साधु का लक्षण वीतरागता है, पूर्ण वीतरागता यथाख्यातचारित्र में होती है, उस परमोच्च भाव का ध्येय बनाकर भव्य जीव मोक्षमार्ग पर आरूढ़ होते हैं। ‘‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्ग:’’ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्षमार्ग है। जीवादि सात तत्त्वों के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं अथवा निज आत्मा के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। संशयादि दोषों से रहित जीवादि तत्त्वों का सच्चा स्वरूप जानना सम्यग्ज्ञान है। कर्मबन्ध के कारणभूत क्रियाओं से विरक्त होना सम्यक्चारित्र है, जैसा कि कहा है—भावानां याथात्म्यप्रतिपत्तिविषयं श्रद्धानं ………सम्यग्दर्शनं, येन येन प्रकारेण जीवादिपदार्था व्यवस्थितास्तेन तेनावगम: सम्यग्ज्ञानं, संसारकारणनिवृत्तिं प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवत: कर्मादाननिमित्त-क्रियोपरम: सम्यक्चारित्रम्। (सर्वार्थसिद्धि-सूत्र १ की टीका का अंश)
कर्मबंध की कारणभूत क्रिया मुख्यतया पाँच हैं-
हिंसा, अनृत, स्तेय, अब्रह्म एवं परिग्रह इन पंच पापरूप क्रियाओं से विरत होना चारित्र है। यह प्रतिषेधरूप कथन है। विधिरूप विवेचन आचारसूत्रों में पाया जाता है।
वदसमििंददियरोधो लोचावासयमचेलमण्हाणं।
खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेयभत्तं च।।२०८।।
एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता।
तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि।।२०९।।
गाथार्थ—पंचव्रत, पंच समिति, पंच इन्द्रियों का निरोध, केशों का लोंच, छह आवश्यक, अचेल (वस्त्र त्याग), अस्नान, भूमिशयन, अदंतधावन, स्थितभोजन, एकभक्त ये अट्ठाईस मूलगुण जिनेन्द्र भगवान ने श्रमणों के लिये प्रतिपादित किये हैं।
अहिंसा महाव्रत—अंतरंग में भाव प्राणों का रक्षण और अन्य त्रस स्थावर सम्पूर्ण षट् जीवनिकाय का मन- वचन-काय आदि नव कोटि से रक्षण करना।
सत्य महाव्रत—सत् प्रशस्त वचन बोलना, सर्व प्रकार की कर्कश, परुष, पैशून्य आदि भाषा का त्याग और जनपद सत्य आदि दस प्रकार की भाषा रूप व्यवहार होना।
अचौर्य महाव्रत—अदत्तरूप सम्पूर्ण वस्तुओं का त्याग और दत्त होने पर भी श्रामण्य के योग्य वस्तु का ग्रहण।
ब्रह्मचर्य महाव्रत—जगत् के यावन्मात्र स्त्रियों का त्याग, उनके हाव—भाव विलास विभ्रमादि को नहीं देखना, अपने ही ब्रह्मस्वरूप आत्मा में रमण करना, नवकोटि से पूर्ण ब्रह्मभाव को प्राप्त करना।
परिग्रहत्याग महाव्रत—अभ्यंतर चौदह और बहिरंग दश प्रकार के परिग्रह से निवृत्त होना।
ईर्यासमिति—गमनागमन करते समय प्रासुक मार्ग से अग्रिम साढ़े तीन हाथ भूमि देखकर चलना। आलम्बन शुद्धि, मार्गशुद्धि, उद्योत शुद्धि एवं उपयोग शुद्धिपूर्वक गमन।
