दर्शनप्रतिमा, व्रतप्रतिमा, सामायिक प्रतिमा, प्रोषधोपवास प्रतिमा, कृषि आदि त्याग प्रतिमा, दिवामैथुन त्याग प्रतिमा, ब्रह्मचर्य प्रतिमा, सचित्तत्याग प्रतिमा, परिग्रहत्याग प्रतिमा, आरंभत्याग प्रतिमा और उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा ये ग्यारह प्रतिमायें हैं। अन्यत्र ग्रन्थों में श्री कुंदकुंद आदि आचार्यों द्वारा कथित नाम से यहाँ कुछ अंंतर है। यथा-दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याग, रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग ये नाम हैं।
दर्शन प्रतिमा आदि ग्यारह प्रतिमाधारी उपासकों में से पहले की छह प्रतिमा के धारक गृहस्थ कहे जाते हैं, सातवीं, आठवीं और नवमीं प्रतिमा के धारक ब्रह्मचारी कहलाते हैं तथा दशवीं और ग्यारहवीं प्रतिमाधारी भिक्षु कहलाते हैं। इन सबसे ऊपर २८ मूलगुणधारी महाव्रती मुनि या साधु नाम से जाने जाते हैं। उन-उन गुणों की प्रधानता के कारण मुनि अनेक प्रकार के बतलाए हैं। यहाँ उनके उन-उन नामों की युक्तिपूर्वक निरुक्ति बतलाते हैं –
१. जितेन्द्रिय-जो सब इन्द्रियों को जीतकर अपने से अपने को जानते हैं उन्हें जितेन्द्रिय कहते हैं।
२. क्षपण-मान,माया,मद और क्रोध का नाश कर देने से क्षपण कहलाते हैं।
३. श्रमण-जगह-जगह विहार करते हुये भी जो थकते नहीं हैं इसलिये श्रमण हैं।
४. आशाम्बर-जिन्होंने अपनी लालसाओं को नष्ट कर दिया है उन्हें आशाम्बर कहते हैं।
५. नग्न-अंतरंग तथा बहिरंग परिग्रहों से रहित होने के कारण नग्न कहलाते हैं।
६. ऋषि-क्लेश समूह को रोकने से ऋषि संज्ञा होती है।
७. मुनि-आत्मविद्या में मान्य होने के कारण मुनि नाम पाते हैं ।
८. यति-जो पापरूपी बंधन के नाश करने का यत्न करते हैं उन्हें यति कहते हैं।
९. अनगार-शरीर रूपी घर में भी जिनकी रुचि नहीं है वे अनगार माने जाते हैं।
१०. शुचि-जो आत्मा को मलिन करने वाले कर्मरूपी दुर्जनों से संबंध नहीं रखते हैं वे ही मनुष्य शुचि या शुद्ध हैं, न कि सिर पर पानी डालकर स्नान करने वाले अर्थात् जो पानी से शरीर को मल-मलकर धोते हैं वे पवित्र नहीं हैं किन्तु जिनकी आत्मा निर्मल है, वे ही पवित्र हैं। यद्यपि मुनि स्नान नहीं करते हैं किन्तु उनकी आत्मा निर्मल है इसलिये उन्हें पवित्र या शुचि कहते हैं।
११. निर्मम-जो धर्माचरण के फल में इच्छा नहीं रखते , अधर्माचरण के त्यागी हैं और केवल आत्मा ही जिनका परिवार या संपत्ति है उन्हें निर्मम कहते हैं अर्थात् ये अपनीआत्मा के सिवाय शरीर से भी निर्मम रहते हैं।
१२. मुमुक्षु-जो पुण्य और पाप दोनों से रहित हैं उन्हें मुमुक्षु कहते हैं क्योंकि बंधन लोहे के हों या सोने के, जो उनसे बंधा है वह बद्ध ही है अर्थात् पुण्य कर्म सोने के बंधन के समान है, पाप कर्म लोहे के बंधन के समान हैं, दोनों ही जीवों को संसार में बांधकर रखते हैं अत: जो पाप को छोड़कर पुण्य से भी आगे उठकर शुद्धोपयोग में सल्लीन हैं वे ही मुमुक्षु हैं।
