ववहारस्स दरीसणमुवएसो वण्णिदो जिणवरेहिं।
जीवा एदे सव्वे अज्झवसाणादओ भावा।।४६।। (समयसार)
अर्थ-ये सब अध्यवसान आदि भाव हैं वे जीव हैं ऐसा जो श्री जिनेन्द्रदेव ने उपदेश दिया है वह व्यवहार नय का मत है।
जो राग द्वेष आदि परिणाम हैं ये कर्म के निमित्त से उत्पन्न हुये हैं फिर भी सिद्धांत ग्रंथों में इन परिणामों को भी जीव कहा गया है और वह सर्वज्ञ भगवान का उपदेश है। यहाँ शिष्य का यही प्रश्न है कि इन भावों को ‘कथं जीवत्वेन सूचिता:’ जीवरूप से वैâसे सूचित किया है। समयसार ग्रंथ में उसी का उत्तर श्री अमृतचंद्रसूरि ने दिया है-
ये सब अध्यवसान आदि भाव जीव हैं’ ऐसा जो भगवान सर्वज्ञदेव ने कहा है वह अभूतार्थरूप व्यवहार का मत है क्योंकि व्यवहार व्यवहारी जीवों को परमार्थ का प्रतिपादक है। जैसे म्लेच्छ भाषा म्लेच्छों को वस्तु स्वरूप बतलाती है, उसी तरह यह नय है इसलिये अपरमार्थभूत होने पर भी धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करने के लिये व्यवहारनय का दिखलाना न्यासंगत ही है। परमार्थनय से तो शरीर से जीव का भेद देखा जाता है। व्यवहारनय के बिना यदि मात्र इसी परमार्थनय का एकांत ग्रहण करें तब तो त्रस और स्थावर जीवों का भस्म के समान नि:शंक होकर घात करने से भी हिंसा का दोष नहीं होगा। पुन: हिंसा का पाप नहीं लगने से उस जीव के कर्म का बंध भी नहीं होगा। उसी प्रकार रागी, द्वेषी, मोही जीव कर्म से बंधता है वह छुड़ाने योग्य है ऐसा कहा गया है। परमार्थ से रागद्वेष, मोह से जीव को भिन्न दिखलाने पर मोक्ष के उपाय का उपदेश व्यर्थ हो जावेगा तब मोक्ष का भी अभाव ठहरेगा। इसलिये व्यवहारनय के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है।’
तात्पर्यवृत्तिटीकाकार श्री जयसेनाचार्य भी इस संदर्भ में कहते हैं-
‘यदि अध्यवसान राग-द्वेष आदि परिणाम पुद्गल के स्वभाव हैं तो रागी, द्वेषी, मोही जीव हैं इस तरह सिद्धांत ग्रंथों में इन परिणामों को जीवरूप से वैâसे कहा है ?
इस प्रश्न का उत्तर देते हैं-जिनेन्द्रदेव ने जो इन परिणामों को जीव कहा है वह व्यवहारनय का अभिप्राय है। यद्यपि यह व्यवहारनय बाह्य द्रव्य का अवलंबन लेने से अभूतार्थ है तो भी रागादि बाह्य द्रव्य के अवलंबन से रहित और विशुद्ध ज्ञान दर्शन स्वभावरूप अपने अवलंबन से सहित जो परमार्थ है, उस परमार्थ का प्रतिपादक है। इसलिये इस व्यवहारनय को दिखलाना उचित ही है और जब व्यवहारनय नहीं माना जावेगा तो शुद्ध निश्चयनय से त्रस, स्थावर जीव नहीं हो सकेंगे तो फिर लोग उन जीवों का नि:शंकरूप मर्दन करेंगे। तब पुण्यरूप धर्म का अभाव हो जावेगा यह एक दूषण आयेगा। उसी प्रकार शुद्ध निश्चयनय से जीव पहले से ही राग, द्वेष, मोह से रहित सिद्धरूप रहता है इसलिये मोक्ष की प्राप्ति के लिये अनुष्ठान कोई नहीं करेगा तो पुन: मोक्ष का अभाव हो जावेगा, यह दूसरा दूषण आवेगा। इसलिये व्यवहारनय का व्याख्यान उचित ही है ऐसा अभिप्राय समझना।
