मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृतां। ज्ञानातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तदुगुणलब्धये।।१।।
सर्व:प्रेप्सति सत्सुखाप्तिमचिरात्, सा सर्वकर्मक्षयात्।’’ संसार में सभी प्राणी सच्चे सुख की प्राप्ति शीघ्र ही चाहते हैं अर्थात् ऐसे सुख को प्राप्त करना चाहते हैं कि जिसका कभी भी विनाश नहीं हो सके अथवा जिस सुख के बाद कभी भी दु:ख का लेश न होवे ऐसा सुख संपूर्ण कर्मों के क्षय से ही प्राप्त हो सकता है। ‘‘कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्ष:’’ सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाना ही मोक्ष है। संसार में जितने भी अस्तिक्यवादी हैं, प्राय: वे सभी लोग मोक्ष में संपूर्ण दु:खों की निवृत्ति हो जाना अथवा संपूर्ण कर्मों का अभाव होना स्वीकार कर लेते हैं फिर भी सभी मतावलम्बियों के द्वारा मान्य मोक्ष का स्वरूप जैन सिद्धांंत से बाधित हो जाता है क्योंकि प्राय: मोक्ष में ज्ञान और सुख का अस्त्वि मानने को कोई भी तैयार नहीं है। जब मोक्ष में ज्ञान और सुख ही नहीं रहेंगे तब मोक्ष को प्राप्त करने से लाभ ही क्या होगा ? उदाहरण के लिये देखिये—
सांख्य का कहना है कि ‘‘गुणपुरुषांतरोपलब्धीं प्रतिस्वप्नलुप्तविवेकज्ञानवत् अनभिव्यक्तचैतन्य स्वरूपावस्था मोक्ष:’’ प्रकृति और पुरुष का भेदविज्ञान हो जाने पर निद्रावस्था में विवेकशून्य चैतन्य के समान शुद्ध चैतन्य मात्र स्वरूप में आत्मा का अवस्थान हो जाना ही मोक्ष है। सांख्य की मान्यता है कि—संसार में प्रकृति और पुरुष नाम से मुख्य दो तत्त्व है। प्रकृति अर्थात् प्रधान जड़स्वरूप है एवं पुरुष—आत्मा चैतन्य स्वरूप है यहाँ तक तो ठीक है, किन्तु इनकी एक विचित्र मान्यता है कि ज्ञान पुरुष का स्वरूप न होकर प्रधान का धर्म है और वह अचेतन है, तथैव सुख दु:ख आदि भी अचेतन हैं, प्रधान के धर्म हैं। संसारावस्था में पुरुष के साथ प्रधान का संबंध होने से ये ज्ञान और सुख भी पुरुष में संर्सिगत हो गये हैं और ये चेतन के समान दिखने लगे हैं किन्तु मूल में ये अचेतन हैं अत: पुरुष से प्रधान का संसर्ग छूटने के बाद आत्मा को मोक्ष होते ही आत्मा में ज्ञान और सुख का अभाव हो जाता है। यह आत्मा मात्र अपने चैतन्य स्वरूप में विलीन हो जाती है। सांख्य ज्ञानादि को अचेतन सिद्ध करने के लिये आगम के साथ ही अनुमान का प्रयोग भी दिखता है। यथा— ‘‘ये ज्ञान सुख आदि धर्म प्रधान के स्वभाव होने से अचेतन हैं, क्योंकि उत्पत्तिमान् हैं अर्थात् उत्पन्न होते हुये देखे जाते हैं अत: इसी हेतु से ये अनित्य भी हैं जैसे घटादि पदार्थ उत्पन्न होते हैं अत: वे प्रधान के विकार है और अनित्य हैं। आत्मा तो कूटस्थ नित्य है उसका धर्म या स्वभाव अनित्य कैसे हो सकता है। अतएव ये सुखादि अचेतन ही है इत्यादि’’ एवं इन सांख्यों की एक विचित्र मान्यता और है कि संसार और मोक्ष प्रकृति को ही होता है और तो क्या उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि प्रकृति प्रधान ही सर्वज्ञ बनता है न कि आत्मा। एवं प्रकृति ही सारे जगत की कत्र्री करने वाली है इत्यादि। इस प्रकार से सांख्य के द्वारा मान्य मोक्ष तत्त्व का जैनाचार्यों ने बड़े ही सुन्दर ढंग से खंडन कर दिया है। जैनाचार्यों का कहना है कि—हमारे यहाँ अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य स्वरूप चैतन्य विशेष में आत्मा का अवस्थान होना अर्थात् अनंत चतुष्ट्यादि गुणों को प्राप्त कर लेना ही मोक्ष माना गया है। ये ज्ञान और सुखादि आत्मा के स्वभाव हैं न कि प्रधान स्वरूप जड़ के। हम स्याद्वादियों के यहाँ सामान्य रूप से—द्रव्यदृष्टि से या निश्चय नय की अपेक्षा से ज्ञान और सुख उत्पत्तिमान् नहीं हैं प्रत्युत अनादि निधन आत्मा से अभिन्न होने से अनादि निधन आत्म स्वरूप ही है क्योंकि इन ज्ञान और सुखादि गुणों के बिना आत्मा का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकता है। पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से विशेष श्रुतज्ञान, केवलज्ञानादि रूप से एवं इन्द्रिय जन्य सुख अतीन्द्रिजन्य सुखादि की अपेक्षा से ये ज्ञान और सुख उत्पत्तिमान् भी हैं किन्तु इतने मात्र से ही ये आत्मा से भिन्न नहीं माने जा सकते हैं