(१) मूलगुण अधिकार श्री कुन्दकुन्द देव अपरनाम श्री वट्टकेर स्वामी द्वारा रचित मूलाचार ग्रंथ की टीका के प्रारंभ में सिद्धान्त चक्रवर्ती श्री वसुनंदि आचार्य ने भूमिका में कहा है कि यह ग्रंथ आचारांग के आधार से लिखा गया है और आचारांग समस्त श्रुतस्कंध का आधारभूत है।
‘‘श्रुतस्कंधाधारभूतमष्टादशपदसहस्रपरिमाणं,
मूलगुणप्रत्याख्यान-संस्तर-स्तवाराधना-समयाचार (समाचार)-पंचाचार-पिंडशुद्धिषडावश्यक-
द्वादशानुप्रेक्षानगारभावना-समयसार-शीलगुणप्रस्तार-पर्याप्त्याद्यधिकार-निबद्धमहार्थगभीरं लक्षणसिद्धपदवाक्यवर्णोपचितं,
घातिकर्मक्षयोत्पन्नकेवलज्ञान-प्रबुद्धाशेषगुणपर्यायखचितषड्द्रव्य-नवपदार्थ जिनवरोपदिष्टं,
द्वादशविधतपोनुष्ठानोत्पन्नानेकप्रकारद्र्धिवसमन्वित-गणधरदेवरचितं,
मूलगुणोत्तरगुणस्वरूप-विकल्पोपायसाधनसहायफलनिरूपणप्रवणमाचाराङ्गमाचार्य-पारम्पर्यप्रवर्तमानमल्पबलमेधायु:शिष्यनिमित्तं द्वादशाधिकारैरूपसंहर्तुकाम: स्वस्य श्रोतृणां च प्रारब्धकार्य-
प्रत्यूहनिराकरणक्षमं शुभपरिणामं विदधच्छ्रीवट्टकेराचार्य: प्रथमतरं तावन्मूलगुणाधिकारप्रतिपादनार्थं मंगलपूर्विकां प्रतिज्ञां विधत्ते मूलगुणेष्वित्यादि-
जो श्रुतस्कंध का आधारभूत है, अट्ठारह हजार पद परिमाण है, जो मूलगुण, प्रत्याख्यान, संस्तर, स्तवाराधना, समयाचार, पंचाचार, पिंडशुद्धि, छह आवश्यक, बारह अनुप्रेक्षा, अनगार भावना, समयसार, श्ीालगुणप्रस्तार और पर्याप्ति आदि अधिकार के निबद्ध होने से महान अर्थों से गंभीर है, लक्षण-व्याकरण शास्त्र से सिद्धपद, वाक्य और वर्णों से सहित है, घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुए केवलज्ञान के द्वारा जिन्होंने अशेष गुणों और पर्यायों से खचित छह द्रव्य और नव पदार्थों को जान लिया है, ऐसे जिनेन्द्रदेव के द्वारा जो उपदिष्ट है, बारह प्रकार के तपों के अनुष्ठान से उत्पन्न हुई अनेक प्रकार की ऋद्धियों से समन्वित गणधर देव के द्वारा जो रचित है, जो मूलगुणों और उत्तरगुणों के स्वरूप, भेद, उपाय, साधन, सहाय और फल के निरूपण करने में कुशल है, आचार्य परम्परा से चला आ रहा ऐसा यह आचारांग नाम का पहला अंग है। उस आचारांग का अल्प शक्ति, अल्प बुद्धि और अल्प आयु वाले शिष्यों के लिए बारह अधिकारों में उपसंहार करने की इच्छा करते हुए अपने और श्रोताओं के प्रारंभ किए गये कार्यों के विघ्नों को दूर करने में समर्थ शुभ परिणाम को धारण करते हुए श्री वट्टकेराचार्य सर्वप्रथम मूलगुण नामक अधिकार का प्रतिपादन करने के लिए ‘‘मूलगुणेसु’’ इत्यादि रूप मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करते हैं।
मूलगुणेसु विसुद्धे वंदित्ता सव्वसंजदे सिरसा।
इहपरलोगहिदत्थे मूलगुणे कित्तइस्सामि।।१।।
अर्थ —मूलगुणों में विशुद्ध सभी संयतों को सिर झुकाकर नमस्कार करके इस लोक और परलोक के लिए हितकर मूलगुणों का मैं वर्णन करूँगा।।१।। टीकाकार ने कहा है- ‘‘मूलगुणा प्रधानानुष्ठानि उत्तरगुणाधारभूतानि’’। मूल-प्रधान, गुण-आचारविशेष को मूलगुण कहते हैं। जो उत्तरगुणों के लिए आधारभूत हैं, ऐसे प्रधान अनुष्ठान को मूलगुण कहते हैं। ये उत्तरगुणों के लिए मूलभूत हैं। यहाँ ‘‘संयता’’ शब्द से छठे गुणस्थानवर्ती मुनि से लेकर अयोगीपर्यंत सर्व साधुओं को लिया है और भूतपूर्व गति से सिद्धों को भी लिया है। यथा-‘‘सप्ताद्यष्टपर्यंत षण्णव मध्य संख्यया समेतान् सिद्धांश्चानन्तान्’’ तीन कम नव करोड़ संख्या से सहित (८९९९९९९७) सर्व संयतों को और अनंत सिद्धों को नमस्कार किया है। स्थापना निक्षेप में आकारवान् और बिना आकारवान् दोनों प्रकार की संयमी की प्रतिमाओं में गुणारोपण किया जाता है, ऐसा उल्लेख है। यथा-‘‘संयतस्य गुणान् बुद्ध्या ध्यारोप्याकृतिवति अनाकृतिवति च वस्तूनि स एवायमिति स्थापिता मूर्ति: स्थापनासंयत:।’’ आकारवान् या अनाकारवान् वस्तु में ‘‘यह वही है’’ मूर्ति में ऐसा संयत के गुणों का अध्यारोप करना, इस प्रकार से स्थापित मूर्ति को स्थापना संयत कहते हैं। ये मूलगुण अट्ठाईस हैं-
पंचय महव्वयाइं समिदीओ पंच जिणवरुदिट्ठा।
पंचेविंदियरोहा छप्पि य आवासया लोओ।।२।।
आचेलकमण्हाणं खिदिसयणमदंतघंसणं चेव।
ठिदिभोयणेयभत्तं मूलगुणा अट्ठवीसा दु।।३।।
पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, छह आवश्यक, लोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदंतधावन, स्थिति भोजन और एकभक्त ये अट्ठाईस मूलगुण जिनेन्द्रदेव ने यतियों के लिए कहे हैं। चूँकि महान पुरुषों ने इनका अनुष्ठान किया है अथवा ये स्वत: ही महान व्रत हैं इसलिए ये पाँच व्रत महाव्रत कहलाते हैं। ये न छह हैं न चार, पाँच ही हैं ऐसा समझना। इनके नाम हैं-अहिंसा महाव्रत, सत्य महाव्रत, अचौर्य महाव्रत, ब्रह्मचर्य महाव्रत और अपरिग्रह महाव्रत। पाँचों पापों का पूर्णरूप से त्याग कर देना ही महाव्रत है।
(१) काय, इन्द्रिय, गुणस्थान, मार्गणा, कुल, आयु और योनि, इनमें सभी जीवों को जानकर ठहरने, बैठने, चलने आदि में जीवों के घात आदि हिंसा का त्याग करना अहिंसा महाव्रत है। (२) रागादि के द्वारा असत्य बोलने का त्याग करना, पर को ताप करने वाले ऐसे सत्य वचन भी नहीं बोलना तथा सूत्र और अर्थ कहने में गलत वचन नहीं बोलना सत्य महाव्रत है। सदाचारी आचार्य के वचन स्खलन होने पर दोष ग्रहण नहीं करना भी सत्य महाव्रत है। (३) ग्राम आदि में गिरी हुई, भूली हुई इत्यादि जो कुछ भी छोटी-बड़ी वस्तु है और जो पर की पुस्तक, पिच्छी आदि उपकरण या शिष्य आदि हैं ऐसे परद्रव्य-पर वस्तु को ग्रहण नहीं करना अचौर्य महाव्रत है। (४) तीन प्रकार की स्त्रियों को और उनके चित्र को माता, बहन और पुत्री के समान देखकर जो रागभाव से स्त्रीकथा आदि को छोड़ना है, वह तीन लोक में पूज्य ब्रह्मचर्य महाव्रत कहलाता है। इस व्रत के धारक पुरुष या स्त्री कोई भी हों, इंद्रों द्वारा भी पूज्य हो जाते हैं किन्तु इस व्रत को भंग करने वाले जन यदि अनेक व्रत, तप आदि भी करते रहें, तो भी वे लोक में हीन आचरणी, निंद्य और पापी कहलाते हैं। यही कारण है कि इसे-‘‘तिलोयपुज्जं हवे बंभं’’ तीन लोक में पूज्य यह ब्रह्मव्रत है, ऐसा कहा है। इसके नव, सत्ताईस, इक्यासी और एक सौ बासठ भी भेद होते हैं- देवी, मानुषी और तिर्यंचिनी के बाल, युवती और वृद्धा ये तीन-तीन भेद करने से नव भेद होते हैं। यद्यपि देवांगनाओं में स्वभाव से बाला, वृद्धा भेद नहीं है फिर भी विक्रिया से संभव है। इन नव भेदों को मन-वचन-काय से गुणा करने पर ९²३·२७ भेद हो जाते हैं। इन २७ को कृत, कारित, अनुमोदना से गुणा करने पर (२७²३·८१) ८१ भेद हो जाते हैं। इन ८१ को चेतन और अचेतन (पुतली या चित्र आदि) ऐसे दो से गुणा करने पर ८१²२·१६२ भेद हो जाते हैं। (५) जीव से संबंधित मिथ्यात्व आदि या दास-दासी आदि, जीव से असंबंधित क्षेत्र, मकान, धन आदि और जीव से उत्पन्न शंख, सीप आदि ये तीन प्रकार के परिग्रह हैंं इनका पूर्णतया त्याग करना और संयम, ज्ञान तथा शौच के उपकरण पिच्छी, शास्त्र, कमण्डलु में व इतर-तृण, काठ आदि से संस्तर इत्यादि में ममत्व का त्याग करना ये पाँचवां अपरिग्रह महाव्रत है। गमन, भाषण, भोजन आदि प्रवृत्तियाँ सम्यक् प्रकार से-आगम के अनुकूल करना ही समिति है। इसके पाँच भेद हैं-ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और उत्सर्ग।
५ समिति- (१) प्रयोजन के निमित्त दिन में चार हाथ आगे जमीन देखकर साधुओं द्वारा जो प्रासुक मार्ग से गमन होता है वह ईर्या समिति है। इसमें प्रयोजनवश शास्त्र श्रवण, तीर्थयात्रा, देववंदना, गुरुवंदना आदि के लिए ही गमन करना चाहिए निष्प्रयोजन नहीं, ऐसा कथन है।
(२) चुगली, हंसी, कठोरता, परनिंदा, अपनी प्रशंसा और विकथा आदि को छोड़कर स्व-पर के लिए हितकर जो वचन बोलना है वह भाषा समिति है।
(३) छ्यालीस दोषों से रहित शुद्ध, कारण से सहित, नव कोटि से विशुद्ध और ठंडे-गरम आदि भोजन में समता भाव रखना यह निर्दोष एषणा समिति है। सोलह उद्गम दोष, सोलह उत्पादन दोष, दश एषणा दोष, धूम, अंगार, संयोजना और अप्रमाण ये चार दोष, सब मिलकर ४६ दोष होते हैं और ३२ अंतराय होते हैं। कारण में-असाता के उदय से उत्पन्न हुई भूख बाधा को शमन करने हेतु, अन्य मुनियों की वैयावृत्य हेतु आदि कारणों से साधु आहार करते हैं यह कारण सहित है, नव कोटि विशुद्ध है। ऐसा निर्दोष आहार ग्रहण करना ही एषणा समिति है।
(४) ज्ञानोपकरण-शास्त्र, संयमोपकरण-पिच्छी, शौचोपकरण-कमण्डलु अथवा अन्य भी उपकरण-संस्तर, चौकी, पाटा, तृण आदि को पहले देखकर पुन: पिच्छी से परिमार्जित कर धरना, उठाना सो आदाननिक्षेपण समिति है।
(५) एकांत, जीव जंतु रहित, दूर, मर्यादित, विस्तीर्ण और विरोध रहित स्थान में मल-मूत्रादि का त्याग करना प्रतिष्ठापना समिति है, इसे उत्सर्ग समिति भी कहते हैं। पाँच इन्द्रिय निरोधव्रत-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियों को अपने-अपने विषय से रोकना सो पाँच इन्द्रिय निरोध व्रत होते हैं। छह आवश्यक-समता, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग, ये छह आवश्यक क्रियाएँ हैं। सातवें अधिकार में इन्हें विस्तार से लिया है। लोंच-प्रतिक्रमण सहित दिवस में उपवासपूर्वक अपने हाथों से या अन्य के हाथों से जो शिर, मूँछ, दाढ़ी के केशों का उखाड़ना है, वह लोंच है, यह दो माह में करने से उत्तम, तीन माह में मध्यम और चार माह में जघन्य कहलाता है। इसमें प्रतिक्रमण दिवस-अष्टमी या चतुर्दशी हो, न भी हो चलेगा किन्तु उपवास अवश्य होना चाहिए ‘‘उपवासे नैव’’ ऐसा विधान है। आचेलक्य-वस्त्र, चर्म और वल्कलों से अथवा पत्ते आदि से शरीर को नहीं ढकना, भूषण, अलंकार से तथा परिग्रह से रहित निग्र्रंथ-दिगम्बर वेष धारण करना यह जगत् में पूज्य अचेलकत्व नाम का मूलगुण है। अस्नान-स्नान आदि के त्याग कर देने से जल्ल, मल और पसीने से जिनका सारा शरीर लिप्त हो जाता है, उन मुनि के प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम के पालन करने रूप, घोरगुण स्वरूप यह अस्नानव्रत होता है। ‘‘नात्राशुचित्वं स्यात् स्नानादिवर्जनेन मुने: व्रतै: शुचित्वं यत:।’’ यहाँ स्नान आदि नहीं करने से मुनि के अशुचिता-अपवित्रता नहंी होती है क्योंकि उनके व्रतों से पवित्रता मानी गई है। क्षितिशयन-प्रासुक भूमि प्रदेश में अल्प भी संस्तर से रहित या किंचित् मात्र संस्तर से सहित एकांत स्थान में दंडाकार या धनुषाकार शयन करना अथवा एक पसवाड़े से सोना आदि यह क्षितिशयन व्रत है। मुनि अवस्था के योग्य तृणमय-चावल, कोदों आदि की घास (पुराल), काठ के पाटे, पत्थर की शिला और भूमि ये चार तरह के संस्तर दिगम्बर मुनि के लिए योग्य माने गये हैं। तृणमय से तृण की चटाई भी ग्राह्य हैं।