भाषा समिति—हित मित एवं प्रिय वचनालाप।
एषणा समिति—आहार सम्बन्धी छियालीस दोष और बत्तीस अन्तराय टाल कर आहार लेना।
आदाननिक्षेपण समिति—पुस्तकादि पदार्थों को नेत्र द्वारा देखकर एवं पिच्छिका से प्रमार्जन कर लेना और रखना।
प्रतिष्ठापन समिति—मल, मूत्र, कफ आदि को प्रासुक स्थान पर विसर्जित करना।
स्पर्शनेन्द्रिय निरोध—अष्ट प्रकार के स्पर्शों में इष्टानिष्ट विकल्पों का त्याग।
रसनेन्द्रिय निरोध—पंच प्रकार के रसों में से अपने को अच्छे लगने वाले में राग का त्याग, बुरे लगने वाले में द्वेष का त्याग।
घ्राणेन्द्रिय निरोध—सुगन्ध और दुर्गन्ध में रति और अरति का त्याग।
चक्षुरिन्द्रिय निरोध—पंच प्रकार के वर्ण, स्त्रियों के मनोहररूप एवं अन्य विषयों को देखकर उनमें रागादि नहीं करना।
कर्णेन्द्रिय निरोध—षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत एवं निषाद स्वरों में तथा अन्य शब्द भाषादि में रागादि नहीं करना।
केशलोंच—उत्कृष्टरूप से दो मास में, मध्यमरूप से तीन मास में, जघन्यरूप से चार मास में मस्तक, दाढ़ी, मूँछ के केशों का स्वहस्त या परहस्त से उखाड़ना।
समता आवश्यक—जगत् के सम्पूर्ण पदार्थों में राग द्वेष का अभाव, त्रिसंध्याओं में सामायिक, देववंदना करना।
स्तव—आवश्यक—चतुर्विंशति तीर्थंकरों की भावपूर्वक स्तुति करना। नमस्कार करना।
वंदना—आवश्यक—एक तीर्थंकर या सिद्ध और साधु की कृतिकर्म सहित वंदना स्तोत्रादि करना।
प्रतिक्रमण-आवश्यक—अहोरात्रि में होने वाले दोषों का शोधन करना।
प्रत्याख्यान—आवश्यक—आगामी काल में अयोग्य वस्तुओं का त्याग।
कायोत्सर्ग—आवश्यक—स्तव आदि क्रियाओं में शास्त्रोक्त विधि से श्वासोच्छ्वास की विधि से युक्त एवं जिनगुणिंचतन सहित नमस्कार मंत्र जपना।
अचेलक गुण—पंच प्रकार के वस्त्र एवं आभूषणों का त्याग निर्विकार यथाजातरूप नग्नता धारण करना।
अस्नान—जलस्नान, उबटन, सुगन्धि लेपन का यावज्जीवन त्याग।
क्षितिशयन—पृथ्वी पर शयन, बिछौना, पलंगादि का त्याग।
अदंतधावन—दातौन नहीं, अर्थात् मंजन का त्याग।
स्थिति भोजन—खड़े होकर आहार, भित्ति स्तंभ आदि का सहारा लिए बिना खड़े—खड़े स्वपाणिपात्र में आहार लेना।
एकभक्त—दिन में एक बार भोजन। सूर्योदय के अनंतर तीन घड़ी बाद से लेकर सूर्यास्त होने के तीन घड़ी (७२ मिनट) पहले तक साधुओं के आहार का योग्य समय है उक्त काल में यथा—समय एक बार आहार लेना।
इस प्रकार ये जैन दिगम्बर साधुओं के अट्ठावीस मूलगुण हैं। उत्तरगुण चौरासी लाख हैं। जिनकी पूर्णता चौदहवें गुणस्थान में होती है। परीषह सहन, उपसर्ग सहन, द्वादश तप इत्यादि उत्तरगुण हैं। इन उत्तरगुणों के पालन में विकल्प हैं अर्थात् शक्ति हो तो पालें, शक्ति न हो तो न पालें।
