सामायिक का विशेष अर्थ कहते हैं-
जीविदमरणे लाभालाभे संजोयविप्पओगे य।
बंधुरिसुहदुक्खादिसु समदा सामाइयं णाम।।२३।।
आचारवृत्ति टीका-
जीविदमरणे-जीवितमौदारिकवैक्रियिकादिदेहधारणं, मरणं मृत्यु: प्राणिप्राणवियोग-लक्षणं, जीवितं च मरणं च जीवितमरणे तयोर्जीवितमरणयो: । लाभालाभे- लाभोऽभिलषितप्राप्ति:, अलाभोऽभिलषितस्याप्राप्ति: लाभश्चालाभश्च लाभालाभौ तयोर्लाभालाभयोराहारोपकरणाादिषु प्राप्त्यप्राप्त्यो: । संजोयविप्पओगे य-संयोग- इष्टादिसन्निकर्ष:, विप्रयोग इष्टवियोग: संयोगश्च विप्रयोगश्च संयोगविप्रयोगौ तयो: संयोगविप्रयोगयो:, इष्टानिष्टसन्निकर्षासन्निकर्षयो:। बन्धूरिसुखदुक्खादिसु-बन्धुश्च अरिश्च सुखं च दुखं च बन्ध्वरिसुखदु:खानि तान्यादीनि येषां ते बन्ध्वरिसुखदु:खादयस्तेशु स्वजनमित्रशत्रुसुखदु:खक्षुत्पिपासाशीतोष्णादिषु । समदा-समता-चारित्रानुविद्ध-समपरिणाम:। सामाइयं णाम-सामायिकं नाम भवति । जीवितमरण-लाभालाभसंयोग- विप्रयोगबन्ध्वरिसुख-दु:खादिषु यदेतत्समत्वं समानपरिणाम: त्रिकालदेववन्दनाकरणं च तत्सामायिकं व्रतं भवतीत्यर्थ: ।।
आवश्यकनिर्युक्तेर्निरुक्तिमाह-
ण वसो अवसो अवसस्सकम्ममावस्सयंति बोधव्वा।
जुत्तित्ति उवायत्ति य णिरवयवा होदि णिज्जुत्ती।।५१५।।
न वश्य: पापादेरवश्यो यदेन्द्रियकषायेषत्कषायरागद्वेषादिभिरनात्मीय कृतस्तस्या-वश्यकस्य यत्कर्मानुष्ठानं तदावश्यकमिति बोद्धव्यं ज्ञातव्यं। युक्तिरिति उपाय इति चैकार्थ:। निरवयवा सम्पूर्णाऽखण्डिता भवति निर्युक्ति:। आवश्यकानां निर्युक्तिरावश्यक- निर्युक्तिरावश्यकसम्पूर्णोपाय: अहोरात्रमध्ये साधूनां यदाचरणं तस्याववोधकं पृथक्पृथव्äâ- स्तुति स्वरूपेण ‘‘जयति भगवानित्यादि’’ प्रतिपादकं यत्पूर्वापराविरुद्धं शास्त्रं न्याय- आवश्यकनिर्युक्तिरित्युच्यते । सा च षट्प्रकारा भवति ।।५१५।।
तस्य भेदान् प्रतिपादयन्नाह-
सामाइय चउवीसत्थव वंदणयं पडिक्कमणं।
पच्चक्खाणं च तहा काओसग्गो हवदि छट्ठो।।५१६।।
सम: सर्वेषां समानो यो सर्ग: पुण्यं वा समायस्तस्मिन् भवं, तदेव प्रयोजनं पुण्यं तेन दीव्यतीति वा सामायिकं समये भवं वा सामायिकं। चतुर्विंशतिस्तव: चतुर्विंशति-तीर्थंकराणां स्तव: स्तुति: । वन्दना सामान्यरूपेण स्तुतिर्जयति भगवानित्यादि, पंचगुरुभक्ति-पर्यन्ता पंचपरमेष्ठिविषयनमस्कारकरणं वा शुद्धभावेन। प्रतिक्रमणं व्यतिक्रान्तदोषनिर्हरणं व्रताद्युच्चारणं च । प्रत्याख्यानं भविष्यत्कालविषयवस्तुपरित्यागश्च। तथा कायोत्सर्गो भवति षष्ठ:। सामायिकावश्यकनिर्युक्ति: चतुर्विंशतिस्तवाश्यकनिर्युक्ति:, वन्दनावश्यक-निर्युक्ति:, प्रतिक्रमणावश्यकनिर्युक्ति:, प्रत्याख्यानावश्यकनिर्युक्ति:, कायोत्सर्गावश्यक-निर्युक्तिरिति ।।५१६।।
