(नाटिका)
‘समय’ के नाम से कुण्डलपुर का इतिहास एक वार्ता(फरवरी २००३ कुण्डलपुर में पंचकल्याणक महोत्सव के अवसर पर मंचित एक रूपक)
(पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से कतिपय भक्तों की यह वार्ता है। पूज्य माताजी के द्वारा समय के नाम से शास्त्रीय तथ्य कहलाए गए हैं। कृपया इसे पढ़ें और नाटक मंचों पर इसका मंचन करवाकर समाज को सत्य तथ्यों से परिचित करावें)- (‘समय’ कुछ पंक्तियाँ गुनगुनाते हुए मंच पर प्रवेश करता है। वह श्वेतवस्त्र, हार, मुकुट से सुसज्जित है। साथ ही अनेक श्रेष्ठीगण व महिलाएं आदि भी प्रवेश करते हैं।)
समय- शेरछंद –
यह धर्मचक्र सर्वदा चलता ही रहेगा। जो इसकी शरण ले, वो सुलझता ही रहेगा।। सुलझता ही रहेगा, सुलझता ही रहेगा।
अहा हा!! मैं समय हूँ समय, मेरा दूसरा नाम कालचक्र है। क्या आप लोग मुझे जानते हैं? यद्यपि मुझे जन्म लेकर अनंत काल व्यतीत हो गया है फिर भी मैं बूढ़ा नहीं हुआ हूँ, मैं पूर्ण जवान हूँ (खिलखिलाकर हंसने लगता है)। मैंने इस मध्यलोक में अनंत-अनंत तीर्थंकरों के जन्माभिषेक देखे हैं। मैंने क्या नहीं देखा है? सब कुछ देखा है। मैं त्रिकालदर्शी सर्वज्ञ हूँ। आओ, आओ! जिसे जो कुछ पूछना है मेरे से पूछो, मैं सब कुछ बताने में समर्थ हूँ। संसार में कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है कि जिसे मैंने नहीं देखा हो।
महावीर प्रसाद (संघपति)-हे समय! तब तो आप मुझे बतलाइये कि सबसे पहले इस धरती पर क्या था? और कौन थे?
समय-सेठजी! तुमने बहुत अच्छा प्रश्न किया है। सुनो, सुनो और नंद्यावर्त मंडप में उपस्थित महानुभावों सुनो! सबसे पहले इस धरती पर जो था आज भी वही है, मात्र मनुष्यों की आयु, शरीर की ऊँचाई आदि में अन्तर आया है।
कैलाशचंद (लखनऊ)-अरे रे समय! ऐसा लगता है कि तुम्हें कुछ मालूम नहीं है। पहले तो इस भूतल पर बंंदर थे, वही बंदर तो मनुष्य बन गये हैं।
कैलाशचंद (दिल्ली)-अरे नहीं! आप लोगों को कुछ मालूम नहीं है। सबसे पहले तो यहाँ ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की थी। समय-अरे सुनो! आप लोग आपस में क्यों झगड़ने लग गये। देखो! जैनधर्म के अनुसार यह सृष्टि अनादि और अनंत है, समझे! न इसका आदि था और न अंत ही होगा। बस मात्र षट्काल परिवर्तन होते रहने से यहाँ की व्यवस्था बदलती रहती है। दीपक-वह परिवर्तन क्या है? ‘
समय-समय के दो भेद है-अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी, पुन: दोनों के भी छह-छह भेद माने हैं। १. सुषमा सुषमा २. सुषमा ३. सुषमादु:षमा ४. दु:षमासुषमा ५. दु:षमा और ६. दु:षमादु:षमा। ये ही छहों काल उत्सर्पिणी में उल्टे हो जाते हैं अर्थात् दु:षमादु:षमा से शुरू होकर ‘सुषमासुषमा’ तक पहुँचते हैं।
श्रीमती सुभाषिनी-भला यह षट्काल परिवर्तन कहाँ-कहाँ होता है?
