मुनियों के प्रधान आचरण को मूलगुण कहते हैं। ‘मूल’ शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। फिर भी यहाँ मूल का प्रधान—मुख्य ऐसा अर्थ लिया गया है। ‘गुण’ शब्द के भी अनेक अर्थ हैं फिर भी यहाँ ‘आचरण विशेष’ ऐसा अर्थ लिया है। ये मूलगुण इस लोक और परलोक में हित करने वाले हैं। इस लोक में सर्वजनमान्यता गुरुपना और सभी जनों के साथ मैत्रीभाव आदि गुण होते हैं और परलोक में देवों का ऐश्वर्य, तीर्थंकरपद, चक्रवर्तिपद आदि प्राप्त होते हैं और परम्परा से यह आत्मा सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाता है। इन मूलगुणों के बिना आज तक किसी को शुक्लध्यान की सिद्धि नहीं हुई है और शुक्लध्यान के बिना मोक्ष की प्राप्ति भी नहीं होती है। तात्पर्य यह है कि ये मूलगुण वृक्ष की मूल जड़ या बीज के समान ही मोक्ष के लिए मूल कारण हैं और तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट होने से प्रामाणिक हैं।
मूलगुण अट्ठाईस हैं-पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय निरोध, षट्आवश्यक तथा लोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त। मुख्यव्रतों को महाव्रत कहते हैं। ‘महान् शब्द का अर्थ प्रधान है और व्रत शब्द, सावद्यनिवृत्तिरूप मोक्ष प्राप्ति के लिए निमित्तभूत आचरण में आता है अर्थात् मोक्ष के लिए जो हिंसादि पापों का त्याग किया जाता है, उसे ही व्रत कहते हैं। तीर्थंकर आदि महान् पुरुषों के द्वारा इनका अनुष्ठान किया जाता है इसलिए भी इन्हें महाव्रत कहते हैं अथवा महान् पुरुषार्थ जो मोक्ष, उसकी प्राप्ति में ये स्वत: ही हेतु होते हैं इसलिए महाव्रत कहलाते हैं।
१. अहिंसा महाव्रत—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस, इन षट्कायिक जीवों की िंहसा का मन-वचन-काय से पूर्णतया त्याग कर देना अहिंसा महाव्रत है। इस महाव्रत में सम्पूर्ण आरंभ और परिग्रह का त्याग हो जाता है।
२. सत्यमहाव्रत—राग, द्वेष, मोह, क्रोध आदि दोषों से युक्त असत्य वचनों का त्याग कर देना और ऐसा सत्य भी नहीं बोलना कि जिससे प्राणियों का घात हो जावे, वह सत्यमहाव्रत है।
३. अचौर्यमहाव्रत—ग्राम, शहर आदि में किसी की भूली, रखी या गिरी हुई वस्तु को स्वयं नहीं लेना, दूसरों के द्वारा संग्रहीत शिष्य, पुस्तक आदि को भी न लेना तथा दूसरों के द्वारा बिना दी गई ऐसी योग्य वस्तु को भी नहीं लेना सो अचौर्यमहाव्रत है।
४. ब्रह्मचर्य महाव्रत—राग भाव को छोड़कर पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहना। बालिका, युवती और वृद्धा में पुत्री, बहन और माता के समान भाव रखना यह त्रैलोक्यपूज्य ब्रह्मचर्य व्रत है।
५. परिग्रहत्याग महाव्रत—धन, धान्य आदि दस प्रकार के बहिरंग तथा मिथ्यात्व, वेद आदि चतुर्दश प्रकार के अंतरंग परिग्रह का त्याग कर देना, वस्त्राभूषण, अलंकार आदि का पूर्णतया त्याग कर देना, लंगोटी मात्र भी नहीं रखना सो अपरिग्रहमहाव्रत है। आगम के कहे अनुसार गमनागमन, भाषण आदि में सं-सम्यक् इति प्रवृत्ति करना समिति है। ये समितियाँ व्रतों की रक्षा करने में वृत्ति—बाड़ के समान हैं। इनके भी पाँच भेद हैं-ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और उत्सर्ग।
६. ईर्या समिति—निर्जंतुकमार्ग से सूर्योदय के प्रकाश में चार हाथ आगे जमीन देखकर एकाग्रचित्तपूर्वक तीर्थयात्रा, गुरुवंदना आदि धर्मकार्यों के लिए गमन करना ईर्या समिति है।