सामायिककरणक्रममाह-
पडिलिहियअंजलिकरो उवजुत्तो उट्ठिऊण एयमणो।
अव्वाखित्तो वुत्तो करेदि सामाइयं भिक्खू।।५३८।।
प्रतिलेखितावञ्जलिकरौ येनासौ प्रतिलेखिताञ्जलिकर: । उपयुक्त: समाहितमति:,उत्थाय-स्थित्वा,एकाग्रमना अव्याक्षिप्त:, आगमोक्तक्रमेण करोति सामायिकं भिक्षु: । अथवा प्रतिलेख्य शुद्धो भूत्वा द्रव्यक्षेत्रकालभावशुद्धिं कृत्वा, प्रकृष्टाञ्जलि करमुकलितकर: प्रतिलेखनेन सहिताञ्जलिकरो वा सामायिकं करोतीति ।।५३८।।
नामवंदनां प्रतिपादयन्नाह-
किदियम्मं चिदियम्मं पूयाकम्मं च विणयकम्मं च।
कादव्वं केण कस्स व कधे व कहिं व कदिखुत्तो।।५७८।।
पूर्वगाथार्धेन वंदनाया एकार्थ: कथ्यतेऽपरार्द्धेन तद्विकल्पा इति । कृत्यते छिद्यते अष्टविधं कर्म येनाक्षरकदंबकेन परिणामेन क्रियया वा तत्कृतिकर्म पापविनाशनोपाप: । चीयते समेकीक्रियते संचीयते पुण्यकर्म तीर्थकरत्वादि येन तच्चितिकर्म पुण्यसंचयकारणं । पूज्यंतेऽर्च्यन्तेऽर्हदादयो येन तत्पूजाकर्म बहुवचनोच्चारणस्रव्äा्âचंदनादिकं । विनीयंते निराक्रियन्ते संक्रमणोदयोदीरणादि-भावेन प्राप्यंते येन कर्माणि तद्विनयकर्म । शुश्रूषणं तत्क्रिया कर्म कर्तव्यंं केन कस्य कर्तव्यं कथमिव केन विधानेन कर्त्तव्यं कस्मिन्नवस्थाविशेषे कर्त्तव्यं कतिवारान्।।५७८।।
तथा-
कदि ओणदं कदि सिरं कदिए आवत्तगेहिं परिसुद्धं।
कदिदोसविप्पमुक्कं किदियम्मं होदि कादव्वं।।५७९।।
कदि ओणदं-कियन्त्यवनतानि । कति करमुकुलांकितेन शिरसा भूमिस्पर्शनानि कर्त्तव्यानि। कदि सिरं- कियन्ति शिरांसि कतिवारान् शिरसि करकुड्मलं कर्त्तव्यं । कदि आवत्तगेहिं परिसुद्धं-कियद्भिरावर्त्तवैâ: परिशुद्धं कतिवारान्मनोवचनकाया आवर्त्तनीया:। कदि दोसविप्पमुक्कं- कति दोषैर्विप्रमुक्तं कृतिकर्म भवति कर्त्तव्यमिति।।५७९।।
‘कस्मिन्स्थाने’ यदेतत्सूत्रं स्थापितं तद्व्याख्यातमिदानीं कतिबारं कृतिकर्म कर्तव्यमिति यत्सूत्र स्थापितं तद्व्याख्यानायाह-
चत्तारि पडिक्कमणे किदियम्मा तिण्णि होंति सज्झाए।
पुव्वण्हे अवरण्हे किदियम्मा चोद्दसा होंति।।६०२।।
सामायिकस्तवपूर्वककायोत्सर्गश्चतुर्विंशतितीर्थकरस्तवपर्यन्त: कृतिकर्मेत्युच्यते । प्रतिक्रमणकाले चत्वारि क्रियाकर्माणि स्वाध्यायकाले च त्रीणि क्रियाकर्माणि भवंत्येवं पूर्वाण्हे क्रियाकर्माणि सप्त तथाऽपराण्हे च क्रियाकर्माणि सप्तैवं पूर्वाण्हेऽपूर्वाण्हे च क्रियाकर्माणि चतुर्दश भवंतीति । कथं प्रतिक्रमणे चत्वारि क्रियाकर्माणि, आलोचनाभक्तिकरणे कायोत्सर्ग एकंं क्रियाकर्म तथा प्रतिक्रमणभक्तिकरणे