए इस समाधि अवस्था में राग-द्वेष, मोहादिकों का अभाव होने से सन्यास होने पर आत्मघात का दोष नहीं लगता। जो जीव क्रोध, मान, माया, लोभ के वश अथवा इष्टवियोग के खेद के वश तथा आगामी निदान के वश अपने प्राणों का अग्नि शस्त्रादिकों से घात कर डालते हैं, उन्हें आत्मघात का दोष लगता है। जैसे-पति के पीछे स्त्री का सती होना, हिमालय में गलना आदि किन्तु सन्यासपूर्वक मरण करने वालों को आत्मघात दोष नहीं लगता।
सल्लेखना कब लेना ?-सल्लेखना गृहस्थ और मुनि दोनों के लिए है इसलिए बारह व्रतों के पश्चात् सल्लेखना (सन्यासमरण) का उल्लेख है, इस सल्लेखना की उत्कृष्ट मर्यादा बारह वर्ष पर्यन्त है। जब शरीर किसी असाध्य रोग से अथवा वृद्धावस्था से असमर्थ हो जावे, देव, मनुष्यादि कोई दुर्निवार उपसर्ग आ जावें अथवा धर्म के विनाशक कोई भी कारण आ जावें उस समय सन्यासमरण से मरना चाहिए। इसके दो भेद हैं-यम सल्लेखना और नियम सल्लेखना। यदि मरण होने में कुछ संदेह है तो इस उपसर्गादि से बचा तो पुन: आहार-पान ग्रहण करूँगा अन्यथा चतुराहार का त्याग है, ऐसा नियम लेना नियम सल्लेखना है, जैसे हस्तिनापुर में बलिकृत उपसर्ग के आने पर सात सौ मुनियों ने ली थी तथा मरण के विषय में निश्चित होने से यावज्जीवन आहारादि का त्याग करना यम सल्लेखना है। इसमें भी कदाचित् क्रम-क्रम से आहारपान का त्याग होता है। कदाचित् विशेष प्रसंग में एकदम चतुराहार का त्याग कर दिया जाता है।
अंत की आराधना से चिरकाल से की हुई व्रत, नियम रूप धर्माराधना सफल हो जाती है और यदि अंत समय बिगड़ जावे तो पूर्वकृत आराधना निष्फल हो जाती है। सन्यासमरण की इच्छा वाला मनुष्य जिन- भगवान की तीर्थभूमियों या मंदिर अथवा संयमीजनों का आश्रय ग्रहण करे, सबसे क्षमा कराकर आप स्वयं सब पर क्षमा करे। व्रत के अतिचारों को आचार्य के सन्मुख प्रगट कर नि:शल्य होकर प्रायश्चित्त आदि ग्रहण करके शरीर आदि वस्तुओं से ममता छोड़कर मरण करे।
समाधिमरण के समय यदि हो सके तो महाव्रत ग्रहण कर मुनि बन जावें। समाधि ग्रहण करने वाले मुनि को ‘क्षपक’ संज्ञा है और विधिवत् सल्लेखना कराने वाले आचार्य निर्यापकाचार्य कहलाते हैं। उस समय आचार्य क्रम-क्रम से आहार का त्याग कराते हुए अन्त में मात्र गरम जल ग्रहण कराते हैं पुन: महामंत्र और जिनवचनोपदेशरूपी अमृत से उसे तृप्त करते हुए सल्लेखना करा देते हैं। आचार्य न होवें तो साधर्मी बंधु ऐसा करा सकते हैं। आचार्य क्षपक को उपदेश देते हैं कि-
हे आराधक! मेरी आत्मा शाश्वत है, एक है अथवा ‘णमो अरहंताणं’ ‘अर्हं ’ इत्यादि पदों में प्रीति करो। यह आत्मा अनंत दर्शन-ज्ञान-सुख और वीर्यस्वरूप है, सिद्ध स्वरूप है, नित्य है, निरंजन है, इसी का आश्रय लेवो।
यदि क्षपक को किसी प्रकार की वेदना उत्पन्न हो जाती है तो उपदेशक मरणसमाधि पाठ को सुनाते हुए उपसर्ग सहन करके स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करने वाले मुनियों की कथा सुनाते हैं, उनकी याद दिलाते हैं। एक मुनि की सल्लेखना में अड़तालीस मुनियों की आवश्यकता है, ऐसा भगवती आराधना में कहा गया है। पूज्यपाद स्वामी ने तो समाधिभक्ति में यहाँ तक कह दिया है कि-