७. भाषासमिति—चुगली, हंसी, कर्कश, परनिंदा आदि से रहित, हित-मित और असंदिग्ध वचन बोलना भाषासमिति है।
८. एषणा समिति—छ्यालिस दोष और बत्तीस अंतराय से रहित नवकोटि से शुद्ध श्रावक के द्वारा दिया गया ऐसा प्रासुक, निर्दोष, पवित्र आहार लेना एषणासमिति है।
९. आदाननिक्षेपण समिति—पुस्तक, कमण्डलु आदि को रखते या उठाते समय कोमल मयूर पिच्छिका से परिमार्जन करके रखना, उठाना, तृण, घास, चटाई, पाटे आदि को भी सावधानी से देखकर पिच्छिका से परिमार्जन करके ग्रहण करना या रखना सो आदाननिक्षेपण समिति है।
१०. उत्सर्ग समिति—हरी घास से रहित, चिंवटी आदि से या उनके बिलों से रहित, प्रासुक और एकांत स्थान में मलमूत्रादि विसर्जन करना यह उत्सर्ग या प्रतिष्ठापनसमिति है।
स्पर्शन, रसना आदि पाँचों इंद्रियों को वश में रखना, इनको शुभ ध्यान में लगा देना पंचेन्द्रिय निरोध होता है। इसके भी पाँचों इंद्रियों की अपेक्षा पाँच भेद हो जाते हैं।
११. स्पर्शनइंद्रिय निरोध—सुखदायक, कोमल, स्पर्शादि में या कठोर, कंकरीली भूमि आदि के स्पर्श में आनंद या खेद नहीं करना।
१२. रसनेन्द्रिय निरोध—सरस, मधुर भोजन में या नीरस, शुष्क भोजन में हर्ष-विषाद नहीं करना।
१३. घ्राणेन्द्रिय निरोध—सुगंधित पदार्थ में या दुर्गंधित वस्तु में राग-द्वेष नहीं करना।
१४. चक्षुइन्द्रिय निरोध—स्त्रियों के सुन्दर रूप या विकृत वेष आदि में रागभाव और द्वेषभाव नहीं करना।
१५. कर्णेन्द्रिय निरोध—सुन्दर-सुन्दर गीत, वाद्य तथा असुन्दर—निंदा, गाली आदि के वचनों में हर्ष-विषाद नहीं करना। यदि कोई मधुर गीतों से गान करता हो, तो उसे रागभाव से नहीं सुनना।
जो अवश्य—जितेन्द्रिय मुनि का कर्तव्य है वह आवश्यक कहलाता है। उसके छह भेद हैं—समता, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग।
१६. समता—‘‘जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुख आदि में हर्ष विषाद नहीं करना, समान भाव रखना समता है। इसे ही सामायिक कहते हैं। त्रिकाल में देववंदना करना यह भी सामायिकव्रत है।’’ प्रात:, मध्यान्ह और सायंकाल में विधिवत् कम से कम एक मुहूर्त—४८ मिनट तक सामायिक करना होता है।
१७. स्तुति—वृषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना स्तव नाम का आवश्यक है।
१८. वंदना—अरिहंतों को, सिद्धों को, उनकी प्रतिमाओं को, जिनवाणी को और गुरुओं को कृतिकर्मपूर्वक नमस्कार करना वंदना है।
१९. प्रतिक्रमण—अहिंसादि व्रतों में जो अतीचार आदि दोष उत्पन्न होते हैं, उनको निंदा- गर्हा करके शोधन करना—दूर करना प्रतिक्रमण है। इसके ऐर्यापथिक, दैवसिक आदि सात भेद हैं।
२०. प्रत्याख्यान—मन, वचन, काय से भविष्य के दोषों का त्याग करना प्रत्याख्यान है। आहार ग्रहण के अनन्तर गुरु के पास अगले दिन आहार ग्रहण करने तक के लिए जो चतुराहार का त्याग किया जाता है, वह प्रत्याख्यान कहलाता है।
‘‘अतीतकाल के दोष का निराकरण करना प्रतिक्रमण है। अनागत और वर्तमानकाल में द्रव्यादि दोष का परिहार करना प्रत्याख्यान है। यही इन दोनों में अन्तर है। तप के लिए निर्दोष वस्तु का त्याग करना भी प्रत्याख्यान है किन्तु प्रतिक्रमण दोषों के निराकरण हेतु ही है।’’
२१. कायोत्सर्ग—दैवसिक, रात्रिक आदि क्रियाओं में पच्चीस या सत्ताईस उच्छ्वास प्रमाण से तथा चौवन, एक सौ आठ आदि श्वासोच्छ्वासपूर्वक णमोकार मंत्र का स्मरण करना। काय—शरीर का उत्सर्ग—त्याग अर्थात् काय से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है।
