-जगन्मोहनलाल शास्त्री, कटनी
इस युग के महान् संत श्री १०८ आचार्य शांतिसागर जी के पुण्य जीवन की कुछ घड़ियाँ इस व्यक्ति के जीवन के साथ भी संबंध रखती हैं। इस प्रकरण में उन्हीं घटनाओं के कुछ उल्लेख निम्न प्रकार हैं-
सन् १९२७ में आचार्यश्री ने परम पूज्य सम्मेदशिखर तीर्थराज की यात्रा की थी। यह यात्रा श्री संघपति घासीलाल, पूनमचंद जी मुम्बई वालों द्वारा निकाले गये श्रावक संघ के साथ उनकी प्रार्थना पर आचार्य संघ ने की थी। हजारों श्रावकों के उस पैदल संघ के साथ संयमी मुनिराज ३ थे, ६ क्षुल्लक-ऐलक थे।
उस समय ‘जातिप्रबोध’ नामक पत्र में संघ के विरुद्ध आलोचनात्मक लेख निकले थे। उन्हें पढ़कर मुझे भी ऐसा लगा कि मुनि संघ की क्रियाएँ आगमानुकूल नहीं हैं। यात्रार्थ रेलमार्ग से मैं भी शिखरजी गया था, कारण यह कि संघपति महोदय की ओर से उस समय पंचकल्याणक प्रतिष्ठा बड़े समारोह से हो रही थी, लाखों जैन बंधु वहाँ पहुँच रहे थे। उस आनन्द का लोभ संवरण मैं भी न कर सका।
विशाल पांडाल था, जिसमें ५० हजार आदमी एक साथ बैठ सकें। मुनि संघ के साधुगण बीच में स्थान-स्थान पर खड़े होकर उपदेश देते थे। लाउडस्पीकरों का उस समय प्रचलन नहीं था। लाखों व्यक्ति लाभ उठा रहे थे, पर इस नगण्य के मानस पटल पर ‘‘जातिप्रबोधक’’ की पंक्तियाँ नाच रही थीं। एक सप्ताह से अधिक समय तक वहाँ रहने पर भी मैं अपने विपरीत परिणाम के फलस्वरूप न तो संघ की वंदना कर सका और न उपदेश का लाभ ले सका। उस पांडाल के आसपास तमाशबीन होकर समवसरण के आसपास फिरने वाले ३६३ कुवादी मिथ्यादृष्टियों की तरह चक्कर लगाता रहा।
घर लौटने पर कुछ महीनों बाद समाचार मिला कि मुनिसंघ व श्रावक संघ इलाहाबाद आ चुका था। चातुर्मास के लिए समय थोड़ा शेष था। इलाहाबाद में कानपुर, लखनऊ, आगरा, देहली, बनारस की जैन समाज के प्रमुख सज्जन उस समय महाराजश्री से अपने-अपने नगरों में चातुर्मास करने की प्रार्थना कर रहे थे। कटनी के स्व. श्री हुकमचंद जी भी दैववशात् वहाँ किसी अन्य कार्य से पहुँच गये थे। सबको देख उन्होंने भी कह डाला कि महाराज चातुर्मास कटनी करें। वे जानते थे कि इतने बड़े-बड़े लोगों की प्रार्थना के आगे हमारे अकेले की बात कौन सुनेगा? पर कहने में क्या हानि है?
आचार्यश्री के निर्णय की बड़ी आशा और उत्सुकता से लोग प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने चातुर्मास के लिए बचे दिनों की और स्थानों के माईलेज की गणना की। कुछ स्थान पास थे और कुछ अत्यधिक दूर, अत: उन्होंने कटनी के चातुर्मास की घोषणा कर दी।
स्व. भाई हुकमचंद जी बहुत घबड़ाए और हर्षित भी हुए। वे सोचने लगे कि इतने बड़े समुदाय की प्रार्थनाएँ बेकार हुईं और हमारी प्रार्थना जिसका कोई दूसरा समर्थक भी साथ नहीं था, स्वीकृत हुई, इस बात का तो परमहर्ष था, पर हमने न तो अभी अपने नगर की पंचायत से अनुमति ली और न अब तक वहाँ कोई चर्चा है। अचानक यह चर्चा पंचायत के सामने रखने पर न जाने पंचायत इन आगामी ५ माह के (लोंद मास था) चातुर्मास में होने वाले संघ के व्ययभार तथा स्थानादि की व्यवस्था का भार संभालने की बात अपनी असमर्थता को देखते हुए स्वीकार करेगी या नहीं? उस समय क्या होगा?
