मैं हूँ एक कन्या मोहिनी। मैं कोई मोहिनी चूर्ण नहीं, कोई मोहिनी मंत्र नहीं, तंत्र नहीं हूँ और न ही मोहिनी के रूप में कोई जादू की छड़ी हूँ। हाँ, तो मैं हूँ भारत की पवित्र भूमि पर बसे अवध प्रान्त में सीतापुर जिले के महमूदाबाद नगर में जन्मी एक कन्या मोहिनी। मैं आपके सामने प्रगट हुई हूँ अपने जीवन में घटित कालचक्र की कुछ घटनाओं को सुनाने के लिए। मेरा जन्म सन् १९१४ में मगसिर कृष्णा पंचमी को हुआ। सन् १९३२ में मेरा विवाह हुआ टिकैतनगर के श्रेष्ठी श्री धन्यकुमार जी के सुपुत्र श्री छोटेलाल जैन के साथ। मुझे ससुराल भेजते समय मेरे पूज्य पिताश्री सुखपालदास जी और माता मत्तो देवी जी ने मुझे पद्मनंदिपंचविंशतिका नाम का एक शास्त्र दिया था। सुनो मेरी बहनों! मैंने ससुराल जाकर सास-ससुर-पति की सेवा के साथ-साथ उस शास्त्र का स्वाध्याय किया। अरे वाह, बड़ा अच्छा है वह शास्त्र। आप भी एक बार उस शास्त्र को जरूर पढ़ना, यह मेरी प्रेरणा है। मैं हूँ मोहिनी! एक कन्या से एक पत्नी बन चुकी टिकैतनगर की पुत्रवधू-मोहिनी देवीअब आगे सुनिये मेरी व्यथा और कथा अर्थात् मोहिनी के साथ समयचक्र ने क्या खेल खेला, उस व्यथा को भी मैं आप सबके साथ बाँटकर अपना दु:ख हल्का करना चाहती हूँ। मैं अपना दाम्पत्य जीवन सुखपूर्वक जी रही थी। तब बड़ों का आशीर्वाद कहिए या प्रकृति का उपहार। विवाह के एक वर्ष बाद मैं गर्भवती हो गई। अच्छे-अच्छे सपने एवं दोहले होते-होते नौ महीने बीत गये। और आ गया-शरदपूर्णिमा का शुभ दिन अर्थात् २२ अक्टूबर सन् १९३४ को आसोज सुदी पूर्णिमा थी, जिसे आप सब शरदपूर्णिमा कहते हैं। उस दिन रात्रि को ९.१५ बजे मैंने एक देवी जैसी सुन्दर बेटी को जनम दिया। मैं सच कहती हूँ बहनों! न जाने क्या चमत्कार हुआ ? मुझे कोई खास प्रसववेदना भी नहीं हुई और उस प्रसूति घर में बड़ी चमचमाती रोशनी पैâल गई। मैं तो अपनी पहली प्यारी-प्यारी गुड़िया को देख-देखकर ही निहाल हो गई। क्योंकि अब मैं बन गई-माँ मोहिनी देवी। अब आप सुनिये कि मेरी अर्थात् माँ मोहिनी की व्यथा क्या है ? मैंने, मेरे पति ने और मेरे परिवार के लोगों ने मेरे पहले पूâल का नाम रखा-मैना। वह मैना धीरे-धीरे हँसती-खेलती बड़ी होने लगी और उसने पूर्व जन्म के संस्कार और पुण्य के फलस्वरूप बपचन से ही शास्त्र पढ़-पढ़कर न जाने कितना ज्ञान प्राप्त कर लिया। फिर तो पूरे घर में सम्यग्दर्शन की सरिता प्रवाहित होने लगी। मैंना ने तो अपने घर में ही नहीं, पूरे टिकैतनगर से मिथ्यात्व और कुरीतियों को भगा दिया। आगे चलकर हमारे जीवन में एक धमाका हुआ
मैं हूँ माँ मोहिनी!