तात्पर्य यही है कि शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि में प्रत्येक जीव अनादिकाल से शुद्ध ही है। यह शुद्धनय ही परमार्थनय कहलाता है चूँकि यह नय वस्तु के शुद्ध सहज स्वभाव मात्र को देखता है पर के संबंध से होने वाली विभाव अवस्था इसकी दृष्टि में गौण है चूँकि वह अन्य नय का विषय है अत: यह नय जीव को शरीर, राग, द्वेष, मोह, आदि भाव कर्म, नोकर्म तथा द्रव्यकर्म से पृथव्â ही देखता है। यदि इसी नय को एकांत से ग्रहण कर लिया जावे तो शरीर तथा राग द्वेष आदि पुद्गलमय ठहरेंगे और पुद्गल से घात से हिंसा हो नहीं सकती एवं राग, द्वेष, मोह जीव से पृथव्â होने से उनसे बंध भी नहीं हो सकता। जब बंध नहीं होगा तब उसके छूटने के लिये रत्नत्रय का अनुष्ठान क्यों करना तब तो इस तरह से बंध और मोक्ष की व्यवस्था न बन सकने से संसार और मोक्ष का ही सर्वथा अभाव हो जाएगा।
किन्तु जैन सिद्धांत में ऐसा एकांत वस्तु का स्वरूप नहीं है और अवस्तु का श्रद्धान, ज्ञान, आचरण मिथ्या है-अवस्तुरूप ही है इसलिये व्यवहारनय का उपदेश न्याय प्राप्त है। चूँकि जैनधर्म का प्राण स्याद्वाद उभयनय के अवलंबन को लेने वाला है। इसी हेतु से दोनों नयों का विरोध मिटाकर स्याद्वाद के अवलंबन से वस्तुतत्त्व को समझना, उसरूप श्रद्धान करना ही सम्यक्त्व है। इस गाथा के अभिप्राय को हम गुणस्थानों की अपेक्षा से विचार करें तो चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अव्रती श्रावक इन दोनों नयों से वस्तु तत्त्व का विचार करता है, वह समझता है कि परमार्थनय जीव के शुद्ध स्वभाव को कहता है और व्यवहारनय औपाधिक पौद्गलिक कर्म से संबंधित जीव को भी जीव कहता है, उनके उन भावों और पर्यार्यो को भी जीव कहता है क्योंकि वह बाह्य द्रव्य के संबंध से युक्त वस्तु को ही ग्रहण करता है। दोनों नय अपने-अपने विषय को ग्रहण करते हैं अत: सत्य हैं, असत्य प्रलाप नहीं करते हैं अत: शुद्ध तत्त्व के विचार के समय सामायिक में स्थित होकर आत्मा को शुद्ध, सिद्ध सदृश समझना तथा व्यवहार क्रियाओं की, गृहस्थ संबंधी व्यापार आदि करते समय व्यवहार नय का अवलंबन लेना होता है।
पंचमगुणस्थानवर्ती देशव्रती श्रावक भी श्रद्धा में शुद्धनय-निश्चयनय का अवलंबन लेता है किन्तु शुद्धात्मतत्व के अवलंबनरूप अवस्था को प्राप्त करने की भावना रखते हुए भी अपने श्रावकोचित षट् आवश्यक क्रियाओं को उपादेय मानकर ही करता है न कि हेय मानकर। उसके लिए हेय तो पंचेन्द्रिय के विषय हैं किन्तु उनको छोड़ नहीं पा रहा है। ये देवपूजा, गुरु उपासना आदि क्रियायें तो परम्परा से मोक्ष के लिए साधक हैं जैसे कि जैनागम का स्वाध्याय मोक्ष के लिए साधक है, वह स्वाध्याय भी तो एक आवश्यक क्रिया है तथा संयम और तप भी श्रावक के षट् आवश्यक में आ जाते हैं। यथा-
देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये श्रावक के षट्कर्म हैं।
इसी प्रकार मुनि भी जब छठे गुणस्थान में हैं तब वे अपनी सामायिक, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन क्रियाओं में तत्पर रहते हैं और सतत शुद्धोपयोग की भावना करते रहते हैं। सरागी मुनियों की चर्चा, संघ संचालन, शिष्यों का संग्रह, उन पर अनुग्रह और जिनेन्द्र पूजा का उपदेश, आहार-विहार आदि क्रियायें भी करते हैं, क्योंकि वे अधिक समय ध्यान में स्थिर हो नहीं पाते हैं।१
