मेघमाला व्रत भादों बदी प्रतिपदा से लेकर आश्विन वदी प्रतिपदा तक ३१ दिन तक किया जाता है। व्रत के प्रारंभ करने के दिन ही जिनालय के आँगन में सिंहासन स्थापित करें अथवा कलश को संस्कृत कर उसके ऊपर थाल रखकर, थाल में जिनबिम्ब स्थापित कर महाभिषेक और पूजन करे। श्वेत वस्त्र पहने, श्वेत ही चन्दोवा बांधे, मेघधारा के समान १००८ कलशों से भगवान का अभिषेक करे। पूजापाठ के पश्चात् ‘ॐ ह्रीं पंचपरमेष्ठिभ्यो नम:’ इस मंत्र का १०८ बार जाप करना चाहिए। मेघमाला व्रत में सात उपवास कुल किये जाते हैं और २४ दिन एकाशन करना होता है। तीनों प्रतिपदाओं के तीन उपवास, दोनों अष्टमियों के दो उपवास एवं दोनों चतुर्दशियों के दो उपवास इस प्रकार कुल सात उपवास किये जाते हैं। इस व्रत को पाँच वर्ष तक पालन करने के पश्चात् उद्यापन कर दिया जाता है। इस व्रत की समाप्ति प्रतिवर्ष आश्विन कृष्णा प्रतिपदा को होती है। सोलहकारण का व्रत भी प्रतिपदा को समाप्त किया जाता है, परन्तु इतनी विशेषता है कि सोलहकारण का संयम और शील आश्विन कृष्णा प्रतिपदा तक पालन करना पड़ता है तथा पंचमी को ही इस व्रत की पूर्ण समाप्ति समझी जाती है। यद्यपि पूर्ण अभिषेक प्रतिपदा को ही हो जाता है, परन्तु नाममात्र के लिए पंचमी तक संयम का पालन करना पड़ता है।
वत्सदेश की कौशाम्बीपुरी में जब राजा भूपाल राज्य करते थे तब वहाँ पर एक वत्सराज नाम का श्रेष्ठी (सेठ) और उसकी पद्मश्री नाम की सेठानी रहती थी। पूर्वकृत अशुभ कर्म के उदय से उस सेठ के घर में दरिद्रता का वास रहा करता था इस पर भी इसके सोलह (१६) पुत्र और बारह (१२) कन्याएँ थीं। गरीबी की अवस्था में इतने बालकों का लालन-पालन करना और गृहस्थी का खर्च चलाना वैâसा कठिन हो जाता है, इसका अनुभव उन्हीं को होता है जिन्हें कभी ऐसा प्रसंग आया हो या जिन्होंने अपने आसपास रहने वाले दीन दुखियों की ओर कभी अपनी दृष्टि डाली हो। परम स्नेह करने वाले माता-पिता ही ऐसे समय में अपने प्यारे बालकों को अनुचित और कठोर शब्दों में केवल सम्बोधन ही नहीं करने लगते हैं किन्तु उन्हें बिना मूल्य या मूल्य में बेच तक देते हैं। प्राणों से प्यारी संतान कि जिसके लिए संसार के अनेकानेक मनुष्य लालायित रहते हैं और अनेक यंत्र-मंत्रादि कराया करते हैं। हाय! उस दरिद्रावस्था में वह भी भाररूप हो पड़ती है। वत्सराज सेठ इसी चिंता में चिंतित रहता था। जब ये बालक क्षुधातुर होकर माता से भोजन मांगते तो माता कठोरता से कह देती-जाओ मरो, लंघन करो, चाहे भीख मांगो तुम्हारे लिए मैं कहाँ से भोजन दे दूँ? यहाँ क्या रखा है जो दे दूँ? सो वे नन्हें बालक झिड़की खाकर जब पिताजी के पास जाते, तब वहाँ से निराशा ही पल्ले पड़ती। हाय, उस समय का करुण क्रन्दन किसके हृदय को विदीर्ण नहीं कर देता है एक दिन भाग्योदय से एक चारणऋद्धिधारी मुनि वहाँ आये। उन्हें देखकर वत्सराज सेठ ने भक्तिसहित पड़गाहा और घर में जो रुखा सूखा भोजन शुद्धता से तैयार किया गया था, सो भक्ति सहित मुनिराज को दिया। मुनिराज उस भक्तिपूर्वक दिये हुए स्वाद सहित भोजन को लेकर वन की ओर चले गये। तत्पश्चात् सेठ भी भोजन करके जहाँ श्री मुनिराज पधारे, वहाँ खोजते-खोजते पहुँचा और भक्तिपूर्वक वंदना करके बैठा। श्री गुरु ने इसे सम्यक्त्वादि धर्म का उपदेश दिया। पश्चात् सेठ ने पूछा-हे दयानिधि! मेरे दरिद्रता होने का कारण क्या है? और अब यह वैâसे दूर हो सकती है? तब श्री गुरु बोले-हे वत्स, सुनो! कौशल देश की अयोध्या नगरी में देवदत्त नामक सेठ की देवदत्ता नाम की सेठानी रहती थी। वह धन कण और रूप लावण्य से संयुक्त तो थी परन्तु कृपण होने के कारण दान धर्म में धन लगाना तो दूर ही रहे किन्तु उल्टा दूसरे का धन हरण करने को तत्पर रहती थी। एक दिन कहीं से एक गृहत्यागी ब्रह्मचारी जो अत्यन्त हीन शरीर था, सो भोजन के निमित्त उसके घर आ गये। उसे देख सेठानी ने अनेक दुर्वचन कहकर निकाल दिया। वह कृपणा कहने लगी-अरे जा जा, यहाँ से निकल, यहाँ तो घर के बच्चे भूखों मर रहे हैं, फिर दान कहाँ से करें? जो चाहे सो यहाँ ही चला आता है।
