आत्मा से समस्त कर्मों का पूर्णरूपेण क्षय हो जाना अर्थात् आत्मा का सर्वथा शुद्ध हो जाना मोक्ष तत्त्व है। समस्त कर्मों से रहित आत्मा के स्वाभाविक अनन्त ज्ञान आदि गुण और अव्याबाध सुख रूप अवस्था उत्पन्न होती है। इसी का नाम मोक्ष है। इसके भी दो भेद हैं-भावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष।
(१) भाव मोक्ष- आत्मा के जिन भावों से सम्पूर्ण कर्म अलग होते हैं, वह भाव मोक्ष है।
(२) द्रव्य मोक्ष- सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से छूट जाना द्रव्य मोक्ष है।
मुक्तात्मा के दो भेद- १. जीवन मुक्त, २. कर्म मुक्त।
जीवन मुक्त- घातिया कर्म नष्ट कर प्राप्त अर्हन्त केवली की अवस्था। इनका अब पुन: जन्म नहीं होगा।
कर्ममुक्त- घातिया के साथ अघातिया कर्म नष्ट करने पर प्राप्त सिद्धावस्था।
मोक्ष के बाद जीव की अवस्थिति-कर्ममुक्ति के बाद जीव अपने ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण लोक के अग्रभाग में जाकर स्थित हो जाता है। धर्मास्तिकाय के अभाव के कारण लोकाग्र के आगे जीव की गति नहीं रहती।
(१) पूर्व प्रयोग
(२) असंग
(३) बंधच्छेद
(४) तथागति परिणाम
मुक्त जीव का पुनरागमन नहीं-जैसे दूध से निकला हुआ घी फिर पुन: दूध रूप परिणत नहीं होता अथवा बीज को दग्ध कर देने पर वह बीज पुन: अंकुरित नहीं होता। उसी प्रकार राग-द्वेष का अभाव हो जाने से शुद्ध/सिद्ध अवस्था को प्राप्त मुक्त आत्माओं का संसार में पुनरागमन नहीं होता।
संसार कभी खाली (शून्य) नहीं होगा-जिस प्रकार भविष्यत काल संबंधी समयों के क्रमश: व्यतीत होने पर यद्यपि भविष्यकाल के समयों की राशि में कमी होती है, फिर भी उसका अंत नहीं होता। इसी प्रकार मुक्त जीवों के पुनरागमन न होने पर तथा संसारी जीवों के निरन्तर मोक्ष गमन हेतु रहने पर भी संसार के खाली होने की स्थिति (जीव राशि का अंत/शून्यता) कभी नहीं बनती।
क्योंकि जीव राशि अनन्त है। अब यदि जीवों के मोक्ष जाने से खाली होना मानें तो पूर्वकाल में बहुत से जीव मोक्ष गये हैं, तब भी इस समय जगत में जीवों की शून्यता दिखाई क्यों नहीं पड़ती ? तथा अभव्य जीव एवं अभव्यों के समान दूरान्दूर भव्य जीवों को मोक्ष नहीं फिर संसार जीवों से खाली कैसे होगा ? तथा आगम में यह भी कहा है कि एक निगोदिया जीव के शरीर में समस्त सिद्धों से अनन्तगुणी जीव राशि समाहित है।
अनन्त- जिसका कोई अन्त न हो अथवा जो राशि आय रहित और व्यय सहित होने पर भी अव्यय अर्थात् ज्यों की त्यों बनी रहे, वह अनन्त है। यथा समुद्र का जल अथवा भविष्यत्काल।
सिद्धात्माओं में अनन्त गुण हैं। जिनमें प्रमुख आठ गुण इस प्रकार हैं-
सम्मत्तणाण दंसण, वीरिय सुहुमं तहेव अवगहणं।
अगुरुलहुमव्वावाहं, अट्ठगुणा होंति सिद्धाणं।।
(१) क्षायिक सम्यक्त्व | (२) अनन्तज्ञान |
(३) अनन्तदर्शन | (४) अनन्तवीर्य |
(५) सूक्ष्मत्व | (६) अवगाहनत्व |
(७) अगुरुलघुत्व | (८) अव्याबाधत्व |
सिद्धावस्था में कभी परिवर्तन संभव है क्या ?
मुक्त जीवों को प्राप्त शुद्ध/सिद्ध अवस्था में कभी भी विकार या परिवर्तन संभव नहीं है।
कहा भी है- काले कल्पशतेऽपि च गते शिवानां न विक्रिया लक्ष्या।
उत्पातोऽपि यदि स्यात् त्रिलोकसंभ्रान्तिकरणपटु:।। (रत्न. श्रा.१३३)
सिद्धालय में विराजमान सिद्ध क्या करते रहते हैं ?