१३. समधी-जो ममता रहित हैं, अहंकार रहित हैं, मान, माया और ईष्र्या से रहित हैं, निंदा और स्तुति में समान बुद्धि रखते हैं, वे प्रशंसनीय व्रत के धारक ‘‘समधी’’ कहलाते हैं।
१४. मौनी-जो आम्नाय के अनुसार तत्त्व को जानकर उसी का एकमात्र ध्यान करते हैंं उन्हें मौनी जानना चाहिये। जो पशु की तरह केवल बोलते नहीं हैं वे मौनी नहीं हैं।
१५. अनूचान-जिनका मन श्रुत में, व्रत में, ध्यान में, संयम में तथा यम और नियम में संलग्न रहता है उन्हें अनूचान कहते हैं अर्थात् वैदिक धर्म में साम वेद के पूर्ण विद्वान को अनूचान कहा है किन्तु यहाँ पर श्रुत, व्रत, नियम आदि में रत जैन मुनि को ही अनूचान कहा है।
१६. अनाश्वान-जो इंद्रिय रूपी चोरों का विश्वास नहीं करते, स्थायी मार्ग पर दृढ़ रहते हैं और हर एक प्राणी जिनका विश्वास करते हैं अर्थात् जो किसी को भी कष्ट नहीं पहुंचाते वे ही अनाश्वान हैं किन्तु वैदिक परंपरा के अनुसार भोजन नहीं करने मात्र से ही अनाश्वान नहीं होते।
१७. योगी-जिनकी आत्मा तत्त्व में लीन है, मन आत्मा में लीन है और इंद्रियां मन में लीन हैं उन्हें योगी कहते हैं अर्थात् जिनकी इंद्रियां मन में, मन आत्मा में और आत्मा तत्त्व में लीन है वे ही योगी हैं किन्तु जो अन्य वस्तुओं की इच्छारूपी दुष्ट संकल्प से ग्रसित हैं वे योगी नहीं हैं।
१८. पंचाग्नि साधक-काम, क्रोध, मद, माया और लोभ ये पांच अग्नि हैं। जो इन पांचों अग्नियों को अपने वश में कर लेते हैं वे ही पंचाग्नि साधक हैं किन्तु वैदिक साहित्य के अनुसार बाह्य पांच अग्नियों में अपने शरीर को तपाने वाले मात्र पंचाग्नि साधक नहीं हैं।
१९. ब्रह्मचारी-ज्ञान ब्रह्म है, दया ब्रह्म है और काम को वश में करना ब्रह्म है। जो मुनि अच्छी तरह ज्ञान की आराधना करते हैं, दया का पालन करते हैं और काम को जीत लेते हैं वे ही ब्रह्मचारी हैं।
२०. गृहस्थ-जो क्षमारूपी स्त्री में आसक्त हैं, ज्ञानी और मनोजयी हैं वे सच्चे गृहस्थ हैं अर्थात् व्यवहार में गृह में रहने वाले को गृहस्थ संज्ञा है किन्तु यहाँ पर आचार्य ने क्षमाशील ज्ञानी मनोजयी मुनि को निरुक्ति अनुसार गृहस्थ कहा है।
२१. वानप्रस्थ-जो अंदर में और बाहर में अश्लील व्यवहार को छोड़कर संयम धारण करते हैं वे ही वानप्रस्थ हैं किन्तु जो कुटुम्ब को लेकर जाकर जंगल में रहते हैं वे वानप्रस्थ नहीं हैं।
२२. शिखाछेदी-जिन्होंने ज्ञानरूपी तलवार के द्वारा संसाररूपी अग्नि की शिखा को यानी लपटों को काट डाला है उन्हें शिखाछेदी कहते हैं। सिर घुटाने मात्र से शिखाछेदी नहीं होते।