अदंतधावन-अंगुली, नख, दांतोन और तृण विशेष के द्वारा, पत्थर या छाल आदि के द्वारा दांतों के मल का शोधन नहीं करना, यह संयम की रक्षारूप अदंतधावन व्रत है। यह व्रत वीतरागता को प्रकट करने और सर्वज्ञदेव की आज्ञा के पालन हेतु पाला जाता है। स्थितिभोजन-दीवाल आदि का सहारा न लेकर जीव जंतु से रहित स्थान में समान पैर रखकर खड़े होकर दोनों हाथ की अंजुली बनाकर भोजन-पान ग्रहण करना स्थितिभोजन व्रत है। इसमें अपने खड़े होने का स्थान, जूठन गिरने का स्थान और परोसने तथा आहार देने वालों का स्थान ये तीनों स्थान जीव-जंतु रहित होने चाहिए। एकभक्त-सूर्योदय के बाद और सूर्यास्त से पूर्व तीन-तीन घड़ी काल को छोड़कर दिवस के मध्य, एक, दो अथवा तीन मुहूर्त काल में एक बार भोजन करना यह एकभक्त मूलगुण है। चौबीस घंटे के दिन रात में दिन में दो भोजन बेला मानी गई है, उनमें से एक भोजन बेला में आहार ग्रहण करना एकभक्त कहलाता है। जो मनुष्य उपर्युक्त विधान से मूलगुणों को मन-वचन-काय से पालन करते हैं, वे जगत् में पूज्य होकर अक्षय सुखरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं।
प्रत्याख्यान और संस्तर स्तव इन दो विषयों को जानने वाले जो मुनि हैं, उनमें और इन दोनों विषयों में अभेद है, ऐसा दिखलाकर इस दूसरे अधिकार में प्रत्याख्यान संस्तर-स्तव का वर्णन किया है। अथवा यतियों के छह काल होते हैं-दीक्षाकाल, शिक्षाकाल, गणपोषण काल, आत्मसंस्कार काल, सल्लेखना काल और उत्तमार्थ काल। इनमें से पहले के तीन कालों का इस मूलाचार में वर्णन है और शेष तीन कालों का भगवती आराधना में कथन है। उनमें से पहले के तीन कालों में यदि मरण उपस्थित हो जावे तो कैसे परिणाम धारण करके मरण करना ? इस अधिकार में इसी का वर्णन है- संपूर्ण दु:खों से युक्त सिद्धों को और अर्हंतों को मेरा नमस्कार हो। मैं जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित तत्व का श्रद्धान करता हूँ और पापों का त्याग करता हूँ। अपनी आत्मा से पाप क्लेश को धो डालने वाले सिद्धों को और महर्षियों को नमस्कार कर मैं केवली भगवान द्वारा कथित संस्तर को स्वीकार करता हूँं। यह संस्तर सल्लेखना के समय विधिवत् ग्रहण किया जाता है। यह तृणों का, पाटा, शिला या पृथ्वी पर होता है अर्थात् चार प्रकार के संस्तर माने गये हैं-चटाई, लकड़ी का पाटा, पत्थर की शिला या जमीन में आसन शयन आदि करने का संकल्प लेना ही ‘संस्तर’ ग्रहण है। संस्तर ग्रहण करने वाले साधु कैसे परिणाम करते हैं ? सब बाह्य-अभ्यंतर परिग्रह को छोड़कर, शरीर से ममत्व छोड़कर अन्न, खाद्य और लेह्य रूप तीन प्रकार के भोजन का त्यागकर मात्र पेय-दूध, रस, मट्ठा, जल आदि पीने की वस्तुएँ रखते हैं। पुन: ये साधु भावना भाते हैं-
सम्मं मे सव्वभूदेसु वेरं मज्झ ण केण वि।
आसा वोसरित्ताणं समाहिं पडिवज्जए।।४२।।
खमामि सव्वजीवाणं सव्वे जीवा खमंतु मे।
मित्ती मे सव्व भूदेसु वेरं मज्झं ण केण वि।।४३।।
रायबंधपदोसं च हरिसं दीणभावयं।
उस्सुगत्तं भयं सोगं रदिमरदिं च वोसरे।।४४।।
ममत्तिं परिवज्जामि णिममत्तिमुवट्ठिदो।
आलंबणं च मे आदा अवसेसाइं वोसरे।।४५।।
आदा हु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य।
आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोए।।४६।।
एओ य मरइ जीवो एओ य उववज्जइ।
एयस्स जाइमरणं एओ सिज्झइ णीरओ।।४७।।
एओ मे सस्सओ अप्पा णाणदंसणलक्खणो।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा।।४८।।
संजोयमूलं जीवेण पत्तं दुक्खपरंपरं।
तम्हा संजोयसंबंधं सव्वं तिविहेण वोसरे।।४९।।
मूलगुण उत्तरगुणे जो मे णाराहिओ पमाएण।
तमहं सव्वं णिंदे पडिक्कमे आगमिस्साणं।।५०।।
णिंदामि णिंदणिज्जं गरहामि य जं च मे गरहणीयं।
आलोचेमि य सव्वं सब्भंतरबाहिरं उवहिं।।५५।।
मेरा सभी जीवों में समताभाव है, मेरा किसी के साथ बैर नहीं है, सम्पूर्ण आशा को छोड़कर समाधि को स्वीकार करता हूँ।।४२।। सभी जीवों को मैं क्षमा करता हूँ, सभी जीव मुझे क्षमा करें, सभी जीवों के साथ मेरा मैत्री भाव है, मेरा किसी के साथ बैरभाव नहीं है।।४३।। राग का अनुबंध, प्रकृष्ट, द्वेष, हर्ष, दीनभाव, उत्सुकता, भय, शोक, रति और अरति का त्याग करता हूँ।।४४।। मैं ममत्व को छोड़ता और निर्ममत्व भाव को प्राप्त होता हूँ, आत्मा ही मेरा आलम्बन है और मैं अन्य सभी का त्याग करता हूँ।।४५।। निश्चित रूप से मेरा आत्मा ही ज्ञान में है, मेरा आत्मा ही दर्शन में और चारित्र में है, प्रत्याख्यान में है और मेरा आत्मा ही संवर तथा योग में है।।४६।। जीव अकेला ही मरता है और अकेला ही जन्म लेता है। एक जीव के ही यह जन्म और मरण है और अकेला ही कर्मरहित होता हुआ सिद्ध पद प्राप्त करता है। मेरा आत्मा एकाकी है, शाश्वत है और ज्ञानदर्शन लक्षण वाला है। शेष सभी संयोग लक्षण वाले जो भाव हैं वे मेरे से बहिर्भूत हैं।।४७-४८।। इस जीव ने संयोग के निमित्त से दु:खों के समूह को प्राप्त किया है इसलिए मैं समस्त संयोग संबंध को मन-वचन-कायपूर्वक छोड़ता हूँ।।४९।। मैंने मूलगुण और उत्तरगुणों में प्रमाद से जिस किसी की आराधना नहीं की है, उस सम्पूर्ण की मैं निंदा करता हूँ और भूत-वर्तमान ही नहीं, भविष्य में आने वाले का भी मैं प्रतिक्रमण करता हूँ।।५०।। निंदा करने योग्य की मैं निंदा करता हूँ और जो मेरे गर्हा करने योग्य दोष हैं, उनकी गर्हा करता हूँ और मैं बाह्य तथा अभ्यन्तर परिग्रह सहित सम्पूर्ण उपधि (परिग्रह) की आलोचना करता हूँ।।५५।।
जह बालो जंप्पंतो कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणदि।
तह आलोचेयव्वं माया मोसं च मोत्तूण।।५६।।
जिस प्रकार बालक सरल भाव से कार्य और अकार्य को कह देता है, उसी प्रकार मुनि माया और असत्य को छोड़कर गुरु के पास आलोचना करे। जिनके पास आलोचना करे वे आचार्य दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों में अविचल हों, धीर हों, आगम में निपुण हों और शिष्य के गुप्त दोषों को कभी किसी में प्रगट करने वाले न हों। आलोचना के बाद वह मुनि सबसे क्षमा करावे। जो मैंने राग या द्वेष से न करने योग्य कार्य किया है अथवा प्रमादवश किसी के प्रति कुछ कहा है। उन सबसे मैं क्षमायाचना करता हूँ। मरण के मुख्य तीन भेद हैं-बालमरण, बालपंडित मरण और पंडित मरण। प्रथम मरण असंयत सम्यग्दृष्टि के होता है, दूसरा मरण देशव्रती श्रावक के होता है। तीसरा मरण केवली भगवान का है। इसी पंडितमरण को छठे गुणस्थानवर्ती मुनि से लेकर केवली भगवान तक माना है। यद्यपि अन्यत्र-भगवती आराधना में मरण के पाँच भेद करके बालमरण में मिथ्यादृष्टि को लिया है और पंडितपंडित मरण नाम से केवलियों को लिया है किन्तु यहाँ संक्षेप में तीन भेद ही किये हैं। जो मुनि मरणकाल में सन्यास विधि से पंडितमरण नहीं कर पाते हैं वे मुनि मरण की विराधना कर देने से देवदुर्गति को प्राप्त कर लेते हैं पुन: उन्हें बोधिदुर्लभ हो जाता है और आगामी काल तक उनका संसार अनंत हो जाता है। वंâदर्प, आभियोग्य, किल्विषक आदि देवोें में जन्म लेना देवदुर्गति है। जो साधु सम्यग्दर्शन से युक्त हैं, निदान भावना से रहित हैं, शुक्ललेश्या को धारण करने वाले हैं, उनका मरण सन्यास विधि से होने से उन्हें बोधि सुलभ है। जो जिनेन्द्रदेव के वचनों में अनुरागी हैं, भाव से गुरु की आज्ञा पालते हैं, शबल परिणाम-मंदकषायी व संक्लेश भाव से रहित हैं, वे संसार का अंत करने वाले होते हैं। समाधि से मरण करने वाले साधु भावना भाते हैं-
सत्थग्गहणं विसभक्खणं च जलणं जलप्पवेसो य।
अणयार भंडसेवी जम्मणमरणाणुबंधीणि।।७४।।
उड्ढमधो तिरियम्हि दु कदाणि बालमरणाणि बहुगाणि।
दंसणणाणसहगदो पंडितमरणं अणुमरिस्से।।७५।।
शस्त्रों के घात से मरना, विष भक्षण करना, अग्नि में जल जाना, जल में डूबकर मरना, अन्य और भी पाप क्रिया से मरना, ये मरण जन्म-मरण की परम्परा को बढ़ाने वाले हैं। ऊध्र्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक मेें मैंने बहुत बार शस्त्रघात आदि द्वारा बालमरण (बालबालमरण) किये हैं अब मैं दर्शन, ज्ञान से सहित होता हुआ पंडितमरण से मरूँगा।
एक्वं पंडिदमरणं छिंददि जादीसयाणि बहुगाणि।
तं मरणं मरिदव्वं जेण मदं सुम्मदं होदि।।७७।।
जइ उप्पज्जइ दुक्खं तो दट्ठव्वो सभावदो णिरये।
कदमं मए ण पत्तं संसारे संसरंतेण।।७८।।
संसारचक्कवालम्मि मए सव्वेवि पुग्गला बहुसो।
आहारिदा य परिणामिदा य ण य मे गदा तित्ती।।७९।।
तिणकट्ठेण व अग्गी लवणसमुद्दो णदीसहस्सेहिं।
ण इमो जीवो सक्को तिप्पेदुं कामभोगेहिं।।८०।।
कंखिदकलुसिदभूदो कामभोगेसु मुच्छिदो संतो।
अभुंजंतोवि य भोगे परिणामेण णिवज्झेइ।।८१।।
आहारणिमित्तं किर मच्छा गच्छंति सत्तमिं पुढविं।
सच्चित्तो आहारो ण कप्पदि मणसावि पत्थेदुं।।८२।।
एक पण्डितमरण सौ-सौ जन्मों का नाश कर देता है अत: ऐसे ही मरण से मरना चाहिए कि जिससे मरण सुमरण हो जावे।।७७।। यदि उस समय दु:ख उत्पन्न हो जावे तो नरक के स्वभाव को देखना चाहिए। संसार में संसरण करते हुए मैंने कौन सा दु:ख नहीं प्राप्त किया है।।७८।। इस संसार रूपी भँवर में मैंने सभी पुद्गलों को अनेक बार ग्रहण किया है और उन्हें आहार आदि रूप परिणमाया भी है किन्तु उनसे मेरी तृप्ति नहीं हुई है।।७९।। तृण और काठ से अग्नि के समान तथा सहस्र नदियों से लवण समुद्र के समान इस जीव को काम और भोगों से तृप्त करना शक्य नहीं है।।८०।। आकांक्षा और कलुषता से सहित हुआ यह जीव काम और भोगों में मूच्र्छित होता हुआ, भोगों को नहीं भोगता हुआ भी, परिणाम मात्र से कर्मों द्वारा बंध को प्राप्त होता है।।८१।। आहार के निमित्त से ही नियम से मत्स्य सातवीं पृथ्वी में चले जाते हैं इसलिए सचित्त आहार को मन से भी चाहना ठीक नहीं है।।८२।।
जह णिज्जावयरहिया णावाओ वररदणसुपुण्णाओ।
पट्टणमासण्णाओ खु पमादमूला णिबुड्डंति।।८८।।
जैसे उत्तम रत्नों से भरी हुई नौकायें नगर के समीप किनारे पर आकर भी कर्णधार-खेवटिया से रहित होने से प्रमाद के कारण डूब जाती हैं ऐसे ही साधु भी जीवन भर रत्नत्रय और तपश्चरण रूप रत्नों को धारण कर भी यदि अंत में निर्यापकाचार्य रूप खेवटिया को नहीं प्राप्त कर पाता है तो सन्यास विधि न सुधार कर संसार समुद्र में डूब जाता है। इस मरणकाल में बलशाली और समर्थ चित्त वाले साधु भी सम्पूर्ण द्वादशांग श्रुतस्वंâध का चिंतवन नहीं कर सकते हैं।
एदम्हादो एक्वं हि सिलोगं मरणदेसयालम्हि।
आराहणउवजुत्तो चितंतो आराधओ होदि।।९४।।
आराधना में लगा हुआ साधु मरण के काल में इस श्रुतसमुद्र से एक भी श्लोक का चिंतवन करता हुआ आराधक हो जाता है। यदि मरण काल में पीड़ा उत्पन्न हो जावे, तो क्या औषधि है ?
जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूदं।
जरमरणबाहिवेयणखयकरणं सव्वदुक्खाणं।।९५।।
णाणं सरणं मे दंसणं च सरणं चरियसरणं च।
तव संजमं च सरणं भगवं सरणो महावीरो।।९६।।
जिनेन्द्र भगवान के वचन ही महौषधि हैं, ये विषय सुखों का विरेचन-त्याग कराने वाले हैं, अमृतमय हैं और ये जिनवचन जरा, मरण, रोग से होने वाली वेदना का तथा सर्वदु:खों का क्षय करने वाले हैं। इस काल में शरण किन-किनकी लेना ? मुझे ज्ञान शरण है, दर्शन शरण है, चारित्र शरण है, तपश्चरण और संयम शरण है तथा भगवान महावीर शरण हैं। इस आराधना का फल क्या है ?
आराहण उवजुत्तो कालं काउâण सुविहिओ सम्मं।
उक्कस्सं तिण्णि भवे गंतूण य लहइ णिव्वाणं।।९७।।
आराधना में तत्पर हुआ साधु आगम में कथित सम्यक् प्रकार से मरण करके उत्कृष्ट रूप से तीन भव को प्राप्त कर पुन: निर्वाण प्राप्त कर लेता है। पुनरपि साधु भावना करता है-
लद्धं अलद्धपुव्वं जिणवयणसुभासिदं अमिदभूदं।
गहिदो सुग्गइमग्गो णाहं मरणस्स बीहेमि।।९९।।
जिनको पहले कभी नहीं प्राप्त किया था ऐसे अलब्धपूर्व, अमृतमय, जिनवचनरूपी सुभाषित को अब मैंने प्राप्त कर लिया है। इसके साथ मैंने सुगति के मार्ग को ग्रहण कर लिया है इसलिए अब मैं मरण से नहीं डरता हूँ। क्योंकि-
वीरेण वि मरिदव्वं णिव्वीरेण वि अवस्स मरिदव्वं।
जदि दोहिं वि मरिदव्वं वरं हि वीरत्तणेण मरिदव्वं।।
िधीरेण वि मरिदव्वं णिद्धीरेण वि अवस्स मरिदव्वं।
जदि दोहिं वि मरिदव्वं वरं हि धीरत्तणेण मरिदव्वं।।१००।।
सीलेण वि मरिदव्वं णिस्सीलेण वि अवस्स मरिदव्वं।
जदि दोहिं वि मरिदव्वं वरं हि सीलत्तणेण मरिदव्वं।।१०१।।
वीर को भी मरण करना पड़ता है और निश्चित ही वीरतारहित-कायर को भी मरना पड़ता है। यदि दोनोें को मरना ही पड़ता है, तब तो वीरता सहित होकर ही मरना अच्छा है। धीर को भी मरना पड़ता है और निश्चित ही धैर्यरहित को भी मरना पड़ता है। यदि दोनों को मरना ही पड़ता है तब तो धैर्यसहित होकर ही मरना अच्छा है। शील सहित को भी मरना पड़ता है और निश्चित रूप से शील रहित को भी मरना पड़ता है। यदि दोनों को मरना ही पड़ता है तब तो शील सहित होकर ही मरना श्रेष्ठ है। इस प्रकार-
णिम्ममो णिरहंकारो णिक्कसाओ जिदिंदिओ धीरो।
अणिदाणो दिठिसंपण्णो मरंतो आराहओ होइ।।१०३।।
णिक्कसायस्स दंतस्स सूरस्स ववसाइणो। संसारभयभीदस्स पच्चक्खाणं सुहं हवे।।१०४।।
जो साधु ममत्वरहित, अहंकाररहित, कषायरहित, जितेन्द्रिय, धीर, निदानरहित और सम्यग्दर्शन से सम्पन्न है वह मरण करता हुआ आराधक होता है। जो निष्कषायी मुनि इन्द्रियों का दमन करने वाला है, शूर-वीर है, पुरुषार्थी है और संसार से भयभीत है उसके सुखपूर्वक प्रत्याख्यान होता है। पुन: मैं क्या चाहता हूँ ?
वीरो जरमरणरिऊ वीरो विण्णाणणाणसंपण्णो।
लोगस्सुज्जोययरो जिणवरचंदो दिसदु बोधिं।।१०६।।
वीर भगवान् जरा और मरण के शत्रु हैं, वीर भगवान् विज्ञान रूप ज्ञान से, केवलज्ञान से सम्पन्न हैं और लोक को प्रकाशित करने वाले हैं, ऐसे जिनवरचंद्र-वीर भगवान मुझे बोधि प्रदान करें। क्या कुछ निदान-भविष्य में कामना भी कर सकते हैं ?
जा गदी अरहंताणं णिट्ठिदट्ठाणं च जा गदी।
जागदी वीदमोहाणं सा मे भवदु सस्सदा।।१०७।।
अरहंत देवों को जो गति प्राप्त हुई है और कृतकृत्य-सिद्ध भगवन्तों को जो गति प्राप्त हुई है तथा मोहरहित मुनियों को जो गति प्राप्त हुई है, वही गति सदा के लिए मेरी होवे। इस प्रकार याचना करते हुए साधु और साध्वी अपनी सल्लेखना की सिद्धि करके उत्तम गति प्राप्त कर लेते हैं।
बृहत्प्रत्याख्यान का व्याख्यान किया, अब पुन: यदि सिंह, व्याघ्र, अग्नि, रोग या मनुष्यकृत उपद्रव आदि के निमित्त से आकस्मिक मरण उपस्थित हो जाय तो उस समय क्या करना चाहिए ? ऐसा शिष्य के द्वारा प्रश्न किये जाने पर उस अवस्था में जो संक्षेप से भी संक्षेप प्रत्याख्यान उचित है, उसे बतलाने के लिए आचार्यदेव तीसरा अधिकार कहते हैं-
एदम्हि देसयाले उवक्कमो जीविदस्स जदि मज्झं।
एदं पच्चक्खाणं णित्थिण्णे पारणा हुज्ज।।११२।।
यदि मेरा इस देश या काल में जीवन रहेगा तो इस गृहीत प्रत्याख्यान को समाप्त कर मैं पारणा करूँगा अर्थात् कुछ उपद्रव या उपसर्ग तो आ गया किन्तु बचने की भी उम्मीद है तब मुनि ऐसी नियम सल्लेखना लेते हैं कि यदि मैं इस उपद्रव से जीवित रह जाऊँगा तो पुन: आहार-जल ग्रहण करूँगा अन्यथा चतुर्विध आहार का, अन्य सर्व परिग्रह का त्याग है। जब मरण का निश्चय हो जाता है, तब क्या करते हैं ?
सव्वं आहारविहिं पच्चक्खामि पाणयं वज्ज।
उवहिं च वोस्सरामि य दुविहं तिविहेण सावज्जं।।११३।।
पेय पदार्थ को छोड़कर संपूर्ण आहार विधि का मैं त्याग करता हूँ और मन-वचन-कायपूर्वक दोनों प्रकार की उपधि-परिग्रह का भी मैं त्याग करता हूँ। पुन: इसके बाद मरण काल बिल्कुल निकट होने पर-
जो कोइ मज्झ उवही सब्भंतरबाहिरो य हवे।
आहारं च सरीरं जावज्जीवा य वोसरे।।११४।।
जो कुछ भी मेरा अभ्यंतर-बाह्य परिग्रह है उसको तथा सर्व आहार और शरीर को मैं जीवन पर्यन्त के लिए छोड़ता हूँ।
जम्मालीणा जीवा तरंति संसारसायरमणंतं।
तं सव्वजीवसरणं णंददु जिणसासणं सुइरं।।११५।।
जिसका आश्रय लेकर जीव अनंत संसार समुद्र को पार कर लेते हैं, सभी जीवों को शरण देने वाला ऐसा यह जिनशासन चिरकाल तक वृद्धिंगत होता रहे। समाधिमरण का फल क्या है ?
एगम्हि य भवगहणे समाहिमरणं लहिज्ज जदि जीवो।
सत्तट्ठभवग्गहणे णिव्वाणमणुत्तरं लहदि।।११८।।
यदि जीव एक भव में समाधिमरण को प्राप्त कर लेता है तो वह अधिकतम सात या आठ भव लेकर पुन: नियम से निर्वाणपद को प्राप्त कर लेता है। पुन: जन्म-मरण के दु:खों से सर्वथा के लिए छूट जाता है। क्योंकि-
णत्थि भयं मरणसमं जम्मणसमयं ण विज्जदे दुक्खं।
जम्मणमरणादंवंâ छिंदि ममत्तिं सरीरादो।।११९।।
मरण के समान अन्य कोई भय नहीं है और जन्म के समान अन्य कोई दु:ख नहीं है। अत: जन्म-मरण के कष्ट में निमित्त ऐसे इस शरीर से ममत्व को छोड़ो अर्थात् शरीर से ममत्व छोड़ने से ही जन्म-मरण की परम्परा समाप्त होती है अन्यथा नहीं। इसलिए शरीर से निर्मम होकर समाधि विधि से इसको छोड़कर संसार परम्परा को नष्ट करना चाहिए।
जिन मुनियों की आयु अधिक अवशेष है, जो निरतिचार मूलगुणों का पालन कर रहे हैं उनकी प्रवृत्ति वैâसी होती है ? ऐसा प्रश्न होने पर श्री वट्टकेर आचार्यदेव सामाचार नाम के चतुर्थ अधिकार को कहते हैं। उसमें सर्वप्रथम सामाचार शब्द का निरुक्ति अर्थ कहते हैं-
समदा सामाचारो सम्माचारो समो व आचारो।
सव्वेसिं सम्माणं सामाचारो दु आचारो।।१२३।।
समता सामाचार, सम्यक् आचार, सम आचार या सभी का समान आचार ये चार सामाचार शब्द के अर्थ हैं। (१) समता सामाचार-रागद्वेष का अभाव होना समता सामाचार है अथवा त्रिकाल देववंदना करना या पंच नमस्कार रूप परिणाम होना समता है अथवा सामायिक व्रत को समता कहते है। ये सब समता सामाचार है। (२) सम्यक् आचार-शोभन-निरतिचार मूलगुणों का अनुष्ठान करना अथवा निर्दोष भिक्षा ग्रहण करना यह सम्यक् आचार है। (३) सम आचार-पाँच आचारों को सम आचार कहा है, जो कि प्रमत्त, अप्रमत्त आदि सभी मुनियों का आचार समानरूप होने से सम आचार है अथवा आहार ग्रहण और देववंदना आदि क्रियाओं में भी साधुओं को सह-साथ ही मिलकर आचरण करना सम आचार है। (४) समान आचार-मान-परिणाम के साथ जो रहता है वह समान है अथवा सभी का समान रूप से पूज्य या इष्ट जो आचार है, वह सामाचार है। इस सामाचार के मुख्य दो भेद हैं- औघिक और पदविभागिक के भेद से सामाचार दो प्रकार का है। औघिक सामाचार दश प्रकार का है और पदविभागी सामाचार अनेक प्रकार का कहा गया है।
इच्छा मिच्छाकारो तधाकारो व आसिआ णिसिही।
आपुच्छा पडिपुच्छा छंदणसणिमंतणा य उवसंपा।।१२५।।
इच्छाकार, मिथ्याकार, तथाकार, आसिका, निषेधिका, आपृच्छा, प्रतिपृच्छा, छंदन, सनिमन्त्रणा और उपसंपत् ये दश भेद औघिक सामाचार के हैं। इच्छाकार-संयम का उपकरण, ज्ञान का उपकरण और भी अन्य उपकरण के लिए तथा किसी वस्तु के मांगने में एवं योगसाधना-ध्यान आदि के करने में इच्छाकार होता है। मिथ्याकार-जो दुष्कृत-पाप हुआ है वह मिथ्या होवे, पुन: उस दोष को नहीं करना, ऐसा जो भाव प्रतिक्रमण है, वही मिथ्याकार है। तथाकार-गुरु के मुख से वाचना ग्रहण करने में, उपदेश सुनने में और गुरु द्वारा सूत्र तथा अर्थ के कथन में ‘यह सत्य है’ ‘आपने ठीक कहा है’ ऐसा कहना और पुन: श्रवण की इच्छा रखना यह तथाकार है। यहाँ पर टीकाकार ने कहा है कि ‘आचार्य परम्परागत अविसंवादरूप मंत्र-तंत्र आदि जिसका गुरु वर्णन करते हैं, वह उपदेश कहलाता है।१ आसिका-निषेधिका-दरा, पुलिन, गुफा आदि में प्रवेश करते समय निषेधिका-नि:सही करना चाहिए तथा वहाँ से निकलते समय आसिका-असही करना चाहिए। वसतिका आदि में प्रवेश करते समय वहाँ स्थित भूत-व्यंतर आदि देवों को ‘निसही’ शब्द से पूछकर प्रवेश करना निषेधिका है और वहाँ से निकलते समय ‘असही’ शब्द से उन्हीं को पूछकर निकलना ‘आसिका’ है। आपृच्छा-आतापन आदि योग के ग्रहण करने में, आहार आदि के लिए जाने में अथवा अन्य ग्राम में जाने के लिए विनय से आचार्य आदि को पूछकर कार्य करना आपृच्छा है।
प्रतिपृच्छा-जो कोई भी बड़ा कार्य करना हो तो गुरु आदि से पूछकर फिर पुन: पूछना वह प्रतिपृच्छा है। छंदन-ग्रहण किये हुए उपकरण के विषय में, विनय के समय, वंदना के काल में, सूत्र का अर्थ पूछने इत्यादि में प्रमुख आदि की इच्छा से अनुकूल प्रवृत्ति करना छंदन है। निमंत्रणा-गुरु या सहधर्मी साधु से द्रव्य को, पुस्तक को या अन्य वस्तु को ग्रहण करने की इच्छा हो तो उन गुरुओं से विनयपूर्वक पुन: याचना करना निमंत्रणा है। उपसंपत्-गुरुओं से अपना निवेदन करना अर्थात् अपने को ‘मैं आपका ही हूँ’ ऐसा कहना यह उपसंपत् है। इसके पाँच भेद हैं-विनयोपसंपत्, क्षेत्रोपसंपत्, मार्गोपसंपत्, सुखदु:खोपसंपत् और सूत्रोपसंपत्। आगंतुक साधु की विनय और उपचार करना, उनके निवास स्थान और मार्ग के विषय में प्रश्न करना, उन्हें उचित वस्तु का दान करना, उनके अनुकूल प्रवृत्ति करना-आगंतुक साधु को आते देखकर उठकर खड़े होना, आप किन गुरु के शिष्य हैं ? किस मार्ग से आये हैं ? आपका रत्नत्रय कुशल तो है ? इत्यादि पूछकर उन्हें समय के अनुकूल घास, पाटा, पुस्तक आदि देना यह सब विनय उपसंपत् है। जिस क्षेत्र, स्थान में संयम, गुण, तप, शील, यम, नियम आदि वृद्धि को प्राप्त होते हैं उस क्षेत्र में रहना क्षेत्रोपसंपत् है। संयम, तप, ज्ञान और ध्यान से युक्त आगंतुक-अतिथि और स्थानीय संघ के साधुओं के बीच जो परस्पर में मार्ग से आने-जाने के विषय में सुख-दु:ख समाचार पूछना वह मार्गोपसंपत् है। साधु के सुख-दु:ख में वसतिका, आहार और औषधि आदि से उपचार करना और ‘मैं आपका ही हूँ’ ऐसे वचन बोलना सुखदु:खोपसंपत् है। सूत्र और अर्थ इन दोनों को समझने के लिए प्रयत्न करना सूत्रार्थोपसंपत् है। इस प्रकार औघिक सामाचार के भेद बताये हैं। अब पदविभागी को कहते हैं-
उग्गमसूरप्पहुदी समणाहोरत्तमंडले कसिणे।
जं आचरंति सददं एसो भणिदो पदविभागी।।१३०।।
साधुगण सूर्योदय से लेकर सम्पूर्ण अहोरात्र निरंतर जो आचरण करते हैं, ऐसा यह पदविभागी सामाचार है। कोई सर्व समर्थ साधु अपने गुरु से सम्पूर्ण श्रुत को पढ़कर विनय से पास आकर और प्रयत्नपूर्वक अपने गुरु से पूछता है। ‘भगवन्! आपके चरणों की कृपा से अब मैं अन्य आयतन-संघ को प्राप्त करना चाहता हूँ।’ इस तरह वह मुनि इस विषय में तीन बार या पाँच, छह बार प्रश्न करता है। अर्थात् कोई धीर-वीर मुनि अपने संघ में सर्व शास्त्रों को पढ़कर अन्य दूसरे संघ में विशेष अध्ययन के लिए जाना चाहता है तब प्रार्थना करता है और कई बार भी आज्ञा मांगता है। पुन: वह मुनि गुरु से पूछकर और उनसे आज्ञा प्राप्त कर अपने सहित चार या तीन, दो मुनि होकर वहाँ से विहार करता है अर्थात् अपने संघ से अन्य संघ में जाने के लिए भी अकेले मुनि विहार नहीं करें। क्योंकि- विहार के दो ही भेद हैं-गृहीतार्थ और अगृहीतार्थ। तत्त्वज्ञानी, उत्तम संहननधारी मुनि चारित्र में दृढ़ रहते हुए एकलविहारी होते हैं। उनका विहार प्रथम-गृहीतार्थ है। जो अल्पज्ञानी संघ में विहार करते हैं उनका द्वितीय-अगृहीतार्थ विहार है। इन दो के सिवाय तीसरा विहार जैन आगम में नहीं है। अब श्री कुन्दकुन्ददेव स्वयं कहते हैं कि एकलविहारी कौन होवे ?