मै। सन् १९३४ से १९५२ तक दस सन्तानों की माँ बन चुकी थी। हाँ, हाँ दस बच्चों की माँ, अरे बहनों! उस समय सबके ही ऐसे बड़े-बड़े परिवार हुआ करते थे। तो आगे सुनो! तब तक मेरी बेटी मैना १८ वर्ष की हो गई और उसने विवाह न करने एवं दीक्षा लेने का अपना निर्णय सुनाकर मेरे परिवार में एक भूचाल सा पैदा कर दिया। हे भगवान्! मैं इस समयचक्र को धन्यवाद दूँ या आँसू बहाकर कर्मबंध करूँ, समझ नहीं पा रही हूँ। आखिरकार बहुत रोकने पर, रोने-धोने पर भी मेरी मैना न मानी और दीक्षा लेकर ज्ञानमती माताजी बन गर्इं जो आज गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के नाम से जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी के रूप में आपके सामने विराजमान हैं। मैं हूँ माँ मोहिनी देवी प्यारे भाइयों एवं बहनों! इन ज्ञानमती माताजी से तो मेरी कोख धन्य हो गई समझो, भले ही एक मोही माँ के रूप में कभी-कभी रोना तो आ ही जाता है फिर भी इनकी उन्नति देखकर-देखकर मैं अपने सौभाग्य की सराहना करती हूँ और भावना भाती हूँ कि मुझे भी कभी इनके समान आत्मकल्याण करने का सौभाग्य मिले।
मैं हूँ माँ मोहिनी
अब देखो और आगे सुनो मेरी व्यथा, कैसे बताऊँ अपनी कथा, मेरी एक और कन्या को न जाने क्या हो गया, अरे वह मनोवती भी खूब जिद करके ज्ञानमती माताजी के पास चली गई और दीक्षा लेकर आर्यिका अभयमती माताजी बन गई। उनको भी आप सबने देखा है न, ४८ वर्षों तक रत्नत्रय साधना करके वे ९ अगस्त २०१२ को भादों कृ. सप्तमी के दिन ज्ञानमती माताजी का सम्बोधन सुनते-सुनते समाधिस्थ हो गई हैं। मैं हूँ माँ मोहिनी यूँ तो मैंने भी सुना है- क्या कोई नर है इस जग में, विधि का विधान जो टाल सके। अनहोनी भी होकर रहती, नहिं होनहार कोई टाल सके।। अरे भाइयों! यह सब तो मालूम है ही लेकिन जब अपने बच्चों का वियोग सहना पड़ता है तो कलेजा फटने लगता है। जब मेरी दो-दो कन्याएं माताजी बन गर्इं तो मुझे भी संसार छोड़ने का मन करने लगा किन्तु वैरागी भाव से मैंने अपने कर्तव्य निभाए। धीरे-धीरे करके क्रम-क्रम से पुत्र-पुत्रियों के विवाह किये और सन् १९६९ में २५ दिसम्बर को मेरे पति का समाधिमरणपूर्वक स्वर्गवास हो गया। उन्होंने अंतिम क्षणों में बड़ी श्रद्धा के साथ पूज्य ज्ञानमती माताजी का नाम स्मरण किया।
मैं हूँ माँ मोहिनी!