क्योंकि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष रूप मानस मतिज्ञान से भी ये चेतन रूप प्रसिद्ध ही हैं हमारे यहाँ आत्मा को भी कथंचित् उत्पत्तिमान् मान लिया गया है। देखो ! संसार अवस्था में नर नारकादि रूप पर्यायों से आत्मा का उत्पाद व्यय देखा भी जाता है जो कि स्वसंवेदन से सिद्ध है। इसलिये आत्मा ही सर्वज्ञ होता है आत्मा ही संसारावस्था में कर्मों का कर्ता है, एवं उसके फल स्वरूप सुख दु:ख का भोक्ता है, तथा आत्मा ही कर्मों का नाश करके मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है और वहाँ पर अनंतज्ञान, अनंतसुखादिकों का भोक्ता अनंत सुखी बन जाता है। आत्मा और प्रधान का भेदविज्ञान होने मात्र से भी मोक्ष की प्राप्ति जैन सिद्धान्त में नहीं मानी गई है। अन्यथा भेदविज्ञान या पूर्णज्ञान होते ही मोक्ष हो जाने से संसारावस्था में उस सर्वज्ञ का अवस्थान न होने से मोक्षमार्ग का उपदेश आदि घटित नहीं हो सकेगा अत: सर्वज्ञ होने के बाद भी कुछ अवशेष कर्म रह जाते हैं। जिनका नाश करने के लिये ध्यान स्वरूप चारित्र ही समर्थ है अत: ‘‘सम्यग्दर्शनज्ञान—चारित्राणि मोक्षमार्ग:’’ सूत्र के अनुसार मात्र ज्ञान से ही मोक्ष न होकर सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्र की पूर्णता से ही मोक्ष की प्राप्ति मानी गई है और यही मान्यता श्रेयस्कर है।
वैशेषिक कहता है कि ‘‘बुद्धिसुखदु:खेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्म संस्कारनवात्मगुणात्यंतच्छेदो मोक्ष: इति’’
अर्थात् बुद्धि—ज्ञान, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार आत्मा के इन नौ गुणों का अत्यन्त अभाव हो जाना ही मोक्ष है। ये बुद्धि आदि विशेष गुण आत्मा के स्वभाव नहीं है किन्तु आत्मा से अत्यन्त भिन्न हैं क्योंकि इनमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पाया जाता है’’ मुक्ति में धर्म, अधर्म का तो सर्वथा अभाव है ही है अन्यथा मुक्ति ही नहीं हो सकेगी तथा उनके फलस्वरूप सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष प्रयत्न, ज्ञानादि का भी सर्वथा अभाव हो जाता है। अर्थात् वैशेषिक के यहाँ द्रव्य से गुण सर्वथा भिन्न रूप है उनका समवाय सम्बन्ध से ही सम्बन्ध होता है। जैसे—आत्मा से ज्ञान गुण सर्वथा भिन्न है उस ज्ञान गुण का समवाय सम्बन्ध से आत्मा में सम्बन्ध होता है। तथैव अग्नि से उष्णता गुण भी सर्वथा भिन्न है एवं समवाय से ही अग्नि में उष्ण गुण आता है। इसीलिये ईश्वर में भी समवाय सम्बन्ध से ही ज्ञान गुण पाया जाता है किन्तु एक सदाशिव स्वरूप परमेश्वर को छोड़कर अन्य सामान्य मुक्तात्माओं में ज्ञानादि गुणों का सर्वथा उच्छेद ही हो जाता है। वैशेषिक की इस मान्यता पर जैनाचार्यों का कहना है कि भाई! इन ज्ञानादि गुणों को आत्मा से सर्वथा भिन्न मानना उचित नहीं है। हाँ! पुण्य औ पापादि के निमित्त से होने वाले जो सांसारिक इन्द्रियजन्य सुख और दु:ख हैं उनका तो मुक्ति में अभाव हो जाता है क्योंकि साता असाता वेदनीय का अभाव हो जाने पर इन्द्रियजन्य सुख दु:खों का अभाव हो चुका है किन्तु आत्मा से ही उत्पन्न अतीन्द्रिय सुख का मुक्त जीवों में अभाव नहीं है प्रत्युत अनन्त अव्याबाध शाश्वत सुख वहाँ मौजूद है। तथैव ज्ञानावरण के क्षयोपशम विशेष से होने वाले क्षायोपशमिक मति, श्रुति आदि ज्ञान मुक्ति में नहीं पाये जाते हैं फिर भी ज्ञानावरण कर्म के पूर्णतया क्षय हो जाने से सिद्धों के पूर्ण केवलज्ञान पाया जाता है जो कि एक समय में भूत भविष्यत् और वर्तमान रूप त्रिकालवर्ती सम्पूर्ण द्रव्य गुण और उनकी अखिल पर्यायों को प्रकाशित कर देता है। फिर ऐसा कौन सा विद्वान दुनियाँ में है जो कि अपने ज्ञान एवं सुखों का नाश करना नहीं चाहता है। अतएव मुक्ति में इन विशेष गुणों का सर्वथा अभाव नही है पूर्ण ज्ञान एवं पूर्ण सुख वहाँ विद्यमान है। हाँ ! बाकी के बचे हुये दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार इन गुणों का तो अभाव अवश्य ही हो जाता है क्योंकि ये कर्मोदय जन्य हैं। वैशेषिक की जो मान्यता है कि ये गुण आत्मा से अत्यन्त भिन्न हैं। क्योंकि इनमें उत्पाद, व्यय और धोव्य पाया जाता है किन्तु यह हेतु भी ठीक नहीं है क्योंकि जैनसिद्धान्तानुसार तो सभी द्रव्यों में उत्पाद, व्यय, ध्रीव्य