तवसुत्तसत्तएगत्तभावसंघडणधिदिसमग्गो य।
पविआआगमबलिओ एयविहारी अणुण्णादो।।१४९।।
तप, सूत्र, सत्त्व, एकत्वभाव, संहनन और धैर्य इन सबसे परिपूर्ण, दीक्षा और आगम में बली मुनि एकलविहारी स्वीकार किये गये हैं। इस गाथा में संहनन से उत्तम संहननधारी१ लिए हैं, जो कि इस काल में नहीं हैं। पुन: कहते हैं-
सच्छंदगदागदी सयणणिसयणाहाणभिक्खवोसरणे।
सच्छंदजंपरोचि य मा मे सत्तूवि एगागी।।१५०।।
गमन, आगमन, सोना, बैठना, किसी वस्तु को ग्रहण करना, आहार लेना और मलमूत्रादि विसर्जन करना, इन कार्यों में स्वच्छंद प्रवृत्ति करने वाला और स्वच्छंद बोलने वाला ऐसा मेरा शत्रु भी एकलविहारी न होवे, फिर मुनि की तो बात ही क्या है ? यदि संहननहीन मुनि अकेले विहार करते हैं, तो क्या हानि होती है ? सो ही दिखाते हैं-
गुरुपरिवादो सुदवुच्छेदो तित्थस्स मइलणा जडदा।
भिंभलकुसीलपासत्थदा य उस्सारकप्पम्हि।।१५१।।
कंटयखण्णुयपडिणियसाणगोणादिसप्पमेच्छेहिं ।
पावइ आदविवत्ती विसेण व विसूइया चेव।।१५२।।
गारविओ गिद्धीओ माइल्लो अलसलुद्धणिद्धम्मो।
गच्छेवि संवसंतो णेच्छइ संघाडयं मंदो।।१५३।।
आणा अणवत्थाविय मिच्छत्ताराहणादणासो य।
संजमविराहणाविय एदे दुणिकाइया ठाणा।।१५४।।
एकलविहारी मुनि होने पर गुरु की निंदा, श्रुत का विनाश, तीर्थ की मलिनता, मूढ़ता, आकुलता, कुशीलता और पाश्र्वस्थता ये दोष आते हैं। कांटे, ठूंठ, विरोधीजन, कुत्ता, गाय, सर्प आदि पशुओं से और म्लेच्छजनों से अथवा विष से और अजीर्ण आदि रोगों से अपने पर विपत्तियाँ आ जाती हैं। एकाकी विहार करने वाले मुनि तो स्वच्छंद प्रवृत्ति करने लगते ही हैं किन्तु कोई साधु संघ में रहते हुए अनुशासनहीन होकर अन्य साधुओं को नहीं चाहते हैं, उनमें क्या दोष होते हैं ? सो ही कहते हैं- जो गारव से सहित हैं, आहार में लंपट हैं, मायाचारी हैं, आलसी हैं, लोभी हैं और धर्म से रहित हैं ऐसे शिथिल मुनि संघ में रहते हुए भी साधु समूह को नहीं चाहते हैं। एकाकी रहने वाले के सर्वज्ञदेव की आज्ञा का उल्लंघन होगा और अन्य मुनि भी एकाकी बनेंगे सो यह अनवस्था दोष, मिथ्यात्व का सेवन, अपना विनाश और संयम की विराधना ये पाँच पापस्थान-दोष माने गये हैं। श्रुत का अध्ययन करने वाले मुनि को ‘जिस संघ में आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर ये पाँच आधार हैं, उस संघ में ही रहना चाहिए। शिष्यों पर अनुग्रह करने में कुशल को आचार्य कहते हैं। धर्म के उपदेशक को उपाध्याय, संघ की प्रवृत्ति कराने वाले को प्रवर्तक, मर्यादा के उपदेशक को स्थविर और गण के रक्षक को गणधर कहते हैं। अपने संघ से गुरु की आज्ञा लेकर मुनि दो या तीन मिलकर जब दूसरे संघ में पहुँचते हैं, तब वहाँ के आचार्य और मुनि आदि क्या करते हैं ? सो दिखाते हैं- आगत मुनि को देखकर संघ के सभी साधु वात्सल्य भाव के लिए, सर्वज्ञदेव की आज्ञा पालन करने के लिए, आगंतुक साधु को अपनाने के लिए और उनको प्रणाम करने के लिए उठकर खड़े हो जाते हैं। पुन: सात कदम आगे बढ़कर परस्पर में नमोऽस्तु-प्रतिनमोऽस्तु करके आगंतुक के प्रति करने योग्य कत्र्तव्य के लिए उनसे रत्नत्रय की कुशल पूछें। पुन: संघ में तीन दिन तक सहाय देना चाहिए। उन दिनों आगंतुक मुनियों की क्रियाओं में, संस्तर आदि में तथा सहवास में परीक्षा करना चाहिए। अतिथि मुनि और संघस्थ मुनि परस्पर की क्रियाओं में, प्रतिलेखन में, एक-दूसरे की क्रिया और चारित्र में परीक्षा करें।
आगंतुक मुनि उस दिन विश्रांति लेकर और परीक्षा करके विनयपूर्वक आचार्य के पास बैठकर दूसरे या तीसरे दिन अपने आने का हेतु निवेदित करें, पुन: आचार्य आगंतुक का नाम, कुल, गुरु, दीक्षा के दिन, वर्षावास, आने की दिशा, शिक्षा, प्रतिक्रमण आदि के विषय में प्रश्न करें। अतिथि मुनि समुचित उत्तर देवें। अनंतर यदि वे मुनि क्रिया और चारित्र में शुद्ध हैं, नित्य उत्साही हैं, बुद्धिमान हैं तो उनकी सामथ्र्य के अनुसार उन्हें विद्याध्ययन करावें और यदि आगंतुक मुनि चारित्र में विशुद्ध नहीं हैं तो उन्हें छेदोपस्थापना करके-प्रायश्चित्त देकर रखना चाहिए। कदाचित् वह मुनि प्रायश्चित्त न लेवे, तो उसे संघ में नहीं रखना चाहिए। यदि वे आचार्य शिष्यों के मोह से उसे न छोड़ें तो वे आचार्य भी प्रायश्चित्त के पात्र हो जाते हैं। यदि वे आगंतुक मुनि ठीक हैं और आचार्य ने उन्हें स्वीकार करके पढ़ाना शुरू कर दिया है तो वे मुनि प्रयत्नपूर्वक अध्ययन करें। सिद्धांत ग्रंथों के पढ़ने में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की शुद्धि करके पढ़ें। इस संघ में रहते हुए वे मुनि अब संघ के साधुओं को अपने संघ का जैसा समझकर गुरु, बाल, वृद्ध, रोगी आदि साधुओं की यथाशक्ति वैयावृत्य करें। प्रतिक्रमण, देववंदना, गुरुवंदना, आहार, विहार आदि क्रियाएँ सब साधुओं के साथ मिलकर ही करें। आर्यिकाओं की चर्या-आर्यिकाओं के आने के समय मुनि को अकेले नहीं बैठना चाहिए, बिना प्रयोजन उनके साथ वार्तालाप भी नहीं करना चाहिए। यदि अकेली आर्यिका प्रश्न करे तो अकेला मुनि उत्तर न देवे। यदि गणिनी को आगे करके पूछे तो उत्तर देना चाहिए। तरुण मुनि युवती आर्यिका के साथ यदि वचनालाप करे तो उस मुनि ने आज्ञालोप आदि पाँचों ही दोष किये, ऐसा समझना चाहिए। आर्यिकाओं की वसतिका में मुनियों का रहना, बैठना, लेटना, स्वाध्याय, आहार, कायोत्सर्ग आदि करना युक्त नहीं है। आर्यिकाओं को प्रायश्चित्त आदि देने के लिए उनका आचार्यत्व करने के लिए कैसे आचार्य होवें ?
पियधम्मो दढधम्मो संविग्गोऽवज्जभीरु परिसुद्धो।
संग्गहणुग्गहकुसलो सददं सारक्खणाजुत्तो।।१८३।।
गंभीरो दुद्धरिसो मिदवादी अप्पकोदुहल्लो य।
चिरपव्वइदो गिहिदत्थो अज्जाणं गणधरो होदि।।१८४।।
जो धर्म में अनुरागी हैं, धर्म में दृढ़ हैं, संवेग भाव सहित हैं, पाप से भीरू हैं, शुद्ध आचरण वाले हैं, शिष्यों के अनुग्रह और निग्रह में कुशल हैं, हमेशा ही पापक्रिया से निवृत्त हैं, गंभीर हैं, स्थिरचित्त हैं, मित बोलने वाले हैं, कभी किंचित् मात्र कुतूहल करते हैं, चिरदीक्षित हैं, तत्त्वों के ज्ञाता हैं, ऐसे प्रौढ़ मुनि ही आर्यिकाओं के आचार्य होते हैं।
एवं गुणवदिरित्तो जदि गणधारित्तं करेदि अज्जाणं।
चत्तारि कालगा से गच्छादिविराहणा होज्ज।।१८५।।
उपर्युक्त गुणों से रहित आचार्य आदि आर्यिकाओं का आचार्यत्व करते हैं तो उनके चार काल-गणपोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना और उत्तमार्थ काल विराधित होते हैं और गच्छ-संघ आदि की भी विराधना हो जाती है। इसलिए उस परगण में रहते हुए अतिथि मुनियों को यहाँ के आचार्य की आज्ञानुसार ही प्रवृत्ति करना चाहिए। पूर्व में औघिक और यह पदविभागिक जो भी सामाचार विधि कही गई है, वह सभी सामाचार विधि आर्यिकाओं को भी सर्व अहोरात्र में यथायोग्य करना चाहिए। यहाँ ‘यथायोग्य’ से उन्हें वृक्षमूल, आतापन आदि योग नहीं करना चाहिए। ये आर्यिकाएँ अकेली न रहकर दो-तीन आदि से लेकर अधिक जितनी भी हों, रहें। एक-दूसरे की रक्षा करते हुए वात्सल्यभाव से रहें, आपस में ईष्र्या, द्वेष, कलह आदि छोड़कर अपने पितृपक्ष-पतिपक्ष के कुल की मर्यादा के अनुरूप लज्जा आदि गुणों से सहित होकर रहें। गृहस्थों के कुछ निकट ही वसतिका में इन्हें रहना चाहिए। उपर्युक्त विधानरूप चर्या का जो मुनि और आर्यिकाएँ अचारण करते हैं, वे जगत् से पूजा को, यश को और सुख को प्राप्त कर सिद्ध हो जाते हैं। इस प्रकार यहाँ यह सामाचार अधिकार में साधुओं की अहोरात्र चर्या संक्षेप में ही कही गई है।
दंसणणाणचरित्ते तवेविरियाचारम्हि पंचविहे।
वोच्छं अदिचारेऽहं कारिदे अणुमोदिदे अ कदे।।१९९।।
दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य ये पाँच आचार हैं। इन आचार में कृत, कारित और अनुमोदना से हुए अतिचारों को मैं कहूँगा। सम्यक्त्व-तत्त्वरुचि का नाम दर्शन है। यद्यपि दृश धातु देखने में प्रसिद्ध है तो भी यहाँ श्रद्धान अर्थ लेना। जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान और उन्हीं रूप श्रद्धाविषयक अनुष्ठान दर्शनाचार है। पाँच प्रकार के ज्ञान के लिए अध्ययन आदि क्रियाएं करना ज्ञानाचार है। पापक्रिया से दूर होना, प्राणियों के वध त्याग और इन्द्रियनिरोध में प्रवृत्ति करना चारित्राचार है। कायक्लेश आदि तपों का अनुष्ठान करना तप आचार है। शक्ति को न छिपाकर शुभ कार्यों में उत्साह रखना वीर्याचार है। दर्शनाचार-जिनेन्द्रदेव ने दर्शनाचार की विशुद्धि आठ प्रकार से कही है अत: दर्शन के अतिचारों का निराकरण करने का उपाय यहाँ कहते हैं-
णिस्संकिद णिक्वंखिद णिव्विदिगिंच्छा अमूढदिट्ठी य।
उवगूहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पभावणा य ते अट्ठ।।२०१।।
नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये आठ शुद्धि हैं। मार्ग और मार्ग का फल ये दो ही जिनशासन में कहे गये हैंं, उसमें सम्यक्त्व को मार्ग कहते हैं और मार्ग का फल निर्वाण है।
सम्यक्त्व का लक्षण- भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च।
आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं१।।२०३।।