२२. लोच—हाथों से अपने शिर, दाढ़ी और मूँछ के बाल उखाड़ना केशलोच मूलगुण है।
२३. अचेलकत्व—सूती, रेशमी आदि वस्त्र, पत्र, वल्कल आदि का त्याग कर देना, नग्न वेष धारण करना अचेलकत्व है। यह जितेन्द्रिय महान् पुरुषों के द्वारा स्वीकार किया जाने से तीनों जगत् में वंदनीय महान् पद है। वस्त्रों के ग्रहण करने से परिग्रह, आरंभ, धोना, सुखाना और याचना करना आदि दोष होते हैं अत: निष्परिग्रही साधु के यह व्रत होता है।
२४. अस्नानव्रत—स्नान, उबटन आदि का त्याग करना अस्नानव्रत है। धूलि से धूसरित, मलिन शरीरधारी मुनि कर्ममल को भी धो डालते हैं। चांडाल आदि अस्पृश्य जन का अथवा विष्ठा, हड्डी, चर्म आदि का स्पर्श हो जाने से मुनि दंडस्नान करके गुरु से प्रायश्चित्त भी ग्रहण करते हैं।
२५. क्षितिशयन—निर्जंतुक भूमि में घास, पाटा अथवा चटाई पर शयन करना भूमिशयन व्रत है। ध्यान, स्वाध्याय आदि से या गमनागमन से थककर स्वल्प निद्रा लेना होता है।
२६. अदंतधावन—नीम की लकड़ी आदि से दंत मंजन नहीं करना अदंतधावन व्रत है। दांतों को नहीं घिसने से इंद्रिय संयम होता है, शरीर से विरागता प्रगट होती है और सर्वज्ञदेव की आज्ञा का पालन होता है।
२७. स्थितिभोजन—पांवों को चार अंगुल अन्तराल से रखकर एक स्थान में खड़े होकर दोनों हाथों की अंजुली बनाकर श्रावक के द्वारा दिया हुआ आहार ग्रहण करना स्थितिभोजन व्रत है।
२८. एकभक्त—एक बेला में आहार लेना—सूर्योदय के अनन्तर तीन घड़ी के बाद और सूर्यास्त के तीन घड़ी पहले तक दिन में सामायिक काल को छोड़कर एक बार आहार ग्रहण करना एकभक्त है।
इस प्रकार दिगम्बर जैन साधु इन मूलगुणों का पालन करते हुए इस जगत् में सर्वत्र पूज्य होते हैं और क्रम से मोक्ष को प्राप्त करने वाले होते हैं।
पंच महाव्रत, पंच समिति और तीन गुप्ति (मन, वचन, काय को शुभ-अशुभ प्रवृत्ति से रोकना अथवा अशुभ प्रवृत्ति से रोकना भी गुप्ति है) इन तेरह को तेरह प्रकार का चारित्र या चरण कहते हैं। पंच परमेष्ठी को नमस्कार, षट् आवश्यक क्रिया और असही तथा निसही इनको तेरह क्रिया या करण भी कहते हैं। साधु इन तेरह प्रकार के चरण और करण में कुशल रहते हैं।
आचेलक्य, लोंच, शरीर संस्कारहीनता और मयूरपिच्छिका मुनियों के ये चार चिन्ह माने हैं।
आचेलक्य—चेल—वस्त्रादि परिग्रह का त्याग करना। यहाँ चेल शब्द उपलक्षण मात्र है अत: वस्त्र के साथ खेत, घर, धन, धान्यादि सम्पूर्ण परिग्रहों का त्याग करना विवक्षित है। यह नग्नता ही निर्ग्रंथता है और यह उत्सर्ग लिंग है। निर्गंथ अवस्था धारण किये बिना मुक्ति असंभव है। वस्त्र, चर्म, वल्कल, पत्ते आदि से शरीर को नहीं ढकना, भूषण, आभरण आदि धारण नहीं करना ही अचेलकता है। यह अचेलकत्व व्रत जगत् में पूज्य है और अट्ठाईस मूलगुणों में एक मूलगुण है।
लोंच—स्नान और केशों का संस्कार आदि न करने से उसमें जूँ आदि उत्पन्न हो सकते हैं इसीलिए अपने हाथ से मस्तक, दाढ़ी और मूँछ के केशों को उखाड़ना केशलोंच है। यह प्रदक्षिणावर्त रूप से अर्थात् दाहिने बाजू से आरंभ कर बायें तरफ आवर्त से किया जाता है। दो मास के अनन्तर अथवा पूरे दो मास होने पर लोंच करना उत्कृष्ट है। तीन मास के बीत जाने पर अथवा पूरे नहीं भी होने पर अथवा पूरे तीन मास होने पर केशलोंच करना मध्यम है। चार मास पूर्ण होने पर अथवा अपूर्ण रहने पर लोंच करना जघन्य है किन्तु चार महीने के ऊपर नहीं होना चाहिए।’’ उपवासपूर्वक ही लोंच करना होता है। पाक्षिक, चातुर्मासिक आदि प्रतिक्रमण के दिन ही लोंच करना चाहिए अथवा बिना प्रतिक्रमण के दिन भी लोंच किया जा सकता है। पुन: लोंच करके प्रतिक्रमण करना चाहिए।’ दैन्यवृत्ति, याचना, परिग्रह और तिरस्कार आदि दोषाें से बचने के लिए ही यह केशलोंच क्रिया है। यह भी एक मूलगुण है। ‘लोंच के समय मौन रखना चाहिए।’