इच्छा मिच्छाकारो तधाकारो य आसिका णिसिही।
आपुच्छा पडिपुच्छा छंदन सणिमंतणा य उपसंपा।।—मूलाचार
अर्थ—इच्छाकार—रत्नत्रय धर्म में हर्षपूर्वक प्रवृत्ति।
मिथ्याकार—अतिचार होने पर उनसे निवृत्त होना।
तथाकार—गुरु से सूत्रार्थ सुनकर उनको सत्य कहकर अनुराग होना।
आसिका—जिनमंदिरादि से निकलते समय पूछकर निकलना।
निषेधिका—जिनमंदिरादि में प्रवेश करते समय पूछकर प्रवेश।
आपृच्छा—संशय दूर करने के लिए विनयपूर्वक पूछना।
प्रतिपृच्छा—निषिद्ध अथवा अनिषिद्ध वस्तु के विषय में पुन: पूछना।
छंदन—जिनके पुस्तकादि लिए हैं उनके स्वभाव के अनुकूल प्रवृत्ति करना।
सनिमंत्रणा—दूसरे के पुस्तकादि को सत्कारपूर्वक वापिस देना।
उपसंपत्—गुरु चरणों में अपने को अर्पण करना।
प्रतिदिन के साधुओं के आचरण को पदविभागी समाचार कहते हैं। इस प्रकार पूर्वोक्त दश प्रकार का औघिक समाचार और प्रतिदिन सम्बन्धी पदविभागी समाचार का वर्णन एवं मूलगुण और उत्तरगुणों का वर्णन मूलाचार आदि ग्रंथों में पाया जाता है। इन सम्पूर्ण आचरणों को मुनि और आर्यिका समानरूप से आचरण करते हैं।
जैसा कि कुन्दकुन्द आचार्य देव कहते हैं-
एसो अज्जाणंपि य समाचारो जहाक्खिओ पुव्वं।
सव्वम्हि अहोरत्ते विभासिदव्वो जधाजोग्गं।।
अर्थ—यह जो कहा गया समाचार है वह आर्यिकाओं को भी आचरण करना चाहिये, दिन—रात्रि सम्बन्धी जो आचार एवं मूलगुण पूर्व में कहे हैं उनमें आर्यिकाओं को यथायोग्य प्रवृत्ति करनी चाहिये। और भी कहा है—
एवं विधाणचरियं चारित्तं जे साधवो य अज्जाओ।
ते जगपुज्जं कित्तिं सुहं च लद्धूण सिज्झंति।।
अर्थात् इस प्रकार कहे गये विधि विधान के अनुसार जो मुनि और आर्यिका व्रतरूप चारित्र पालन करते हैं वे जगत् पूज्य होते हैं। कीर्ति और सुख को प्राप्त कर क्रमश: सिद्ध हो जाते हैं। मुनि के समान आर्यिकाओं को दीक्षा देते समय महाव्रतों का आरोप किया जाता है। मुनि और आर्यिकाओं की चर्या में अन्तर यह है कि मुनि निर्वस्त्र निरावरण होते हैं और आर्यिका सवस्त्र सावरण होती हैं क्योंकि आर्यिकाओं को भगवत् कुंदकुंद आचार्य देव की आज्ञा है कि—
लिंगं इच्छीणं हवदि भुंजइ पिंडं सुएयकालम्मि।
अज्जिय वि एक्कवत्था वत्थावरणेण भुंजेइ।।२२।।
अर्थ—स्त्रियों के योग्य आचरण यह है कि वे एक बार निर्दोष एषणा समिति युक्त भोजन करें। एक वस्त्रधारिणी आर्यिका है वस्त्रयुक्त ही आहार ग्रहण करें इत्यादि। अत: एक साड़ी धारण करना ही इनका गुण है अन्यथा जिनाज्ञा भंग का दोष होगा। इसी प्रकार आर्यिका बैठकर भोजन करें ऐसी आचार्यों की आज्ञा है, अत: यह मुनि के समान खड़े होकर आहार न करके बैठकर एक ही स्थिर आसन से आहार करती हैं यह एक अन्तर है। सामान्यतया ये दो अन्तर सवस्त्रता और बैठकर आहार, मुनि और आर्यिकाओं में पाये जाते हैं।