कायोत्सर्ग: द्वितीयं क्रियाकर्म तथा वीरभक्तिकरणे कायोत्सर्गस्तृतीयं क्रियाकर्म तथा चतुर्विंशतितीर्थंकरभक्तिकरणे शांतिहेतो: कायोत्सर्गश्चतुर्थं क्रियाकर्म । कथं च स्वाध्याये त्रीणि क्रियाकर्माणि, श्रुतभक्तिकरणे कायोत्सर्ग एकं क्रियाकर्म तथाऽऽचार्यभक्तिक्रियाकरणे द्वितीयं क्रियाकर्म तथा स्वाध्यायोपसंहारे श्रुतभक्तिकरणे कायोत्सर्गस्तृतीयं क्रियाकर्मैवं जातिमपेक्ष्य त्रीणि क्रियाकर्माणि भवंति स्वाध्याये शेषाणां वंदनादिक्रियाकर्मणामत्रैवान्तर्भावो द्रष्टव्य: ।
प्रधानपदोच्चारणं कृतं यत: पूर्वाण्हे दिवस इति एवमपराण्हे रात्रावपि द्रष्टव्यं भेदाभावात् अथवा पश्चिमरात्रौ प्रतिक्रमणे क्रियाकर्माणि चत्वारि स्वाध्याये त्रीणि वंदनायां द्वे, सवितर्युदिते स्वाध्याये त्रीणि मध्याह्नवंदनायां द्वे एवं पूर्वाण्हक्रियाकर्माणि चतुर्दश भवन्ति; तथाऽपराण्हवेलायां स्वाध्याये त्रीणि क्रियाकर्माणि प्रतिक्रमणे चत्वारि वंदनायां द्वे योगभक्तिग्रहणोपसंहारकालयो: द्वे रात्रौ प्रथमस्वाध्याये त्रीणि । एवमपराण्हक्रियाकर्माणि चतुर्दश भवंति प्रतिक्रमणस्वाध्यायकालयोरुपलक्षणत्वादिति, अन्यान्यपि क्रियाकर्माण्यि-त्रैवान्तर्भवन्ति नाव्यापकत्वमिति संबंध: । पूर्वाण्हसमीपकाल: पूर्वाण्ह इत्युच्यतेऽपराण्ह-समीपकालोऽपराण्ह इत्युच्यते तस्मान्न दोष इति ।।६०२।।
स्वाध्याये द्वादशेष्टा षड्वन्दनेऽष्टौ प्रतिक्रमे ।
कायोत्सर्गा योगभक्तौ द्वौ चाहोरात्रगोचरा:१।।७५।।
कत्यवनतिकरणमित्यादि यत्पृष्टं तदर्थमाह-
दोणदं तु जधाजादं बारसावत्तमेव य।
चदुस्सिरं तिसुद्धं च किदियम्मं पउंजदे।।६०३।।
आचारवृत्ति टीका-
दोणदं-द्वे अवनती पंचनमस्कारादावेकावनतिर्भूमिसंस्पर्शस्तथा चतुर्विंशतिस्तवादौ द्वितीयाऽवनति: शरीरनमनं द्वे अवनती जहाजादं-यथाजातं जातरूपसदृशं क्रोधमानमाया-संगादिरहितं । बारसावत्तमेव य द्वादशावर्त्ता एवं च पंचनमस्कारोच्चारणादौ मनोवचनकायानां संयमनानि शुभयोगवृत्तयस्त्रय आवर्त्तास्तथा पंचनमस्कारसमाप्तौ मनोवचन-कायानां शुभवृत्तयस्त्रीण्यन्यान्यावर्त्तनानि तथा चतुर्विंशतिस्तवादौ मनोवचनकाया: शुभवृत्तस्त्रीण्यपराण्यावर्त्तनानि तथा चतुर्विंशतिस्तवसमाप्तौ शुभमनोवचनकायवृत्तयस्त्रीण्या-वर्त्तनान्येवं द्वादशधा मनोवचनकायवृत्तयो द्वादशावर्त्ता भवति, अथवा चतसृषु दिक्षु चत्वार: प्रणामा एकस्मिन् भ्रमणे एवं त्रिषु भ्रमणेषु द्वादश भवंति, चदुस्सिरं चत्वारि शिरांंसि पंचनमस्कारस्यादावंते च करमुकुलांकितशिर:करणं तथा चतुर्विंशतिस्तवस्यादावंते च करमुकुलांकितशिर:करणमेवं चत्वारि शिरांसि भवंति, त्रिशुद्धं मनोवचनकायशुद्धं क्रियाकर्म प्रयुंक्ते करोति । द्वे अवनती यस्मिन् तत् द्वय्वनति क्रियाकर्म द्वादशावर्त्ता: यस्ंिमस्तत् द्वादशावर्त्तं, मनोवचनकायशुद्ध्या चत्वारि शिरांसि यस्मिन् तत् चतु:शिर: क्रियाकर्मैवं विशिष्टं यथाजातं क्रियाकर्म प्रयुंजीतेति ।।६०३।।
