पिच्छि स्वयंपतित मयूरपिच्छ अपने स्वामी मयूर से कहते हैं—हे मयूर मित्र ! तुम अपने पंखों को गिरा रहे हो, निस्सन्देह अपने को शोभ से वंचित कर रहे हो। जैसे तारागण आकाश के सौन्दर्यवर्धक हैं वैसे हम तुम्हारे सौन्दर्य को सम्पन्न करने वाले हैं। अस्तु, तुमने हमें छोड़ दिया तो क्या ! देखों, हम आज भी यदुवंशमणि श्रीकृष्ण के मुकुट की छवि है और जिन्होंने सम्पूर्ण राजपरिग्रह का परित्याग कर दिया है, उन वीतराग मुनियों के हाथ में शोभा पाते हो। मयूरपिच्छि के लोम वायु के अल्प स्पर्श से भी आन्दोलित हो उठते हैं और मन भी लोकसम्पर्क से चलायमान होने लगता है अत: मन स्थैर्य के लिए लोकसम्पर्क निषेध का पाठ पिच्छि से प्राप्त होता रहता है।
दया और दिगम्बर साधु
दइया दिगंबरु देह बीचारी। आपि मरै अवरा नह मारी।।
(गुरु ग्रंथ साहिब, भाग १—३, पृष्ठ ३५६)
अर्थ — दया दिगम्बर साधुओं के अन्दर विराजमान रहती है। वे स्वयं चाहे मर जाएँ, पर दूसरों को कभी नहीं मारते। ‘तत्त्वार्थश्लोकर्वाितक’ का प्रतिपादन है—सामान्य रूप से किसी भी अदत्त वस्तु के ग्रहण का विधान मुनि के लिए नहीं है। तब क्या मयूरपिच्छ और कमण्डलु जो अरण्य में पड़े हुए मिल जाते हैं, मुनि को नहीं ग्रहण करने चाहिए? वे भी तो अदत्त है, उनका आदान कैसे हो ? इस शंका का समाधान करते हुए आगे कहा गया है कि नदियों, निर्झरों आदि का जल, सूखे हुए गोमय खण्ड अथवा भस्म आदि, अपने—आप स्वयं मुक्त मयूरपंख एवं तुम्बीफल आदि ग्रहण करने में स्तेयदोष नहीं लगता यह सब ‘प्रासुक’ है, इसमें स्तेय नहीं है और इनका ग्रहण प्रमत्तत्व की हानि के लिय अभीष्ट है। यथा—
अर्थात् मयूरपिच्छि तथा कमण्डलु सहित नग्नरूप ही अर्हन्त भगवान् की मुद्रा है। वह निर्दोष एवं निर्मल है। जो इन दोनों से रहित नग्नरूप है वह मलिन कहा जाता है किन्तु तीर्थंकर परमदेव, तप्तद्र्धिधारक तथा अवधिज्ञानी को इनका धारण करना आवश्यक नहीं है। ये (उक्त) पिच्छिकमण्डलुरहित भी अर्हत् मुद्राधारी माने गऐ हैं। भाव संग्रह में भी अवधिज्ञान से पूर्व तक (आचार्य, उपाध्याय एवं पिच्छिधारण प्रतिलेखन शुद्धि के निमित्त आवश्य कहा है। यथा—)
अवधे: प्राक्प्र गृहणन्ति मृदुपिच्छं यथागतम्। यत् स्वयं पतितं भूमौ प्रतिलेखनशुद्धये।।
—(भवसंग्रह, २७६)
प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने पिच्छिका धारण की थी ऐसा पुराणसारसंग्रह में उल्लेख है यथा—
अचेलत्वं च लुञ्चित्वं व्युत्सृष्टांगं सपिच्छकम्। एतदुत्सर्गिंलगं तु जगृहे मुनिपुङ्गव:।।
—(पुराणसारसंग्रह, आचार्य दामनंदि, १/३४, पृष्ठ ४०)
अर्थ —वस्त्र रहितता, केश लुंचिता, अंग नि:स्पृहता और मयूरपिच्छिका इन स्वाभाविक चिन्हों को मुनियों में श्रेष्ठ उन ऋषभदेव ने ग्रहण किया। यद्यपि तीर्थंकरों को पिच्छि की आवश्यकता नहीं होती है किन्तु प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने पिच्छि धारण इसलिए की, क्योंकि आगामी परम्परा में मुनि मार्ग के लिए कोई बाधा उत्पन्न नहीं हो। पिच्छि दिगम्बर मुनियों की मुद्रा चिह्न है जिसे हजारों वर्षों पूर्व तीर्थंकर ऋषभदेव ने स्वयं धारण कर मोक्षमार्ग का समीचीन निरूपण किया था। मुद्रा चाहे शासन वर्ग की हो या धार्मिक वर्ग की हो—