व्युत्सृष्टशरीरता—शरीर से ममत्व का त्याग करना। इसमें मुनिगण जलस्नान, शरीर को उबटन, तेल आदि लगाकर अभ्यंग स्नान, नखों का, केशों का, दाढ़ी मूँछों का संस्कार, दंत, ओष्ठ आदि का संस्कार नहीं करते हैं। सुगंधित कस्तूरी आदि से, पुष्प माला आदि से शरीर को नहीं सजाते हैं। इस प्रकार शरीर संस्कार स्नान आदि नहीं करने पर वे मुनि अत्यंत रूक्ष, मलिन शरीर के धारी होने पर भी ब्रह्मचर्य से पवित्र होने से पूज्य होते हैं। चूँकि अस्नान व्रत भी एक मूलगुण है।
प्रतिलेखन—जिससे प्रतिलेखन—शोधन या संमार्जन किया जाये, वह प्रतिलेखन है। यहाँ मयूर के पंखों की पिच्छिका को प्रतिलेखन कहते हैं। कार्तिक मास में स्वयं ही मयूर अपने पंखों को छोड़ देते हैं, उन्हें ही ग्रहण कर यह बनाई जाती है। दीक्षा के समय आचार्य इस संयम के उपकरण रूप पिच्छिका को जीवदया पालन हेतु शिष्यों को देते हैं। आजकल कार्तिक मास में संघ में ये पिच्छिकाएं प्राय: आर्यिकाओं द्वारा बनाई जाती हैं, पुन: आचार्य चातुर्मास समाप्ति पर चतुर्विध संघ के समक्ष स्वयं नूतन पिच्छिका ग्रहण करके सभी शिष्यों को नूतन पिच्छिका देते हैं। इसमें पाँच गुण होते हैं—धूलि को ग्रहण नहीं करना, पसीने से मलिन नहीं होना, मृदुता, सुकुमारता और लघुता। यदि यह धूलि को ग्रहण करे तो इससे पसीने सहित का परिमार्जन नहीं बनेगा या सचित्त से अचित्त, अचित्त से सचित्त धूलि के परिमार्जन में दूषण आयेगा। यह पसीने को ग्रहण करे तो पुन: पुस्तक आदि का परिमार्जन नहीं बनेगा इसलिए धूलि और रज को ग्रहण न करने से सदैव सभी वस्तु का प्रतिलेखन बन जाता है। इसका स्पर्श बहुत ही कोमल है। नेत्र में घुमाने पर भी बाधा नहीं होती है। सुकुमार—नमनशील है, झुक जाती है अन्यथा कठोर होने से इससे जीवों को बाधा हो सकती है और लघु है—हल्की है।
प्रतिलेखन का कार्य—
ईर्यापथ से गमन करने में यदि त्रस जीव बहुत हैं, तो उन्हें पिच्छी से दूर किया जाता है। क्षेत्र या धूलि का रंग बदलने पर या धूप से छाया में और छाया से धूप में जाते समय साधु अपने सर्वांग को पिच्छी से परिमार्जित करके पैर की धूलि को पिच्छी से हटाकर आगे बढ़ते हैं। अथवा जल में प्रवेश करना हुआ तो पैर की धूलि झाड़कर जल में प्रवेश करते हैं।’’ मार्ग में गमन करते समय जल के आने पर घुटने तक जल में प्रवेश करने से एक कायोत्सर्ग करना होता है। यदि उससे अधिक जल होता है तो उस जल के अधिक-अधिक जल के प्रमाण से गुरु से प्रायश्चित्त ग्रहण करना होता है। इसी प्रकार पुस्तक, कमण्डलु आदि के ग्रहण करने में, रखने में, मल-मूत्रादि विसर्जन के स्थान में, खड़े होने में, बैठने में, सोने में, सीधे सोने में, करवट बदलने में, हाथ-पैर आदि पैâलाने में, उनके संकोचने में, शरीर आदि के स्पर्श करने में, अन्य भी किन्हीं कार्यों में साधु सावधान होते हुए अपनी पिच्छिका से परिमार्जन कर त्रस आदि जीवों की रक्षा करते हैं।
श्री कुन्दकुन्द स्वामी भी कह रहे हैं—