गाथार्थ-जीवन-मरण में, लाभ-अलाभ में, संयोग-वियोग में, मित्र-शत्रु में तथा सुख-दु:ख इत्यादि में समभाव होना सामायिक नाम का व्रत है ।।२३।।
आचारवृत्तिटीका-औदारिक, वैकियिक आदि शरीर की स्थिति रहना जीवन है। प्राणियों के प्राणवियोगलक्षण मृत्यु को मरण कहते हैं। अभिलषित वस्तु आहार उपकरण आदि की प्राप्ति का नाम लाभ है और अभिलषित की प्राप्ति न होना अलाभ है। इष्ट आदि पदार्थ का सम्बन्ध होना-मिल जाना संयोग है और इष्ट का अपने से पृथव्â हो जाना वियोग है अर्थात् इष्ट का संयोग या वियोग हो जाना अथवा अनिष्ट का संयोग या वियोग हो जाना संयोग-वियोग है। इन सभी में तथा स्वजन, मित्र-शत्रु, सुख-दु:ख में और आदि शब्द से भूख, प्यास, शीत, उष्ण आदि में चारित्र से समन्वित समभाव का होना ही सामायिक व्रत है और त्रिकालदेववन्दना करना वही सामायिकव्रत होता है ऐसा यहाँ अर्थ है।
अब आवश्यकनिर्युक्ति का निरुक्ति अर्थ कहते हैं-
गाथार्थ-जो वश में नहीं है वह अवश है। उस अवश की मुनि की क्रिया को आवश्यक जानना चाहिये । युक्ति और उपाय एक हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण उपाय निर्युक्ति कहलाता है। ।।५१५।।
आचारवृत्ति-जो पाप आदि के वश्य नहीं है वे अवश्य हैं। जब जो इन्द्रिय,कषाय,नोकषाय और राग-द्वेष आदि के द्वारा आत्मीय नहीं किये गये हैं अर्थात् जिस समय इन इन्द्रिय कषाय आदिकों ने जिन्हें अपने वश में नहीं किया है उस समय वे मुनि अवश्य होने से आवश्यक कहलाते हैं और उनका जो कर्म अर्थात् अनुष्ठान है वह आवश्यक कहा गया है ऐसा जानना चाहिए । युक्ति और उपाय ये एकार्थवाची हैं, उस निरवयव अर्थात् सम्पूर्ण-अखण्डित उपाय को निर्युक्ति कहते हैंं । आवश्यकों की जो निर्युक्ति है उसे आवश्यक निर्युक्ति कहते हैं अर्थात् आवश्यक का सम्पूर्णतया उपाय आवश्यक निर्युक्ति है।अहोरात्र के मध्य साधुओं का जो आचरण है उसको बतलाने वाले जो पृथक्-पृथव्स्तुति रूप से ‘‘जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचारविजृंभिता-’’ इत्यादि के प्रतिपादक जो पूर्वापर से अविरुद्ध शास्त्र हैं जो कि न्यायरूप हैंं, उन्हें आवश्यक निर्युक्ति कहते हैं। उस आवश्यक निर्युक्ति के छह प्रकार हैं।