सत्यार्थरूप से जाने गये जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये ही सम्यक्त्व हैं। यहाँ पर सम्यग्दर्शन के विषयभूत पदार्थों को ही सम्यक्त्व कह दिया है। चूँकि परमार्थरूप से जाने गये ये पदार्थ ही श्रद्धान के विषय हैं अत: ये श्रद्धान में कारण हैं और श्रद्धान होना कार्य है जो कि सम्यक्त्व है किन्तु कारणभूत पदार्थों में कार्यभूत श्रद्धान का अध्यारोप करके उन पदार्थों को ही सम्यक्त्व कह दिया है। इन नव पदार्थों में से जीव को कहते हैं- जीव के दो भेद हैं-संसारी और मुक्त। संसारी जीव के छह भेद हैं और सिद्धि को प्राप्त हुए मुक्त जीव हैं। पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस ये संसारी जीव के छह भेद हैं। इनमें से पृथिवी के छत्तीस भेद होते हैं। मिट्टी, बालू, शर्वâरा, उपल, शिला, लवण, लोहा, तांबा, रांगा, सीसक, चांदी, सोना, हीरा, हरिताल, हिंगुल, मैनसिल, सस्यक, अंजन, प्रवाल, अभ्रक, अभ्रबालू, गोमेदमणि, रुचकमणि, अंकमणि, स्फटिकमणि, पद्मरागमणि, चन्द्रप्रभमणि, वैडूर्य, जलकांत, सूर्यकांत, गेरू, चंदन, वप्पक, वक, मोच और मसारगल्ल ये ३६ भेद हैं। इन पृथ्वीकायिक जीवों को जानकर उनका परिहार करना चाहिए।
‘‘पृथिवी चतुष्प्रकारा-पृथिवी, पृथिवीशरीरं, पृथिवीकायिक, पृथिवीजीव:२।’’
पृथिवी के चार भेद हैं-पृथिवी, पृथिवीकाय, पृथिवीकायिक और पृथिवीजीव।मार्ग में पड़ी हुई धूलि आदि पृथिवी हैं। पृथिवीकायिक जीव के द्वारा परित्यक्त र्इंट आदि पृथिवीकाय हैं। जैसे-मृतक मनुष्यादि की काय। पृथिवीकायिक नामकर्म के उदय से जो जीव पृथिवी शरीर को ग्रहण किये हुए हैं, वे पृथिवीकायिक हैं जैसे-खान में स्थित पत्थर आदि। पृथिवी में उत्पन्न होने के पूर्व विग्रहगति में रहते हुए एक, दो या तीन समय तक जीव पृथिवीजीव हैं। इनमें से आदि के दो निर्जीव हैं, शेष दो जीव हैं। इनमें भी पृथिवीजीव विग्रहगति में है उसका घात संभव ही नहीं है मात्र पृथिवीकायिक जीवों के घात का त्याग करना ही अहिंसा व्रत है। ऊपर में कहे गये छत्तीस भेद, ये सब बादर या स्थूल कहलाते हैं। इन छत्तीस भेदों में ही पृथिवी के विकार-भेदरूप बहुत सी पृथिवी हैं। ‘सात नरक की सात और ईषत्प्राग्भार नाम की सिद्धशिला की पृथिवी ये ८ पृथिवी, मेरुपर्वत, कुलाचल, द्वीप और द्वीपों की वेदिकाएं, देवोें के विमान, भवन, जिनप्रतिमा, तोरणद्वार, स्तूप, चैत्यवृक्ष, जंबूवृक्ष, शाल्मलीवृक्ष, इष्वाकार पर्वत, मानुषोत्तर पर्वत, विजयार्ध पर्वत, कांचनपर्वत, दधिमुख पर्वत, अंजनगिरि, रतिकर पर्वत, वृषभाचल तथा और भी सामान्य पर्वत, स्वयंप्रभ पर्वत, वक्षार पर्वत, रुचकवर पर्वत, कुण्डलवर पर्वत, गजदंत और रत्नों की खान आदि सब पृथिवी के भेदों में ही अंतर्भूत हैं।’’ अर्थात् मध्यलोक में होने वाले संपूर्ण पर्वत, वेदिकाएं, जंबूवृक्ष, जिनभवन और जिनप्रतिमाएं, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विमान, भवन, इनमें स्थित जिनमंदिर, जिनप्रतिमाएं, नरक की भूमियाँ, बिल तथा सिद्धशिला भूमि आदि सभी इन पृथिवीकायिक के ही भेद हैं। ऐसे ही जल, वायु, अग्नि और वनस्पति के भी चार-चार भेद होते हैं। उनमें से भी जलकायिक, वायुकायिक, अग्निकायिक और वनस्पतिकायिक नाम के तृतीय भेद की हिंसा नहीं करना चाहिए। पर्व, बीज, कंद, स्कंध तथा बीजबीज, इनसे उत्पन्न होने वाली और संमूच्र्छन वनस्पति कही गई है। ये प्रत्येक और अनंत काय ऐसे दो भेदरूप हैं। इनके विशेष भेद मूलाचार, गोम्मटसार ग्रंथों से ही समझना चाहिए। त्रस के विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय दो भेद हैं।
विकलेन्द्रिय में दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और चार इंन्द्रिय जीवों की अपेक्षा तीन भेद हैं। सकलेन्द्रिय में संज्ञी और असंज्ञी दो भेद हैं। अथवा सकलेन्द्रिय के जलचर, स्थलचर और नभचर की अपेक्षा तीन भेद हैं। देव, नारकी और मनुष्य ये सैनी पंचेन्द्रिय हैं। इन सब जीवों को कुल, योनि, मार्गणा आदि से जानना चाहिए। अजीव के दो भेद हैं-रूपी और अरूपी। रूपी-पुद्गल के स्कंध, स्कंध देश, स्कंध प्रदेश और अणु ये चार भेद हैं। अरूपी के धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार भेद हैं। इनमें से रूपी पुद्गल द्रव्य ही कर्मबंध का कारण है। पुण्य-पाप-सम्यक्त्व से, श्रुत से, विरति परिणाम से और कषायों के निग्रह रूप गुणों से जो परिणत हैं, वह पुण्य है और इससे विपरीत पाप है। आस्रव-मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, इन कर्मों के आने के द्वार को आस्रव कहते हैं। संवर-मिथ्यात्व आदि से जो कर्म आते थे, उनको सम्यक्त्व, विरति परिणाम आदि से रोक देना संवर है। निर्जरा-पूर्वकृत कर्मों का झड़ना निर्जरा है। उसके दो भेद हैं-सविपाक और अविपाक। बंध-मोक्ष-रागी कर्मों को बांधता है और विरागसम्पन्न जीव कर्मों से छूटता है। बंध और मोक्ष के विषय में संक्षेप से जिनेन्द्र देव का यही उपदेश है। नि:शंकित शुद्धि-जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित जो ये नव पदार्थ हैं उसमें जो शंका हो, तो यह दर्शन का घात करने वाली हो जाती है। जो कभी शंका न करके दृढ़ श्रद्धान करना है, वह प्रथम दर्शन शुद्धि है। नि:कांक्षित शुद्धि-इहलोक में, परलोक में और कुधर्म में आकांक्षा होने से आकांक्षा के तीन भेद हो जाते हैं। जो इन तीनों को नहीं करता है, वह द्वितीय दर्शन शुद्धि को प्राप्त करता है। निर्विचिकित्सा शुद्धि-विचिकित्सा अर्थात् ग्लानि के द्रव्य-भाव की अपेक्षा दो भेद हैं-मल, मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओं को देखकर उनमें ग्लानि करना द्रव्य विचिकित्सा है और भूख, प्यास, नग्नत्व आदि परीषहों में ग्लानि या अरुचि करना भाव विचिकित्सा है। द्रव्य विचिकित्सा न करके क्षुधा आदि परीषहों को जीतना ही निर्विचिकित्सा शुद्धि है। अमूढ़दृष्टि शुद्धि-लौकिक आचार, वैदिक आचार, नैयायिक आदि से संबंधित सामयिक आचार इनमें और अन्य देवों में जो मूढ़ता है, वह दर्शन का घात करने वाली है। सर्वशक्ति से इनमें मोह को नहीं करना ही अमूढ़दृष्टित्व शुद्धि है।
उपगूहन शुद्धि-दर्शन या चारित्र से शिथिल हुए लोगों को देखकर धर्म की भक्ति से उनके दोषों को ढकना-छिपाना यह उपगूहन शुद्धि है। यथा-‘चातुर्वण्र्य श्रमणसंघदोषापहरणं प्रमादाचरितस्य च संवरणं उपगूहनं’ चातुर्वण्र्य श्रमण संघ में हुए दोष को दूर करना अर्थात् प्रमाद से दोष रूप कोई आचरण हुआ हो, उसे ढक देना उपगूहन है। स्थितिकरणशुद्धि-दर्शन और चारित्र से भ्रष्ट हुए जीवों को देखकर धर्मबुद्धि से हित-मित वचन से उन्हें उन दोषों से हटाकर पुन: उसी दर्शन और चारित्र में लगा देना स्थितीकरण शुद्धि है। वात्सल्यशुद्धि-चतुर्गति संसार से पार करने में कारण ऐसे चतुर्विध संघ में प्रीति करना, जैसे-गाय का बछड़े पर अकृत्रिम प्रेम होता है, वैसा धर्म प्रेम करना वात्सल्य शुद्धि है। प्रभावनाशुद्धि-धर्म कथाओं के कहने से, आतापन आदि योगों को धारण करके और जीवों की दया आदि के द्वारा धर्म की प्रभावना करना तथा-‘‘प्रभावना-वादपूजादान व्याख्यान मंत्रतंत्रादिभि: सम्यगुपदेशैर्मिथ्यादृष्टिरोधं कृत्वार्हत्प्रणीतशासनोद्योतनं।’’ वाद-शास्त्रार्थ, पूजा-इन्द्रध्वज, सिद्धचक्र आदि महापूजा, दान, व्याख्यान, मंत्र, तंत्रादि के द्वारा और सच्चे उपदेश के द्वारा मिथ्यादृष्टि जनों के प्रभाव को रोककर अर्हंत देव के द्वारा बतलाये गए जैनशासन को पैâलाना प्रभावना शुद्धि है। इस प्रकार सम्यक्त्व में शंका, कांक्षा आदि आठ दोषों को न लगाकार निर्दोष रूप से आठ अंगों से सहित सम्यग्दर्शन को धारण करना वह दर्शनाचार है। ज्ञानाचार-ज्ञानाचार भी आठ प्रकार का है-
जेण तच्चं विबुज्झेज्ज जेण चित्तं णिरुज्झदि।
जेण अत्ता विसुज्झेज्ज तं णाणं जिणसासणे।।२६७।।
जिसके द्वारा तत्त्व का बोध होता है, जिसके द्वारा मन का निरोध होता है और जिसके द्वारा आत्मा विशुद्ध होता है, जैनशासन में उसे ही ज्ञान कहा है।
काले विणए उवहाणे बहुमाणे तहेव णिण्हवणे।
वंजण अत्थ तदुभए णाणाचारो दु अट्ठविहो।।२६९।।
काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिन्हव, व्यंजन, अर्थ और उभय, इन भेदों से ज्ञानाचार आठ प्रकार का है अर्थात् कालशुद्धि, विनयशुद्धि आदि अथवा कालाचार, विनयाचार आदि इनके नाम हैं, इनसे ज्ञान की आराधना होती है अत: ये ज्ञानाचार कहलाते हैं। कालशुद्धि-स्वाध्याय की बेला में समीचीन शास्त्रों को पढ़ना, पढ़ाना, व्याख्यान आदि करना। सूर्योदय के दो घड़ी (४८ मिनट) बाद से लेकर मध्यान्ह के दो घड़ी पूर्व तक पूर्वाण्ह स्वाध्याय काल है। मध्यान्ह के दो घड़ी बाद से सूर्यास्त के दो घड़ी पूर्व तक अपराण्ह स्वाध्यायकाल है। सूर्यास्त के दो घड़ी बाद से अर्धरात्रि के दो घड़ी पूर्व तक पूर्वरात्रिक स्वाध्यायकाल है और अर्धरात्रि के दो घड़ी बाद से सूर्योदय के दो घड़ी पूर्व तक वैरात्रिक या अपररात्रिक स्वाध्याय काल है। ऐसे ये चार स्वाध्याय काल होते हैं। इनमें भी दिशादाह, उल्कापात, विद्युत्पात, वङ्कापात, इंद्रधनुष, संध्याकाल, दुर्दिन, चंद्रग्रहण, सूर्यग्रहण, धूमकेतु, भूवंâप, भयंकर मेघगर्जन, कलह, दुर्गंधि आदि के होने पर स्वाध्याय के लिए अकाल माना जाता है। इन दोषों से रहित स्वाध्याय काल में सिद्धांत ग्रंथ आदि को पढ़ना कालशुद्धि है। इसी के अंतर्गत द्रव्य, क्षेत्र और भावशुद्धि भी देखना चाहिए। शरीर से रुधिर या पीव आदि बह रहा हो, कोई विशेष रोग हो तो द्रव्यशुद्धि नहीं होती, इनसे वर्जित द्रव्य शुद्धि होती है। जहाँ बैठकर स्वाध्याय करना है उस क्षेत्र के सौ हाथ भीतर में यदि मांस आदि अपवित्र वस्तुएँ हों, तो क्षेत्र शुद्धि नहीं होती, इससे रहित क्षेत्र में पढ़ने से क्षेत्र शुद्धि होती है। राग, द्वेष, अहंकार, आर्त-रौद्रध्यान आदि से रहित तथा महाव्रत, समिति आदि से सहित परिणाम ही भावशुद्धि है। ‘‘कालशुद्ध्यादिभि: शास्त्रं पठितं कर्मक्षयाय भवत्यन्यथा कर्मबन्धायेति।’’ इस तरह कालशुद्धि आदि से पढ़ा गया शास्त्र कर्मक्षय के लिए होता है अन्यथा कर्मबंध के लिए हो जाता है। इन शुद्धियों का विस्तार धवला की नवमीं पुस्तक में भी विशेष है। वहाँ से देख लेना चाहिए। प्रश्न-इन शुद्धियों से युक्त जिन शास्त्रों को पढ़ना है, वे किनके द्वारा रचित हों ?