२३. परमहंस-संसार अवस्था में कर्म और आत्मा दूध और पानी की तरह मिले हुए हैं। जो दूध और पानी की तरह आत्मा से कर्म को पृथक-पृथक् कर देते हैं वे ही परमहंस साधु हैं किन्तु जो अग्नि की तरह सर्वभक्षी हैं, जो मिल जाए वही खा लेते हैं वे परमहंस नहीं हैं।
२४. तपस्वी-जिनका मन ज्ञान से, शरीर चारित्र से और इंद्रियां नियमों से सदा प्रदीप्त रहती हैं वे ही तपस्वी हैं। मात्र जिसने कोरा वेष बना रखा है वह तपस्वी नहीं हैं।
२५. अतिथि-पांचों इन्द्रियों का अपने-अपने विषय में लगना ही तिथियां हैं और इन्द्रियों का अपने-अपने विषय में प्रवृत्ति करना संसार का ही कारण है। जो मुनि इन इंद्रियों के विषयों से विरक्त हो चुके हैं वे ही अतिथि कहलाते हैं अथवा जिनके आने की कोई तिथि निश्चित नहीं है वे अतिथि कहलाते हैं। जिनके द्वितीया, पंचमी, अष्टमी, एकादशी और चतुर्दशी इन तिथियों का कोई बंधन ही नहीं है वे अतिथि हैं। यहाँ पर आचार्य ने पांचों इंद्रियों के विजेता को अतिथि कहा है।
२६. दीक्षित-जो प्रतिदिन समस्त प्राणियोें में मैत्रीरूपी यज्ञ का आचरण करते हैं वे ही दीक्षित हैं, न कि बकरे आदि का बलिदान करने वाले ।
२७. श्रोत्रिय-जो बुरे कार्यों को नहीं करते और न बुरे मनुष्यों की संगति ही करते हैं तथा सर्व प्राणियों का हित चाहते हैं वे ही श्रोत्रिय हैं किन्तु जो केवल बाह्य शुद्धि पालते हैं वे श्रोत्रिय नहीं हैं।
२८. होता-जो आत्मारूपी अग्नि में दयारूपी मंत्रों के द्वारा कर्मरूपी काष्ठ समूह से हवन करते हैं वे ही ‘‘होता’’ हैं अर्थात् होमकर्ता हैं किन्तु जो बाह्य अग्नि में हवन करते हैं वे होता नहीं हैं।
२९. यष्टा-जो भावरूपी पुष्पों से देवता की पूजा करते हैं। व्रतरूपी पुष्पों से शरीररूपी घर की पूजा करते हैं और क्षमारूपी पुष्पों से मनरूपी अग्नि की पूजा करते हैं उन्हें ही सज्जन पुरुष यष्टा-यज्ञ करने वाला कहते हैं।
३०. अध्वर्यु-जो महात्मा सोलहकारण भावनारूपी यज्ञ करने वाले ऋत्विजों के स्वामी हैं, मोक्ष सुख रूपी यज्ञ के उद्धारक उस पुरुष (मुनि) को अध्वर्यु जानना चाहिये।
३१. वेद-जो आत्मा और शरीर के भेद को स्पष्ट शब्दों में बतलाते हैं वे ही सच्चे वेद हैं, विद्वान लोग उनसे ही प्रेम करते हैं किन्तु जो सब पशुओं के विनाश के कारण हैं वे सच्चे वेद नहीं हैं।
३२. त्रयी-जन्म, जरा और मृत्यु ये तीनों ही संसार के दु:खों के कारण हैं। इस त्रयी-तीनों का जिस त्रयी से नाश होता है उसके धारक ही सच्चे त्रयी हैं। आशय यह है कि ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद को त्रयी कहा जाता है किन्तु यहाँ जैनाचार्य का कहना है कि जो जन्म,जरा और मृत्यु को नष्ट कर दे ऐसा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय ही त्रयी है तथा उसके धारक मुनि ही सच्चे त्रयी हैं।