अब मैंने भी घर-परिवार से मोह छोड़कर दीक्षा लेने का मन बना लिया और उसमें मिल गया ज्ञानमती माताजी का मार्मिक प्रेरणादायी सम्बोधन। फिर तो मेरे बेटे-बेटियाँ और पूरे परिवार के लोग खूब रोए और मुझे जबर्दस्ती घर ले जाने के लिए लाखों कोशिशें की किन्तु मैंने पत्थर जैसा मन को कड़ा करके आचार्य श्री धर्मसागर महाराज से दीक्षा लेकर आर्यिका रत्नमती नाम प्राप्त कर लिया। अब मैं मोहिनी नहीं, आर्यिका रत्नमती माताजी हूँ। भाइयों एवं बहनों! यह मैं अपनी आपबीती सच्ची कहानी आपको सुना रही हूँ। तो आगे सुनो- जब मैं दीक्षा लेने जा रही थी, तब मुझे ज्ञानमती माताजी ने बताया कि मोहिनी जी! आपके सबसे छोटे पुत्र रवीन्द्र ने सन् १९६८ में पाँच वर्ष का ब्रह्मचर्य व्रत मुझसे लिया है और सन् १९६९ में कन्या माधुरी ने २ वर्ष का व्रत लिया था पुन: उसने अब सन् १९७१ में सुगंधदशमी के दिन आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया है। अब मैं करती भी क्या। एक बार तो दोनों बातें सुनकर मैं भौचक्की रह गई, किन्तु फिर मैंने चिंतन किया कि अरे मोहिनी! जब तू स्वयं दीक्षा ले रही है तब मुक्तिपथ के इन नन्हें पथिकों को संसार में फसने की बात कैसे कहेगी? खैर! ये पथिक चल पड़े अपनी शिवराह पर, ज्ञानमति मात की शिष्यता प्राप्त कर। देखो! मेरा रविन्दर बना स्वामी है, माधुरी आर्यिका चन्दनामति जी हैं। ‘‘मैं हूँ आर्यिका रत्नमती’’! बंधुओं! समय का चक्र बड़ा बलशाली है। मैं तो अपनी १३ साल की साधना और तपस्या करके समाधिपूर्वक अपने नश्वर शरीर को छोड़कर स्वर्ग पहुँच गई हूँ, वहाँ से आगे मनुष्य जीवन प्राप्त कर तपस्या करके जल्दी से जल्दी मोक्षधाम तक जाने की अभिलाषा है। मुझे प्रसन्नता है कि मेरे गर्भ से जन्म लेने वाली सन्तानों में से प्रथम सन्तान पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने जहाँ मेरे गौरव में चार चाँद लगाए हैं, वहीं अपने आत्मकल्याण के साथ-साथ जैनधर्म की प्रभावना के जो अलौकिक कार्य किये हैं वे युग-युग तक सम्पूर्ण विश्व को पुण्य प्राप्त कराएंगे इसमें कोई संदेह नहीं है। अच्छा, अब मैं चली अपने गन्तव्य की ओर! और ये मेरी प्रतिभाएं चिरकाल तक धरती पर जीवंत रहें, आप सभी इनसे धर्म का लाभ लेते रहें, यही मेरी मंगल प्रेरणा है। मैं हूँ एक कन्या मोहिनी। मैं कोई मोहिनी चूर्ण नहीं, कोई मोहिनी मंत्र नहीं, तंत्र नहीं हूँ और न ही मोहिनी के रूप में कोई जादू की छड़ी हूँ। हाँ, तो मैं हूँ भारत की पवित्र भूमि पर बसे अवध प्रान्त में सीतापुर जिले के महमूदाबाद नगर में जन्मी एक कन्या मोहिनी। मैं आपके सामने प्रगट हुई हूँ अपने जीवन में घटित कालचक्र की कुछ घटनाओं को सुनाने के लिए। मेरा जन्म सन् १९१४ में मगसिर कृष्णा पंचमी को हुआ। सन् १९३२ में मेरा विवाह हुआ टिकैतनगर के श्रेष्ठी श्री धन्यकुमार जी के सुपुत्र श्री छोटेलाल जैन के साथ। मुझे ससुराल भेजते समय मेरे पूज्य पिताश्री सुखपालदास जी और माता मत्तो देवी जी ने मुझे पद्मनंदिपंचविंशतिका नाम का एक शास्त्र दिया था। सुनो मेरी बहनों! मैंने ससुराल जाकर सास-ससुर-पति की सेवा के साथ-साथ उस शास्त्र का स्वाध्याय किया। अरे