सुत्तं गणधरकहिदं तहेव पत्तेयबुद्धिकहिदं च।
सुदकेवलिणा कहिदं अभिण्ण दसपुव्वकहिदं च।।२७७।।
गणधर देव, प्रत्येक बुद्धि ऋद्धिधारी मुनि, श्रुतकेवली और अभिन्न दशपूर्वी मुनियों द्वारा कथित ग्रंथ, सूत्र ग्रंथ या सिद्धांत ग्रंथ कहलाते हैं। उन्हीं के लिए सब शुद्धि देखना आवश्यक है।
तं पढिदुमसज्झाए णो कप्पदि विरद इत्थिवग्गस्स१।
एत्तो अण्णो गंथो कप्पदि पढिदुं असज्झाए।।२७८।।
अस्वाध्याय काल में मुनिवर्ग और आर्यिकाओं को इन सूत्र ग्रंथ को नहीं पढ़ना चाहिए। इनसे अतिरिक्त अन्य ग्रंथ-आराधनासार आदि अस्वाध्यायकाल में भी पढ़ सकते हैं। विनयशुद्धि-पर्यंकासन से बैठकर पिच्छिका से प्रतिलेखन करके अंजलि जोड़कर प्रणामपूर्वक सूत्र और उसके अर्थ में उपयोग को लगाते हुए अपनी शक्ति के अनुसार पढ़ना विनयशुद्धि है। उपधानशुद्धि-घी, दूध आदि रसों में से किसी का त्याग कर ग्रंथ पढ़ना उपधान शुद्धि है। बहुमानशुद्धि-आचार्य, उपाध्याय आदि तथा शास्त्र आदि को बहुमान देकर उनकी पूजा आदि पूर्वक पढ़ना बहुमान शुद्धि है। अनिन्हव शुद्धि-अपने गुरु का नाम नहीं छिपाना और जिस शास्त्र से बोध हुआ हो, उसका नाम भी नहीं छिपाना अनिन्हव शुद्धि है। सामान्य यति आदि से पढ़कर जो तीर्थंकर आदि का नाम बताते हैं यह निन्हव दोष है, इससे रहित अनिन्हव शुद्धि होती है। व्यंजनशुद्धि-अक्षर, पद, मात्रा से शुद्ध गाथा या सूत्रों को पढ़ना व्यंजनशुद्धि है। अर्थशुद्धि-उन सूत्र, गाथा, श्लोक आदि का अर्थ शुद्ध समझना और शुद्ध ही प्रतिपादित करना अर्थशुद्धि है। उभयशुद्धि-सूत्र और अर्थ दोनों को शुद्ध पढ़ना-पढ़ाना, प्रतिपादित करना उभयशुद्धि है। यह ज्ञानाचार के आठ भेदरूप आठ शुद्धियों का कथन हुआ है। क्योंकि-
विणयेण सुदमधीदं जदि वि पमादेण होदि विस्सरिदं।
तमुवट्ठादि परभवे केवलणाणं च आवहदि।।२८६।।
विनय से पढ़ा गया शास्त्र यदि प्रमाद से विस्मृत भी हो जाए तो भी वह परभव में उपलब्ध हो जाता है और केवलज्ञान को प्राप्त करा देता है। चारित्राचार-हिंसा, असत्य, स्तेय, मैथुन और परिग्रह इन पाँचों से विरत होना यह पाँच प्रकार का चारित्राचार है।
तेसिं चेव वदाणं रक्खट्ठं रादि भोयणणियत्ती।
अट्ठय पवयणमादा य भावणाओ य सव्वाओ।।२९५।।
इन व्रतों की रक्षा के लिए रात्रि भोजन का त्याग, आठ प्रवचन मातृकाएं और सर्व-पच्चीस भावनाएँ हैं। मुनियों के लिए रात्रि भोजन त्याग नाम का छठा अणुव्रत माना है। पाँच समिति और तीन गुप्ति ये आठ प्रवचन माता कहलाती हैं और अहिंसा आदि पाँचों व्रतों को स्थिर रखने के लिए प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाएं ऐसी पच्चीस भावनाएँ होती हैं। पाँच समिति और तीन गुप्तिरूप यह चारित्राचार भी आठ प्रकार का है१। गुप्ति-रागद्वेष आदि से मन का जो रोकना है, वह मनोगुप्ति है। असत्य वचनों से वचन को रोकना अथवा मौन रहना वचनगुप्ति है। काय क्रिया के अभावरूप कायोत्सर्ग करना कायगुप्ति है।
एदाओ अट्ठपवयणमादाओ णाणदंसणचरित्तं।
रक्खंति सदा मुणिणो मादा पुत्तं व पयदाओ।।३३६।।
ये आठ प्रवचन माताएं, जैसे-माता पुत्र की रक्षा करती है, वैसे ही सदा मुनि के दर्शन, ज्ञान और चारित्र की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करती हैं।
एदाहिं सदा जुत्तो समिदीहिं महिं विहरमाणो दु।
हिंसादीहिं ण लिप्पइ जीवणिकाआउले साहू।।३२६।।
इन समितियों से युक्त साधु हमेशा ही जीव समूह से भरे हुए भूतल पर विहार करते हुए भी हिंसादि पापों से लिप्त नहीं होते हैं। जैसे-चिकनाई गुण से युक्त कमल का पत्ता जल से लिप्त नहीं होता है, उसी प्रकार साधु जीवों के मध्य समितिपूर्वक चर्या करता हुआ पापों से लिप्त नहीं होता है। जैसे-मजबूत कवच वाला मनुष्य पड़ती हुई बाण वर्षा से भी नहीं भिदता है, वैसे ही समिति से सहित साधु जीव समूह में विचरण करता हुआ भी नहीं बंधता है। जहाँ पर अज्ञानी विचरण करता है, वहीं पर जीवों का परिहार करता हुआ ज्ञानी भी विचरण करता है किन्तु अज्ञानी तो कर्मों से बंध जाता है और ज्ञानी जीवों का परिहार करता हुआ कर्मों से मुक्त हो जाता है इसलिए हे मुने! तुम्हें समितिपूर्वक ही प्रवृत्ति करनी चाहिए। इससे नये कर्म नहीं बंधेंगे और पुराने निर्जीर्ण हो जायेंगे। पच्चीस भावनाएँ-एषणा समिति, आदाननिक्षेपण समिति, ईर्या समिति, मनोगुप्ति और आलोक्य-देखकर, शोधकर भोजन पान ये अहिंसा व्रत की पाँच भावनाएं हैं। क्रोध, भय, लोभ और हास्य का त्याग तथा अनुवीचि भाषण ये सत्यव्रत की पाँच भावनाएँ हैं। याचना समनुज्ञापना, अपनत्व का अभाव, त्यक्त प्रतिसेवना और साधर्मी को उपकरण का उनके अनुवूâल सेवन ये पाँच भावनाएँ तृतीय अचौर्यव्रत की हैं। स्त्रियों का अवलोकन, पूर्व भोगों का स्मरण, संसक्त वसतिका से विरति एवं विकथा से और प्रणीत रसों से विरति ये ब्रह्मचर्य व्रत की पाँच भावनाएँ हैं। शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध इनमें राग-द्वेष आदि का त्याग करना ये पाँच परिग्रह व्रत की भावनाएँ हैं। इन भावनाओं को भाते हुए साधु सोते हुए भी किंचित् मात्र भी व्रतों में विराधना नहीं करते हैं फिर जो इस समय जाग्रत हैं, उनके प्रति तो कहना ही क्या है ? इस प्रकार संक्षेप से पाँच प्रकार का यह चारित्रासार कहा है।
तप आचार-बाह्य-अभ्यंतर भेद से तप आचार दो प्रकार का है। उनमें से प्रत्येक के भी छह-छह भेद हैं। तप के अनुष्ठान का नाम तप आचार है। अनशन, अवमौदर्य, रस परित्याग, वृत्तपरिसंख्यान, कायक्लेश और विविक्त शयनासन ये छह बाह्य तप हैं। चतुर्विध आहार का त्याग करना अनशन है। काल की मर्यादा सहित और जीवनपर्यंत के भेद से अनशन के दो भेद हैंं उसमें भी मर्यादा सहित तप साकांक्ष है और यावज्जीवन अनशन निराकांक्ष है। बेला, तेला आदि तथा कनकावली, एकावली, सिंहनिष्क्रीडित आदि सब अनशन के भेद हैं। भक्त प्रतिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन ये जो मरण के भेद हैं, वे ही निराकांक्ष अनशन के भेद हैं। अवमौदर्य-पुरुष का आहार बत्तीस कवल-ग्रास प्रमाण है। उसमें से एक ग्रास भी कम लेना या मात्र एक ग्रास लेना अवमौदर्य तप है। रसपरित्याग-दूध, घी, दही, तेल, गुड़ और नमक इन रसों का त्याग करना या तिक्त, अम्ल, कटु, कषाय और मधुर इन रसों का या इनमें से एक, दो आदि का त्याग करना रस परित्याग तप है। इन प्रासुक भक्ष्य रसादि का तपश्चरण के लिए त्याग किया जाता है तथा महाविकृति नाम से जो वस्तु हैं उनको यावज्जीवन के लिए छोड़ ही देना चाहिए। मक्खन, मद्य, मांस और मधु ये चार महाविकृतियाँ हैं। ये सर्वथा असंयम के लिए कारण हैं अत: सर्वथा त्याज्य हैं। वृत्तपरिसंख्यान-गृहों का प्रमाण, दाता का या बर्तनों का नियम, ऐसे अनेक प्रकार के नियम लेकर जो आहार के लिए जाना है वह वृत्तपरिसंख्यान तप है। कायक्लेश-खड़े होकर कायोत्सर्ग करना, प्रतिमायोग आदि के द्वारा व अनेक आसन के द्वारा आगम के अनुकूल काय को कष्ट देते हुए तप करना कायक्लेश तप है। आतापन, वृक्ष मूल, अभ्रावकाश आदि योग सब इसी में शामिल हैं। विविक्तशयनासन-अप्रमत्त-सावधानीपूर्वक सोने, बैठने, उठने और ठहरने आदि के लिए एकांतस्थान या गुरुओं के निकट आदि में रहना, तिर्यंचिनी, मनुष्य स्त्री, देवी और गृहस्थों से सहित मकान में नहीं रहना विवक्तिशयनासन तप है। बाह्य तप वही है जिससे मन अशुभ को प्राप्त न हो, श्रद्धा उत्पन्न हो और योग हीन न हों। अभ्यंतर तप-इसके भी छह भेद हैं-प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग। प्रायश्चित्त-अपराध को प्राप्त हुआ मुनि जिसके द्वारा किये हुए पाप से विशुद्ध हो जाता है-छूट जाता है, वह प्रायश्चित्त तप है।
इसके १० भेद हैं-आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान। यह दश प्रकार का प्रायश्चित्त क्रम से दोषों के अनुरूप होता है। गुरु के पास विनयपूर्वक बैठकर बालक के समान सरलता से अपने दोषों को निवेदन कर उनके द्वारा दिये हुए प्रायश्चित्त को ग्रहण करने से पापों का शोधन होता है। विनय-नम्रवृत्ति का होना विनय है। इसके पाँच भेद हैं-दर्शन विनय, ज्ञान विनय, चारित्र विनय, तप विनय और औपचारिक विनय। शंकादि दोष रहित उपगूहन आदि गुणों को धारण करना दर्शन विनय है। काल शुद्धि आदि सहित ज्ञानाभ्यास करना ज्ञान विनय है। इन्द्रिय, कषायों का निग्रह करके गुप्ति समिति मेें प्रवृत्त होना चारित्र विनय है। उत्तर गुणों में उत्साह, उनका अभ्यास, श्रद्धा, उचित आवश्यकों में हानि वृद्धि न करना तप विनय है। मन-वचन-काय से प्रत्यक्ष या परोक्ष में गुरुओं का आदर, सत्कार, नमस्कार, आज्ञा पालन आदि करना औपचारिक विनय है। इसका विस्तार मूलाचार में पढ़ने लायक है। एक रात्रि भी अधिक दीक्षित (एक क्षण भी प्रथम दीक्षित) बड़ों में अपने से दीक्षा में जो छोटे हैं उनमें, आर्यिकाओं में और गृहस्थों में भी यथायोग्य विनय करना चाहिए१। जो अपने से छोटे हैं तथा आर्यिका आदि में बहुमान देकर आदरसूचक शब्द बोलना ही विनय है।
विणएण विप्पहीणस्स हवदि सिक्खा णिरत्थिया सव्वा।
विणओ सिक्खाए फलं विणयफलं सव्वकल्लाणं।।३८५।।
विनय से हीन की सम्पूर्ण शिक्षा निरर्थक है। विनय शिक्षा का फल है और विनय का फल सर्व कल्याण है। वैयावृत्य-आचार्यादि पाँचों में बाल-वृद्ध से सहित गच्छ में सर्वशक्ति से वैयावृत्य करना चाहिए। गुणों से अधिक, उपाध्याय, तपस्वी, शिष्य, दुर्बल, साधुगण, कुल, संघ और मनोज्ञतासहित मुनि, आपत्ति के प्रसंग में इन सबकी वैयावृत्ति करनी चाहिए। वसति, स्थान, आसन तथा उपकरण इनका प्रतिलेखन उपकार करना, आहार, औषधि आदि से तथा उनका मल मूत्र आदि दूर करने से और उनकी वंदना आदि के द्वारा वैयावृत्ति की जाती है। स्वाध्याय-परिवर्तन, वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा तथा स्तुति-मंगल संयुक्त पाँच प्रकार का स्वाध्याय होता है। ध्यान-आर्त और रौद्र ये ध्यान अप्रशस्त हैं। धर्म और शुक्ल ये दो ध्यान प्रशस्त हैं। आज के मुनि आर्त-रौद्र को छोड़कर धर्मध्यान का अवलंबन लेवें। इसके आज्ञाविचय, अपाय विचय, विपाकविचय और संस्थानविचय, ये चार भेद हैं। पाँच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय और कालद्रव्य ये आज्ञा के विषय हैं, इनको जिनाज्ञा मानकर चिंतवन करना आज्ञा विचय है। जिनमत का आश्रय लेकर कल्याण को प्राप्त कराने वाले उपायों का चिंतन करना या जीवों के शुभ-अशुभ का चिंतवन करना अपाय विचय है। जीवों के एक-अनेक भवों में होने वाले पुण्य-पापकर्म के फल का तथा कर्मों के उदय, उदीरणा, बंध और मोक्ष का चिंतवन करना विपाकविचय है। भेद सहित और आकार सहित ऊध्र्व, अध: और मध्यलोक का ध्यान करना, इनसे संबंधित द्वादश अनुप्रेक्षा का चिंतवन करना संस्थानविचय धर्मध्यान है। मेरूपर्वत, कुलाचल आदि, पूर्व विदेह-पश्चिम विदेह, भरत, ऐरावत क्षेत्र इनमें होने वाले ग्राम, नगर पत्तन आदि, भोगभूमि, द्वीप, समुद्र, वन, नदी, वेदिका, जिनमंदिर, वूâट आदि का, इनके आकार आदि का चिंतवन करना। ऊध्र्वलोक के स्वर्ग, ग्रैवेयक, अनुदिश आदि का तथा अधोलोक के नरक बिलों का, नारकियों के दु:ख आदि का चिंतवन करना यह सब संस्थानविचय धर्मध्यान है।
अद्धुवमसरणमेगत्तमण्ण संसारलोगमसुचित्तं।
आसवसंवरणिज्जर धम्मं बोधिं च चिंतिज्जो।।४०३।।
अधु्रव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि दुर्लभ ये द्वादश अनुप्रेक्षा हैं, इनका सतत चिंतवन करना चाहिए। शुक्लध्यान के भेदों में किस ध्यान को कहाँ-कहाँ माना है ? सो इस मूलाचार में विशेष दृष्टव्य है-
उवसंतो दु पुहुत्तं झायदि झाणं विदक्कवीचारं।
खीणकसाओ झायदि एयत्तविदक्कवीचारं।।४०४।।
सुहुमकिरियं सजोगी झायदि झाणं च तदियसुक्वंतु।
जं केवली अजोगी झायदि झाणं समुच्छिण्णं।।४०५।।
उपशांतकषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि पृथक्त्वविर्तकवीचार नामक प्रथम शुक्लध्यान को ध्याते हैं। क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि एकत्ववितर्वâ अवीचार नामक द्वितीय शुक्लध्यान को ध्याते हैं। सयोगी अर्हंत भगवान सूक्ष्मक्रिया नाम के तृतीय शुक्लध्यान के ध्याता हैं और अयोगिकेवली भगवान समुच्छिन्न-व्युपरतक्रियानिवृत्ति नाम के चौथे शुक्लध्यान के ध्याता हैं। यह कथन षट्खण्डागम सूत्र के अनुसार है। इनके परवर्ती श्री पूज्यपाद, अकलंक देव आदि ने प्रथम शुक्लध्यान को आठवें गुणस्थान से माना है किन्तु षट्खण्डागम के कर्ता और मूलाचार के कर्ता आचार्यों ने दशवें तक धर्मध्यान, ग्यारहवें से शुक्लध्यान माना है, यह स्पष्ट है। व्युत्सर्ग-आभ्यंतर और बाह्य के भेद से व्युत्सर्ग के दो भेद हैं। मिथ्यात्व, वेद, कषाय आदि १४ अभ्यंतर परिग्रह हैं और क्षेत्र आदि दश बाह्य परिग्रह हैं। इनका त्याग करना व्युत्सर्ग तप है। इन बारह तपों में कौन अधिक महत्वशाली है, सो ही कहते हैं-
बारसविधम्हि वि तवे सब्भंतरबाहिरे कुसलदिट्ठे। णवि अत्थि णवि य होही सज्झायसमं तवोकम्मं।।४०९।।
कुशल महापुरुषों द्वारा देखे गये अभ्यंतर और बाह्य ऐसे बारह प्रकार के तपों में भी स्वाध्याय के समान न कोई तप हुआ है और न होगा ही। क्यों ?
