(सर्व आरंभ और परिग्रह से रहित धर्मध्यान में तत्पर रहने वाले दिगम्बर मुनि अट्ठाईस भेदरूप मूलगुणों का पालन करते हुए अहर्निश जो अपनी प्रवृत्ति करते हैं उसका दिग्मात्र वर्णन)
जो मुनि अपने जीवन में निरतिचार अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करते हैं उनकी प्रवृत्ति वैâसी होती है ? ऐसा प्रश्न होने पर भगवान श्री कुंदकुंद देव ‘सामाचार’ नाम के प्रकरण को कहते हैं। उसमें सबसे पहले सामाचार शब्द के अर्थ को चार प्रकार की व्युत्पत्ति के द्वारा बतलाते हैं-
(१) समता-रागद्वेष रहित प्रवृत्ति को सामाचार कहते हैं अथवा त्रिकाल देववंदना तथा पंचपरमेष्ठी के नमस्कार रूप परिणाम को समता कहते हैं। सामायिक व्रत को भी समता कहते हैं। इस प्रकार के जो आचार हैं वे सामाचार कहलाते हैं।
(२) सम्-सम्यक् प्रकार से अर्थात् निरतिचार आचार-मूलगुणों का आचरण-पालन सामाचार कहलाता है अथवा सम्यक् आचरण के सम्यग्ज्ञान और निर्दोष भिक्षा ग्रहण ऐसे भी दो अर्थ हैं। ‘चर्’ धातु के भक्षण करना तथा गमन करना ऐसे दो अर्थ हैं। यहाँ पर ‘गमन करना’ इस शब्द का ‘जानना’ यह अर्थ समझना चाहिए क्योंकि गत्यर्थक धातु ज्ञानार्थक भी मानी गई है।
(३) सम्-समान आचार समाचार है। सभी प्रमत्तसंयत, अप्रमत्त आदि गुणस्थानवर्ती मुनियोें का जो अहिंसादि रूप पाँच प्रकार का समान आचार है, उसको सामाचार कहते हैं अथवा सम-उपशम रूप कषायों के अभावरूप परिणामों के साथ जो आचरण है, वह सामाचार है।
(४) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप इन चारों का जो ऐक्य है, वह सामाचार है अथवा मुनियों का जो-जो आचार है वह-वह सामाचार है।
अथवा पाँच अर्थों के साथ भी सामाचार शब्द का संबंध है। समरसी भाव से अपने स्वरूप में लीन होना, अपने जैनमत के अनुसार आचारों का पालन करना, निर्दोष आचार रखना, सभी मुनियों के साथ मुनि धर्मों का हानि-वृद्धि रहित पालन करना अथवा सब क्षेत्रों में कायोत्सर्गादि आचारों का पालन करना यह सामाचार है। निष्कर्ष यह निकलता है कि मुनियों की अहोरात्रिक आगमानुकूल निर्दोष प्रवृत्ति को ही सामाचार कहते हैं।
इस सामाचार के दो भेद हैं-औघिक और पदविभागिक। सामान्य आचार को औघिक और विशेष आचार को पदविभागिक कहते हैं। सामान्य आचार के दश भेद हैं और विशेष के अनेकों भेद होते हैं।
औघिक सामाचार के दश भेद-इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आसिका, निषेधिका, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, छंदन, सनिमंत्रण और उपसंपत्।
(१) इच्छाकार-सम्यग्दर्शन आदि को अथवा शुभ परिणामों को इष्ट कहते हैं। इनको हर्ष से स्वीकार करना, इनमें स्वेच्छा से प्रवृत्ति करना यह इच्छाकार है।
(२) मिथ्याकार-अशुभ परिणाम अथवा व्रतादि में अतिचार होने पर मन, वचन और काय से उन अतिचारों से निवृत्त होना अर्थात् ‘मेरा दुष्कृत मिथ्या हो’ ऐसा कहना मिथ्याकार है।
(३) तथाकार-गुरुओं के मुख से सूत्र का अर्थ सुनकर ‘आपने जो अर्थ कहा है’ वह ठीक है, अन्यथा नहीं है, ऐसा कहकर उसमें अनुराग व्यक्त करना तथाकार है।
(४) आसिका-जिनमंदिर, पर्वत, गुफा, वसतिका आदि स्थानों में से वंदनादि क्रिया करके निकलते समय वहाँ के व्यंतरादिकों को या गृहस्थादिकों को पूछकर वहाँ से जाना यह आसिका सामाचार है अथवा पाप क्रियाओं से अपने मन को अलग करना यह भी आसिका है।