३३. ब्राह्मण-जो अहिंसक हैं, समीचीन व्रतों का पालन करते हैं, ज्ञानी हैं, सांसारिक इच्छाओं से दूर हैं और काम, क्रोध, मोह आदि तथा जमीन, जायदाद, धन आदि अंतरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित हैं, वे ही सच्चे ब्राह्मण हैं। इससे विपरीत जो जाति मद से अंधे होकर अपने को सबसे ऊँचा और दूसरों को नीचा समझते हैं वे सच्चे ब्राह्मण नहीं हैं। वास्तव में वही जाति परलोक के लिये उपयोगी है जिससे सच्चे धर्म का जन्म होता है, जमीन शुद्ध भी हो किन्तु यदि उसमें बीज न डाला गया हो तो अनाज पैदा नहीं हो सकता अर्थात् ब्राह्मण जाति शुद्ध भी हो तो किन्तु उसमें यदि समीचीन धर्म के पालन की परिपाटी न हो तो वह शुद्ध जाति व्यर्थ है।
३४. शैव-जो शिव अर्थात् अपने कल्याणरूप मुक्ति को जानते हैं वे ही सच्चे शैव-शिव (मुक्ति) के अनुयायी हैं।
३५. बौद्ध-जो अपनी अंतरात्मा के पोषक हैं वे ही सच्चे बौद्ध हैं।
३६. सांख्य-जो आत्मध्यानी हैं वे ही सांख्य हैं।
३७. द्विज-जिन्हें फिर संसार में जन्म नहीं लेना है वे ही द्विज हैं।
इन उपर्युक्त नामों के अनुरूप गुणों से सहित दिगम्बर मुनि ही उत्तम पात्र कहलाते हैं। उनको दिया गया आहार, औषधि, शास्त्र और अभयदान या वसतिका आदि का दान उत्तम-उत्तम फलों को देने वाला माना गया है। इनसे विपरीत जो अज्ञानी हैं, दुराचारी हैं, निर्दयी हैं, विषयों के लोलुपी हैं तथा इंद्रियों के दास हैं, ऐसे पाख्ांडी दान के पात्र वै कैसे हो सकते हैं ?
देशविरत और सर्वविरत की अपेक्षा से भिक्षा चार प्रकार की होती है-अनुमान्या,समुद्देश्या, त्रिशुद्धा और भ्रामरी। मुनिसंबंधी भिक्षा के लिये तो भ्रामरी शब्द शास्त्रों में अति प्रसिद्ध है। टिप्पणकार ने अनुमान्या भिक्षा को दश प्रतिमा पर्यन्त बतलाया है। आमंत्रणपूर्वक भोजन को समुद्देश बतलाते हुये छठी प्रतिमा पर्यन्त बतलाया है, चूंकि छठी प्रतिमापर्यन्त गृहस्थ संज्ञा है इसके आगे नवमीं तक ब्रह्मचारी संज्ञा है तथा भिक्षु संज्ञा अंतिम दो प्रतिमाधारियों की है। दशवीं प्रतिमाधारी घर छोड़कर बाहर रहने लगता है और आमंत्रणदाता के घर भोजन करता है अत: वह उद्दिष्ट भोजन करता है क्योंकि दाता उसके उद्देश्य से भोजन तैयार करता है इसलिये उसकी भिक्षा समुद्देश्या होना चाहिये। वह अनुमतित्यागी होता है अत: भोजन के विषय में किसी प्रकार की अनुमति नहीं दे सकता किन्तु नवमीं प्रतिमा तक के धारी भोजन के विषय में अनुमति दे सकते हैं अत: उनकी भिक्षा अनुमान्या होनी चाहिये। यहाँ ग्रन्थकार ने भिक्षा के भेदों का जो क्रम रखा है उससे भी यह ध्वनित होता है कि प्रारंभिक प्रतिमा वाले अनुमान्या भिक्षा करते हैं। दशमीं प्रतिमा वाले समुद्देश्या और अंतिम ग्यारहवीं प्रतिमा वाले त्रिशुद्धा भिक्षा करते हैं तथा साधु भ्रामरी भिक्षा करते हैं।
यहाँ तक यह दान का प्रकरण उपासकाध्ययन के आधार से लिया गया है।