सज्झायं कुव्वंतो पंचेंदियसंवुडो तिगुत्तो य।
हवदि य एअग्गमणो विणएण समाहिओ भिक्खू।।४१०।।
विनय से सहित हुआ मुनि स्वाध्याय को करते हुए पंचेन्द्रिय से संवृत और तीन गुप्ति से गुप्त होकर एकाग्रमना हो जाता है, इसलिए स्वाध्याय तप ध्यान की सिद्धि तक पहुँचाने वाला होने से सर्वश्रेष्ठ है। इस प्रकार यह बारह प्रकार का तप आचार कहा गया है। वीर्याचार-जो मुनि अपने बल, वीर्य को न छिपाकर यथोक्त तप में यथास्थान आत्मा को लगाते हैं उन्हीं के यह वीर्याचार होता है।
बलवीरियसत्तिपरक्कमधिदिबलमिदि पंचधा उत्तं।
तेसिं तु जहाजोग्गं आचरणं वीरियाचारो।ि।
बल, वीर्य, शक्ति, पराक्रम और धृतिबल ये पाँच प्रकार कहे गये हैं। इनके आश्रय से जो यथायोग्य आचरण है वह पाँच प्रकार का वीर्याचार है। श्री गौतम स्वामी द्वारा रचित पाक्षिक प्रतिक्रमण में भी वीर्याचार के पाँच भेद माने हैं। यथा- ‘‘वीरियायारो पंचविहो परिहाविदो वरवीरियपरिक्कमेण, जहुत्तमाणेण, बलेण, वीरिएण, परिक्कमेण, णिगूहियं तवोकम्मं ण कदं णिसण्णेण, पडिक्वंâतं तस्स मिच्छा मे दुक्कडं। वीर्याचार पाँच प्रकार का है उसका जो परिहापन किया-उसमें दोष लगाया हो। वरवीर्य पराक्रम से, यथोक्तमान से, शारीरिक बल से, आत्मशक्ति से एवं परिक्रम से तपश्चरण किया जाता है। इन पाँच प्रकार के वीर्याचार को प्रगट करने वाले मुनि के द्वारा जब तप किया जाता है तब पाँच प्रकार का वीर्याचार अनुष्ठित-पालित होता है और जब परीषह आदि से इनका पालन नहीं होता है, तब अपना वीर्य निगूहित-ढका जाता है। उस संबंधी मेरा दुष्कृत मिथ्या होवे। श्रेष्ठ वीर्य के पराक्रम-उत्साह का नाम वरवीर्य पराक्रम है। आगम में चान्द्रायण आदि की विधि जिस मान से कही है या कायोत्सर्ग का जो भी जहाँ पर मान-प्रमाण कहा है, वैसा ही करना यथोक्तमान है। आहारादि से शरीर बल होना बल है। वीर्यांतराय के क्षयोपशम से अंतरंग शक्ति का होना वीर्य है। आगम में जो मूलगुण पालन आदि में उत्कृष्ट क्रम कहा है, वह परिक्रम है। ये पाँच वीर्याचार हैैं। इस पाक्षिक प्रतिक्रमण में दर्शनाचार के नि:शंकित आदि आठ भेद कहे हैं। ज्ञानाचार के काल, विनय आदि आठ भेद किये हैं। चारित्राचार के पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति की अपेक्षा तेरह भेद किये हैं। तप आचार के बाह्याभ्यंतर के भेद से बारह भेद किये हैं। उनमें भी बाह्य तपों में पाँचवाँ कायक्लेश एवं छठा विविक्तशयनासन कहा है। ऐसे अभ्यंतर तपों में पाँचवाँ तप ध्यान एवं छठा व्युत्सर्ग कहा है। आगे वीर्याचार के पाँच भेद किये हैं। इस मूलाचार में भी उसी पद्धति के अनुसार तपों में क्रम रखा है अत: मूलाचार के कर्ता आचार्य कुन्दकुन्ददेव अपरनाम वट्टकेर स्वामी पूर्व के गौतम स्वामी के वचनों के अनुसार ही चले हैं। ऐसे ही चारित्रपाहुड में भी इन्होंने सल्लेखना को चौथा शिक्षाव्रत कहा है, सो भी इस पाक्षिक प्रतिक्रमण के अनुसार है, यह प्रकरण मैंने मूलाचार पूर्वार्ध के प्राक्कथन में दिया है। इस प्रकार जो मुनि इन पंचाचारों से अपनी आत्मा का निग्रह करने में समर्थ हैं वे सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं।
दिगम्बर साधु संयम की रक्षा हेतु शरीर की स्थिति के लिए दिन में एक बार छ्यालीस दोष, चौदह मल दोष और बत्तीस अंतरायों को टालकर आगम के अनुवूâल नवकोटि विशुद्ध आहार ग्रहण करते हैं। उसी को पिंडशुद्धि या आहार शुद्धि कहते हैं।
उग्गम उप्पादण एसणं च संजोजणं पमाणं च।
इंगाल धूम कारण अट्ठविहा पिंडसुद्धी दु।।४२१।।
उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजना, प्रमाण, इंगाल, धूम और कारण, मुख्यरूप से आहार संबंधी ये आठ शुद्धि मानी गई हैं। इनसे विपरीत आठ दोष हो जाते हैं- (१) दातार के निमित्त से जो आहार में दोष लगते हैं, वे उद्गमदोष कहलाते हैं। (२) साधु के निमित्त से आहार में होने वाले दोष उत्पादन नाम वाले हैं। (३) आहार संबंधी दोष एषणा दोष है। (४) संयोग से होने वाला दोष संयोजना है। (५) प्रमाण से अधिक आहार लेना अप्रमाण दोष है। (६) लंपटता से आहार लेना इंगाल दोष है। (७) निंदा करके आहार लेना धूम दोष है। (८) विरुद्ध कारणों से आहार लेना कारण दोष है। इनमें से उद्गम के १६, उत्पादन के १६, एषणा के १० तथा संयोजना, प्रमाण, इंगाल और धूम ये ४, ऐसे १६±१६±१०±४·४६ दोष हो जाते हैं। इन सबके अतिरिक्त एक अध:कर्मदोष है, जो महादोष कहलाता है। इसमें कूटना, पीसना, रसोई करना, पानी भरना और बुहारी देना, ऐसे पंचसूना नाम के आंरभ से षट्कायिक जीवों की विराधना होने से यह दोष गृहस्थाश्रित है। इसके करने वाले साधु उस साधु पद में नहीं माने जाते हैं।
(१) औद्देशिक-साधु, पाखंडी आदि के निमित्त से बना हुआ आहार ग्रहण करना उद्देश दोष है। (२) अध्यधि-आहारार्थ साधुओं को आते देखकर पकते हुए चावल आदि में और अधिक मिला देना। (३) पूतिदोष-प्रासुक तथा प्रासुक को मिश्र कर देना। (४) मिश्र दोष-असंयतों के साथ साधु को आहार देना। (५) स्थापित-अपने घर में या अन्यत्र कहीं स्थापित किया हुआ भोजन देना। (६) बलिदोष-यक्ष, देवता आदि के लिए बने हुए में से अवशिष्ट को देना। (७) प्रावर्तित-काल की वृद्धि या हानि करके आहार देना। (८) प्राविष्करण-आहारार्थ साधु के आने पर खिड़की आदि खोलना या बर्तन आदि मांजना। (९) क्रीत-उसी समय वस्तु खरीर कर लाकर देना। (१०) प्रामृष्य-ऋण लेकर आहार बनाना। (११) परिवर्त-शालि आदि देकर बदले में अन्य धान्य लेकर आहार बनाना। (१२) अभिघट-पंक्तिबद्ध सात घर से अतिरिक्त अन्य स्थान से अन्नादि लाकर मुनि को देना। (१३) उद्भिन्न-भोजन के ढक्कन आदि को खोलकर अर्थात् सील, मुहर, चपड़ी आदि हटाकर वस्तु निकालकर देना। (१४) मालारोहण-निसैनी से चढ़कर वस्तु लाकर देना। (१५) आछेद्य-राजा आदि के भय से आहार देना। (१६) अनीशार्थ-अप्रधान दातारों से दिया हुआ आहार लेना। ये सोलह दोष श्रावक के आश्रित होते हैं, ज्ञात होने पर मुनि ऐसा आहार नहीं लेते हैं।
(१) धात्रीदोष-धाय के समान बालकों को भूषित करना, खिलाना, पिलाना आदि करना जिससे दातार प्रसन्न होकर अच्छा आहार देवें, यह मुनि के लिए धात्री दोष है। (२) दूतदोष-दूत के समान किसी का समाचार अन्य ग्रामादि में पहुँचाकर आहार लेना। (३) निमित्तदोष-स्वर, व्यंजन आदि निमित्तज्ञान से श्रावकों को हानि, लाभ बताकर खुश करके आहार लेना। (४) आजीवकदोष-अपनी जाति, कुल या कला, योग्यता आदि बताकर दातार को अपनी तरफ आकर्षित कर आहार लेना आजीवक दोष है। (५) वनीपकदोष-किसी ने पूछा कि पशु, पक्षी, दीन, ब्राह्मण आदि को भोजन देने से पुण्य है या नहीं ? हाँ पुण्य है, ऐसा दातार के अनुकूल वचन बोलकर यदि मुनि आहार लेवें, तो वनीपक दोष है। (६) चिकित्सादोष-औषधि आदि बताकर दातार को खुश कर आहार लेना। (७) क्रोध दोष-क्रोध करके आहार उत्पादन कराकर ग्रहण करना। (८) मान दोष-मान करके आहार उत्पादन कराकर लेना। (९) माया दोष-कुटिल भाव से आहार उत्पादन कराकर लेना। (१०) लोभदोष-लोभाकांक्षा दिखाकर आहार कराकर लेना। (११) पूर्वसंस्तुतिदोष-पहले दातार की प्रशंसा करके आहार उत्पादन कराकर लेना। (१२) पश्चात् स्तुति दोष-आहार के बाद दातार की प्रशंसा करना। (१३) विद्यादोष-दातार को विद्या का प्रलोभन देकर आहार लेना। (१४) मंत्रदोष-मंत्र का माहात्म्य बताकर आहार ग्रहण करना। श्रावकों को शांति आदि के लिए मंत्र देना दोष नहीं है किन्तु आहार के स्वार्थ से बताकर उनसे इच्छित आहार ग्रहण करना सो दोष है। (१५) चूर्णदोष-सुगंधित चूर्ण आदि के प्रयोग बताकर आहार लेना। (१६) मूलकर्मदोष-अवश को वश करने आदि के उपाय बताकर आहार लेना। ये सभी दोष मुनि के आश्रित होते हैं इसलिए ये उत्पादन दोष कहलाते हैं। मुनि इन दोषों से अपने को अलग रखते हैं।
(१) शंकित-यह आहार अध:कर्म से उत्पन्न हुआ है क्या ? अथवा यह भक्ष्य है या अभक्ष्य इत्यादि शंका करके आहार लेना। (२) भुक्षित-घी, तेल आदि के चिकने हाथ से या चिकने चम्मच आदि से दिया हुआ आहार लेना। (३) निक्षिप्त-सचित्त पृथ्वी, जल आदि से संबंधित आहार लेना। (४) पिहित-प्रासुक या अप्रासुक ऐसे बड़े से ढक्कन आदि को हटाकर दिया हुआ आहार लेना। (५) संव्यवहरण-जल्दी से वस्त्र, पात्रादि खींचकर बिना विचारे या बिना सावधानी के दिया हुआ आहार लेना। (६) दायक-आहारदान के अयोग्य, मद्यपायी, नपुंसक, पिशाचग्रस्त अथवा सूतक-पातक आदि से सहित दातारों से आहार लेना। (७) उन्मिश्र-अप्रासुक वस्तु संमिश्रित आहार लेना। (८) अपरिणत-अग्न्यादि से अपरिपक्व आहार-पान आदि लेना। (९) लिप्त-पानी या गीले गेरू आदि से लिप्त ऐसे हाथों से दिया हुआ आहार लेना। (१०) छोटित-हाथ की अंजुलि से बहुत कुछ नीचे गिराते हुए आहार लेना। ये दश दोष मुनियों के भोजन से संबंध रखते हैं। मुनि इन दोषों से अपने को सदैव बचाते रहते हैं। (१ ) संयोजना दोष-आहारादि के पदार्थों का मिश्रण कर देना, ठंडे जल आदि में उष्ण भात आदि मिला देना, अन्य भी प्रकृति विरुद्ध वस्तु का मिश्रण करना संयोजन दोष है। (२) अप्रमाणदोष-उदर के दो भाग रोटी आदि से पूर्ण करना होता है, एक भाग रस, दूध, पानी आदि से भरना होता है और एक भाग खाली रखना होता है। यह आहार का प्रमाण है, इसका अतिक्रमण करके आहार लेना अप्रमाण दोष है। (३) अंगार दोष-जिह्वा इंद्रिय की लंपटता से भोजन ग्रहण करना। (४) धूमदोष-भोज्य वस्तु आदि की मन में निंदा करते हुए आहार ग्रहण करना। इस प्रकार से उद्गम के १६ ± उत्पादन के १६±एषणा के १०±और संयोजना आदि ४· सब मिलाकर ४६ दोष होते हैं। जो पहले ८ शुद्धि में एक कारण शुद्धि थी, वह इनसे अलग है। अब उसको बताते हैं- ‘‘छह कारणों से आहार ग्रहण करते हुए भी मुनि धर्म का पालन करते हैं और छह कारणों से ही आहार को छोड़ते हुए भी वे मुनि चारित्र का पालन करते हैं।’’