(५) निषेधिका-जिनमंदिर अथवा वसतिका आदि में प्रवेश करते समय वहाँ के व्यंतरादि को पूछकर अर्थात् ‘निसही’ शब्द से उनकी आज्ञा लेकर प्रवेश करना निषेधिका है अथवा सम्यग्दर्शन आदिकों में स्थिर होना भी निषेधिका है।
(६) आपृच्छा-गुरु आदिकों को वंदनापूर्वक प्रश्न करना अर्थात् स्वाध्याय आदि कार्य के समय, देववंदना, आतापन योग आदि के प्रारंभ में गुरुओं को पूछकर उनकी आज्ञा लेकर प्रवृत्ति करना आपृच्छा है।
(७) प्रतिपृच्छा-दीक्षागुरु, विद्यागुरु या सधर्मा-समान मुनियों से जो कोई उपकरण आदि ग्रहण करना हो या ग्रहण किये हुए को कार्य होने पर उन्हें वापस दे दिया हो और पुन: चाहिए हो तो उनकी पुन: आज्ञा लेकर ग्रहण करना प्रतिपृच्छा है।
(८) छंदन-गुरुओं के अनुकूल प्रवृत्ति करना अर्थात् उनके द्वारा दिये गये पुस्तक आदिकों में उनके अनुकूल वर्तन करना छेदन है।
(९) निमंत्रणा-गुरुओं से या सहधर्मी साधुओं से जो पुस्तक आदि उपकरण ग्रहण करना हो, तो विनयपूर्वक याचना करना, कार्य हो जाने पर उन्हें सत्कारपूर्वक वापस देना निमंत्रणा है।
(१०) उपसंपत्-गुरु के पादमूल में अपने को समर्पित कर देना अर्थात् गुरु को आत्मसमर्पण करके सदैव उनके अनुकूल प्रवृत्ति करना उपसंपत् सामाचार है। इस प्रकार से यह दश सामाचार साधुओं के द्वारा अहर्निश किये जाते हैं।
प्रश्न-कृतिकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर-१कृत्यते छिद्यते अष्टविधं कर्म येनाक्षरकदंबकेन परिणामेन क्रियया वा तत्कृतिकर्म पापविनाशनोपाय:।
जिन अक्षर समूह से या जिन परिणामों से अथवा जिस क्रिया से आठ प्रकार के कर्म काटे जाते हैं, छेदे जाते हैं, वह कृतिकर्म कहलाता है अर्थात् पाप विनाशन के उपाय को कृतिकर्म कहते हैं।
कृतिकर्म की विधि-
२दोणदं तु जधाजादं बारसावत्तमेव च।
चदुस्सिरं तिसुद्धं च किदियम्मं पउंजदे।।६०३।।
अर्थ-मुनि यथाजातरूप दो अवनति, बारह आवर्त, चार शिरोनति सहित कृतिकर्म का मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक प्रयोग करे।
अर्थात् ३‘‘सामायिकस्तवपूर्वक कायोत्सर्ग करके चतुर्विंशति तीर्थंकरस्तव पर्यंत जो क्रिया की जाती है, उसी का नाम कृतिकर्म है’’ और उसी को इस गाथा में बतलाया है।
मुनियों के लिए अहोरात्र में करने संबंधी कृतिकर्म अट्ठाईस होते हैं। उसी का स्पष्टीकरण-
१. पूर्वाण्ह, मध्यान्ह और अपराण्ह इन तीन काल की वंदना में चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति संंबधी दो कायोत्सर्ग होने से ३*२=६ कृतिकर्म हुए।
२. दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण संबंधी ४-४ कायोत्सर्ग होने से ४*२=८ कृतिकर्म हुए।
३. पूर्वाण्ह, अपराण्ह, पूर्वरात्रि और अपररात्रि संबंधी चार काल के स्वाध्याय के तीन-तीन कायोत्सर्ग होने से ४*३=१२ कृतिकर्म हुए।
४. रात्रियोग प्रतिष्ठापन का एक और निष्ठापन का एक ऐसे १+१=२ कृतिकर्म हुए।अर्थात् ६+८+१२+२=२८ कृतिकर्म मुनि, आर्यिकाओं के लिए अवश्य करणीय हैं
देववंदना में चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्त पढ़ी जाती है। उन दोनों भक्ति संबंधी दो कृतिकर्म होते हैं। इस देववंदना की प्रयोगविधि क्रियाकलाप या सामायिक नाम की पुस्तकों में देखनी चाहिए।