इतने ही में उसका स्वामी सेठ भी आ गया और उसने अपनी स्त्री की हाँ में हाँ मिला दी। निदान कुछेक दिनों में वही हुआ, जैसी मनसा वैसी दशा हो गई। अर्थात् उसका सब धन चला गया और वे यथार्थ में भूखों मरने लगे। अति तीव्र पाप का फल कभी-कभी प्रत्यक्ष ही दिख जाता है। वे सेठ-सेठानी आर्त ध्यान से मरे सो एक ब्राह्मण के घर महिष (भैस) के पुत्र (पाडा-पाडी) हुए। सो वहाँ भी भूख प्यास की वेदना से पीड़ित हो पानी पीने के लिए एक सरोवर में घुसे थे कि कीच (कादव) में पंâस गये और जब तड़फड़ाकर मरणोन्मुख हो रहे थे, उसी दयालु श्रावक ने आकर उन्हें णमोकार मंत्र सुनाया और मिष्ट शब्दों में सम्बोधन किया। सो वे पाडा-पाडी वहाँ से मरकर णमोकार मंत्र के प्रभाव से तुम मनुष्य भव को प्राप्त हुए, परन्तु पूर्व संचित पापकर्मों का शेषाँश रह जाने से अब तक दरिद्रता ने तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ा है। हे वत्स! यह दान न देने और यति आदि महात्माओं से घृणा करने का फल है। इसलिए प्रत्येक गृहस्थ को सदैव यथाशक्ति दान धर्म में अवश्य ही प्रवर्तना चाहिए। अब तुम सत्यार्थ देव अर्हंत, गुरु निग्र्रंथ और दयामयी धर्म में श्रद्धान करो और श्रद्धापूर्वक मेघमाला व्रत का पालन करो तो सब प्रकार से इस लोक और परलोक संबंधी सुखों को प्राप्त होंगे। यह व्रत भादो बदी प्रतिपदा से लेकर आश्विन बदी प्रतिपदा तक प्रति वर्ष एक-एक मास करके पाँच वर्ष तक किया जाता है अर्थात् भादों बदी प्रतिपदा से आसोज बदी प्रतिपदा तक (एक मास) श्री जिनालय के आंगन में (चौक में) सिंहासनादि स्थापन करे और उस पर श्री जिनबिम्ब स्थापन करके महाभिषेक और पूजन नित्य प्रति करे, श्वेत वस्त्र पहिने, श्वेत ही चंदोवा बंधावे, मेघ धारा के समान १००८ कलशों से महाभिषेक करके पश्चात् पूजा करे।
पाँच परमेष्ठी की १०८ बार जाप करे पश्चात् संगीतपूर्वक जागरण भजन इत्यादि करे। भूमिशयन व ब्रह्मचर्य व्रत पालन करे। यथाशक्ति चारों प्रकार दान देवे, हिंसादि पंच पापों का त्याग करे तथा एक मास पर्यन्त ब्रह्मचर्यपूर्वक एक भुक्त उपवास, बेला, तेला आदि शक्ति प्रमाण करे। निरन्तर षट्रसीव्रत पाले अर्थात् नित्य एक रस छोड़कर भोजन करे। इस प्रकार जब पाँच वर्ष पूर्ण हो जावें तब शक्ति प्रमाण भाव सहित उद्यापन करे अर्थात् पाँच जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा करावे, पाँच महान ग्रंथ लिखावे, पाँच प्रकार पकवान बनाकर श्रावकों के पाँच घर देवे। पाँच-पाँच घण्टा, झालर, चंदोवा, चमर, छत्र, अछार आदि उपकरण देवे। पाँच श्रावकों (विद्यार्थियों) को भोजन करावे, सरस्वतीभवन बनावे, पाठशाला चलावे इत्यादि और अनेकों प्रभावना बढ़ाने वाले कार्य करे। इस प्रकार व्रत की विधि सुनकर सेठ-सेठानी ने श्रद्धापूर्वक इस व्रत को पालन किया, सो व्रत के प्रभाव से उनका सब दारिद्र्य दूर हो गया और वे स्त्री-पुरुष सुख से काल व्यतीत करते हुए आयु के अंत में संयासपूर्वक मरण कर दूसरे स्वर्ग में देव हुए। फिर वहाँ से चयकर वे पोदनपुर में विजयभद्र नाम के राजा और विजयावती नाम की रानी हुई, सो पूर्व पुण्य के प्रभाव से धन, धान्य, पुत्र-पौत्रादि सम्पत्ति के अधिकारी हुए। आयु के अंतिम भाग (वृद्धावस्था) में दोनों राजा और रानी अपने पुत्र को राज्य का अधिकार देकर आप जैनेश्वरी दीक्षा ले तप करने लगे सो तप के प्रभाव से आयु पूर्णकर राजा तो सर्वार्थसिद्धि विमान में अहमिन्द्र हुआ और रानी भी स्त्रीलिंग छेदकर सोलहवें स्वर्ग में महद्र्धिक देव हुर्इं वहाँ से चयकर वे दोनों प्राणी मोक्षपद प्राप्त करेंगे। इस प्रकार मेघमाला व्रत के प्रभाव से देवदत्त और देवदत्ता नाम के कृपण सेठ और सेठानी भी मोक्ष पद पावेंगे सो यदि और नरनारी श्रद्धा सहित यह व्रत पालें तो अवश्य उत्तम फल पावेंगे।