भावार्थ-यहाँ पर आवश्यक क्रियाओं के प्रतिपादक शास्त्रों को भी आवश्यक निर्युक्ति शब्द से कहा है सो कारण में कार्य का उपचार समझना ।
अब उन आवश्यकनिर्युक्ति के भेदों का प्रतिपादन करते हैं-
गाथार्थ-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और छठा कायोत्सर्ग ये छह हैं।।५१६।।
आचारवृत्ति-सम अर्थात् सभी का समानरूप जो सर्ग अथवा पुण्य है उसे ‘समाय’ कहते है (पुण्य का नाम ‘सम’ भी है अत: पुण्य के पर्यायवाची शब्द से सम ±अय ·समाय बना है। उसमें जो होवे सो सामायिक हैै। यहाँ ‘समाय’ में इकण् प्रत्यय होकर बना है) अथवा वही पुण्य प्रयोजन है जिसका, अथवा ‘तेन दीव्यति’ उस समाय से शोभित होता है ( इस अर्थ में भी इकण् प्रत्यय हो गया है) अथवा समय में जो होवे सो सामायिक है। चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति को चतुर्विंशतिस्तव कहते हैं।
सामान्यरूप से ‘‘जयति भगवान् हेमांभोजप्रचारविजृंभिता-’’ इत्यादि चैत्यभक्ति से लेकर पंचगुरुभक्ति पर्यन्त विधिवत् जो स्तुति की जाती है उसे वन्दना कहते हैं अथवा शुद्ध भाव से पंचपरमेष्ठी विषयक नमस्कार करना वन्दना है। पूर्व में किये गये दोषों का निराकरण करना और व्रतादि का उच्चारण करना अर्थात् व्रतों के दण्डकों का उच्चारण करते हुए उन सम्बन्धी दोषों को दूर करने के लिए ‘मिच्छा मे दुक्कडं ‘बोलना सो प्रतिक्रमण है। भविष्यकाल के लिए वस्तु का त्याग करना प्रत्याख्यान हैं। तथा काय से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है। इस प्रकार सामायिक आवश्यकनिर्युक्ति,चतुर्विंशति आवश्यकनिर्युक्ति, वन्दना आवश्यकनिर्युक्ति,प्रतिक्रमण आवश्यकनिर्युक्ति, प्रत्याख्यान आवश्यकनिर्युक्ति और कायोत्सर्ग आवश्यकनिर्युक्ति ये छह भेद हैं।
अब सामायिक करने का क्रम कहते हैं-
गाथार्थ– प्रतिलेखन सहित अंजलि जोड़कर, उपयुक्त हुआ, उठकर एकाग्रमन होकर, मन को विक्षेप रहित करके, मुनि सामायिक करता है।।५३८।।
आचारवृत्ति-जिन्होंने पिच्छी को लेकर अंजलि जोड़ ली है, जो सावधान बुद्धि वाले हैं, वे मुनि व्याक्षिप्त चित्त न होकर, खड़े होकर एकाग्रमन होते हुए, आगम में कथित विधि से सामायिक करते हैं। अथवा पिच्छी से प्रतिलेखन करके शुद्ध होकर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव शुद्धि को करके प्रकृष्टरूप से अंजलि को मुकुलित कमलाकार बना कर अथवा प्रतिलेखन पिच्छिका सहित अंजलि जोड़कर सामायिक करते हैं।
नाम वन्दना का प्रतिपादन करते हैं-
गाथार्थ-कृतिकर्म,चितिकर्म,पूजाकर्म और विनयकर्म ये वन्दना के एकार्थ नाम हैंं। किसको, किसकी, किस प्रकार से, किस समय और कितनी बार वन्दना करना चाहिये ।।५७८।।