प्रतिक्रमण में सिद्धभक्ति, प्रतिक्रमणभक्ति, निष्ठितकरणवीरभक्ति और चतुर्विंशतितीर्थंकरभक्ति इन चार भक्ति संंबंधी चार कृतिकर्म होते हैं। इस प्रतिक्रमण की प्रयोग विधि भी क्रियाकलाप और धर्मध्यानदीपक आदि पुस्तकों में छपी हुई है, वही पूर्णविधि की जाती है।
स्वाध्याय के प्रारंभ में लघु श्रुतभक्ति और लघु आचार्यभक्ति पढ़कर स्वाध्याय करके पुन: लघु श्रुतभक्तिपूर्वक स्वाध्याय की समाप्ति की जाती है इसलिए इन तीन भक्ति संबंधी तीन कृतिकर्म हो जाते हैं।
रात्रियोग की प्रतिष्ठापना करने में योगिभक्ति और निष्ठापन करने में योगिभक्ति करने से तत्संबंधी दो कृतिकर्म हो जाते हैंं।
क्रियाकलाप में इन सबकी प्रयोग विधि बतलाई है तथा ‘‘मुनिचर्या’’ पुस्तक में प्रतिक्रमण विधिवत् छपा हुआ है।
रात्रियोग प्रतिष्ठापन का यह अर्थ है कि-‘‘अद्य रात्रौ अहं अस्यां एव वसतिकायां स्थास्यामि’’ आज रात्रि में मैं इसी वसतिका में रहूँगा-ऐसा नियम विशेष सायंकाल प्रतिक्रमण के अनंतर ग्रहण करने के लिए साधु कृतिकर्म करते हैं। सो ही प्रयोग विधि से देखिए-
अथ रात्रियोगप्रतिष्ठापनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं योगिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।
ऐसी प्रतिज्ञा करके नमस्कार करे, पुन: तीन आवर्त और एक शिरोनति करके निम्नलिखित सामायिक दंडक पढ़े-
णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।।
चत्तारि मंगलं-अरहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा-अरहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि-अरहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहू सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि।
अढाइज्जदीवदोसमुद्देसु पण्णारसकम्मभूमिसु जाव अरहंताणं भयवंताणं आदियराणं जिणाणं जिणोत्तमाणं केवलियाणं, सिद्धाणं बुद्धाणं परिणिव्वुदाणं अंतयडाणं पारयडाणं, धम्माइरियाणं धम्मदेसियाणं, धम्मणायगाणं, धम्मवरचाउरंगचक्कवट्टीणं देवाहिदेवाणं णाणाणं दंसणाणं चरित्ताणं सदा करेमि किरियम्मं।
करेमि भंते! सामायियं सव्वसावज्जजोगं पच्चक्खामि जावज्जीवं तिविहेण मणसा वचसा काएण ण करेमि ण कारेमि कीरंतं पि ण समणुमणामि, तस्स भंते! अइचारं पच्चक्खामि णिंदामि गरहामि अप्पाणं जाव अरहंताणं भयवंताणं पज्जुवासं करेमि तावकालं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि।
पुन: तीन आवर्त एक शिरोनति करके ९ बार णमोकार मंत्र जप कर कायोत्सर्ग करें, नमस्कार करें। उसके पश्चात् तीन आवर्त और एक शिरोनति करके निम्नलिखित चतुर्विंशतिस्तव पढ़ें।
चतुर्विंशतिस्तव-
थोस्सामि हं जिणवरे तित्थयरे केवली अणंत जिणे।
णरपवरलोयमहिए विहुयरयमले महप्पण्णे।।१।।
लोयसुज्जोययरे धम्मं तित्थंकरे जिणे वंदे।
अरहंते कित्तिस्से चौवीसं चेव केवलिणो।।२।।
उसहमजियं च वंदे संभवमभिणंदणं च सुमइं च।
पउमप्पहं सुपासं जिणं च चंदप्पहं वंदे।।३।।
सुविहिं च पुप्फयंतं सीयलसेयं च वासुपुज्जं च।
विमलमणंतं भयवं धम्मं संतिं च वंदामि।।४।।
कुन्थुं च जिणविंरदं अरं च मल्लिं च सुव्वयं च णमिं।
वंदामि रिट्ठणेमिं तहपासं वड्ढमाणं च।।५।।