वे शीघ्र कटनी आए, पंचायत हुई। पंचायत ने तो अपनी असामर्थ्य देखकर तथा मेरे द्वारा किये गये अश्रद्धामूलक विरोध को पाकर तार द्वारा अस्वीकृति संघपति को इलाहाबाद भेजी। तार जवाबी था, पर उत्तर न आया। पत्र भी दिया पर जवाब न आया। दुुबारा जवाबी तार दिया, उत्तर न आया, तब पंचायत ने २ व्यक्ति इलाहाबाद भेजकर इस आमंत्रण को लौटाने का निर्णय किया।
भाग्य से यह कार्य मुझे तथा मेरे साथ पं. गुलजारीलाल जी को सौंपा गया। हम दोनों इलाहाबाद पहुँचे। धर्मशाला में पहुँचते ही सामान रख नहीं पाये थे कि कुछ आदमियों ने हमारा परिचय पूछा। जब उन्हें बताया गया कि हम दोनों कटनी से आये हैं तो लोगों ने हम दोनों को उचंगा उठा लिया और कहने लगे धन्य भाग्य हैं आप लोगों के! आप संघ को लेने को पधारे हैं। भाई क्यों न हो भाग्यवान जीव ही तो यह लाभ पा सकते थे। हम लोग तो भाग्यहीन हैं, इत्यादि-इत्यादि। हम हतप्रभ हो गए। ये क्या कर रहे हैं और हम क्या कार्यक्रम लेकर आए हैं। इनके सन्मुख अपना अभिप्राय क्या कहें? मालूम हुआ कि कल संघ कटनी तरफ के मार्ग की ओर रवाना हो चुका है और ८ मील पर ठहरा हुआ है, वहाँ आहार है।
स्नानादि और देवदर्शन कर श्रावकों द्वारा कराया गया नाश्ता आदि करके हम श्रावकों सहित मोटर से उस स्थान पर पहुँचे जहाँ संघ ठहरा था। पहुँचने पर देखा साधुसंघ आहार को निकल पड़ा है। सब आहार देखते रहे, हम दोनों इस विपत्ति से छुटकारा पाने की योजना बनाते रहे। आहार की समाप्ति पर संघ अपने स्थान गया। हजारों श्रावक उनके साथ उस पांडाल तक गये। हम दोनों आग्रह किये जाने पर भी उन श्रावकों के साथ नहीं गये।हम संघपति के डेरे में गये। उन्होंने परिचय पाकर अत्यन्त स्वागत किया। भोजन का आग्रह किया। भोजन तो करना था अत: उसे स्वीकृत करके भी पहले निमंत्रण लौटाने की बात करनी थी। एकांत में बात करने की प्रार्थना की और एकान्त हो गया। बड़े-बड़े झूठे बहाने किये ताकि संघ लौट जाये और इज्जत भी हमारी रह जाये। पर संघपति के तर्कपूर्ण व भक्तिमूलक उत्तरों के सामने हमारी न चली। तारों व पत्रों के जवाब न मिलने की शिकायत की, तो उत्तर मिला कि हम लोगों ने समझा कि नगर में कोई विरोधी की यह करामात है जिसने पंचायत के नाम से तार दे दिया होगा अत: उपेक्षा कर इस तरफ संघ ने प्रयाण किया।
हमें स्पष्ट शब्दों में विरोध प्रकट करने के सिवाय कोई मार्ग नहीं रह गया। मेरे विरोध की स्पष्टता को आंकते हुए संघपति जी को घोर आश्चर्य हुआ, वे अवाक् हो गये। उन्हें ऐसी आशा न थी। सम्हलकर थोड़ी देर बाद बोले कि अब संघ चल चुका है, पीछे न जायेगा। आपका निमंत्रण लौटा लिया गया, संघ का चातुर्मास मार्ग में कहीं किसी अन्य नगर में हो जायेगा। मैंने कहा कि हमारे प्रांत में यह संयम नहीं है, तो उन्होंने उत्तर दिया कि जंगल में टीन के टपरे डालकर हम चातुर्मास कर लेंगे, पर संघ अब वापिस न जायेगा।