आर्यिकाओं को प्रतिमायोग धारण करना, वृक्षमूल, आतापन एवं अभ्रावकाश योग करने का निषेध है, यह मुनि और आर्यिका में अन्तर है।
वर्तमान पंचम काल में मुनि और आर्यिका दोनों के एकाकी विहार का निषेध है, चतुर्थकाल में मुनि यदि उत्तम संहननधारी एवं श्रुतज्ञ होवे तो उन्हें एकाकी विहार की आज्ञा है अन्य मुनि को नहीं। कर्मभूमि की स्त्रियों को सर्वकाल में हीन संहनन होने से चतुर्थ काल में भी एकाकी विहार की आज्ञा नहीं है। चतुर्थकाल की अपेक्षा मुनि-आर्यिका में यह एक अन्तर है।
किसी का कहना है कि आर्यिकायें सिद्धान्त ग्रंथ अथवा सूत्र ग्रन्थ—गणधरादि रचित ग्रंथ नहीं पढ़ सकतीं। किन्तु यह कथन उचित नहीं है। श्री कुंदकुंददेव स्वरचित मूलाचार में सूत्र का लक्षण करने के अनन्तर लिखते हैं कि—
तं पढिदुमसज्झाये णो कप्पदि विरद इत्थिवग्गस्स।
एत्तो अण्णो गंथो कप्पदि पढिदुं असज्झाए।।
अर्थ—उक्त सूत्रग्रंथ अस्वाध्याय काल में मुनि और आर्यिका न पढ़ें, अस्वाध्याय काल में तो सूत्रग्रंथ से अन्य जो आराधना आदि ग्रंथ हैं वे पढ़ने योग्य हैं। यदि आर्यिका को सूत्रग्रंथ पढ़ना निषिद्ध होता तो वह एकादशांग ज्ञानधारिणी वैâसे हो सकती थी? जैसा कि कहा है—
दु:संसारस्वभावज्ञा सपत्नीभि: सितांबरा।
ब्राह्मी च सुन्दरीं श्रित्वा प्रवव्राज सुलोचना।।५१।।
द्वादशांगधरो जात: क्षिप्रं मेघेश्वरी गणी।
एकादशांगभृज्जाता साऽर्यिकापि सुलोचना।।५२।।
अर्थ—भरत चक्रेश्वर के प्रमुख सेनानी जयकुमार की पट्टमहिषी प्रिया सती सुलोचना ने जगत् एवं काय के स्वभाव को दु:खस्वरूप ज्ञात कर सपत्नियों के साथ पूज्या ब्राह्मी और सुन्दरी नाम की आदिनाथ भगवान् के समवसरण में स्थित प्रमुख आर्यिकाओं के निकट दीक्षा धारण की। जयकुमार ने उसके पूर्व दीक्षा ग्रहण की थी। उनको शीघ्र ही द्वादशांग का ज्ञान हुआ और वे भगवान् आदि प्रभु के गणधर बने। साध्वी सुलोचना आर्यिका भी एकादशांग ज्ञानधारिणी बनीं।आर्यिकाओं को सम्पूर्ण द्वादशांग का ज्ञान तो नहीं होता, किन्तु ग्यारह अंग तक ज्ञान हो सकता है यह उपर्युक्त श्लोकार्थों से स्पष्ट है।स्त्रीवेदोदयजन्य कुछ कमियाँ या दोष आर्यिकाओं में सम्भव हो सकता था।
उनके लिये आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव ने कहा है कि-
अण्णोण्णणुकूलाओ अण्णोण्णहिरक्खणाभिजुत्ताओ।
गयरोसवेरमाया, सलज्जमज्जाद किरियाओ।।६८।।
अर्थ—आर्यिकायें आपस में मिलकर रहें, एक—दूसरे के अनुकूल व्यवहार करें, एक—दूसरे की रक्षा में तत्पर रहें, स्त्रियों में स्वभावत: रोष शीघ्र आता है, वैर विरोध, माया का आधिक्य भी रहता है अत: कहा है कि आर्यिकायें वैर एवं माया को छोड़ दें। लज्जा एवं मर्यादा का संरक्षण भी उन्हें अवश्य करना होगा। आर्यिकाओं के निवास के लिये कहा है—