मुक्त परमात्मा अपने केवलज्ञान के द्वारा तीन लोक और त्रिकालवर्ती सर्व द्रव्यों, गुण तथा उनकी पर्यायों को जानते रहते हैं। केवलदर्शन के द्वारा आत्मा के स्वरूप को अवलोकते रहते हैं तथा निजात्मा से उत्पन्न अनन्त सुख का अनुभव करते रहते हैं। वे प्रभु कृतकृत्य हो चुके हैं इसलिए उन्हें कुछ भी क्रिया/कार्य करने की आवश्यकता नहीं रहती। वह तो अपने अनन्त गुणों के शुद्ध स्वभाव का ही अनुभव करते रहते हैं।
मंगलाष्टक स्तोत्र में कहा है-
कैलासे वृषभस्य निर्वृतिमही वीरस्य पावापुरे,
चम्पायां वसुपूज्यसज्जिनपते: सम्मेदशैलेऽर्हताम्।
शेषाणामपि चोजर्यन्तशिखरे नेमीश्वरस्यार्हतो,
निर्वाणावनय: प्रसिद्धविभवा: कुर्वन्तु मे मङ्गलम्।।
आदिनाथ- अष्टापद (कैलाश पर्वत), वासुपूज्य- चम्पापुर, नेमीनाथ- गिरनार, महावीर- पावापुर तथा शेष २० तीर्थंकर-सम्मेदशिखर से मुक्त हुए हैं।
प्रथम और अंतिम मोक्षगामी- भगवान आदिनाथ के पुत्र और भरत के भाई ‘अनन्तवीर्य’ इस अवसर्पिणी काल में प्रथम मोक्षगामी हुए तथा अंतिम मोक्षगामी ‘श्रीधर’ स्वामी ने कुण्डलगिरि (कुण्डलपुर, दमोह, म.प्र.) से मोक्ष प्राप्त किया।
१. निर्ग्रन्थ दिगम्बर रत्नत्रयधारी भव्य पुरुष ही मुक्ति के पात्र होते हैं।
२. स्थान (संहरण) की अपेक्षा ढ़ाई द्वीप मात्र से ही मुक्ति होती है।
३. अवसर्पिणी के सुषमा-दुषमा नामक तीसरे काल के अंतिम भाग से लेकर दुषमा-सुषमा नामक चतुर्थ काल के अंत तक उत्पन्न हुए जीव ही मुक्त होते हैं।
४. चतुर्थ काल में उत्पन्न हुआ जीव पंचम काल में मुक्त हो सकता है, किन्तु पंचम काल में जन्मा जीव पंचम काल में मुक्त नहीं हो सकता।
५. लोक के अंत में ४५ लाख योजन (दो हजार कोश वाला महायोजन) (१ कोश २ मील) विस्तीर्ण सिद्ध शिला है। मुक्त जीव उसी के ऊपर तनुवातवलय में ठहर जाता है। मोक्ष में मुक्त जीवों के शिर एक बराबर स्थान पर रहते हैं, नीचे अवगाहनारूप अन्तर रहता है।
१. सांख्यों ने आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक इन तीन प्रकार के दु:खों का सदा के लिए दूर हो जाना मोक्ष माना है, तथापि वे आत्मा को चैतन्य स्वरूप मानते हुए भी उसे ज्ञानरहित मानते हैं। उनकी मान्यता है कि ज्ञान-धर्म प्रकृति का है, तो भी संसर्ग से पुरुष अपने को ज्ञानवान अनुभव करता है और प्रकृति अपने को चेतन अनुभव करती है। इसी से सांख्यों के मोक्ष तत्त्व की आलोचना न करके पुरुष तत्त्व की आलोचना की गई है और उसे असत् बतलाया गया है।
२. वैशेषिकों ने ज्ञानादि विशेष गुणों को समवाय संबंध से यद्यपि आत्मा में स्वीकार किया है तथापि वे आत्मा से उनके उच्छेद हो जाने को उसकी मुक्ति मानते हैं उनके यहाँ बतलाया गया है कि बुद्धि आदि विशेष गुणों की उत्पत्ति आत्मा और मन के संयोगरूप असमवायी कारण से होती है। मोक्ष अवस्था में चूँकि आत्मा और मन का संयोग नहीं रहता, अत: वहाँ विशेष गुणों का सर्वथा अभाव हो जाता है। उनके यहाँ सभी व्यापक द्रव्यों के विशेष गुण क्षणिक माने गये हैं, इसलिए वे मोक्ष में ज्ञानादि विशेष गुणों का अभाव होने में आपत्ति नहीं समझते। अब यदि राग-द्वेषादि की तरह मुक्तावस्था में आत्मा को ज्ञानादि गुणों से भी रहित मान लिया जाये, तो आत्मा स्वतंत्र पदार्थ नहीं ठहरता, क्योंकि जिसका किसी प्रकार का विशेष लक्षण नहीं पाया जाता, तो वह वस्तु ही नहीं हो सकती। यही कारण है कि इनकी मान्यता को भी असत् बतलाया गया है।