आज के युग में उत्तम संहनन का अभाव होने से शुक्लध्यान, एकाकी विचरण, गिरि गुफा आदि में निवास इत्यादि उनके लिए संभव नहीं हैं। ये सब बातें जिनकल्पी मुनि में ही हो सकती हैं।
जब तक मुनि सविकल्प अवस्था में हैं उनके लिए दोनों नय समानरूप से उपादेय हैं। आगे निर्विकल्प अवस्था में नयों का विकल्प ही नहीं रहता है किन्तु शुद्धनय की दशा स्वरूप शुद्धतत्व का ही मात्र अवलंबन रह जाता हैै। वह निर्विकल्प अवस्था सातवें गुणस्थान से प्रारंभ होकर बारहवें तक पहुँचती है। आज के युग में सातवें गुणस्थान से आगे के गुणस्थान असंभव हैं क्योंकि उत्तम संहनन नहीं है।
अत: जब व्यवहार नय के अवलंबन के बिना धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति व मोक्षमार्ग का अनुष्ठान असंभव है तब हम व्यवहारनय को हेय मानकर उनका निषेध वैâसे कर सकते हैं ? हमें यदि सम्यग्दृष्टि बने रहना है तो दोनों नयों का अवलंबन लेकर ही चलना चाहिये। अपनी प्रवृत्ति आचार ग्रंथ के अनुकूल बनाने में व्यवहार ही कार्यकारी है और अपनी भावना उज्ज्वल रखने के लिये, चिन्ताओं को शमन करने के लिए निश्चयनय से वस्तुतत्त्व को समझना भी नितांत आवश्यक है तथा निश्चयनय की अवस्था की प्राप्ति करने के लिए व्यवहारनय के आश्रित प्रवृत्ति-सम्यव्â चारित्र ही कारण है, यह बात निर्विवाद सिद्ध हो जाती है।
हाँ, जड़ कर्म भी चेतना का बिगाड़ कर सकता है और कर ही रहा है जभी तो आप संसारी हैं अन्यथा सिद्धशिला पर जाकर विराजमान हो जाते, अपने अनंतज्ञान से सारे विश्व को एक समय में देख लेते, अपनी अनंतशक्ति के द्वारा अनंत पदार्थों को एवं उनकी अनंत भूत भावी पर्यायों को एक समय में जानते हुए भी श्रांत नहीं होते किन्तु आज आप दो चार घण्टे लगातार कुछ श्रम कर लेने से थक जाते हैं और इंद्रिय ज्ञान से किंचित् मात्र वस्तुओं को ही जान पाते हैं अत: स्पष्ट है कि आपकी चेतन स्वरूप आत्मा पर जड़ कर्मों ने अपना पूरा प्रभाव डाल रखा है और यदि आप अपने को जड़ कर्मों से अधिक बलशाली समझते हैं, अपने स्वरूप का, अपनी शक्ति का गौरव करते हैं तो फिर अति शीघ्र ही चारित्र के पुरुषार्थ द्वारा इन जड़ कर्मों को अपने से पृथव्â कीजिये और अपने अनंत गुणों का आनंद लीजिये।
फिर भी विश्वास कीजिये कि जड़ कर्म ही आपके गुणों की दुर्दशा कर रहे हैं। भगवान् श्री कुंदकुंददेव इसी बात को समयसार ग्रंथ में स्पष्ट कर रहे हैं-
वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो।
मिच्छत्तमलोच्छण्णं तह सम्मत्तं खु णायव्वं।।१६४।।
वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो।
अण्णाणमलोच्छण्णं तह णाणं होदि णायव्वं।।१६५।।
वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो।
कसायमलोच्छण्णं तह चारित्तं पि णादव्वं।।१६६।।
जैसे वस्त्र का श्वेतपना मैल के सम्बंध से नष्ट हो जाता है वैसे ही संसारी आत्मा का सम्यक्त्व गुण मिथ्यात्वरूपी मैल से अवश्य ही नष्ट हो जाता है। जैसे वस्त्र का श्वेतपना मैल के संसर्ग से नष्ट हो जाता है वैसे ही संसारी आत्मा का ज्ञानगुण अज्ञानरूपी मैल के निमित्त से नष्ट हो जाता है। जैसे वस्त्र की सफेदी मैल के संबंध से नष्ट हो जाती है वैसे ही आत्मा का चारित्र गुण कषायरूपी मैल से अवश्य ही नष्ट हो जाता है ऐसा समझना चाहिए।