एवं मए अभित्थुआ विहुयरयमला पहीणजरमरणा।
चउवीसं पि जिणवरा तित्थयरा मे पसीयंतु।।६।।
कित्तिय वंदिय महिया एदे लोगोत्तमा जिणा सिद्धा।
आरोग्गणाणलाहं दिंतु समाहिं च मे बोिंह।।७।।
चंदेिंह णिम्मलयरा आइच्चेहिं अहियपहा सत्ता।
सायरमिव गंभीरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु।।८।।
(इतना पाठ करना ही कृतिकर्म है जो कि ऊपर मूलाचार की गाथा में बताया गया है, यही कृतिकर्म प्रत्येक क्रिया में प्रयुक्त होता है)
अनंतर जिस योगिभक्ति को करने की प्रतिज्ञा की थी, उसी के अनुसार दशभक्ति के अंतर्गत जो योगिभक्ति है, उसका पाठ करें।
इसी प्रकार से पिछली रात्रि में रात्रिक प्रतिक्रमण के अनंतर रात्रियोग की निष्ठापना करें। यथा-
अथ रात्रियोगनिष्ठापनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं योगिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।
ऐसी प्र्तिज्ञा करके पूर्वोक्त विधि से सामायिकस्तव और चतुर्विंशतिस्तव पढ़कर योगिभक्ति पढ़ें। तब रात्रि में जो उसी वसतिका में रहने का नियम था, वह समाप्त हो जाता है।
इस प्रकार से एक कृतिकर्म में कृत्यविज्ञापना के अनंतर और कायोत्सर्ग के अनंतर ऐसे दो नमस्कार हुए। सामायिकस्तव के प्रारंभ और अंत में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति ऐसे ६ आवर्त और २ शिरोनति हुई, पुन: कायोत्सर्ग के बाद चतुर्विंशतिस्तव के प्रारंभ और अंत में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति करने से ६ आवर्त और दो शिरोनति होने से बारह आवर्त, चार शिरोनति और दो अवनतिप्रणाम एक कृतिकर्म में होते हैं।
देववंदना अर्थात् सामायिक में कृत्यविज्ञापना के समय-
अथ पौर्वाण्हिक देववंदनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं चैत्यभक्ति- कायोत्सर्गं करोम्यहं।
ऐसी प्रतिज्ञा करके नमस्कार करें, पुन: सामायिकस्तवकायोत्सर्ग और चतुर्विंशतिस्तव पर्यंत पूर्वोक्त विधि करें, अनंतर चैत्यभक्ति पढ़ें। ऐसी ही विधि पंचगुरुभक्ति के लिए भी की जाती है।
जब पूर्वाण्ह में देववंदना करते हैं तब ‘पौर्वाण्हिक’ शब्द का प्रयोग होता है और मध्यान्ह में देववंदना करते समय ‘माध्यान्हिक’ तथा अपराण्ह में देववंदना करते समय ‘अपराण्हिक’ शब्द का प्रयोग किया जाता है।
स्वाध्याय में भी पूर्वाण्ह के स्वाध्याय में-
‘‘अथ पौर्वाण्हिक-स्वाध्यायप्रारंभ क्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं श्रुतभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।’’ इसी प्रकार आगे की भक्तियों में प्रयोग विधि की जाती है।
अन्यत्र भी इन अट्ठाईस कायोत्सर्ग के करने का विधान है-
१स्वाध्याये द्वादशेष्टा षड्वंदनेऽष्टौ प्रतिक्रमे।
कायोत्सर्गा योगभक्तौ द्वौ चाहोरात्रगोचरा:।।७५।।
अर्थ-स्वाध्याय में बारह, देववंदना में छह, प्रतिक्रमण में आठ और योगभक्ति में दो ऐसे १२+६+८+२=२८ अट्ठाईस कायोत्सर्ग अहोरात्रि संबंधी हैं अर्थात् साधुओं के लिए ये कायोत्सर्ग चौबीस घंंटे में अवश्य ही करणीय हैं।
इनके विषय में अधिक स्पष्टीकरण के लिए मूलाचार और अनगारधर्मामृत आदि ग्रंथों का स्वाध्याय करना चाहिए तथा आचार्य संघ में क्रियाओं को देखकर स्पष्ट करना चाहिए।