हे भगवन्! बचपन से लेकर अभी तक मैंने आपकी चरणसेवा करके, अनेकों तीर्थयात्रा, तपश्चरण आदि करके जो भी पुण्य संचय किया है वह सब एकत्रित होकर उसका फल मुझे यही मिले कि जब मेरे प्राण प्रयाण करने लगें तब आपका नामरूपी मंत्र का पाठ करने में मेरा वंâठ अवुंâठित बना रहे अर्थात् वुंâठित न हो जावे। इस प्रकार से विधिवत् सल्लेखना करके मरण करने वाले निश्चित ही दो या तीन भव से मोक्ष जाते हैं अथवा अधिक से अधिक सात, आठ भव लेकर मोक्ष चले जाते हैं। समाधिमरण के बिना ही इस जीव ने अनंत संसार में भ्रमण किया है जब यह जीव मृत्यु का सामना करता हुआ वीरमरण कर लेता है तभी यह जीव मृत्यु को जीतकर मृत्युंजयी परमात्मा बन जाता है अत: समाधिमरण करने में प्रत्येक जीव को सावधान रहना चाहिए और काय के साथ कषायों को कृश करते हुए महामंत्र के मरणपूर्वक प्राण विसर्जन करना चाहिए।
इस प्रकार पंच अणुव्रतों की रक्षा के लिए जो श्रावक समस्त शीलों का निरन्तर पालन करता है उस पुरुष को शिवपद-श्री-मोक्षलक्ष्मी अतिशय उत्वंâठित स्वयंवर की कन्या के समान आप ही स्वीकार कर लेती है।
सम्यग्दृष्टि और बारह व्रतों को पालन करने वाले श्रावक के सत्तर अतिचार माने गये हैं। व्रतों में दोष लगाना अतिचार है और व्रतों को भंग कर देना अनाचार है। सम्यक्त्व के ५ अतिचार, बारह व्रतों के पाँच-पाँच अतिचार तथा सल्लेखना के पाँच ऐसे ५±६०±५·७० अतिचार१ होते हैं। जो श्रावक अतिचारों से रहित निर्मल सम्यक्त्व, व्रत और शीलों का पालन करता है, वह थोड़े ही समय में पुरुष के अर्थ की सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।
श्रावक मुनियों के चरित्र के अन्तर्गत तप, अनुप्रेक्षा, धर्म और परीषहजय इनका भी एकदेश पालन करते हुए मुनिधर्म को धारण करने का अभ्यास किया करते हैं। अनशन, अवमौदर्य आदि बहिरंग और प्रायश्चित आदि अंतरंग तप कहलाते हैं। छह आवश्यक-समता, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक हैं। श्रावक को एकदेश इनका भी पालन करना चाहिए। वैसे श्रावक के छह आवश्यकों में-देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये माने गये हैं। इनमें भी ‘दाणं पूजा मुक्खो सावय धम्मो ण सावया तेण विणा१’’ इनमें दान और पूजा ये दो क्रिया विशेष रूप में मुख्य मानी गई है क्योंकि इन दोनों के बिना श्रावक नहीं हो सकता है। इन क्रियाओं में निष्णात श्रावक ही मुनियों के आवश्यक और तपश्चरण आदि का अभ्यास करे। ऐसा नहीं है कि दान, पूजा को छोड़कर सामायिक, स्तव आदि को करता रहे, वह श्रावक अनधिकारी चेष्टा वाला, श्रावकधर्म से शून्य अनर्गल कहलायेगा।
ऐसे ही पाँच समिति, तीन गुप्ति, दशधर्म, बारह अनुप्रेक्षा और बाईस परीषहजयों का भी (अपनी क्रिया में निष्णात) व्रती श्रावकों को एकदेश अभ्यास करते रहना चाहिए२।
इस प्रकार से मोक्षाभिलाषी गृहस्थ को प्रतिसमय ही विकल रत्नत्रय का पालन करते रहना चाहिए क्योेंंकि यह विकल रत्नत्रय भी मुनियों के चारित्र का अवलंबन कराकर क्रमश: पूर्णता को प्राप्त हो जाता है। देखिए असम्पूर्ण३ रत्नत्रय की भावना करने वाले पुरुष के जो शुभ कर्म का बंध है सो बंध विपक्षकृत या बंध रागकृत होने से अवश्य ही मोक्ष का उपाय है, बंध का कारण नहीं है।
इस आत्मा के जिस अंश से सम्यग्दर्शन है, उस अंश से बंध नहीं है तथा जिस अंश से इसके राग है उस अंश से बंध होता है। जिस अंश से इसके ज्ञान है उस अंश से बंध नहीं है और जिस अंश से राग है, उस अंश से बंध होता है। जिस अंश से इसके चारित्र है, उस अंश से बंध नहीं है, जिस अंश से इसके राग है, उस अंश से बंध होता है। इससे यह अर्थ होता है कि जिन अंशों से यह आत्मा अपने स्वभाव रूप परिणमन करता है, वे अंश सर्वथा बंध के हेतु नहीं हैं किन्तु जिन अंशों से यह आत्मा रागादि विभावरूप से परिणमन करता है वे ही अंश बंध के हेतु हैं।