जब आत्मा के गुणों को ये कर्म नष्ट कर रहे हैं या आच्छादित कर रहे हैं, तो आत्मा की क्या स्थिति हो रही है, सो ही देखिये-
सो सव्वणाणदरसी कम्मरयेण णियेणवच्छण्णो।
संसार समावण्णो ण विजाणदि सव्वदो सव्वं।।१६७।।
यह आत्मा स्वभाव से सर्व चराचर को जानने वाला और देखने वाला है फिर भी वह अपने कर्मरूपी रज से आच्छादित है अत: संसार अवस्था को प्राप्त हो रहा है, यही कारण है कि वह सर्व प्रकार से सम्पूर्ण वस्तुओं को नहीं जान रहा है।
यदि कोई ऐसा कहे कि जीव के जो सम्यक्त्व आदि गुण हैं उन्हें ही तो मिथ्यात्व आदि कर्म आच्छादित करते हैं किन्तु आत्मा तो त्रैकालिक शुद्ध ध्रुव है। सो ऐसी मान्यता भी गलत है, वास्तव में आत्मा भी इन गुणों का आधार होने से गुणों के दूषित हो जाने से स्वयं दूषित हो रहा है, सो ही देखिये-ये हैं समयसार ग्रंथराज के वाक्य सूत्र-
सम्मत्तपडिणिबद्धं मिच्छत्तं जिणवरेहि परिकहियं।
तस्सोदयेण जीवो मिच्छादिट्ठित्ति णायव्वो।।१६८।।
णाणस्स पडिणिबद्धं अण्णाणं जिणवरेहि परिकहियं।
तस्सोदयेण जीवो अण्णाणी होदि णायव्वो।।१६९।।
चारित्तपडिणिबद्धं कसायं जिणवरेहि परिकहियं।
तस्सोदयेण जीवो अचरित्तो होदि णायव्वो।।१७०।।
आत्मा के सम्यक्त्व गुण को रोकने वाला मिथ्यात्व कर्म है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है, उस मिथ्यात्व कर्म के उदय से यह जीव मिथ्यादृष्टी हो जाता है आत्मा के ज्ञान गुण का प्रतिबंधक अज्ञान है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है, उसके उदय से यह जीव अज्ञानी हो रहा है। आत्मा के चारित्र गुण का प्रतिबंधक कषाय भाव है ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है और उसके उदय से ही यह जीव अचारित्री अर्थात् असंयमी हो रहा है।
जो लोग कहते हैं कि निमित्त कुछ भी नहीं करता, उन एकांतवादियों को लक्ष्य में लेकर ही आचार्य कुन्दकुन्द देव कह रहे हैं कि सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र ये तीनों आत्मा के सहज भाव मिथ्यात्व, अज्ञान और कषायरूप कर्ममलों से क्रम से दबे हुए हैं। दबे हुए का अर्थ जैसा हम लोग कपड़े आदि को पत्थर आदि के नीचे दबा देते हैं वैसा नहीं है किन्तु वर्तमान में संसारी आत्मा में सम्यक्त्व आदि गुण हैं ही नहीं अपितु मिथ्यात्व आदिक ही हैं। हाँ, उन मिथ्यात्व आदि को दूर कर देने पर सम्यक्त्व आदि गुण प्रकट हो जाते हैं। जिस प्रकार कपड़े की स्वच्छता कपड़े में आये हुए मैल से नष्ट हो जाती है किन्तु उस मैल के हटा देने पर स्वच्छता आ जाती है। यहाँ यह कपड़े के मैल का उदाहरण भी सर्वथा लागू नहीं है अर्थात् पहले कपड़ा स्वच्छ था पुन: मैला हुआ, पुन: मैल धोकर स्वच्छ कर लिया गया ऐसे ही आत्मा पहले स्वच्छ हो पुन: कर्म का मैल उस पर आ जावे, अनंतर मैल को साफ कर देने पर वह स्वच्छ हो जावे ऐसा नहीं है प्रत्युत आत्मा के साथ तो कर्म मैल का संबंध अनादिकाल से ही लगा हुआ है और एक बार कर्म मैल को धो डालने के बाद वह आत्मा सदा-सदा के लिये ही स्वच्छ, पवित्र, शुद्ध, निरंजन हो जाती है पुन: कर्म का संबंध उसके साथ हो ही नहीं सकता है, ऐसा समझना।