होता है। यथा ‘‘सद्द्रव्यलक्षणं’’ इस सूत्र के अनुसार द्रव्य का लक्षण सत् है एव सत् का लक्षण ‘‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्’’ उत्पाद, व्यय एवं ध्रोव्य रूप त्रिलक्षण के बिना तो कोई भी वस्तु तत्त्व सत् रूप सिद्ध नहीं हो सकता है। अत: इस हेतु से इन गुणों को आत्मा से भिन्न सिद्ध नहीं कर सकते हैं। दूसरी बात यह है कि ‘‘गुणपर्ययवद्द्रव्य’’ इस लक्षण के अनुसार तो गुण और पर्यायों के समूह का नाम ही द्रव्य है पुन: गुणों को छोड़कर द्रव्य का अस्तितत्व ही क्या रहेगा ? क्या उष्ण गुण के बिना अग्नि का अस्तित्व सिद्ध हो सकता है ? अर्थात् यह प्रश्न सहज ही हो जाता है कि अग्नि में उष्ण गुण के समवाय के पहले अग्नि उष्ण है या अनुष्ण (ठण्डी) ? यदि उष्ण है तो उष्ण गुण के समवाय ने क्या किया, वह अग्नि तो स्वयं ही उष्ण है। यदि कहो कि उष्ण गुण के सम्बन्ध के पहले अग्नि अनुष्ण है, तब तो उष्ण गुण जैसे अनुष्ण अग्नि को उष्ण करता है वैसे ही पत्थर, चौकी, जल, आकाश आदि अनुष्ण वस्तुओं को भी क्यों न उष्ण करके अग्नि बना देवे किन्तु ऐसा तो देखा नहीं जाता है। दूसरी बात यह है भी है कि उष्ण गुण के समवाय के पहले न अग्नि का ही अस्तित्व सिद्ध है और न उष्ण गुण का ही अस्तित्व दिखता है। जब ये दोनों ही अग्नि और उष्ण गुण पृथक्—पृथक् उपलब्ध होवें, तब तो इनका समवाय सम्बन्ध मानना भी उचित है। यदि आप कहें कि अयुत सिद्ध में ही समवाय होता है तब तो भैया ! आप इस समवाय सम्बन्ध को कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध ही कह दीजिये। बस! झगड़ा समाप्त हो जावेगा। इसी प्रकार से आत्मा में भी ज्ञान गुण भिन्न मानने पर उपर्युक्त दोष आ जाते हैं अतएव आत्मा का ज्ञान और सुखादि गुणों के साथ तादात्म्य सम्बन्ध है ऐसी मान्यता ही चतुष्टय सिद्धों में पाये जाते हैं। तत्त्वार्थसूत्र महाशास्त्र में बताये गये ‘‘औपशमिक क्षायिको भावो मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्वमौदयिकपारिणामिकौ च’’ इस सूत्र के अनुसार जीव के स्व ५ माने गये हैं जिनके उत्तर भेद ५३ हो जाते हैं। यथा—औपशमिक के २, क्षायिक के ९, क्षायोपशमिक के १८ और औदयिक भाव के २१ एवं पारिणामिक भाव का एक जीवत्वभाव, ऐसे १० भाव पाये जाते हैं। यह जीवत्व भाव तो स्वाभाविक चेतना लक्षण जीवत्व की अपेक्षा से है। एवं ९ क्षायिक भाव कर्मों के क्षय से प्रगट हुये है बाकी के औपशमिकादि भावों के ४३ भेद रूप भावों का अभाव हो जाता है। वैशेषिक सिद्धान्त में जो एक सदाशिव रूप महेश्वर माना गया है वह तो सर्वथा ही अघटित रूप है। सभी सिद्ध जीव संसार पूर्वक ही मुक्त हुये हैं अत: सभी सिद्ध परमेष्ठी सादि अनन्त कहे जाते हैं कोई भी ऐसा महापुरुष नहीं है जो अनादि काल से स्वयं सिद्ध शुद्ध एवं मुक्त स्वरूप होवे किन्तु सभी जीव रत्नत्रय स्वरूप पुरुषार्थ के द्वारा कर्मों का नाश करके ही मोक्ष पद प्राप्त करते हैं। वैशेषिक ने तो इस महेश्वर को सृष्टि का कर्ता भी मान लिया है इस ईश्वर सृष्टि कर्तृव्य का खण्डन भी आप्तपरीक्षा, श्लोकर्वाितक आदि न्याय ग्रंथों में यथोचित बड़े सुन्दर ढंग से किया गया है अत: वैशेषिक की कल्पनानुसार विशेषगुणों का विनाश हो जाना ही मुक्ति है यह कल्पना कल्पित ही सिद्ध हो जाती है।
वेदान्ती—ब्रह्माद्वैतवादियों के यहाँ मुक्त जीव के अनन्त सुख संवेदनरूप ज्ञान तो माना गया है किन्तु बाह्य पदार्थों का ज्ञान नहीं माना गया है। इस पर प्रश्न यह होता है कि मुक्त जीव के इन्द्रियों का अभाव है इसलिये बाह्य पदार्थ का ज्ञान नहीं है, अथवा बाह्य पदार्थों का अभाव है इसलिये उनका ज्ञान नहीं है ? यदि द्वितीय पक्ष रूप बाह्य पदार्थों का अभाव कहो तब तो सुख का भी अभाव हो जावेगा क्योंकि ब्रह्माद्वैतवादी के यहाँ सुख बाह्य पदार्थों का अभाव कहो तब तो सुख का भी अभाव हो जावेगा क्योंकि ब्रह्माद्वैतवादी के यहाँ सुख भी ब्रह्म से भिन्न होने से बाह्य पदार्थ ही है यदि सुख का अस्तित्व मानोगे तब तो भाई। ब्रह्म और सुख ये दो चीजें हो जाने से द्वैत सिद्ध हो गया न कि अद्वैत एकान्त। यदि प्रथम पक्ष मानो कि मुक्त जीव के इन्द्रियों का अभाव है तब तो बिना इन्द्रियों के सुख का वेदन (अनुभव) कैसे हो सकेगा ? यदि अतीन्द्रिय से सुख का अनुभव मानो तो अतीन्द्रिय ज्ञान से बाह्य पदार्थों का भी वेदन—अनुभव मानना ही होगा अन्यथा बाह्य पदार्थों को जाने बिना ज्ञान का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होगा। इसलिये यदि आप मुक्त जीव में ज्ञान का अस्तित्व स्वीकार करते हैं तब तो आपको सम्पूर्ण बाह्य पदार्थों का अस्तित्व भी मानना पड़ेगा। आखिर में ब्रह्माद्वैत रूप सिद्धान्त सिद्ध न होकर अन्तर्बाह्य पदार्थ स्वरूप द्वैत सिद्धान्त ही सिद्ध हो जावेगा कि आपके सिद्धान्त के प्रतिकूल ही है।