३. तीसरा मत बौद्धों का है-बौद्धों के यहाँ सोपधिशेष और निरुपधिशेष ये दो प्रकार के निर्वाण माने गये हैं। सोपधिशेष निर्वाण में केवल अविद्या, तृष्णा आदि रूप आस्रवों का ही नाश होता है, शुद्ध चित्सन्तति शेष रह जाती है। किन्तु निरुपधिशेष निर्वाण में चित्सन्तति भी नष्ट हो जाती है। यहाँ मोक्ष के इस दूसरे भेद को ध्यान में रखकर उसकी मीमांसा की गई है। इस संबंध में बौद्धों का कहना है कि दीपक के बुझा देने पर जिस प्रकार वह ऊपर-नीचे, दायें-बायें, आगे-पीछे कहीं नहीं जाता किन्तु वहीं शात हो जाता है। उसी प्रकार आत्मा की संतान का अन्त हो जाना ही उसका मोक्ष है। इसके बाद आत्मा की संतान नहीं चलती, वह वहीं शांत हो जाती है। बौद्धों के इस तत्त्व की मीमांसा करते हुए जैनाचार्यों ने उनकी इस कल्पना को असत् ही बतलाया है।
कर्मों की निर्जरा समय-समय पर होती रहती है। किन्तु इससे मुक्ति प्राप्त होने वाली नहीं है क्योंकि प्रति समय नये-नये कर्म आत्मा से बंधते रहते हैं। अतः मोक्ष प्राप्त करने हेतु यह आवश्यक है कि निर्जरा के साथ संवर भी हो अर्थात् पूर्व में बंधे कर्मों का क्षय किया जावे और नवीन कर्मों को आने से रोका जावे। जैसे टंकी में आने वाले पानी को यदि रोका नहीं जावे तो कितने ही प्रयास करने पर भी टंकी खाली करना संभव नहीं है। अतः निर्जरा के साथ-साथ संवर भी आवश्यक है।
हेय, उपादेय, ज्ञेय तत्त्व-जो छोड़ने योग्य है वह हेय है, जो ग्रहण किये जाने योग्य है वह उपादेय है और जो जानने योग्य है वह ज्ञेय है। इन सातों तत्वों का ज्ञान होना अपेक्षित है। इनमें से आस्रव व बंध तत्त्व हेय हैं, क्योंकि वे संसार भ्रमण के कारण हैं। संवर व निर्जरा तत्त्व उपादेय हैं, क्योंकि वे संसार से मुक्ति का कारण हैं। जीव व अजीव तत्त्व ज्ञेय हैं और मोक्ष तत्त्व परम उपादेय है।
जो जाना जावे या निश्चित किया जावे, उसे अर्थ या पदार्थ कहते हैं। इस विश्व में जो जानने में आने वाले पदार्थ हैं, वे समस्त द्रव्यमय, गुणमय और पर्यायमय हैं। मोक्ष मार्ग में जानने योग्य ९ पदार्थ हैं-सात तत्त्व (जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा व मोक्ष) और पाप व पुण्य।
पाप-अशुभ कर्मों को पाप कहते हैं। आत्मा को जो पतित करे या शुभ से दूर रखे अर्थात् जिसके उदय से आत्मा को दुःखदायी सामग्री मिले, वह पाप है। जैसे बीमारी होना, पुत्र आदि का मरना, धन चोरी होना आदि। ये सब पाप के उदय से ही समझना चाहिए। कषाय, सप्त व्यसन आदि बुरे कर्म करने से पाप का बन्ध होता है। पाप पांच प्रकार का होता है-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ।
पुण्य-शुभ कर्मों को पुण्य कहते हैं। जो आत्मा को पवित्र अर्थात् सुखी करे, अर्थात् जिसके उदय से जीव को सुखदायक व प्रिय वस्तुएं मिलें, वह पुण्य कहलाता है। जैसे व्यापार में लाभ होना, पुत्र की उच्च पद पर नियुक्ति होना आदि। ये सब पुण्य के उदय से ही समझना चाहिए। जीव दया करना, पूजा-दान आदि धार्मिक क्रियाएं करने से पुण्य का बंध होता है।
पाप व पुण्य दोनों से कर्मों का आस्रव बंध होता है, अत: ये दोनों संसार के कारण हैं। परन्तु जीव को सदा सत्कर्म करने का उपदेश भी दिया गया है जिससे पुण्य का संचय होता है जो परम्परा से मोक्ष का कारण होने से कथंचित् इष्ट है।
पाप से नरक तिर्यंच गति, पुण्य से देवगति, पाप-पुण्य दोनों के मेल से मनुष्य गति तथा दोनों के क्षय से पंचम (मोक्ष) गति प्राप्त होती है।