मुद्रा सर्वत्र मान्यास्यान्निर्मुद्रो नैव मन्यते। राजमुद्राधरोऽत्यंतहीनवच्छास्त्रनिर्णय:।।
अर्थ —मुद्रा की सर्वत्र मान्यता होती है, मुद्राहीन की नहीं। राजा की राजमुद्रा को धारण करने वाला अत्यन्त हीन भी राजा माना जाता है, यह नीतिशास्त्र का निर्णय है।
‘द्रव्यिंलगमिदं श्रेयं भाविंलगस्य कारणम्।’
—(वही, ७६)
अर्थ — पिच्छि धारण करना दिगम्बर मुनि का द्रव्य लिंग (चिन्ह) है यह भावलिंग का भी कारण है भाविंलग आभ्यन्तर में होता है, दिखाई नहीं देता। सारांश यह है कि मयूरपिच्छिका दिगम्बर साधु की मुद्रा चिह्न ही नहीं अपितु वह निर्वाण प्राप्त कराने में मुख्य संयम का साधन भी है। यथा—‘णिप्पिच्छे णत्थि णिव्वाणं’
—(मूलाचार, आचार्य कुन्दकुन्द, १०/२५)
मयूरपिच्छि साधु के लिए अत्यन्त आवश्यक है। आगम की आज्ञा है कि यदि कोई साधु ने बिना पिच्छि के सात कदम गमन कर लिया तो कायोत्सर्ग करना होगा और दो कोस प्रमाण मार्ग पर बिना पिच्छि चल लिए तो शुद्धि तथा उपवास दो—दो प्रायश्चित आवश्यक होंगे—
‘परीक्ष्य दीक्षा दातव्या, मिथ्यादृष्टेरथान्यथा। दत्ता दर्शन हास्याय, स्वोपघाताय च क्रमात्।।’
(नीतिसार, आचार्य इन्द्रनन्दि, २५)
भावार्थ —अच्छी तरह परीक्षा लेकर (तापात् छेदात् सुवर्णमिव पण्डितै:) ही निग्र्रन्थ दीक्षा देना चाहिए अन्यथा मिथ्यामार्ग का प्रचलन होगा तथा दी गयी दिगम्बर दीक्षा हंसी की पात्र होगी और वह अनुक्रम से स्वोपघात करेगी। आचार्य को भी चाहिए कि वह अपनी ओर से दीक्षार्थी के विषय में अभिज्ञता प्राप्त करे। यदि वह बालक हो, अशक्त बूढ़ा हो, नपुंसक हो, विकलांग, जड़बुद्धि, रोगी, चोरी करने की आदत हो, राजापराधी, उन्मत्तचेष्टा स्वभावी, अन्धा, काणा, बहिरा, दासवृत्ति, दुष्टस्वभावी, मूर्ख, कर्जपीड़ित, कारावास पाया हुआ, कहीं से भगा कर लाया हुआ तथा अन्य प्रकार के सापराध आचरणों से युक्त हो तो उसे मुनिदीक्षा नहीं देनी चाहिए। ‘तेऽपि न दीक्षार्हा, लोके अवर्णवाद सम्भवात्’ लोक में निन्दावाद फैलेगा अत: निन्दाप्राप्तों को पूज्यपद नहीं दिया जा सकता।
अर्थ —सर्वप्रथम ब्रह्मचारी होना चाहिए, उसके पश्चात् क्षुल्लक दीक्षा दी जाती है। उसके पश्चात् ऐलक दीक्षा दी जाती है तथा उसके पश्चात् ही निग्र्रन्थ दीक्षा दी जाती है। भावार्थ यह है कि उक्त क्रम से मुनिदीक्षा लेने वाले स्व—पर का कल्याण करते हुए धर्ममार्ग में सफल होते हैं, जैसे कि चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागरजी मुनिराज। समाचारी में औचित्व का उल्लंघन न करें—‘स्वाध्याये स्वाध्यायिनि संयमिनि गुरूषु संघे च। अनतिक्रममौचित्यं कृतयोग: प्राहुरादरं विनयं।।’
—(दानशासनम् औषध, मर्हिष वासुपूज्य, ५, पृष्ठ २७६)
अपने साथी यतियों के साथ, श्रमणाओं के साथ, गुरुओं के साथ, संयमियों के साथ एवं संघ के साथ ‘औचित्य’ का उल्लंघन न करके व्यवहार करना उसे समाचारी कहते हैं या विनय कहते हैं।