बौद्ध की मान्यता है कि—‘‘रूपवेदनासंज्ञासंस्कारविज्ञानपंचकस्कन्धनिरोधादभावो मोक्ष:’’ इन बौद्धों ने भी पाँच स्कन्धों में एक विज्ञान नाम का स्कन्ध माना है और उनका कहना है कि इन पाँचों स्कन्धों का निरोध हो जाने से—निरन्वय विनाश हो जाने से प्रदीपनिर्वाणवत्—दीपक के बुझ जाने के समान जीव को मोक्ष हो जाता है। पहले तो इन बौद्धों के सिद्धान्त में प्रतिक्षण द्रव्य का निरन्वय विनाश मान करके वासना से लौकिक एवं पारलौकिक कार्यों की सिद्धि मानी गई है सो यह निरन्वय विनाश—जड़मूल से द्रव्य का विनाश मानना ही नितान्त गलत है। पुन: मुक्ति में विज्ञान का अभाव मान लेना तो कपोल कल्पित ही है। जैनाचार्यों ने इन बौद्धों के क्षणिक सिद्धान्त का अच्छा खण्डन किया है एवं मोक्ष में भी ज्ञानादि गुणों का सद्भाव माना है क्योंकि ज्ञान, सुखादि गुणों को पूर्णतया प्रकट करने के लिये ही तो मोक्ष के लिये पुरुषार्थ किया जाता है दीक्षा, तपश्चरणादि अनुष्ठान किये जाते हैं।
‘‘निरवशेषनिराकृतकर्ममलकलज्र्स्याशरीरस्यात्मनोऽचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादिगुणमव्याबाध सुखमात्यंतिकमवस्थान्तरं मोक्ष इति’’
जिसने सम्पूर्ण कर्ममल कलज्र् को नष्ट कर दिया है ऐसे अशरीरी आत्मा के अचिन्त्य, स्वाभाविक ज्ञानादि गुण और अव्याबाध सुख रूप अत्यन्त विलक्षण अवस्था की प्राप्ति हो जाना ही मोक्ष है। यह मोक्ष यद्यपि इन्द्रिय प्रत्यक्ष से सिद्ध नहीं है फिर भी आगम एवं अनुमान ज्ञान से जाना जाता है। जिस प्रकार से घटी यन्त्र (रेंहट) का घूमना उसके धुरे के घूमने से होता है और धुरे का घूमना उसमें जुते हुये बैलों के घूमने पर। यदि बैल का घूमना बन्द हो जावे तो धुरे का घूमना भी रुक जाता है और धुरे के रुक जाने पर घटी यन्त्र का घूमना बन्द हो जाता है। उसी प्रकार से कर्मोदय रूपी बैल के चलने पर ही चार गति रूपी धुरे का चक्र चलता है और चतुर्गति रूपी धुरा ही अनेक प्रकार की शारीरिक, मानसिक आदि वेदनाओं रूपी घटीयन्त्र को घुमाता रहता है। कर्मोदय का अभाव हो जाने पर चतुर्गति का चक्र रूक जाता है और उसके रुकने से संसार रूपी घटीयन्त्र का परिचलन समाप्त हो जाता है, इसी का नाम मोक्ष है। इस मोक्ष में सर्वथा कर्मोदय जन्य आकुलता का अभाव हो जाने से दु:खों का अभाव हो गया है आयु आदि कर्मों का अभाव हो जाने से जन्म मरण के दु:खों का भी सर्वथा विनाश हो गया है एवं आत्मा का अपने स्वभाव की उपलब्धि, हो जाने से आत्मा पूर्ण सुखी हो चुकी है। आत्मा में अनन्तज्ञान, दर्शन आदि अनन्त गुण प्रकट हो गये हैं।
ज्ञान आत्मा का गुण है या नहीं ? इस पर भिन्न भिन्न मतों की समीक्षा करके जैनाचार्य का मत स्थापन
जैन सिद्धान्त में तो जीव का लक्षण करते हुये बताया है कि ‘‘उपयोगो लक्षणम्’’ चैतन्यानु—विधायी परिणाम ही उपयोग है और यही जीव का लक्षण है। इस उपयोग के भी ज्ञान और दर्शन के भेद से दो भेद पाये जाते हैं तथा ज्ञान के भी ८ भेद हैं एवं दर्शन के ४ भेद हैं। आश्चर्य इस बात का है कि जैन सिद्धान्त को छोड़कर और कोई भी सिद्धान्तवादी ज्ञान को आत्मा का गुण मानने को तैयार नहीं है। बौद्ध में र्नििवकल्प प्रत्यक्ष को प्रमाण माना है उसके यहाँ प्रमाण के दो भेद हैं प्रत्यक्ष और अनुमान, इसमें से प्रत्यक्ष प्रमाण तो निर्विकल्प होने से पदार्थों का निर्णय नहीं करा सकता और अनुमान प्रमाण पदार्थों का निश्चय कराता है तो वह अवास्तविक है—काल्पनिक है। जैन सिद्धान्त के अनुसार विचार करके देखा जावे तो सत्ता मात्र का अवलोकन कराने वाले दर्शन के पश्चात् जो अवग्रह आदि रूप साकार ग्रहण होता है उसका नाम ज्ञान है और ये ज्ञान दर्शन रूप दोनों ही गुण आत्मा से अभिन्न होने से आत्मा के ही स्वभाव है। एक विशेष बात और यह है कि