(1) हे माता! आपने ज्ञान के पुष्पों से माधुरी नामक ११ वर्षीय बालिका के बचपन को (सन् २५ अक्टूबर १९६९ में) सुसज्जित करके मुझ पर अनन्त उपकार किये हैं। जल में पड़ रही चन्द्रबिम्ब की छाया को पकड़ने की बालचेष्टा के समान आपके श्रीचरणों में मेरा कोटि-कोटि नमन।
(2) हे शिवपथप्रदर्शिका माता! आपने सुगंधदशमी-सन् १९७१ में मुझे आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत देकर मेरे मुक्तिपथ को प्रशस्त किया है। कृतज्ञतापूर्वक आपके पवित्र चरणयुगल में शिरसा वन्दन।
(3) मधुरिम स्वप्न प्रदर्शिका माता! मुझे ज्ञानामृत से अभिसिंचित करते हुए देशव्रत (सन् १९८२ में दो प्रतिमा) प्रदान कर त्याग का मधुरिम स्वप्न साकार करने हेतु आपके उपकार जन्मान्तरों में भी न भूलने की अभिलाषा के साथ गुरुपद में नमन।
(4) मुझे अपनी जन्मदात्री माँ आर्यिका श्री रत्नमती माताजी की आजीवन सेवा करने का सौभाग्य प्रदान करने वाली हे कर्तव्यपथ प्रदर्शिका मातुश्री! आपके पादयुगल में त्रिकाल वंदामि।
(5) विषम परिस्थितियों में भी मेरु पर्वत के समान निश्चल रहकर धैर्य का पाठ पढ़ाने वाली हे वात्सल्यवारिधि! आपको हृदय की गहराइयों से मेरा प्रणाम है।
(6) प्रतिक्षण अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग में लीन रहने की शिक्षा देने वाली हे ज्ञानसरिता! वृद्धिंगत श्रुतज्ञान की प्राप्ति के लिए आपके चरणों में शतश: नमन।
(7) जैन साहित्य भण्डार को समृद्ध करने वाली भगवान महावीर शासन की प्रथम ग्रंथ सृजनकत्र्री हे ज्ञानमती माताजी! सतत ज्ञानामृत पान की अभिलाषा के साथ आपकी ज्ञानगरिमा का अभिनंदन है।
(8) चारित्रचक्रवर्ती उपवन की हे सजग प्रहरी! आर्षपरम्परा के पालन की भावनापूर्वक आपके पवित्र चारित्र को नित्य वंदन है।
(9) बीसवीं सदी की प्रथम बालब्रह्मचारिणी आर्यिका हे गणिनीप्रमुख! मुझे आपकी लघु बहन एवं शिष्या बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। अपने सौभाग्य की सराहना करते हुए निरंतर चारित्र वृद्धि का आशीर्वाद पाने हेतु आपको नमन करती हूँ।
(10) षट्खण्डागम की सिद्धान्त-चिंतामणिटीका का मुझे हिन्दी अनुवाद करने की प्रेरणा देने वाली हे उदार-हृदया माता! अपने ज्ञान उपवन की इस कलिका का नमन स्वीकार कीजिए।
(11) सन् १९८७ में सप्तम प्रतिमा एवं गृहत्याग का व्रत देकर जैन दीक्षा के निकट पहुँचाने वाली हे सच्ची माता! आपके उपकार के प्रति मैं सदैव नतमस्तक हूँ।
(12) माधुरी से चंदनामती बनाकर सन् १९८९ में आर्यिका दीक्षा प्रदान करने वाली हे चैतन्यतीर्थ! अपनी आत्मा को तीर्थ बनाने की कामना के साथ गुरुचरणों में सादर नमन।
(13) अनेकानेक तीर्थक्षेत्र एवं सिद्धक्षेत्रों की वंदना का पुण्य प्रदान करने वाली हे तीर्थ विकास की सम्प्रेरिका! निरंतर पुण्यवृद्धि की कामना के साथ आपको मेरा वंदन है।
(14) हे मात:! जिनधर्म प्रभावना के अनेक महोत्सवों में आपकी प्रेरणा को साकार करने का पुण्यलाभ लेते हुए गुरुसेवा का अवसर प्राप्त हुआ, अत: आपके पावन पद कमलों में मेरा त्रिकाल नमस्कार है।
(15) हे ज्ञानपुञ्ज! आपके गहनज्ञान का अंश प्राप्त करने हेतु आपकी ज्ञान गरिमा की मैं अभिवंदना करती हूँ।
(16) प्रात: से सायं तक दैनिक चर्या मेें हमें नित्य सावधान रखने वाली हे माँ! आप साक्षात् जिनवाणी की प्रतिकृति हैं, आपकी निरंतर छत्रछाया प्राप्त करने हेतु मंगल भावना है।
(17) हे माँ! आपसे मैंने जीवन भर सब कुछ प्राप्त ही किया है, उसके बदले में मैंने आपको दिया कुछ भी नहीं है। बस, इस अकिंचन का नमन स्वीकार कर लीजिए, तो मैं धन्य हो जाऊँगी।
(18) प्यारी माँ! मेरा शरीर पौद्गलिक मिट्टी का है, उसमें आत्मा के रूप में आप ही हैं, इसलिए मैं चैतन्यरूप दिख रही हूँ।
(19) हे वात्सल्यमूर्ति माँ! आपने अपने असीम प्रेम से मेरे अवगुणों को गुणरूप में परिवर्तित करके माधुर्य और चन्दन का रूप दिया है, अत: मेरा नि:शब्द नमन स्वीकार कीजिए।
(20) हे ज्ञानमूर्ति माँ! आप अपने आध्यात्मिक ज्ञान से मानव जीवन की प्रतिकूलताओं को अनुकूलता में बदलने की सदा शिक्षा देती हैं, अत: आपकी ज्ञानप्रतिभा के लिए मेरा मन सदैव विनत है।
(21) हे विद्यावारिधि माँ! आपमें उपलब्ध श्रुत का महान ज्ञान होते हुए भी अभिमान का तिल-तुषमात्र भी नहीं है। विनयगुण प्राप्ति के लिए आपके पद में त्रियोगपूर्वक वंदामि।
(22) दो बार डी.लिट्. की मानद उपाधि से अलंकृत पूज्य साहित्यवारिधि मातुश्री! आपके वरदहस्त से आत्मा को गुणों से अलंकृत करने की वाञ्छापूर्वक नमोऽस्तु।
(23) हे धर्ममात:! मेरी दीक्षा के रजत वर्ष आपके चिरंजीवी आशीर्वाद के ही प्रतीक हैं। दीक्षा की परिभाषा को सार्थक करने की मंगल भावना के साथ अपनी मानस पुत्री का अनन्तश: वन्दन स्वीकार कीजिए।
(24) हे माँ! मेरे लिए आप ही माता-पिता, भाई-बहन, गुरु एवं भगवान हैं। मेरे तन और मन के रोम-रोम में मात्र आप ही हैं और मुझ पर आपका एक मात्र अधिकार है, मेरा मन-वचन-काय से आपको शत-शत नमन है
(25) हे माता! आपकी निर्दोष तपस्या को मैं ४४ वर्षों से निरंतर देख रही हूँ, उस चमत्कार के प्रति मैं सदैव नतमस्तक हूँ।