‘समय-सुभाषिनी! तुमने बहुत ही अच्छा प्रश्न किया है। सुनो, स्वर्गों में यह काल परिवर्तन नहीं है, नरकों में भी नहीं है, मध्यलोक में ढाईद्वीप से परे असंख्य द्वीप समुद्रों में भी नहीं है। यह कालपरिवर्तन मात्र ढाई द्वीप के पांच भरत क्षेत्र और पांच ऐरावत क्षेत्रों के आर्यखण्डों में ही होता है।
दीपक-हां, हां, मैंने गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित जैन भारती में इस षट्काल परिवर्तन को पढ़ा है। ‘महावीर प्रसाद-मैंने तो आदिपुराण में पढ़ा हैै। अनुपम-मैंने इसे तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में पढ़ा है।
समय-तब तो आप सभी लोग इस परिवर्तन को जानते ही हैं, अत: अब मैं इसका विस्तार नहीं करूँगा।
राकेश जैन-हे समय महाराज! तो क्या आपने भगवान् ऋषभदेव को देखा है?
समय-क्यों नहीं, मैंने तो प्रभु ऋषभदेव के पूर्व के दशावतारों को यानी दशों भवों को भी देखा है।
दीपक-अच्छा-अच्छा समय महाराज! अब आप हमें यह बतलाइये कि भगवान महावीर कहाँ जन्मे थे? ‘
समय-(खिलखिलाकर हंसते हुए) वाह रे वाह! तो अभी तक आपने कुछ समझा ही नहीं। तो आप यहाँ भला किसलिए आए हो?
कैलाशचंद (दिल्ली)-अरे भइया! आप नाराज मत होइए। हम तो यहाँ केवल कुतूहल से आ गये हैं कि भला यहाँ हो क्या रहा है?
श्रीमती सुभाषिनी-अरे भाई समय! मैं तो यहाँ तुम्हारी सुनने आयी हूँ और सही स्थिति समझने आयी हूँ चूँकि हमें विश्वास है कि तुम समय हो तुमने सब कुछ देखा है, तुम सर्वज्ञ हो अत: तुम झूठ कभी नहीं बोलोगे।
महावीर प्रसाद-हाँ, हाँ झूठ तो हमारी गणिनी ज्ञानमती माताजी भी कभी नहीं बोली हैं। हमें तो उनके वचनों पर भी पूर्ण विश्वास है, वे जहाँ अंगुली धर देंगी ‘यह भगवान महावीर की जन्मभूमि है’ तो मैं वहीं माथा टेक दूँगा।
‘विजय कुमार जैन-देखो, भाई! मुझे तो पं. सुमेरचंद दिवाकर जी की महाश्रमण महावीर पुस्तक के वचनों पर भी बहुत विश्वास है उन्होंने भी कहा है कि वैशाली जन्मभूमि कथमपि नहीं हो सकती कुण्डलपुर ही जन्मभूमि है।
समय-देखो भाइयों! सुनो, गणिनी ज्ञानमती माताजी भी तो जो कुछ बोलती हैं, वो जैन शास्त्रों के आधार से ही बोलती हैं। इसलिए उनके वचन सारे भारत की जैन समाज को प्रामाणिक मान्य हैं।
‘स्तुति जैन-देखो समय! आप तो सब कुछ जानते हो ठीक है, किन्तु गणिनी माताजी भी यही कहती हैं कि ‘आगम चक्खू साहू’ अर्थात् साधु के पास जैन आगम नाम का एक तीसरा नेत्र मौजूद है। समय-हाँ, यह बात तो मैं भी मानता हूँ।
दीपक-समय महाराज! कुछ विद्वान् भूगोल से वैशाली को जन्मभूमि सिद्ध करने में लगे हैं। यह क्या है?
समय-दीपक जी! यह भूगोल कुण्डलपुर के बारे में हमारे दि. जैन ग्रंथों में है ही नहीं। यह मात्र बौद्ध ग्रंथों के आधार से ही है।
‘अनुपम-अरे भइया! अगर भूगोल से तुम जन्मभूमि को इधर की उधर करना चाहोगे तो अमेरिका और जर्मन को ‘विदेहक्षेत्र’ मानना पड़ेगा और वहाँ सीमंधर आदि भगवंतों के समवसरण भी ढूंंढ़ने होंगे।
दीपक-क्यों? ऐसा क्यों? अमेरिका विदेहक्षेत्र कैसे बन जायेगा?