बौद्ध कहता है कि ज्ञान पदार्थों से ही होता है एवं पदार्थों के आकार का होता है पश्चात् उसी पदार्थ को विषय करता है यह कल्पना भी बड़ी विचित्र ही है! जैन सिद्धान्तानुसार तो ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम ज्ञान में जो परोक्ष हैं वे इन्द्रिय और मन की सहायता अवश्य रखते हैं और इतने मात्र से ही वे परोक्ष कहे जाते हैं। ये मति श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण है। बाकी अवधि और मन:पर्यय ज्ञान आत्मा से ही उत्पन्न हुये हैं एवं पूर्ण ज्ञानावरण के नष्ट हो जाने से केवलज्ञान प्रकट हो जाता है जो कि आत्मा का स्वभाव ही है। अत: बौद्ध की मान्यतानुसार ज्ञान को र्नििवकल्प मानना ठीक नहीं है। सांख्य ने तो ज्ञान और सुख को सर्वथा जड़ रूप प्रधान का धर्म स्वीकार कर लिया है और मुक्ति में प्रधान का संसर्ग छूट जाने से ज्ञान, सुख का भी अभाव मान लिया है किन्तु ज्ञान के बिना मुक्ति में जीवों को सुख का वेदन भी कैसे हो सकेगा और सुख के अभाव में विचारे मुक्त जीवों को मुक्ति का आनंद ही क्या मिल सकेगा ? वैशेषिक और नैयायिक तो ज्ञान के समवाय से ही आत्मा को ज्ञानी मानते हैं और तो क्या वे समवाय वादी सत्ता के समवाय से ही आत्मा को सत् रूप (अस्तिरूप) मानते हैं तो ये सब मान्यताएँ न्याय शास्त्रों में अच्छी तरह से निराकृत की गई है वास्तव में ज्ञान यह आत्मा का ही निजी स्वभाव है इस ज्ञान के बिना आत्मा का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है सर्वज्ञ देव ने तो सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्य पर्याप्तक जीव के भी अति जघन्य रूप से ‘‘पर्याय’’ नाम के ज्ञान के अस्तित्व का प्रतिपादन किया है और इन पर्याय ज्ञान को नित्य ही प्रकटशील निरावरण माना है यथा—
सुहूमणिगोदअपज्जत्तयसस्स जादस्स पढम समयम्हि। हवदि हु सव्वजहण्णं णिच्चुग्घादं णिरावरणं।।३२०।।
अर्थ — सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्य पर्याप्तक जीव के उत्पन्न होने के प्रथम समय में सबसे जघन्य ज्ञान होता है। इसी को ‘‘पर्याय’’ ज्ञान कहते हैं इतना ज्ञान हमेशा ही निरावनरण तथा प्रकाशमान रहता है। यदि इस ‘‘पर्याय’’ ज्ञान पर भी आवरण आ जावे तो ज्ञान का अस्तित्व समाप्त होकर जीव का ही अभाव हो जावे। यह ज्ञान यद्यपि आत्मा का स्वभाव है फिर भी कर्मों के निमित्त से क्षयोपशम रूप अवस्था विशेष से अनेक भेद रूप हो रहा है। एक भूत चैतन्यवादी चार्वाक सिद्धान्त है जो पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु रूप भूत चतुष्टय से ही चैतन्य की उत्पत्ति मानता है उसके यहाँ भी यही कहा गया है कि शरीर इन्द्रिय मन और विषय (पदार्थों) से ही ज्ञान उत्पन्न होता है, जीव से नहीं। मतलब जब यह चार्वाक अचेतन भूत चतुष्टय से ही चैतन्य की उत्पत्ति मान लेता है तब ज्ञान को भी अचेतन से ही उत्पन्न हुआ माने इसमें आश्चर्य ही क्या है ? इसका कहना है कि ‘‘जन्म से पहले और मरण के अनन्तर आत्मा नाम की कोई चीज है ही नहीं बस! भूत चतुष्टय का मिश्रण हुआ और चैतन्य आत्मा बन गई उसमें ज्ञान आ गया और शरीर के समाप्त होते ही आत्मा का अस्तित्व समाप्त हो जाता है। यह नास्तिक सिद्धान्त है इस सिद्धान्त का भी जैनाचार्यों ने बहुत ही सुन्दर ढंग से खंडन कर दिया है इन्होंने बताया है कि भैया! भूत चतुष्टय चैतन्य की उत्पत्ति में उपादान कारण नहीं है किन्तु निमित्त कारण अवश्य है ‘‘शरीरवाङ् मन: प्राणापाना: पुद्गलानां’’ इस सूत्र के अनुसार शरीर, वचन, मन, श्वासोच्छवास आदि पौद्गलिक हैं ये भूत चतुष्टय से ही निर्मित्त हैं किन्तु उपादान स्वरूप आत्मा के मनुष्य गति, शरीर, मनुष्यायु आदि कर्मों के अनुसार यह जीव पूर्व शरीर को छोड़कर (मरकर) उत्तर शरीर को ग्रहण कर लेता है। इसलिये उपादान स्वरूप आत्मा से ही आत्मा की उत्पत्ति होती है न कि अचेतन से क्योंकि मरने के बाद अचेतन शरीर यों ही पड़ा रह जाता है और चैतन्य आत्मा चली जाती है इसी अवस्था को देखकर सभी आबाल गोपाल उस जीव का मरण मान लेते हैं और वह जीवात्मा अन्यत्र स्वकृत शरीर में जन्म धारण कर लेती है ऐसा समझना चाहिए। प्रभाकार वादी तो आत्मा और ज्ञान को अत्यन्त परोक्ष मानते हैं एवं पदार्थ और जानने रूप क्रिया को प्रत्यक्ष मानते हैं। किन्तु यह