‘जो द्वीन्द्रिय आदि प्राणी सूक्ष्म हैं, वे चर्म चक्षु से नहीं दिखते हैं इसीलिए जीवदया हेतु पिच्छी धारण करना चाहिए। मलमूत्र विसर्जन करना, रात्रि में सोया हुआ साधु जब उठकर बैठता है और पुन: सोता है, करवट बदलता है, हाथ पैर फैलाता है इत्यादि कार्यों में यदि पिच्छी से परिमार्जन किये बिना ये क्रियाएँ करता है, तो नियम से जीव हिंसा होती है। नेत्र में घुमाने पर भी इससे पीड़ा न होने से प्रतिलेखन सूक्ष्मत्वादियुक्त लघु पिच्छिका ग्रहण करना चाहिए। खड़े होने में, चलने आदि क्रियाओं में इस प्रतिलेखन से शोधन किया जाता है इसलिए स्वपक्ष में जैन मुनियों के चिन्ह में यह एक विशेष चिन्ह है।’’ ‘‘जो मुनि अपने पास पिच्छी नहीं रखते हैं, वे उपर्युक्त क्रियाओं में जीवों के घात से नहीं बच सकते हैं अत: उन्हें निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती है। अन्यत्र भी कहा है—‘‘कोई साधु बिना पिच्छी सात कदम गमन करे तो एक कायोत्सर्ग से शुद्ध होता है। यदि एक कोश गमन करे तो एक उपवास से शुद्ध होता है तथा आगे दूना-दूना प्रायश्चित्त है।’’ यह पिच्छी जिनमुद्रा का चिन्ह है, मुद्रा ही सर्वत्र मान्य होती है और मुद्रा रहित मनुष्य मान्य नहीं होता है। साधु सामायिक, वंदना, चतुर्विंशतिस्तव आदि के समय भगवान् को नमस्कार करते समय और गुरुओं को नमस्कार करते समय दोनों हाथों में पिच्छी को लेकर अंजुलि जोड़कर अर्थात् पिच्छिका सहित अंजलि जोड़कर वंदना आदि करते हैं।’ इस प्रकार से पिच्छिका के गुण और कार्य बताये हैं। ये साधु स्वयं भी अपने हाथ से पिच्छी बना सकते हैं अथवा श्रावकजन बनाकर प्रदान करते हैं। कहा भी है—‘‘यदि स्वाध्याय, व्याख्यान आदि क्रियाओं को न छोड़कर अवकाश के समय साधु पुस्तक, पिच्छी आदि उपकरण बनाता है तो प्रायश्चित्त नहीं है, यदि क्रिया में बाधा करके बनावें तो प्रायश्चित्त है।’’
समाचार विधि—
सम के भाव को समता कहते हैं अर्थात् राग-द्वेष का अभाव सो समाचार कहलाता है अथवा त्रिकाल देववंदना या पंच नमस्काररूप परिणाम समता है या सामायिक व्रत समता है, इस प्रकार के आचार को समाचार कहते हैं अथवा सम-सम्यक्-निरतिचार मूलगुणों का अनुष्ठान आचार सो समाचार है अथवा सभी में पूज्य या अभिप्रेत जो आचार है वह समाचार है। इस
समाचार के दो भेद हैं—औघिक और पदविभागिक। सामान्य आचार को औघिक समाचार कहते हैं तथा सूर्योदय से प्रारंभ कर अहोरात्र में जितना आचार मुनियों के द्वारा किया जाता है उसे पदविभागी समाचार कहते हैं।
१. इच्छाकार—सम्यग्दर्शन आदि इष्ट को हर्ष से स्वीकार करना।
२. मिथ्याकार—व्रतादि में अतिचारों के होने पर ‘मेरा दुष्कृत मिथ्या होवे’ ऐसा कहकर उनसे दूर होना।
३. तथाकार—गुरु के मुख से सूत्रार्थ सुनकर ‘यही ठीक है’ ऐसा अनुराग व्यक्त करना तथाकार है।
४. आसिका—जिनमंदिर, वसतिका आदि से निकलते समय ‘असही’ शब्द से वहाँ के व्यंतर आदि से पूछकर जाना।
५. निषेधिका—जिनमंदिर, वसतिका आदि में प्रवेश के समय ‘निसही’ शब्द से वहाँ के व्यंतरादि से पूछकर प्रवेश करना।
६. आपृच्छा—गुरु आदिकों से वंदनापूर्वक प्रश्न करना। आहार आदि के लिए जाते समय पूछना।
७. प्रतिपृच्छा—किसी बड़े कार्य के समय गुरु आदि से बार-बार पूछना।
८. छंदन—उपकरण आदि के ग्रहण करने में या वंदना आदि क्रियाओं में आचार्य के अनुकूल प्रवृत्ति रखना।
९. सनिमंत्रण—गुरु आदि से विनयपूर्वक पुस्तक आदि की याचना करना।
१०. उपसंपत्—गुरुजनों के लिए ‘मैं आप का ही हूँ’ ऐसा आत्मसमर्पण करना।