यहाँ यह बात और समझना चाहिए कि कर्मबंध तो कषाय के निमित्त से दशवें गुणस्थान तक हो रहा है और योग मात्र के निमित्त से तो तेरहवें गुणस्थान तक हो रहा है फिर भी सर्वथा रागादि विभाव परिणामों का दशवें के बाद अभाव होने से बंध का अभाव माना जाता है और श्रेणी की अवस्था में बुद्धिपूर्वक रागादि की अवस्था होने से बंध अल्प होता है। सम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबंधी का अभाव होने से जो भी बंध होता है, वह अनंत संसार का कारण नहीं होता है इसलिए श्री अमृतचन्द्रसूरि ने यहाँ अंश व्यवस्था से कथन करके समझाया है। आगे और कहते हैं कि-
‘मन-वचन-काय के व्यापार रूप योग से प्रदेश बंध होता है’ तथा क्रोधादि कषायों से स्थितिबंध होेता है परन्तु दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप रत्नत्रय न योगरूप है, न कषायरूप है फिर यह रत्नत्रय बंध का कारण कैसे हो सकता है ?
निश्चयरत्नत्रय-अपनी आत्मा का विनिश्चिय सम्यग्दर्शन, आत्मा का विशेष ज्ञान सम्यग्ज्ञान और आत्मा में स्थिरता सम्यक्चारित्र कहा गया है, तो फिर इन तीनों से बंध वैâसे हो सकता है ? (वास्तव में यह लक्षण निश्चय रत्नत्रय-अभेद रत्नत्रय का है। यह सातवें गुणस्थान से प्रारंभ होता है)
प्रश्न-तीर्थंकर प्रकृति और आहारक प्रकृति का बंध सम्यक्त्व और चारित्र से आगम में कहा है और यहाँ रत्नत्रय से बंध का अभाव कहा है। सो वैâसे घटित होगा ?
उत्तर–नय विभाग की अपेक्षा से कोई दोष नहीं है अर्थात् चतुर्थ गुणस्थान से आठवें के छठे भाग तक तीनोें सम्यक्त्वों से होता है। आहारक प्रकृति का बंध चारित्र से होता है, यद्यपि ऐसा श्रुतकेवली प्रणीत शास्त्रों में नियम है फिर भी अभूतार्थनय की अपेक्षा तो सम्यक्त्व और चारित्र बंध करने वाले होते हैं परन्तु भूतार्थनय की अपेक्षा सम्यक्त्व, चारित्र बंध के कर्ता नहीं होते। वास्तव में सम्यक्त्व और चारित्र के होते हुए जो योग और कषाय होते हैं उनसे ही तीर्थंकर और आहारक प्रकृति का बंध होता है इसलिए सम्यक्त्व और चारित्र इस बंध में उदासीन है।
प्रश्न-देवायु आदि उत्तम प्रकृतियों का बंध रत्नत्रयधारी कोष्ठ मुनियों के ही माना है, सो कैसे घटेगा?
उत्तर-इस लोक में रत्नत्रय धर्म निर्वाण का हेतु होता है अन्य गति का नहीं और रत्नत्रय में पुण्य का आस्रव होता है। सो यह शुभोपयोग है।
इस प्रकार निश्चय रत्नत्रय और व्यवहार रत्नत्रय मोक्षमार्ग आत्मा को परमात्मा का पद प्राप्त कराता है। वहाँ यह आत्मा कर्मरज से रहित, कृतकृत्य, ज्ञानमय, ज्योतिरूप, अत्यन्त निर्मल, लोकशिखर के अग्रभाग में विराजमान हो जाता है।
जिस तरह ग्वालिनी दही बिलोते समय एक हाथ की रस्सी को खींचती है तो दूसरे हाथ की रस्सी ढीली कर देती है, छोड़ती नहीं है। उसी प्रकार से जैनी नीति जब द्रव्यार्थिक नय से वस्तु को ग्रहण करती है तब पर्यायार्थिक नय गौण हो जाता है और जब पर्यायार्थिक नय से वस्तु का ग्रहण होता है तब द्रव्यार्थिक नय गौण हो जाता है। दोनों ही नय अपनी-अपनी अपेक्षा प्रधान हैं। इस स्याद्वाद नीति की शरण लेना ही श्रेयस्कर है।