‘समय-भाई! तिलोयपण्णत्ति आदि शास्त्रों में लिखा है कि जब यहाँ दिन होता है तब विदहक्षेत्र में रात और जब वहाँ दिन होता है तब यहाँ रात, यह तो आप सभी देखकर ही आये हो।
श्रीमती सुभाषिनी-यह तो माताजी ने अपनी जैन ज्योतिर्लोक पुस्तक में भी लिखा है कि अमेरिका आदि विदेहक्षेत्र नहीं है। विदेहक्षेत्र यहाँ से बहुत दूर है।
‘राकेश जैन-इसलिए अमेरिका को तो विदेहक्षेत्र नहीं माना जायेगा।
समय-इसलिए तो मैं कह रहा हूँ कि आप लोग भूगोल का चक्कर छोड़ दो और मेरी बात सुनो चूँकि मैं ‘समय’ हूँ मैंने तो सब कुछ देखा है ना!
श्रीमती सुभाषिनी जैन-अच्छा, अच्छा समय! तो अब आप ही बताओ आपने यहाँ क्या-क्या देखा है?
समय-मैंने यहीं इसी भूमि पर ९६ मील यानी सवा सौ किमी. विस्तृत कुण्डलपुर नगरी देखी है। कब? २६०० वर्ष पूर्व और यहीं पर कुबेर ने रत्नों को बरसाया था, वो भी मैंने देखा है।
दीपक-और क्या-क्या देखा है? (हंसकर) मुझे देखा था क्या? मैं यहाँ भला किसलिए आया था तुम्हें तो मालूम ही है, बतलाइये ना!
समय-अच्छा (हंसकर)! लगता है आपने अपने को साक्षात् सौधर्मइन्द्र ही मान लिया है, ठीक है, ठीक है। इसी भावना से आप तो सौधर्मेन्द्र का पुण्य संचय कर लोगे। सुनो, आप यहाँ तीर्थंकर भगवान के गर्भ, जन्म कल्याणक मनाने तो आये ही थे, भगवान की बालक्रीड़ा देखने व प्रभु के सामने भक्ति, गीत, संगीत करने भी आते रहते थे।
महावीर प्रसाद-अरे समय! ये सौधर्मेन्द्र मेरे पास ही तो आते थे, यह भी तो आपने देखा होगा?
समय-हाँ, हाँ क्यों नहीं? मैंने देखा है कि महाराज, राजाधिराज सिद्धार्थराज की पूजा करने तो ये ही सौधर्मेन्द्र आते थे और अभी आये हैं।
महावीर प्रसाद-(खुश होकर) समय! तब तो मैं बहुत ही भाग्यशाली हूँ।
कमलचंद-अरे समय! आपने यह तो बताया ही नहीं कि जो यहाँ कीर्तिस्तंभ बनाया जा रहा है वह क्यों बनाया जा रहा है?
समय-अरे कमलचंद जी! आपने भगवान महावीर स्वामी की असली जन्मभूमि की कीर्ति को सारे विश्व में फैलाने के लिए यह कीर्तिस्तंभ निर्मित कराया है।
कमलचंद-भइया समय! मैं सोच रहा हूँ कि मेरा पुण्य भी तो पूज्य गणिनी माताजी ने ही जगाया है तभी तो मैं इन अच्छे-अच्छे कार्यों में जुड़ जाता हूँ अन्यथा पैसे वाले तो दुनियाँ में बहुत हैं।
स्तुति जैन-अच्छा समय! यहाँ तुमने और क्या-क्या देखा है?
समय-मैंने प्रभु वद्र्धमान की सारी बाल क्रीड़ाएँ यहीं देखी हैं। यहाँ प्रभु का सन्मति नाम संजय-विजय नाम के महामुनि ने रखा था।
सौ. सुभाषिनी-समय! जैसे उस समय उन महामुनियों की शंका का समाधान हो गया था अत: वे पुलकित हो गये थे, ऐसे ही गणिनी माताजी कह रही हैं कि मुझे भी यहाँ २९ दिसम्बर को आने के बाद अनेक समस्याओं का समाधान मिला है अत: प्रभु की असली जन्मभूमि यही है।
समय-हाँ, हाँ यह भी मैंने देखा है। ‘अनुपम-वर्तमान शताब्दी में आपने भला और क्या-क्या देखा है?