अगिहत्थ मिस्सणिलये असण्णिवाए विशुद्धसंचारे।
दो तिण्णि व अज्जाओ बहुगीलो वा सहत्थंति।।
अर्थ—आर्यिका गृहस्थ में मिश्रित स्थान पर न रहे, परस्त्री लंपट, दुष्ट तथा पशु आदि से रहित स्थान में रहे, जहाँ पर गुप्त संचार योग्य अर्थात् मल-मूत्रादि के उत्सर्ग का प्रदेश न हो ऐसे स्थानों में दो, तीन अथवा बहुत सी आर्यिकाओं के साथ निवास करें।
अविकारवत्थवेसाजल्लमलविलित्त धत्तदेहाओ।
धम्मकुलकित्तिदिक्खापडिरूव विसुद्ध चरियाओ।।
अर्थ—स्त्रियों में स्वभावत: शृंगार प्रवृत्ति अधिक है, अत: कहा है कि आर्यिकायें विकार रहित वस्त्र पहनें अर्थात् शुक्ल सादी साड़ी मात्र पहनें, सिले हुए वस्त्र (पेटीकोट, ब्लाउज आदि) न पहनें। शरीर के पसीना आदि मल से युक्त रहें अर्थात् शरीर में ममत्व भाव से रहित होवें। जिनधर्म, अपने माता-पिता आदि का कुल तथा दीक्षादायक गुरु का कुल, उनकी कीर्ति—प्रसिद्धि आदि के अनुसार प्रशस्त व्यवहार युक्त होवे।
तिण्णि व पंच व सत्त व अज्जाओ अण्णमण्णरक्खाओ।
थेरेहिं सहंतरिदा भिक्खाय समोदरंति सदा।।
अर्थ—तीन या पाँच अथवा सात आर्यिकायें आहारार्थ श्रावक के वसति में जावें, मार्ग में परस्पर रक्षा करती हुई जावें, साथ ही वृद्धा आर्यिकाओं से अन्तरित-सहित होकर गमन करें। भाव यह है कि ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिये अकेली स्त्री असमर्थ होती है अत: आहार कार्य में भी आर्या एकाकी न जावें, जहाँ सर्वथा परिचित श्रावक हैं उनके गृह में अकेली आहार के लिये जाना निषिद्ध नहीं है।
रोदणण्हावण भोयण पयणं सुत्तं च छव्विहारंभे।
विरदाण पादमक्खण धोवण गेयं च णवि कुज्जा।।
अर्थ—स्त्रियों में स्वभावत: रोना, गाना, भोजन पकाना, अनेक तरह का कूटना, पीसना आदि आरम्भ क्रिया में प्रवृत्ति होती है, अत: कहा है कि वे आर्यिकाएँ रुदन न करें, बालकों का स्नानादि न करावें, कपड़ा न सीवें, रसोई न बनावें। मुनिजनों का पादमर्दन, पाद प्रक्षालन न करें तथा गीत, नृत्य न करें, बाजे आदि न बजावें।
अज्झयणे परियट्टे सवणे तहाणुपेहाये।
तवविणयसंजमेसु य अविरहिदुवओगजुत्ताओ।।
अर्थ—आर्यिकायें मुनिजनों के समान ही अपना समय अध्ययन अर्थात् नवीन ग्रंथों का वाचन, परिवर्तन, अधीत ग्रंथ का पुन: अनुशीलन, अपूर्व अथवा पूर्व शास्त्रों का श्रवण करती रहें, बारह भावनाओं का सतत चिंतवन करें। द्वादश तप, पंच प्रकार का विनय, बारह प्रकार के संयमों में अपना उपयोग लगावें। सदा मन, वचन और काय की प्रवृत्ति शुभ रक्खें। इस प्रकार यह आर्यिका की प्रवृत्ति बतायी गयी है। इन सभी आगम प्रमाणों-मूलाचार, आचारसार आदि ग्रंथों से यह निश्चय होता है कि मुनि और आर्यिकाओं की चर्या में विशेष अन्तर नहीं है।