भी गलत है यह आत्मा ‘‘अहं प्रत्यय’’ के द्वारा स्व संवेदन प्रत्यक्ष से जानी जाती है और ज्ञान के द्वारा पदार्थों का अनुभव होने से उस ज्ञान का भी अनुभव उसी ज्ञान के द्वारा ही सिद्ध है अत: आत्मा और उसका ज्ञान गुण दोनों ही स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से प्रसिद्धि में आ रहे हैं। नैयायिक ने तो ज्ञान को अन्य दूसरे ज्ञान के द्वारा जानने योग्य मान लिया है उनका कहना है कि हमारा ज्ञान घट पट आदि पदार्थों को जानता है किन्तु स्व को नहीं जानता है तब स्व को जानने के लिये एक दूसरा ज्ञान आता है जो कि ‘‘यह ज्ञान है’’ ऐसा ज्ञान करा देता है इस प्रकार से तो प्रत्येक ज्ञान स्वयं अपने को नहीं जान सकेगा और दूसरे—दूसरे ज्ञान उस उस ज्ञान का ज्ञान कराने के लिये आते रहेंगे तो बहुत बड़ी अनवस्था फैल जावेगी अत: ज्ञान को स्वयं ही स्वपर प्रकाशी मान लेना उचित है। इसी प्रकार से मीमांसक तो सर्वथा ज्ञान को अस्वसंविदित ही मानते हैं उनका कहना है कि कोई भी आप स्वयं अपने कन्धे पर नहीं चढ़ सकता है वैसे ही ज्ञान अपने आपको नहीं जान सकता है ‘‘स्वात्मनि क्रिया विरोधात्’’ अर्थात् स्वात्मा में क्रिया नहीं हो सकती है। जैनाचार्यों ने बतलाया है कि क्रिया दो प्रकार की है एक धात्वर्थ लक्षण, दूसरी परिष्पंदात्मक लक्षण। धात्वर्थ लक्षण क्रिया तो सर्वत्र पाई जाती है जैसे ‘‘पृथ्वी अस्ति’’ यह धात्वर्थ लक्षण क्रिया है यदि यह क्रिया अपने कत्र्ता में न रहे तो वस्तु का अस्तित्व ही समाप्त हो जावे। हाँ! परिष्पंदात्मक क्रिया सर्वत्र नहीं रहती। जैसे ‘‘कुंभकार: घटं करोति’’ यह क्रिया कत्र्ता में नहीं है इस क्रिया का ही स्वात्मा में विरोध है किन्तु जानने रूप क्रिया यह ज्ञान का स्वरूप है और इसका स्वात्मा से कोई विरोध नहीं है ‘‘अहं स्वसंवेदन प्रत्ययेन स्वामात्मानं जानामि’’ मैं स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा स्वयं अपने आपका अनुभव करता हूँ ऐसी प्रतीति आती है अत: ज्ञान आत्मा का स्वभाव है और वह स्वपर प्रकाशी है यह बात निर्बाध सिद्ध है। इस जगत् में कुछ अद्वैतवादी सिद्धान्त है ब्रह्माद्वैत, विज्ञानाद्वैत, शब्दाद्वैत, चित्राद्वैत और शून्याद्वैत आदि। इनके यहाँ केवल एक अद्वैत रूप ही तत्व माना गया है। ब्रह्माद्वैत वादी का कहना है कि ‘‘सर्व वैखलु इंद ब्रह्म, नेह नानास्ति किंचन। आरामं तस्य पश्यंति, न तं पश्यंति कश्चन।। मतलब जगत् में जितने भी चेतन अचेतन पदार्थ दिख रहे हैं वे सभी परम ब्रह्म की ही पर्यायें हैं परमब्रह्म के सिवाय इस जगत में और कुछ भी नहीं है जो कुछ भी आपको हम और आप दिख रहे हैं वह केवल अविद्या का ही विलास है। शब्दाद्वैतावादी तो सारे विश्व को शब्द रूप ही स्वीकार कर रहे हैं वे कहते हैं कि ये सब चेतन अचेतन पदार्थ परम शब्दब्रह्म से ही प्रकट हुये हैं इनको पृथक्—पृथक् समझना ही अविद्या का चमत्कार है। उसी प्रकार से विज्ञानाद्वैतवादी एक ज्ञान मात्र ही तत्व मानते हैं। चित्राद्वैतवादी सभी पदार्थों को चित्रज्ञान रूप स्वीकार करते हैं एवं शून्याद्वैत वादी तो सारे जगत को शून्य रूप (इन्द्रजाल) ही मान लेते हैं इन तीनों का यही कहना है कि जो कुछ दिख रहा है वह सब संवृति—कल्पना मात्र है। इन अद्वैतवादियों के यहाँ भी बंध मोक्ष आदि की व्यवस्था नहीं बन सकती है। जैनाचार्यों ने तो आत्म द्रव्य को और जड़ द्रव्य को पृथक्—पृथक् माना है। जिसमें ज्ञान, दर्शन और सुख गुण पाये जाते हैं उसे आत्मा कहते हैं। इसमें विपरीत ज्ञान दर्शन गुणों से रहित द्रव्य को अचेतन कहते हैं क्योंकि एक ज्ञान गुण को छोड़कर बाकी जितने भी गुण आत्मा में पाये जाते हैं वे न तो स्वयं का ही अनुभव कर सकते हैं और न दूसरों को अपना ज्ञान करा सकते हैं केवल एक ज्ञान गुण ही ऐसा महान् गुण है जो कि आत्मा के अनन्त गुणों का ज्ञान कराने में समर्थ है उन सभी का मूल्यांकन कराता है और साथ ही साथ अपनी महानता को भी प्रकट कर देता है क्योंकि ज्ञान के द्वारा ही आत्मा आह्लादकारी सुख स्वरूप गुण का अनुभव करके आनन्द विभोर हो जाता है। अतएव ज्ञान का लक्षण स्वपर प्रकाशी हे और वह आत्मा का ही गुण हैं