वाह, बड़ा अच्छा है वह शास्त्र। आप भी एक बार उस शास्त्र को जरूर पढ़ना, यह मेरी प्रेरणा है। मैं हूँ मोहिनी! एक कन्या से एक पत्नी बन चुकी टिकैतनगर की पुत्रवधू-मोहिनी देवी अब आगे सुनिये मेरी व्यथा और कथा अर्थात् मोहिनी के साथ समयचक्र ने क्या खेल खेला, उस व्यथा को भी मैं आप सबके साथ बाँटकर अपना दु:ख हल्का करना चाहती हूँ। मैं अपना दाम्पत्य जीवन सुखपूर्वक जी रही थी। तब बड़ों का आशीर्वाद कहिए या प्रकृति का उपहार। विवाह के एक वर्ष बाद मैं गर्भवती हो गई। अच्छे-अच्छे सपने एवं दोहले होते-होते नौ महीने बीत गये। और आ गया-शरदपूर्णिमा का शुभ दिन अर्थात् २२ अक्टूबर सन् १९३४ को आसोज सुदी पूर्णिमा थी, जिसे आप सब शरदपूर्णिमा कहते हैं। उस दिन रात्रि को ९.१५ बजे मैंने एक देवी जैसी सुन्दर बेटी को जनम दिया। मैं सच कहती हूँ बहनों! न जाने क्या चमत्कार हुआ ? मुझे कोई खास प्रसववेदना भी नहीं हुई और उस प्रसूति घर में बड़ी चमचमाती रोशनी पैâल गई। मैं तो अपनी पहली प्यारी-प्यारी गुड़िया को देख-देखकर ही निहाल हो गई। क्योंकि अब मैं बन गई-माँ मोहिनी देवी। अब आप सुनिये कि मेरी अर्थात् माँ मोहिनी की व्यथा क्या है ? मैंने, मेरे पति ने और मेरे परिवार के लोगों ने मेरे पहले फूल का नाम रखा-मैना। वह मैना धीरे-धीरे हँसती-खेलती बड़ी होने लगी और उसने पूर्व जन्म के संस्कार और पुण्य के फलस्वरूप बपचन से ही शास्त्र पढ़-पढ़कर न जाने कितना ज्ञान प्राप्त कर लिया। फिर तो पूरे घर में सम्यग्दर्शन की सरिता प्रवाहित होने लगी। मैंना ने तो अपने घर में ही नहीं, पूरे टिकैतनगर से मिथ्यात्व और कुरीतियों को भगा दिया। आगे चलकर हमारे जीवन में एक धमाका हुआ
मैं हूँ माँ मोहिनी!
मै। सन् १९३४ से १९५२ तक दस सन्तानों की माँ बन चुकी थी। हाँ, हाँ दस बच्चों की माँ, अरे बहनों! उस समय सबके ही ऐसे बड़े-बड़े परिवार हुआ करते थे। तो आगे सुनो! तब तक मेरी बेटी मैना १८ वर्ष की हो गई और उसने विवाह न करने एवं दीक्षा लेने का अपना निर्णय सुनाकर मेरे परिवार में एक भूचाल सा पैदा कर दिया। हे भगवान्! मैं इस समयचक्र को धन्यवाद दूँ या आँसू बहाकर कर्मबंध करूँ, समझ नहीं पा रही हूँ। आखिरकार बहुत रोकने पर, रोने-धोने पर भी मेरी मैना न मानी और दीक्षा लेकर ज्ञानमती माताजी बन गर्इं जो आज गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के नाम से जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी के रूप में आपके सामने विराजमान हैं। मैं हूँ माँ मोहिनी देवी प्यारे भाइयों एवं बहनों! इन ज्ञानमती माताजी से तो मेरी कोख धन्य हो गई समझो, भले ही एक मोही माँ के रूप में कभी-कभी रोना तो आ ही जाता है फिर भी इनकी उन्नति देखकर-देखकर मैं अपने सौभाग्य की सराहना करती हूँ और भावना भाती हूँ कि मुझे भी कभी इनके समान आत्मकल्याण करने का सौभाग्य मिले। मैं हूँ माँ मोहिनी अब देखो और आगे सुनो मेरी व्यथा, कैसे बताऊँ अपनी कथा, मेरी एक और कन्या को न जाने क्या हो गया, अरे वह मनोवती भी खूब जिद करके ज्ञानमती माताजी के पास चली गई और दीक्षा लेकर आर्यिका अभयमती माताजी बन गई। उनको भी आप सबने देखा है न, ४८ वर्षों तक रत्नत्रय साधना करके वे ९ अगस्त २०१२ को भादों कृ. सप्तमी के दिन ज्ञानमती माताजी का सम्बोधन सुनते-सुनते समाधिस्थ हो गई हैं।