सारांश यही है कि निमित्तजन्य विशेषता को लक्ष्य में रखना ही चाहिये किन्तु उसी के भरोसे रहकर हतोत्साह नहीं होना चाहिए। और करना क्या चाहिए सो ही अमृतचंद्रसूरि अपने कलश काव्य में कहते हैं-
‘मोक्ष के चाहने वाले को ये समस्त कर्म ही त्यागने योग्य हैं। इस तरह इन समस्त ही कर्मों को छोड़ने से तो पुण्य और पाप की बात ही क्या रह जाती है ? अर्थात् समस्त कर्म में तो पुण्य और पाप दोनों आ ही जाते हैं। इस प्रकार संपूर्ण कर्मों का त्याग हो जाने पर जो ज्ञान है वह अपने सम्यक्त्व आदि अपने स्वभावरूप होने से मोक्ष का कारण हुआ कर्म रहित अवस्था से जिसका रस उद्धृत प्रगट हो रहा है ऐसा होता हुआ स्वयं ही दौड़ आता है अर्थात् संपूर्ण कर्मों को दूर करके ज्ञान स्वयं ही मोक्ष का कारण होकर प्रगट हो जाता है।
पुनरपि आचार्यदेव एकांत दुराग्रह का त्याग कराने हेतु कहते हैं-
मग्ना: कर्मनयावलंबनपरा ज्ञानं न जानंति ये।
मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छंदमंदोद्यमा:।।
विश्वस्योपरि ते तरंति सततं ज्ञानं भवंत: स्वयं।
ये कुर्वंति न कर्म जातु न वशं यांति प्रमादस्य च।।१११।।
अर्थ-जो एकांत से कर्मनय का ही अवलंबन लेने वाले हैं और ज्ञान को जानते ही नहीं हैं वे भी डूब जाते हैं और जो क्रियाकाण्ड को छोड़कर अति स्वच्छंद ही पुरुषार्थ में मंद उद्यम-प्रमाद करने वाले हैं वे ज्ञाननय के इच्छुक होते हुये भी डूब जाते हैं किन्तु जो आप निरंतर ज्ञानरूप होते हुये कर्म को तो करते नहीं तथा प्रमाद के वश में भी नहीं होते हैं वे सर्व विश्व के ऊपर तैरते हैं।।१११।।
अभिप्राय यही है कि जो परमार्थभूत ज्ञानस्वरूप अपनी आत्मा को तो जानते नहीं हैं और व्यवहाररूप दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप क्रियाओें में ही लगे रहते हैं वे कर्मनय के पक्षपाती हैं। वे एकांती होने से इस संसार समुद्र में ही डूबे रहते हैं तथा जो आत्मस्वरूप को तो ठीक से समझते नही हैं किन्तु किंचित् मात्र ज्ञान लव को पाकर आत्मा को शुद्ध-बुद्ध मानकर क्रियाकाण्ड को छोड़ बैठते हैं, स्वेच्छाचार प्रवृत्ति करते हैं वे भी इस संसार समुद्र में ही डूबे रहते हैं इसलिये एकांत पक्ष का अभिप्राय छोड़कर निरंतर ज्ञानरूप आत्मतत्त्व की भावना करते हुये जब तक आत्मस्वरूप में स्थिर न हुआ जाय तब तक अशुभ कर्म को छोड़कर शुभ कर्म में प्रवृत्ति करना चाहिये और पुन: निर्विकल्प अवस्था का अवलंबन लेकर कर्मों का नाश करके सर्व लोक के ऊपर स्थित हो जाना चाहिये।
आज के युग में निर्विकल्प ध्यान की भावना करते हुये भी अनुष्ठान में ही मुनियों को लगे रहना श्रेयस्कर है एवं श्रावक के लिये तो सिवाय शुभ अनुष्ठान के और कोई चारा ही नहीं है।
मोह को नाश करने के लिए कारणभूत जिनेन्द्रदेव का उपदेश है, उस उपदेश को अर्थात् जिनेन्द्रदेव की वाणी को प्राप्त करके भी पुरुषार्थ ही अर्थ क्रियाकारी है। बिना पुरुषार्थ के मोह का नाश नहीं किया जा सकता है-