चेतन से अचेतन की उत्पत्ति मानने वाले ब्रह्मवादी एवं अचेतन से चेतन की उत्पत्ति मानने वाले भूत चतुष्टय वादी के यहाँ मोक्ष का अभाव जगत् में एक ऐसा भी सिद्धान्त है जो कि सारे जगत् को ब्रह्म स्वरूप—चैतन्य की पर्याय मान लेता है यह ऐसा अनोखा सिद्धान्त है कि चेतन स्वरूप परम ब्रह्म से अचेतन रूप घट—पट, महल आदि पदार्थों की उत्पत्ति मान लेता है। तथैव चार्वाक मतानुयायी तो सर्वथा ही इस सिद्धान्त के विपरीत अचेतन भूत चतुष्टय से चेतन स्वरूप आत्मा की उत्पत्ति मान रहे हैं ये दोनों ही सिद्धान्त अपने आप में बड़े ही विचित्र है। वास्तव में विचार करके देखा जाये तो चेतन से अचेतन एवं अचेतन से चेतन की उत्पत्ति उपादान रूप से मानना सर्वथा महामोह का ही विलास है। ==
प्रत्येक आत्मा की पृथक्—पृथक् सत्ता माने बिना मोक्ष का अभाव जैनाचार्यों ने तो जैसे चेतन और अचेतन रूप दो द्रव्य माने हैं उसी प्रकार से चेतन—जीव के भी बहुत भेद प्रतिपादित किये हैं यों तो जीवराशि अनन्तानन्त है एवं पुद्गल राशि भी अनन्तानन्त है तथा धर्म अधर्म और आकाश द्रव्य एक एक हैं एवं काल द्रव्य के अणु असंख्यात हैं। मतलब यह हुआ कि प्रत्येक आत्मा की सत्ता अलग अलग है और प्रत्येक जीवात्मा संसारावस्था में शुभ अशुभ कर्मों का कर्ता है एवं उसके फल स्वरूप सुख और दु:ख का भोक्ता भी है। जब यही आत्मा पुरुषार्थ करके रत्नत्रय को प्राप्त कर लेता है तब मुक्तावस्था को प्राप्त कर लेता है वहां (मुक्ति में) भी मुक्तात्माओं की सत्ता अलग अलग ही है सभी अपने अपने अनन्तसुखादि गुणों का अनुभव करते हुये पूर्ण सुखी हैं। यदि हम प्रत्येक जीव की सत्ता को पृथक्—पृथक् नहीं मानें तब तो सबसे बड़ी आपत्ति यह आ जावेगी कि जब तक एक जीव सुखी होगा तभी सब जीव सुखी हो जावेंगे और एक जीव के दुखी होने से सभी जीव दु:खी हो जावेंगे मतलब यह सिद्ध होगा कि सभी जीवों को सुख दु:ख जन्म मरण आदि का अनुभव एक साथ आने लगेगा किन्तु ऐसा तो देखा नहीं जाता। अतएव प्रत्येक आत्मा की सत्ता पृथक्—पृथक् ही है यह बात सिद्ध हो जाती है।
आत्म द्रव्य अनादि निधन है जो आत्मा संसार में कर्मों के बंधन से बद्ध होकर दु:ख उठा रही है वही आत्मा कर्मों का नाशकर मोक्ष के सुख को प्राप्त कर लेती है। जैन सिद्धान्त के अनुसार सभी जीव संसार पूर्वक ही मुक्त हुये है क्योंकि ‘‘मुच्ऌ’’ धातु छूटने अर्थ में है और जब कोई बँधा हुआ है तभी तो छूटेगा अन्यथा मुक्त कैसे होगा ? अतएव कर्म बंधन बद्ध आत्मा ही मुक्त होती है न कि मुक्त आत्मा।
सांख्य के सिद्धान्तानुसार यह आत्मा अनादि काल से ही कूटस्थ नित्य है, शुद्ध है, कर्ता नहीं है। ये सर्वथा नित्यवादी है, किन्तु ‘‘नित्यत्वैकांतपक्षेऽपि विक्रिया नोषपपद्यते’’ इस नियम के अनुसार सर्वथा नित्यैकांतपक्ष में किसी भी प्रकार की क्रिया नहीं बन सकती है। पुन: पुण्य और पाप, बंध और मोक्ष आदि व्यवस्था भी असंभव ही है। तथैव सर्वथा क्षणिकवादी बौद्धों के यहाँ भी जब क्षण—क्षण में आत्मा का निरन्वय विनाश हो रहा है तब पुण्य, पाप और बंध, मोक्ष आदि की व्यवस्था किसको होगी ? जिस आत्मा ने पूजन करने का भाव किया उसका तो जड़ मूल से विनाश होकर दूसरी आत्मा आ गई उसने पूजन किया और उसका भी नाश होकर तीसरे ने पुण्य बंध किया, चौथे को उनका फल मिलेगा इत्यादि क्षण क्षय सिद्धान्त तो हास्यास्पद ही है। ये दोनों ही सिद्धान्त ब्रह्मवाद और भूतचतुष्टयवाद की तरह सर्वथा परस्पर में एक दूसरे के प्रतिकूल हैं।
स्याद्वाद प्रक्रिया का सर्वोपरि स्थान जैनाचार्य तो जीवादि द्रव्यों को कथंचित् (द्रव्यदृष्टि से) नित्य मानते हैं तभी तो पुण्य—पाप, बंध—मोक्ष और परलोकादि की व्यवस्था बनती है एवं कथंचित् (पर्याय की दृष्टि से) अनित्य भी मानते हैं तभी तो संसार में जन्म मरण सुख—दु:ख आदि अवस्थायें दीख पड़ती हैं। स्याद्वाद प्रक्रिया का जैनधर्म में सर्वोपरि स्थान है। यह स्याद्वाद प्रक्रिया ही जैनधर्म का प्राण है इसके बिना जैनधर्म जीवित ही नहीं रह सकता है, अत: प्रत्येक वस्तु तत्व को स्याद्वाद पद्धति से समझने का प्रयत्न करना चाहिये।