समय-(खेदखिन्न होकर) मैंने इस कुण्डलपुर की वीरानियत भी देखी है और सुनो (हर्षित होकर) गणिनी ज्ञानमती माताजी द्वारा इस नगरी के, इस जन्मभूमि के उत्थान की एवं रक्षा की प्रेरणा भी देखी है।
दीपक-समय महाराज! यह तो बताओ कि तीर्थंकर भगवन्तों की जन्मभूमियाँ जिनकी महिमा, जिनकी पूजा, जिनकी वंदना देवों ने भी की थी, वे आज ऐसी दुरवस्था में क्यों हैं?
समय-ओह! बड़े खेद की बात है, दीपक! आप समझो! यह पंचमकाल है पंचमकाल! यह इसी की सब महिमा है। भगवान पार्श्वनाथ की जन्मभूमि बनारस में जन्मे हुए लोग तो अपने आपको गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं, लेकिन बनारस के पास स्थित चन्द्रपुरी आदि तीर्थों को तो भूल ही गए हैं?
दीपक-समय! आपने तो यह भी देखा होगा कि मेरे दादाजी, मेरे पिताजी और मेरे बनारस के सभी जैन बंधु बनारस में जन्में भगवन्तों का और उनकी जन्मभूमि स्थलों का बहुत ही मूल्याकंन कर रहे हैं किन्तु अन्य जन्मभूमियाँ उपेक्षित तो हैं।
समय-तब इस विषय में आप क्या सोच रहे हैं?
दीपक-पूज्य गणिनी माताजी की आज्ञा से आज मैं भी तो तीर्थंकर महावीर की जन्मभूमि की महिमा को आत्मसात् कर रहा हूँ।
सौ. सुभाषिनी जैन-अच्छा समय! आप हमें यहाँ की कुछ और विशेषताएँ बतलाइये?
समय-सुनो, सुनो! यहीं तो माता त्रिशला स्वर्ग से देवों द्वारा लाये गये वस्त्रों को प्रभु को पहनाकर बचपन में उन्हें सजाकर फुली नहीं समायी थीं और यहीं पर तो बगीचे में खेलते हुए वद्र्धमान की संगमदेव ने परीक्षा ली थी। जब प्रभु उस सर्परूपधारी के फण पर क्रीड़ा कर रहे थे, वह दृश्य मैंने जो भी देखा था आज मेरी दृष्टि में वह दृश्य ज्यों की त्यों आ रहा है।
विजय कुमार जैन (पिंकू)-समय महाराज! हर्मन जैकोबी ने सन् १९११ में एक श्वेताम्बर आचार्य को पत्र लिखा था कि मैं तिलोयपण्णत्ति के आधार से नालंदा वाले कुण्डलपुर को ही भगवान महावीर की जन्मभूमि स्वीकार कर रहा हूँ। उनका यह इंगलिश में लिखा पत्र सम्यग्ज्ञान के दिसंबर-२००२ अंक में छप चुका है। इसे भी आपने देखा होगा?
समय-हाँ, हाँ! यह सब कुछ मैंने देखा है और अब देख रहा हूँ, यह कुण्डलपुर का ऐतिहासिक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव।
विजय कुमार जैन (पिंकू)-अहो समय! यह प्रतिष्ठा ऐतिहासिक क्यों हैं?
समय-आप लोग सुनो! यह मात्र पंचकल्याणक प्रतिष्ठा या तीर्थ का जीर्णोद्धार अथवा तीर्थ का विकास ही नहीं है। माताजी केवल तीर्थविकास करने नहीं आई हैं। (आहिस्ते-आहिस्ते) यह संस्कृति की सुरक्षा है, भगवान महावीर की जन्मभूमि की सुरक्षा है, लुप्त किये जा रहे इतिहास को पुनर्जीवित किया जा रहा है। समझे ना!
महावीर प्रसाद-हाँ, हाँ, समझ गये, समझ गये। समय महाराज! बहुत-बहुत धन्यवाद आपका।
अब चलो चलें, भगवान महावीर के कल्याणक की अंतरंग क्रियाओं का समय हो रहा है। ‘समय-चलो चलें, प्रभु की भक्ति करके अमूल्य समय का सदुपयोग करना बहुत ही उपयोगी है। (सब मिलकर झूमते हुए भजन में तन्मय हो जाते हैं)-
यह धर्मचक्र सर्वदा चलता ही रहेगा। जो इसकी शरण ले, वो सुलझता ही रहेगा…….।।