आचारवृत्ति-गाथा के पूर्वार्ध से वन्दना के पर्यायवाची नाम कहे हैं अर्थात् कृतिकर्म आदि वन्दना के ही नाम हैं। तथा गाथा के अपरार्ध से वन्दना के भेद कहे हैंं।
कृतिकर्म-जिस अक्षर समूह से या जिस परिणाम से अथवा जिस क्रिया से आठ प्रकार का कर्म काटा जाता है-छेदा जाता हैं वह कृतिकर्म कहलाता है अर्थात् पापों के विनाशन का उपाय कृतिकर्म है।
चितिकर्म-जिस अक्षर समूह से या परिणाम से अथवा क्रिया से तीर्थंकरत्व आदि पुण्य कर्म का चयन होता है- सम्यव्äा्â प्रकार से अपने साथ एकीभाव होता है या संचय होता है, वह पुण्य संचय का कारणभूत चितिकर्म कहलाता है।
पूजाकर्म-जिन अक्षर आदिकों के द्वारा अरिहंत देव आदि पूजे जाते हैं-अर्चे जाते हैं ऐसा बहुवचन से उच्चारण कर उनको जो पुष्पमाला, चन्दन आदि चढ़ाये जाते हैं वह पूजाकर्म कहलाता है।
विनयकर्म-जिसके द्वारा कर्मों का निराकरण किया जाता है अर्थात् कर्म संक्रमण, उदय, उदीरणा आदि भाव से प्राप्त करा दिये जाते हैं वह विनय है जोकि शुश्रुषारूप है।
वह वन्दनाक्रिया नामक आवश्यककर्म किसे करना चाहिए ? किसकी करना चाहिए ? किस विधान से करना चाहिए ? किस अवस्था विशेष में करना चाहिये ? और कितनी बार करना चाहिए ? इस आवश्यक के विषय में ऐसी प्रश्नमाला होती है।
उसी प्रकार से और भी प्रश्न होते हैं-
गाथार्थ-कितनी अवनति, कितनी शिरोनति, कितने आवर्तों से परिशुद्ध, कितने दोषों से रहित कृतिकर्म करना चाहिए ।।५७९।।
आचारवृति-हाथों को मुकुलित जोड़कर, मस्तक से लगाकर शिर से भूमि स्पर्श करके जो नमस्कार होता है उसे अवनति या प्रणाम कहते हैं। वह अवनति कितनी बार करना चाहिए ? मुकुलित-जुड़े हुए हाथ पर मस्तक रखकर नमस्कार करना शिरोनति है सो कितनी होनी चाहिए ? मनवचनकाय का आवर्तन करना या अंजुलि, जुड़े हाथों को घुमाना सो आवर्त हैं-यह कितनी बार करना चाहिए ? एवं कितने दोषों से रहित यह कृतिकर्म होना चाहिए ?
‘अब कितनी बार कृतिकर्म करना चाहिए’ जो यह प्रश्न हुआ था उसका व्याख्यान करते हैं-
गाथार्थ-प्रतिक्रमण में चार कृतिकर्म, स्वाध्याय में तीन ये पूर्वाह्न और अपराह्न से सम्बन्धित ऐसे चौदह कृतिकर्म होते हैं।।६०२।।
आचारवृत्ति-सामायिक स्तवपूर्वक कायोत्सर्ग करके चतुर्विंशति तीर्थंकर स्तवपर्यंत जो क्रिया है उसे ‘कृतिकर्म’ कहते हैं। प्रतिक्रमण में चार कृतिकर्म और स्वाध्याय में तीन कृतिकर्म इस तरह पूर्वाह्न सम्बन्धी क्रियाकर्म सात होते हैं तथा अपराह्न सम्बन्धी क्रियाकर्म भी सात होते हैं। ऐसे चौदह क्रियाकर्म होते हैं।
प्रतिक्रमण में चार कृतिकर्म कैसेहोते हैं ?