हम हतप्रभ हो कटनी लौट आए। पंचायत में उक्त समस्या रखी। पंचायत ने भी आने वाली इस अप्रत्याशित घटना के मुकाबले की तैयारी की, चंदा हुआ, स्थानों की व्यवस्था बनाई गई। इस प्रदेश में प्रथम चातुर्मास था। संघपति का लवाजमा बड़ा था, पांच मास में आने जाने वाले श्रावकों की संख्या भी १०-२० हजार होगी, यह सब विचार कर व्यवस्था करना शक्ति के बाहर दिखा। पर अब उपाय क्या? वह तो करना ही पड़ेगा, किया गया। सारा नगर कार्यव्यस्त हो गया, उमंगें बढ़ने लगीं, पर मुझ भाग्यहीन का चित्त उदास था।
सोचा, खुफिया तौर पर संघ के साथ एक सप्ताह रहकर उनकी गतिविधि देखी जाये और फिर समाज के सामने उनकी यथार्थ स्थिति रखी जाये तो समाज इस काम से विरत होगी। घर से चुपचाप चल दिया। मार्ग से रीवां के आगे जाकर संघ के साथ हो लिया। भाग्य से संघपति मुंबई चले गये थे अत: पहचानने वाला संघ में कोई न था।
मुनिसंघ की चर्या देखने तथा गुण-दोष परखने का ही प्रमुख काम था। जैसे-जैसे दोषों की खोज करता था, वहाँ वैसे-वैसे गुण नजर आते थे। एक सप्ताह में जब पूरा विश्वास हो गया कि अखबारों के आधार पर हमने अपनी धारणाएँ गलत बनाई थीं, संघ तो परम निर्दोष है, तब एक दिन वंदना की। इसके पूर्व कभी उनकी वंदना नहीं की थी और रेलमार्ग पकड़ घर लौट आया। लोग आश्चर्यान्वित थे कि ये कहाँ चले गये थे? सबका आश्चर्य दूर हुआ और सब आनंद विभोर हो गये। जब मैंने अपनी इस खुफिया यात्रा का विवरण सुनाया और यह बताया कि संघ के सभी साधु उत्कृष्ट चारित्र वाले अनुपम तपस्वी हैं।
उत्साह की लहर भर गई और बड़े समारोहपूर्वक संघ का स्वागत हुआ तथा अभूतपूर्व चातुर्मास हुआ कि लोग आज भी उसका पुण्य स्मरण करते नहीं अघाते।
हजारों यात्रियों का प्रतिदिन आगमन भक्ति-श्रद्धा-सुमन-धर्मोपदेश, आहार, दर्शन-आदि सभी धार्मिक प्रक्रियाएँ बड़े उल्लास के साथ सम्पन्न हो रही थीं। चातुर्मास ५।। माह का हुआ। कब समय निकल गया पता नहीं।पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी, स्व. सरसेठ हुकमचंद जी, बैरिस्टर चम्पतराय जी आदि प्रसिद्ध विद्वान् श्रीमान् व धीमान् इस मध्यकाल में कटनी पधारे।
कितने उत्साह में, कितने उल्लास में, कितनी धार्मिक भावना व उसके पुण्य वातावरण में यह चातुर्मास पूर्ण हुआ, यह अभूतपूर्व आनन्द लेखनी से बाहर था।
इसी चातुर्मास के पुण्यावसर पर इस अधर्म की विपरीत धारणाएँ समाप्त हुईं। घोर विरोध के भाव रहने पर, विपरीतता भेजने पर भी उत्तम होनहार, पूर्ण सौभाग्य अलग किलकिला रहा था और वह सामने आया। इन दिनों संघ के सानिध्य में उत्तम स्वाध्याय हुआ, ज्ञान प्रगति के साथ आचार्यश्री ने मुझे व्रत देकर पवित्र किया और मेरा जीवन सफल हो गया।
(जन्म शताब्दी महोत्सव, स्मृतिग्रंथ से साभार)