जो मोहरागदोसे णिहणदि उवलब्भ जोण्हमुवदेसं।
सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण।।८८।। (प्रवचनसार)
अर्थ-जो जिनेन्द्रदेव के उपदेश को प्राप्त करके मोह, राग द्वेष का हनन करता है वह अल्प काल में सर्व दु:खों से छुटकारा पा लेता है।
श्री अमृतचंद्र सूरि कहते हैं-वास्तव में इस दीर्घ संसार में जैसे तैसे बहुत ही मुश्किल से श्री जिनेश्वर का उपदेश मिलता है जो कि तीक्ष्ण तलवार की धार के समान है, जो महापुरुष इस उपदेशरूपी तीक्ष्ण तलवार से मोह, राग और द्वेषरूपी अपने अंतरंग शत्रुओं का सफाया कर देते हैं वे ही जीव संसार के दु:खों से छूट जाते हैं। चूँकि हाथ में तलवार रहते हुये उसका फल यही है कि शत्रु पर प्रहार करना। यदि हाथ में तलवार रहते हुये भी कोई अपने शत्रु का वार सहता रहे और उसका सामना न कर सके या उसे न मार सके तो उसके हाथ में रखी हुई तलवार का क्या उपयोग हुआ ?
आचार्य कहते हैं कि ‘अतएव सर्वारंभेण मोहक्षपणाय पुरुषार्थे निषीदामि।’ इसलिये संपूर्ण प्रयत्नपूर्वक मोक्ष का क्षपण करने के लिये पुरुषार्थ में सन्नद्ध होता हूँ।
इसी गाथा की टीका करते हुए श्री जयसेनाचार्य कहते हैं-
यह जिनेन्द्रदेव का उपदेश इस संसार में अत्यंत दुर्लभ है। एकेन्द्रिय से दो इंद्रिय पर्याय पाना दुर्लभ है, दो इंद्रिय से तीन इंद्रिय पर्याय को प्राप्त करना दुर्लभ है और तीन इंद्रिय से चार इंद्रिय होना दुर्लभ है, पुन: पंचेन्द्रिय होना अत्यंत दुर्लभ है। पंचेन्द्रिय पर्याय में भी मनुष्य पर्याय पाना तो बहुत ही कठिन है, मनुष्य पर्याय पाकर भी जिनेन्द्रदेव का उपदेश प्राप्त करना तो अत्यंत ही दुर्लभ है, जैसे-तैसे बड़ी कठिनता से परम्परा से दुर्लभ ऐसे जिन उपदेश को प्राप्त करके भी जो भव्य जीव निज शुद्धात्मा की निश्चल अनुभूति लक्षण निश्चय सम्यग्दर्शन और निश्चय सम्यग्ज्ञान इन दोनों के साथ अविनाभूत संबंध रखने वाले ऐसे वीतराग चारित्र नामक पैने खड्ग को पा लेता है और वह तीक्ष्ण खड्ग से मोह, रागद्वेष शत्रुओं का नाश कर देता है। वही जीव अपने सम्पूर्ण दु:खों का क्षय कर देता है।
इस गाथा में भगवान कुंदकुंददेव शिष्योें को चरित्ररूप पुरुषार्थ करने की प्ररेणा दे रहे हैं। टीकाकारों ने इसी भाव को स्पष्ट किया हुआ है। श्री अमृतचंद्रसूरि ने जिनदेव की वाणी को ही पैनी तलवार की धार बताया है और मोहादि शत्रुओं के ऊपर उस शस्त्र का प्रहार करना ही चारित्र है अत: चारित्र को पालन करने की प्रेरणा दी है और स्वयं भी कहा है कि मैं मोह का क्षपण करने के लिए सर्वप्रयत्न से पुरुषार्थ में लगता हूँ।
श्री जयसेन स्वामी ने वीतराग चारित्र को पैनी तलवार बताया है चूूँकि साक्षात् रूप में उसी से मोह, राग, द्वेष का निर्मूल नाश होता है। अब सोचना यह है कि जब तक हमें वीतराग चारित्र की प्राप्ति न हो तब तक क्या करना चाहिये? तब तक सराग चारित्र में प्रवृत्ति करनी चाहिये क्योंकि वह सराग चारित्र ही वीतराग चारित्र को प्राप्त कराने वाला है।
‘‘सराग चारित्र क्या है ?’’