वेयणवेज्जावच्चे किरियाठाणे य संजमट्ठाए।
तध पाण धम्मचिंता कुज्जा एदेहिं आहारं।।४७९।।
(मूलाचार श्री कुन्दकुन्दकृत गाथा-४७९) (१) क्षुधा की वेदना मिटाने के लिए, (२) अपनी और अन्य साधुओं की वैयावृत्ति करने के लिए, (३) सामायिक आदि आवश्यक क्रियाओं के पालन के लिए, (४) संयम पालन के लिए, (५) अपने दश प्राणों की चिंता अर्थात् प्राणों की रक्षा के लिए और (६) दशधर्म आदि के चिंतन के लिए मुनि आहार ग्रहण करते हुए भी धर्म का पालन करते हैं। अर्थात् यदि मैं भोजन नहीं करूँगा तो क्षुधा वेदना धर्मध्यान को नष्ट कर देगी, स्व अथवा अन्य साधुओं की वैयावृत्ति करने की शक्ति नहीं रहेगी, सामायिकादि आवश्यक क्रियाएं निर्विघ्नतया नहीं हो सकेगी, षट्कायिक जीवों की रक्षारूप संयम नहीं निभेगा, अपने इन्द्रिय, बल, आयु प्राणों की रक्षा के बिना रत्नत्रय की सिद्धि नहीं होगी और आहार के बिना दश धर्मादि का पालन भी कैसे होगा ? यही सोचकर साधु आहार ग्रहण करते हैं।
आदंके उवसग्गे तिरक्खणे बंभचेरगुत्तीओ।
पाणिदयातवहेऊ सरीरपरिहार वोच्छेदो।।४८०।।
(१) आकस्मिक व्याधि के आ जाने पर (२) भयंकर उपसर्ग के आ जाने पर (३) ब्रह्मचर्यव्रत की रक्षा हेतु (४) जीव दया हेतु (५) अनशन आदि तप करने के लिए और (६) सन्यासकाल के उपस्थित होने पर मुनि आहार का त्याग कर देते हैं। दिगम्बर मुनि बल और आयु की वृद्धि के लिए, स्वाद के लिए, शरीर की पुष्टि या शरीर के तेज के लिए आहार ग्रहण नहीं करते हैं। प्रत्युत् ज्ञान की वृद्धि, संयम की वृद्धि और ध्यान की सिद्धि के लिए ही आहार ग्रहण करते हैं। ये मुनि नवकोटि से विशुद्ध, बयालीस दोषों से रहित, संयोजना के दोष से शून्य, प्रमाणसहित और विधिवत्-नवधा भक्ति से प्रदत्त, अंगार और धूम दोष से भी हीन, छह कारण संयुत, क्रमविशुद्ध और प्राणयात्रा या मोक्षयात्रा के लिए साधन मात्र तथा चौदह मलदोष रहित ऐसा आहार ग्रहण करते हैं१। श्रावकों के द्वारा आहार बनाने में मन-वचन-काय की प्रवृत्ति नहीं करना और कृत, कारित या अनुमोदना भी नहीं करना, इस प्रकार से मन, वचन, काय को कृत, कारित, अनुमोदना से गुणित करने पर ३²३·९ नव भेद हो जाते हैं। नवकोटि से रहित आहार ‘नवकोटि विशुद्ध’ कहलाता है। श्रावकों के श्रद्धा, भक्ति, तुष्टि, विज्ञान, अलुब्धता, क्षमा और सत्त्व-शक्ति ये सात गुण हैं तथा पड़गाहन करना, उच्चासन देना, चरण प्रक्षालन करना, पूजा करना, नमस्कार करना, मन शुद्धि, वचनशुद्धि, काय की शुद्धि कहना और आहार की शुद्धि कहना, यह नवधा भक्ति है। इन सप्त गुण सहित, नवधाभक्तिपूर्वक दिया गया आहार विधिवत् कहलाता है। ऐसे विधिवत् दिये गये तथा चौदह मल दोष रहित आहार को मुनि लेते हैं। चौदह मल दोष-आहार में नख, बाल, हड्डी, मांस, पीप, रक्त, चर्म, द्वीन्द्रिय आदि जीवों का कलेवर, कण२, कुंड३, बीज, कंद, मूल और फल ये चौदह मल माने गये हैं। इनमें से कोई महामल है, कोई अल्पमल है, कोई महादोष है और कोई अल्पदोष है। रुधिर, मांस, अस्थि, चर्म और पीप ये महादोष हैं, आहार में इनके दीखने पर आहार छोड़कर प्रायश्चित्त भी लिया जाता है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों का शरीर-मृतक लट, चिंवटी, मक्खी आदि तथा बाल के आहार में आ जाने पर आहार का त्याग कर दिया जाता है, नख के आ जाने पर आहार छोड़कर गुरु से किंचित् प्रायश्चित्त भी लेना होता है। कण, कुंड, बीज, कंद, फल और मूल के आहार में आ जाने पर यदि उनको निकालना शक्य है तो निकाल कर आहार कर सकते हैं अन्यथा आहार का त्याग करना होता है। सिद्धभक्ति कर लेने के बाद यदि अपने शरीर में रक्त, पीप बहने लगे अथवा दातार के शरीर में बहने लगे तो आहार छोड़ देना होता है। मांस के देखने पर भी उस दिन आहार का त्याग कर दिया जाता है। द्रव्य से प्रासुक आहार भी यदि मुनि के लिए बनाया गया है तो वह अशुद्ध है। इसलिए ज्ञात कर ऐसा आहार मुनि नहीं लेते हैं। ‘‘जैसे मत्स्य के लिए किये गये मादक जल से मत्स्य ही मदोन्मत्त होते हैं किन्तु मेंढक नहीं, वैसे ही पर के लिए बनाये हुए आहार में प्रवृत्त हुए मुनि उस दोष से आप लिप्त नहीं होते हैं अर्थात् गृहस्थ अपना कर्तव्य समझकर शुद्ध भोजन बनाकर साधु को आहार देते हैं तब मुनि अपने रत्नत्रय की सिद्धि कर लेते हैं और श्रावक दान के फल से स्वर्ग मोक्ष को सिद्ध कर लेते हैं। यदि आहार शुद्ध है फिर भी साधु अपने लिए बना हुआ समझकर उसे ग्रहण करता है तो वह दोषी है और यदि कृत, कारित आदि दोष रहित आहार लेने के इच्छुक साधु को अध:कर्मयुक्त सदोष भी आहार मिलता है किन्तु उसे वह शुद्ध समझकर ग्रहण कर रहा है, तो वह साधु शुद्ध है।
सूरुदयत्थमणादो णालीतिय वज्जिदे असणकाले।
तिगदुगएगमुहुत्ते जहण्णमज्झिम्ममुक्कस्से।।४९२।।
सूर्योदय से तीन घड़ी बाद और सूर्यास्त होने के तीन घड़ी पहले तक आहार का समय है। आहारकाल में भी आहार का समय उत्कृष्ट एक मुहूर्त (४८ मिनट), मध्यम दो मुहूर्त और जघन्य तीन मुहूर्त प्रमाण तक है२। मध्यान्हकाल में दो घड़ी बाकी रहने पर प्रयत्नपूर्वक स्वाध्याय समाप्त कर देववंदना करके वे मुनि भिक्षा का समय जानकर पिच्छी कमण्डलु लेकर शरीर की स्थिति हेतु आहारार्थ अपने-अपने आश्रम से निकलते हैं। मार्ग में संसार, शरीर, भोगों से विरक्ति का चिंतन करते हुए ईर्यापथशुद्धि से धीरे-धीरे गमन करते हैं। वे किसी से बात न करते हुए मौनपूर्वक चलते हैं। श्रावक द्वारा पड़गाहन हो जाने पर वे खड़े हो जाते हैं तब श्रावक उन्हें अपने घर में ले जाकर नवधाभक्ति करता है। मुनि अपने पैरों में चार अंगुल का अंतर रखकर खड़े होकर अपने दोनों करपात्रों को छिद्ररहित बना लेते हैं। अनंतर सिद्धिभक्ति करके क्षुधावेदना को दूर करने के लिए वे प्रासुक आहार ग्रहण करते हैं। आहार में पाँच प्रकार की वृत्ति-‘‘गोचार, अक्षम्रक्षण, उदराग्निप्रशमन, भ्रामरीवृत्ति और श्वभ्रपूरण, इन पाँच प्रकार की वृत्ति को रखकर मुनि आहार ग्रहण करते हैं३।’’ इस प्रकार से आहार ग्रहण करते हुए यदि बत्तीस अंतरायों में से कोई भी अंतराय आ जाए, तो वे आहार छोड़ देते हैं। जो दाता और पात्र दोनों के मध्य में विघ्न आता है, वह अंतराय कहलाता है।
(१) काक-आहार को जाते समय या आहार लेते समय यदि कौवा आदि बीट कर देवे तो काक नाम का अंतराय है। (२) अमेध्य-अपवित्र विष्टा आदि से पैर लिप्त हो जावे। (३) छर्दि-वमन हो जावे। (४) रोधन-आहार को जाते समय कोई रोक देवे। (५) रक्तस्राव-अपने शरीर से या अन्य के शरीर से चार अंगुल पर्यंत रुधिर बहता हुआ दीखे। (६) अश्रुपात-दु:ख से अपने या पर के अश्रु गिरने लगें। (७) जान्वध:परामर्श-यदि मुनि जंघा के नीचे के भाग का स्पर्श कर लें। (८) जानूपरिव्यतिक्रम-यदि मुनि जंघा के ऊपर का व्यतिक्रम कर लें अर्थात् जंघा से ऊँची सीढ़ी पर-इतनी ऊँची एक ही डंडा या सीढ़ी पर चढ़ें, तो जानूपरिव्यतिक्रम अंतराय है। (९) नाभ्योनिर्गमन-यदि नाभि से नीचे शिर करके आहारार्थ जाना पड़े। (१०) प्रत्याख्यात सेवन-जिस वस्तु का देव या गुरु के पास त्याग किया है, वह खाने में आ जाए। (११) जंतुवध-कोई जीव अपने सामने किसी जीव का वध कर देवे। (१२) काकादिपिंडहरण-कौवा आदि हाथ से ग्रास का अपहरण कर ले। (१३) ग्रासपतन-आहार करते समय मुनि के हाथ से ग्रास प्रमाण आहार गिर जावे। (१४) पाणौ जंतुवध-आहार करते समय कोई मच्छर, मक्खी आदि जंतु हाथ में मर जावे। (१५) मांसादिदर्शन-मांस, मद्य या मरे हुए का कलेवर देख लेने से अंतराय है। (१६) पादांतरजीव-यदि आहार लेते समय पैर के नीचे से पंचेन्द्रिय जीव चूहा आदि निकल जावे। (१७) देवाद्युपसर्ग-आहार लेते समय देव, मनुष्य या तिर्यंच आदि उपसर्ग कर देवें। (१८) भाजनसंपात-दाता के हाथ से कोई बर्तन गिर जावे। (१९) उच्चार-यदि आहार के समय मल विसर्जित हो जावे। (२०) प्रस्रवण-यदि आहार के समय मूत्र विसर्जन हो जावे। (२१) अभोज्यगृहप्रवेश-यदि आहार के समय चांडालादि के घर में प्रवेश हो जावे। (२२) पतन-आहार करते समय मूर्छा आदि से गिर जाने पर। (२३) उपवेशन-आहार करते समय बैठ जाने पर। (२४) सदंश-कुत्ते, बिल्ली आदि के काट लेने पर। (२५) भूमिस्पर्श-सिद्धभक्ति के अनंतर हाथ से भूमि का स्पर्श हो जाने पर। (२६) निष्ठीवन-आहार करते समय कफ, थूक आदि निकलने पर। (२७) उदरकृमिनिर्गमन-आहार करते समय उदर से कृमि आदि निकलने पर। (२८) अदत्तग्रहण-नहीं दी हुई किंचित् वस्तु ग्रहण कर लेने पर। (२९) प्रहार-अपने ऊपर या किसी के ऊपर शत्रु द्वारा शस्त्रादि का प्रहार होने पर। (३०) ग्रामदाह-ग्राम आदि में उसी समय आग लग जाने पर। (३१) पादेन किंचिद्ग्रहण-पाद से किंचित् भी वस्तु ग्रहण कर लेने पर। (३२) करेण वस्तु ग्रहण-आहार करते समय हाथ से कुछ वस्तु उठा लेने पर। इन उपर्युक्त कारणों से आहार छोड़ देने का नाम ही अंतराय है। इसी प्रकार से इन बत्तीस के अतिरिक्त चांडालादि स्पर्श, कलह, इष्टमरण, साधर्मिक-सन्यासपतन, राज्य में किसी प्रधान का मरण आदि प्रसंगों से भी अंतराय होता है। अंतराय के अनंतर साधु आहार छोड़कर मुखशुद्धि कर आ जाते हैं। मन में वे किंचित् भी खेद या विषाद को न करते हुए ‘लाभादलाभोवरं’ लाभ की अपेक्षा अलाभ में अधिक कर्मनिर्जरा होती है, ऐसा चिंतन करते हुए वैराग्यभावना को वृद्धिंगत करते रहते हैं।
जेणेह पिंडसुद्धी उवदिट्ठा जेहि धारिदा सम्मं।
ते वीरसाधुवग्गा तिरदणसुद्धिं मम दिसंतु।।५०१।।
इस जगत में जिन्होंने पिंडशुद्धि का उपदेश दिया है और जिन्होंने सम्यक् प्रकार से इसे धारण किया है वे वीर साधुवर्ग मुझे तीन रत्न की शुद्धि प्रदान करें।