उपसंपत् के पाँच भेद हैं—विनयोपसंपत्, क्षेत्रोपसंपत्, मार्गोपसंपत्, सुखदु:खोपसंपत् और सूत्रोपसंपत्।
१. अन्य संघ से विहार करते हुए आये मुनि को पादोष्ण या अतिथि मुनि कहते हैं। उनका विनय करना, आसन आदि देना, उनका अंग मर्दन करना, प्रिय वचन आदि बोलना। आप किस आचार्य के शिष्य हैं ? किस मार्ग से विहार करते हुए आये हैं ? ऐसा प्रश्न करना, उन्हें तृण, संस्तर, फलक-संस्तर, पुस्तक, पिच्छिका आदि देना, उनके अनुकूल आचरण करना अथवा उन्हें संघ में स्वीकार करना विनयोपसंपत् है।
२. जिस क्षेत्र—देश में संयम, गुण, शील, यम-नियम आदि वृद्धिंगत होते हैं, उस देश में निवास करना क्षेत्रोपसंपत् है।
३. आगंतुक मुनि से मार्गविषयक कुशल पूछना अर्थात् आपका अमुक तीर्थक्षेत्र या ग्राम को जाकर सुखपूर्वक आगमन हुआ है न ? तथा मार्ग में आपके संयम, तप ज्ञानादि में निर्विघ्नता थी न ? इत्यादि सुख प्रश्न आपस में पूछना मार्गोपसंपत् है।
४. आपस में वसतिका, आहार, औषधि आदि से जो उपकार करना है वह सुखदु:खोपसंपत् है अर्थात् जो आगंतुक मुनि आहार, वसतिका आदि से सुखी हैं, उनको शिष्य आदि का लाभ होने पर कमण्डलु आदि दान देना, रोगपीड़ित मुनियों की प्राप्ति होने पर सुखशय्या, आसन, औषधि, अन्न पानादि के द्वारा उपचार करना और मैं आपका ही हूँ, ऐसा बोलना यह सब सुखदु:खोपसंपत् है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि साधु साधु के लिए आहार, वसतिका या औषधि का दान कैसे करेंगे ? सो योग्य वसतिका में उनकी व्यवस्था कराना, श्रावकों द्वारा आहार, औषधि की व्यवस्था कराना ही उनके द्वारा शक्य है, सो वे करेंगे ही।
५. सूत्र पठन में प्रयत्न करना सूत्रोपसंपत् है। सूत्र के लौकिक, वैदिक और सामयिक की अपेक्षा तीन भेद हो जाते हैं। गणितादि शास्त्र लौकिक सूत्र हैं, सिद्धांत शास्त्र वेद कहलाते हैं। इन संबंधी सूत्र वैदिक सूत्र हैं और तर्कशास्त्र को समय कहते हैं। इन संबंधी शास्त्र सामयिक हैं, ऐसे तीन प्रकार के सूत्र, अर्थ और उभय को प्रयत्नपूर्वक पढ़ना आदि नौ भेदरूप सूत्रोपसंपत् है। इस प्रकार से औघिक अर्थात् संक्षिप्त या सामान्य समाचार के दश भेद बताये गये हैं।
पदविभागिक समाचार—‘कोई धैर्य, वीर्य, उत्साह आदि गुणों से सहित मुनि अपने गुरु के पास उपलब्ध शास्त्रों को पढ़कर अन्य आचार्य के पास यदि और विशेष अध्ययन के लिए जाना चाहता है तो वह अपने गुरु के पास विनय से अन्यत्र जाने हेतु बार-बार प्रश्न करता है। पुन: दीक्षागुरु और शिक्षागुरु से आज्ञा लेकर अपने साथ एक, दो या तीन मुनिवरों को लेकर जाता है क्योंकि सामान्य मुनियों के लिए आगम में एकलविहारी की आज्ञा नहीं है।’
विहार के गृहीतार्थ विहार और अगृहीतार्थ विहार ऐसे दो भेद हैं। इनके सिवाय तीसरे विहार की जिनेश्वरों ने आज्ञा नहीं दी है।’ जीवादि तत्त्वों के स्वरूप के ज्ञाता मुनियों का जो चारित्र का पालन करते हुए देशांतर में विहार है वह गृहीतार्थ विहार है और जीवादि तत्त्वों को न जानकर चारित्र का पालन करते हुए जो मुनियों का विहार है वह अगृहीतार्थ संश्रित विहार है। जो साधु बारह प्रकार के तप को करने वाले हैं, द्वादशांग और चतुर्दश पूर्व के ज्ञाता हैं अथवा काल, क्षेत्र आदि के अनुरूप आगम के ज्ञाता हैं या प्रायश्चित्त आदि ग्रंथों के वेत्ता हैं। देह की शक्ति और हड्डियों के बल से अथवा भाव के सत्त्व से सहित हैं, शरीरादि से भिन्नरूप एकत्व भावना में तत्पर हैं। वङ्कावृषभनाराच आदि तीन संहननों में से किसी उत्तम संहनन के धारक हैं, धृति—मनोबल से सहित हैं अर्थात् क्षुधा आदि बाधाओं को सहने में समर्थ हैं। बहुत दिन के दीक्षित हैं, तपस्या से वृद्ध हैं—अधिक तपस्वी हैं और आचार शास्त्रों के पारंगत हैं, ऐसे मुनि को एकलविहारी होने की जिनेन्द्रदेव ने आज्ञा दी है।