अट्ठाईस मूलगुणरूप चारित्र जिसका कि मुनिजन पालन करते हैं वही सराग चारित्र है।’’
‘‘यदि हम सराग चारित्र भी ग्रहण न कर सकें तो क्या करना चाहिये ?
तो सराग चारित्र धारण करने की भावना भाते हुए एकदेशरूप पाँच अणुव्रतों को अवश्य ही ग्रहण करना चाहिये क्योंकि मुनि तो शुद्धोपयोग में स्थित होने की भावना करते हैं और श्रावक मुुनि बनने की भावना करते हैं किन्तु अणुव्रत तो ग्रहण अवश्य ही करते हैं और वे ही श्रावक कहलाने के अधिकारी होते हैं।
‘‘मुनियों के मूलगुण तो बंध के ही कारण हैं अत: उनकी भावना कैसे करना ? क्योंकि यह व्यवहार चारित्र भी हेय ही है।
इन मूलगुणों से कर्मों की निर्जरा भी होती है तथा मूलगुणों को धारण किये बिना, इस सराग चारित्र का आश्रय लिये बिना आज तक किसी ने भी वीतराग चारित्र को प्राप्त नहीं किया है अत: यह व्यवहार चारित्र सर्वथा हेय नहीं है अन्यथा तीर्थंकर भगवान स्वयं इस सराग चारित्र को क्यों ग्रहण करते और इस भेद रत्नत्रय को पालन करने का उपदेश भी क्यों देते ? अत: जो चारित्र तीर्थंकरों के द्वारा उपदिष्ट है वह हेय नहीं कहा जा सकता है। हाँ, इतना अवश्य है कि वीतराग चारित्र की अपेक्षा सराग चारित्र हेय है किन्तु वीतराग चारित्र को प्राप्त करने का यही मार्ग होने से यह उपादेय भी है।
जो अन्त में छोड़ने योग्य है ऐसा व्यवहार चारित्र क्यों ग्रहण करना ? वास्तव में तो मोक्ष की भावना करना ही सर्वोत्तम है।
भाई! भावना तो आप भगवान बनने की ही करिये किन्तु यहां पर शरीर के साथ रहते हुये कम से कम इंसान तो बने रहिये और यह व्यवहार चारित्र ही आपको इंसान बनाता है अन्यथा आप क्या करेंगे ? व्यवहार चारित्र को अर्थात् पाँच अणुव्रत और पाँच महाव्रतों को हेय समझकर क्या पाँच पापों का सेवन करते रहेंगे ? आखिर करेंगे क्या ? व्रत नहीं तो अव्रतरूप ही तो प्रवृत्ति होगी।’’
अत: सम्यग्दृष्टि बनकर मोक्ष की प्राप्ति का ध्येय रखना चाहिए किन्तु यदि श्रावक हैं तो मुनि होने की भावना भानी चाहिए और मुनि हैं तो शुद्धोपयोग को प्राप्त करने की सतत भावना रहनी चाहिये। यह भावना दोषास्पद नहीं प्रत्युत कर्म निर्जरा के लिये भी कारणभूत सामग्री की उपेक्षा करने से और मात्र मोक्ष को प्राप्त करने की भावना करते रहने से मोक्ष की प्राप्ति असंभव ही है।