आलोचना भक्ति (सिद्धभक्ति) करने में कायोत्सर्ग होता है वह एक क्रियाकर्म हुआ । प्रतिक्रमण भक्ति के करने में कायोत्सर्ग होता है वह दूसरा क्रियाकर्म हुआ । वीर- भक्ति के करने में जो कायोत्सर्ग हैं वह तृतीय क्रियाकर्म हुआ तथा चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति के करने में शांति के लिए जो कायोत्सर्ग है वह चतुर्थ क्रियाकर्म है। इस तरह प्रतिक्रमण में चार क्रियाकर्म हुए ।
स्वाध्याय में तीन कृतिकर्म कैसे हैं ?
स्वाध्याय के प्रारम्भ में श्रुतभक्ति के करने में कायोत्सर्ग होता है वह एक कृतिकर्म है तथा आचार्यभक्ति की क्रिया करने में जो कायोत्सर्ग है वह दूसरा कृतिकर्म है। तथा स्वाध्याय की समाप्ति में श्रुतभक्ति करने में जो कायोत्सर्ग है वह तीसरा कृतिकर्म है। इस तरह जाति की अपेक्षा तीन क्रियाकर्म स्वाध्याय में होते हैं। शेष वन्दना आदि क्रियाओं का इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाता है। प्रधान पद का ग्रहण किया है जिससे पूर्वाह्न कहने से दिवस का और अपराह्न कहने से रात्रि का भी ग्रहण हो जाता है, क्योंकि पूर्वाह्न से दिवस में और अपराह्न से रात्रि में कोई भेद नहीं है।अथवा पश्चिम रात्रि के प्रतिक्रमण में क्रियाकर्म चार, स्वाध्याय में तीन और वन्दना में दो, सूर्य उदय होने के बाद स्वाध्याय के तीन, मध्याह्न वन्दना के दो इसप्रकार से पूर्वाण्ह संबंधी क्रियाकर्म चौदह होते हैं। तथा अपराह्नबेला में स्वाध्याय में तीन क्रियाकर्म, प्रतिक्रमण में चार, वन्दना में दो, योगभक्ति ग्रहण और उपसंहार में दो एवं रात्रि में प्रथम स्वाध्याय के तीन इस तरह अपराह्न संबंधी क्रियाकर्म चौदह होते हैं। गाथा में प्रतिक्रमण और स्वाध्याय काल उपलक्षणरूप हैं इससे अन्य भी क्रियाकर्म इन्हीं में अन्तर्भूत हो जाते हैं। अत: अव्यापक दोष नहीं आता है। चूँकि पूर्वाह्न के समीप का काल पूर्वाह्न कहलाता है और अपराह्न के समीप का काल अपराह्न कहलाता है इसलिये कोई दोष नहीं है।
भावार्थ-मुनि के अहोरात्र सम्बन्धी अट्ठाईस कायोत्सर्ग कहे गये हैं। उन्हीं का यहाँ वर्णन किया गया है। यथा दैवसिक-रात्रिक इन दो प्रतिक्रमण सम्बन्धी कायोत्सर्ग ८, त्रिकालदेववन्दना सम्बन्धी ६, पूर्वाह्न, अपराह्न, तथा पूर्वरात्रि और अपररात्रि इन चार काल में तीन बार स्वाध्याय संबंधी १२, रात्रियोग ग्रहण और विसर्जन इन दो समयों में दो बार योगभक्ति संबंधी २, कुल मिलाकर २८ होते हैं। अन्यत्र ग्रन्थों में भी इनका उल्लेख है यथा-
अर्थ-स्वाध्याय के बारह, वन्दना के छह, प्रतिक्रमण के आठ और योगभक्ति के दो ऐसे अहोरात्र सम्बन्धी अट्ठाईस कायोत्सर्ग होते हैंं।
‘कितनी अवनति करना ?’ इत्यादि रूप जो प्रश्न हुए थे उन्हीं का उत्तर देते हैं-
गाथार्थ-जातरूप सदृश दो अवनति, बारह आवर्त, चार शिरोनति और तीन शुद्धि सहित कृतिकर्म का प्रयोग करें ।।६०३।।