‘गमनागमन, सोना, उठना, बैठना, कुछ वस्तु ग्रहण करना, आहार लेना, मलमूत्रादि विसर्जन्ा करना, बोलना, चालना आदि क्रियाओं में स्वच्छंद प्रवृत्ति करने वाला ऐसा कोई भी मुनि मेरा शत्रु भी हो, तो भी वह एकाकी विचरण न करे। स्वेच्छाचारी मुनि के एकाकी विहार से गुरु की निंदा होती है, श्रुताध्ययन का व्युच्छेद, तीर्थ की मलिनता, जड़ता, मूर्खता, आकुलता, कुशीलता और पार्श्वस्थता आदि दोष आते हैं। एकलविहारी होने से कंटक, ठूँठ आदि का उपद्रव, कुत्ते, बैल आदि पशुओं के और म्लेच्छों के उपसर्ग, विष, हैजा आदि से भी अपना घात हो सकता है। ऋद्धि आदि गौरव से गर्व युक्त, हठाग्रही, कपटी, आलसी, लोभी और पापबुद्धियुक्त मुनि संघ में रहते हुए भी शिथिलाचारी होने से अन्य मुनियों के साथ नहीं रहना चाहता है। जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का लोप, अनवस्था—देखादेखी स्वच्छंद विहारी की परम्परा बन जाना, मिथ्यात्व की आराधना, आत्मगुणों का नाश और संयम की विराधना इन पाँच निकाचित दोषों का प्रसंग आता है।’’ अन्यत्र भी एकलविहारी का निषेध किया है—‘‘कोई मुनि अपने गुरु के समीप समस्त शास्त्रों का अध्ययन करके यदि अन्य मुनियों के संघ में अध्ययन करने की इच्छा हो, तो बार-बार पूछकर गुरु की आज्ञा लेकर अन्य किसी एक या दो अथवा बहुत से मुनियों के साथ विहार करते हैं। (कदाचित् यात्रा, धर्मप्रभावना आदि के निमित्त से भी आजकल इसी तरह कुछ मुनि मिलकर गुरु की आज्ञा लेकर विहार करते हैं) अकेले मुनि विहार नहीं करते हैं। इसका कारण यह है कि जो मुनि बहुत दिन के दीक्षित हैं, ज्ञान और संहनन से बलवान हैं तथा भावना से भी बलवान हैं, ऐसे ही मुनि एकलविहारी हो सकते हैं, अन्य साधारण मुनियों के लिए एकाकी विहार की आज्ञा नहीं है। सो ही कहते हैं कि—जिस मुनि में ऊपर कथित ज्ञान, संहनन और अंत:करण के बल आदि गुण नहीं है और जो अपनी इच्छानुसार प्रवृत्ति करने में तत्पर हैं, ऐसा मेरा शत्रु भी कभी एकाकी विहार न करे।’’ और यदि ऐसे मुनि भी एकाकी विचरण करते हैं तो क्या दोष आते हैं सो दिखाते हैं—शास्त्रज्ञान की परम्परा का नाश, व्यवस्था दोष अर्थात् एक की देखादेखी बहुत से साधु ऐसा करने लगेंगे, तो व्यवस्था बिगड़ जावेगी। व्रतों का नाश, आज्ञा भंग—जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का उल्लंघन और तीर्थधर्म तथा गुरु की अपकीर्ति हो जाती है। इसके सिवाय अग्नि, जल, विष, अजीर्ण, सर्प या व्यवहारजनों के द्वारा अथवा आर्तध्यान, रौद्रध्यान आदि के द्वारा अपना विनाश हो जाता है, इत्यादि दोष एकाकी विहार में आ जाते हैंं।