मैं हूँ माँ मोहिनी
यूँ तो मैंने भी सुना है- क्या कोई नर है इस जग में, विधि का विधान जो टाल सके। अनहोनी भी होकर रहती, नहिं होनहार कोई टाल सके।। अरे भाइयों! यह सब तो मालूम है ही लेकिन जब अपने बच्चों का वियोग सहना पड़ता है तो कलेजा फटने लगता है। जब मेरी दो-दो कन्याएं माताजी बन गईं तो मुझे भी संसार छोड़ने का मन करने लगा किन्तु वैरागी भाव से मैंने अपने कर्तव्य निभाए। धीरे-धीरे करके क्रम-क्रम से पुत्र-पुत्रियों के विवाह किये और सन् १९६९ में २५ दिसम्बर को मेरे पति का समाधिमरणपूर्वक स्वर्गवास हो गया। उन्होंने अंतिम क्षणों में बड़ी श्रद्धा के साथ पूज्य ज्ञानमती माताजी का नाम स्मरण किया। मैं हूँ माँ मोहिनी! अब मैंने भी घर-परिवार से मोह छोड़कर दीक्षा लेने का मन बना लिया और उसमें मिल गया ज्ञानमती माताजी का मार्मिक प्रेरणादायी सम्बोधन। फिर तो मेरे बेटे-बेटियाँ और पूरे परिवार के लोग खूब रोए और मुझे जबर्दस्ती घर ले जाने के लिए लाखों कोशिशें की किन्तु मैंने पत्थर जैसा मन को कड़ा करके आचार्य श्री धर्मसागर महाराज से दीक्षा लेकर आर्यिका रत्नमती नाम प्राप्त कर लिया। अब मैं मोहिनी नहीं, आर्यिका रत्नमती माताजी हूँ। भाइयों एवं बहनों! यह मैं अपनी आपबीती सच्ची कहानी आपको सुना रही हूँ। तो आगे सुनो-जब मैं दीक्षा लेने जा रही थी, तब मुझे ज्ञानमती माताजी ने बताया कि मोहिनी जी! आपके सबसे छोटे पुत्र रवीन्द्र ने सन् १९६८ में पाँच वर्ष का ब्रह्मचर्य व्रत मुझसे लिया है और सन् १९६९ में कन्या माधुरी ने २ वर्ष का व्रत लिया था पुन: उसने अब सन् १९७१ में सुगंधदशमी के दिन आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया है। अब मैं करती भी क्या। एक बार तो दोनों बातें सुनकर मैं भौचक्की रह गई, किन्तु फिर मैंने चिंतन किया कि अरे मोहिनी! जब तू स्वयं दीक्षा ले रही है तब मुक्तिपथ के इन नन्हें पथिकों को संसार में फसने की बात कैसे कहेगी? खैर! ये पथिक चल पड़े अपनी शिवराह पर, ज्ञानमति मात की शिष्यता प्राप्त कर। देखो! मेरा रविन्दर बना स्वामी है, माधुरी आर्यिका चन्दनामति जी हैं। ‘‘मैं हूँ आर्यिका रत्नमती’’! बंधुओं! समय का चक्र बड़ा बलशाली है। मैं तो अपनी १३ साल की साधना और तपस्या करके समाधिपूर्वक अपने नश्वर शरीर को छोड़कर स्वर्ग पहुँच गई हूँ, वहाँ से आगे मनुष्य जीवन प्राप्त कर तपस्या करके जल्दी से जल्दी मोक्षधाम तक जाने की अभिलाषा है। मुझे प्रसन्नता है कि मेरे गर्भ से जन्म लेने वाली सन्तानों में से प्रथम सन्तान पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने जहाँ मेरे गौरव में चार चाँद लगाए हैं, वहीं अपने आत्मकल्याण के साथ-साथ जैनधर्म की प्रभावना के जो अलौकिक कार्य किये हैं वे युग-युग तक सम्पूर्ण विश्व को पुण्य प्राप्त कराएंगे इसमें कोई संदेह नहीं है। अच्छा, अब मैं चली अपने गन्तव्य की ओर! और ये मेरी प्रतिभाएं चिरकाल तक धरती पर जीवंत रहें, आप सभी इनसे धर्म का लाभ लेते रहें, यही मेरी मंगल प्रेरणा है।