आचारवृति-दो अवनति-पंचनमस्कार के आदि में एक बार अवनति अर्थात् भूमि स्पर्शनात्मक नमस्कार करना तथा चतुर्विंशतिस्तव के आदि में दूसरी बार अवनति-शरीर का नमाना अर्थात् भूमिस्पर्शनात्मक नमस्कार करना ये दो अवनति हैं। यथाजात-जातरूप सदृश क्रोध,मान,माया और संग-परिग्रह या लोभ आदि रहित कृतिकर्म को मुनि करते हैं। द्वादश आवर्त-पंच नमस्कार के उच्चारण के आदि में मन वचन काय के संयमनरूप शुभयोगों की प्रवृत्ति होना ये तीन आवर्त पंचनमस्कार की समाप्ति में मनवचनकाय की शुभप्रवृत्ति होना ये तीन आवर्त, तथा चतुर्विंशति स्तव की आदि में मन वचन काय की शुभप्रवृत्ति होना ये तीन आवर्त एवं चतुर्विंशति स्तव की समाप्ति में शुभ मन वचन काय की प्रवृत्ति होना ये तीन आवर्त-ऐसे मन वचन काय की शुभप्रवृत्ति रूप बारह आवर्त होते हैं। अथवा चारों ही दिशाओं में चार प्रणाम एक भ्रमण में ऐसे ही तीन बार के भ्रमण में बारह हो जाते हैं।चतु:शिर-पंचनमस्कार के आदि और अन्त में कर मुकुलित करके अंजलि जोड़कर माथे से लगाना तथा चतुर्विंशति स्तव के आदि और अन्त में मुकुलित करके माथे से लगाना ऐसे चार शिर-शिरोनति होती हैं।इस तरह इस एक कृतिकर्म में दो अवनति, बारह आवर्त और चार शिरोनमन होते हैंं। मन वचन काय की शुद्धिपूर्वक मुनि इस विधानयुक्त यथाजात कृतिकर्म का प्रयोग करें।
विशेषार्थ-एक बार के कायोत्सर्ग में यह उपर्युक्त विधि की जाती है उसी का नाम कृतिकर्म है। यह विधि देववन्दना, प्रतिक्रमण आदि सर्व क्रियाओं में भक्तिपाठ के प्रारम्भ में की जाती है। जैसे देववन्दना में चैत्यभक्ति के प्रारम्भ में-
‘अथ पौर्वाण्हिक-देववन्दनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं श्रीचैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहंं’ ।
यह प्रतिज्ञा हुई, इसको बोलकर भूमि स्पर्शनात्मक पंचांग नमस्कार करें । यह एक अवनति हुई । अनन्तर तीन आवर्त और एक शिरोनति करके ‘णमो अरिहंताणं…. चत्तारिमंगलं…अड्ढाइज्जदीव….इत्यादि पाठ बोलते हुए… दुच्चरियं वोस्सरामि’ तक पाठ बोले यह सामायिक स्तव कहलाता है। पुन: तीन आवर्त और एक शिरोनति करें। इस तरह सामायिक दण्डक के आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति होने से छह आवर्त और दो शिरोनति हुई। पुन: नौ बार णमोकार मन्त्र को सत्ताईस श्वासोच्छ्वास में जपकर भूमिस्पर्शनात्मक नमस्कार करें । इस तरह प्रतिज्ञा के अनन्तर और कायोत्सर्ग के अनन्तर ऐसे दो बार अवनति हो गयीं ।
बाद में तीन आवर्त, एक शिरोनति करके ‘थोस्सामि स्तव’ पढ़कर अन्त में पुन: तीन आवर्त, एक शिरोनति करें। इस तरह चतुर्विंशति स्तव के आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति करने से छह आवर्त और दो शिरोनति हो गयीं । ये सामायिक स्तव सम्बन्धी छह आवर्त, दो शिरोनति तथा चतुर्विंशतिस्तव संबंधी छह आवर्त, दो शिरोनति मिलकर बारह आवर्त और चार शिरोनति हो गयी।इस तरह एक कायोत्सर्ग के करने में दो प्रणाम, बारह आवर्त और चार शिरोनति होती हैं। जुड़ी हुई अंजुलि को दाहिनी तरफ से घुमाना सो आवर्त का लक्षण है।इतनी क्रियारूप कृतिकर्म को करके ‘‘जयति भगवान्’’ इत्यादि चैत्यभक्ति का पाठ पढ़ना चाहिए । ऐसे ही जो भी भक्ति जिस क्रिया में करना होती है तो यही विधि की जाती है।