जिस संघ में आचार्य—दीक्षा प्रायश्चित्त आदि दायक गुरु, उपाध्याय—अध्यापक, मुनि, प्रवर्तक—सभी साधुओं को चर्या आदि में प्रवृत्ति कराने वाले, स्थविर—बल वृद्ध आदि मुनि को सर्वज्ञानुकूल उपदेश देने वाले, गणधर—सर्वसंघ का पालन करने वाले ऐसे पाँच आधार जिस संघ में रहते हैं, वही संघ रहने के लिए योग्य है। जिस समय ये मुनि अपने संघ से निकलकर अन्य संघ में प्रवेश करते हैं, उस समय उस संघ के सभी मुनि आगन्तुक अतिथि मुनि को देखकर उठकर खड़े होते हैं। आगे जाकर नमोऽस्तु-प्रतिनमोऽस्तु करते हैं। उनका रत्नत्रय आदि कुशल पूछकर मार्ग की थकावट को दूर करने हेतु वैयावृत्ति, आहार की व्यवस्था आदि सुविधा देते हैं। तीन दिन तक ये साधु आवश्यक क्रियाओं में, आहार आदि क्रियाओं में परस्पर एक-दूसरे की परीक्षा करते हैं। दूसरे या तीसरे शिष्यगण आगन्तुक मुनि की चर्या की निर्दोषता आदि के विषय में आचार्यदेव को जानकारी देते हैं। पुन: आगन्तुक मुनि का नाम, कुल, गुरु, दीक्षा आदि सभी बातें गुरु स्वयं आगंतुक से पूछते हैं। यदि वह मुनि संघ परम्परा से और अपने चारित्र से निर्दोष है तो उसे स्वीकार करते हैं। आगंतुक मुनि भी तब अपने आने का कारण निवेदन कर गुरु के पास श्रुत अध्ययन प्रारंभ कर देते हैं। ये मुनि इस परसंघ में आचार्य आदि सब साधुओं के साथ ही प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ करते हैं, स्वच्छन्द प्रवृत्ति नहीं करते हैं।
‘यहाँ तक जो मूलगुण और समाचार का वर्णन किया है, ये ही सब मूलगुण और समाचार विधि आर्यिकाओं के लिए भी है। विशेष यह है कि वृक्षमूलयोग, आतापनयोग आदि का आर्यिकाओं के लिए निषेध है।’’ अन्यत्र भी कहा है—‘जिस प्रकार यह समाचार नीति मुनियों के लिए बतलाई है उसी प्रकार लज्जादि गुणों से विभूषित आर्यिकाओं को भी इन्हीं समस्त समाचार नीतियों का पालन करना चाहिए।’’ आर्यिकायें वसतिका में परस्पर में एक-दूसरे के अनुकूल रहती हैं। निर्विकार वस्त्र—वेश को धारण करती हुई दीक्षा के अनुरूप आचरण करती हैं। रोना, बालक आदि को स्नान कराना, भोजन बनाना, वस्त्र सीना आदि गृहस्थोचित कार्य नहीं करती हैं। इनका स्थान साधुओं के निवास से दूर तथा गृहस्थों के स्थान से न अति दूर न अति पास ऐसा रहता है, वहीं पर मलमूत्रादि विसर्जन हेतु एकांत प्रदेश रहता है। ऐसे स्थान में ये दो, तीन या तीस, चालीस आदि तक आर्यिकाएँ निवास करती हैं। ये गृहस्थों के घर आहार के अतिरिक्त अन्य समय नहीं जाती हैं। कदाचित् सल्लेखना आदि विशेष कार्य यदि आ जावे तब गणिनी की आज्ञा से दो, एक आर्यिकाओं के साथ जाती हैं। इनके पास दो साड़ी रहती हैं किन्तु तीसरा वस्त्र नहीं रख सकती हैं। फिर भी ये लंगोटी-मात्रधारी ऐसे ऐलक से भी पूज्य हैं, चूँकि इनके उपचार से महाव्रत माने गये हैं किन्तु ऐलक के अणुव्रत ही हैं। यथा—ग्यारहवीं प्रतिमाधारी ऐलक लंगोटी में ममत्व सहित होने से उपचार महाव्रत के योग्य भी नहीं है किन्तु आर्यिका एक साड़ी मात्र धारण करने पर भी ममत्वरहित होने से उपचार महाव्रती हैं। एक साड़ी पहनना और बैठकर आहार करना इन दो चर्याओं में ही अन्तर है। इन आर्यिकाओं का नेतृत्व करने वाले आचार्य कैसे होते हैं ?
शिष्यों के संग्रह और उन पर अनुग्रह करने में कुशल, सूत्रार्थ में विशारद, यशस्वी, तेरह प्रकार की क्रिया और तेरह प्रकार के चारित्र में तत्पर ऐसे आचार्य होते हैं। जिनके वचन सभी को ग्राह्य और हितकर होते हैं। गंभीर, स्थिरपरिणामी, मितभाषी, अल्पकुतूहली, चिरकाल के दीक्षित, पदार्थों के ज्ञान में कुशल ऐसे आचार्य ही आर्यिकाओं के गणधर होते हैं। इन गुणों से व्यतिरिक्त आचार्य यदि आर्यिकाओं का नेतृत्व करते हैं तो गणपोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना और उत्तमार्थ ऐसे चार काल की विराधना करा देते हैं अर्थात् संघ की अपकीर्ति, संयम की हानि आदि दोष आ जाते हैं।