न्यायशास्त्र की आवश्यकता अष्टसहस्री आदि बड़े—बड़े न्याय ग्रंथों में स्याद्वाद प्रक्रिया का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया गया है। आज इन न्याय ग्रंथों को पढ़ने की प्रथा बहुत ही कम है किन्तु इतना निश्चित है कि ये न्याय ग्रंथ सत्य और असत्य वस्तु की कसौटी पर कसने के लिये कसौटी के पत्थर है। जिस प्रकार कसौटी पर कसा गया सुवर्ण शुद्ध है या अशुद्ध ? यह जाना जाता है और इस प्रकार उसमें मिलावट को जानकर उसे दूर किया जाता है उसी प्रकार न्यायशास्त्रों के स्वाध्याय से हमें सच्चे झूठे आप्त को कसौटी पर कसकर परख लेते हैं। तत्वों के सम्यक््â और मिथ्यापने का निर्णय भी न्याय ग्रंथों से ही किया जा सकता है। न्याय ग्रंथों के अध्ययन बिना मात्र सिद्धांतग्रंथ और अध्यात्म ग्रंथों के अध्ययन से प्राप्त हुआ ज्ञान कभी—कभी अनजाने ही एकांत के गर्त में डाल सकता है किन्तु न्याय ग्रंथ से समझा गया तत्व स्याद्वाद पद्धति से सप्तभंगी शैली से सुघटित रहता है और अनेकों एकांत मिथ्या मतों के जाल से निकालकर शुद्ध आत्मतत्व का निर्णय करा देता है। अतएव न्याय ग्रंथों का अध्ययन, मनन अवश्य ही करना चाहिये तभी सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का स्वरूप अच्छी तरह समझ में आ सकता है और सम्यक्त्वादि के बल से कर्मों का नाश करके मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है।
‘‘बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्ष:’’ मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद कषाय और योग से बन्ध के पाँच कारण हैं और ये ही ५ संसार के भी कारण हैं क्योंकि कर्म बन्ध ही संसार है। इन बन्ध के हेतुओं का अभाव एवं पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा से सम्पूर्ण कर्मों का अभाव हो जाता है इसी का नाम मोक्ष है। प्रश्न यह हो सकता है कि जब कर्म बन्ध परम्परा अनादि है तब उसका अन्त भी नहीं होना चाहिये। इस पर जैनाचार्य समाधान कर देते हैं कि जैसे बीज और अंकुर की सन्तान परम्परा अनादि होने पर भी यदि आप बीज को अग्नि में जला कर भस्म कर देते हैं तब उस बीज से अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता, अत: बीजांकुर की परम्परा अनादि होते हुये भी सांत है। जिस प्रकार माता—पिता की परम्परा अनादि है फिर भी हमने बाल्यकाल से ही ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर लिया है अत: अब हमारी सन्तान परम्परा समाप्त हो गई। उसी प्रकार यद्यपि कर्म बन्ध की परम्परा अनादि है फिर भी भव्यों की अपेक्षा अन्त सहित है ऐसा निश्चित हो जाता है क्योंकि कर्मों का सम्बन्ध जीवात्मा से पृथक् हो जाता है तब आत्मा निरंजन बन जाती है पुन: कर्मों का सम्बन्ध इस जीव के साथ नहीं हो सकता है। आत्मा कर्म बन्ध से छूटकर सिद्ध शिला पर जा विराजती है और कर्म, कर्म पर्याय को छोड़कर अकर्म—सामान्य पुद्गलरूप हो जाते हैं।
प्रश्न यह होता है कि जब कर्म से यह जीव छूटता है तब ऊर्ध्वगमन भी कैसे करता है ? इसका उत्तर यही है कि जीव का ऊध्र्वगमन करना ही स्वभाव है जब तक वह संसारी रहता है तभी तक यत्र तत्र चतुर्गति में परिभ्रमण करता है किन्तु कर्म से मुक्त होने के बाद अग्नि शिखा के समान स्वभाव से ऊध्र्वगमन कर जाता है। पुन: यह आशंका हो सकती है कि ऊध्र्वगमन जीव का स्वभाव होने से मुक्त होने के बाद ऊर्ध्वगमन करते ही रहना चाहिये किन्तु आगम कहता है कि मुक्त जीव लोकाकाश के अप्रभाग पर जाकर स्थित हो जाते हैं उसके आगे उनका गमन क्यों नहीं होता है ? इसका उत्तर है कि ‘‘धर्मास्तिकायाभावात्’’ इस सूत्र के नियमानुसार लोकाकाश के बाहर अलोकाकाश में धर्मास्तिकाय द्रव्य का अभाव होने से सिद्ध जीव ऊध्र्वलोक के अग्रभाग में ही ठहर जाते हैं ऊपर नहीं जा सकते हैं। मध्यलोक में यह मनुष्य लोक ४५ लाख योजन प्रमाण वाला है और इसी मनुष्य लोक से ही जीव मुक्त होते हैं अत: सिद्ध शिला भी ४५ लाख योजन प्रमाण वाली है उसी शिला पर अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठी ठहर जाते हैं। अवगाहन शक्ति होने के कारण अल्प भी अवकाश में अनेक सिद्धों का अवगाह हो जाता है। जब र्मूितमान् भी अनेक प्रदीप प्रकाशों का अल्प आकाश में विरोधी अवगाह देखा गया है तब अर्मूितक सिद्धों की तो बात ही क्या है ?
अट्ठविह कम्मवियला, सीदी भूदा णिरञ्जणा णिच्चा। अट्ठगुणा किदकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा।।६८।।
अर्थ — जो ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मों से रहित हैं, अनन्त सुख रूपी अमृत के अनुभव करने वाले शांतिमय हैं, नवीन कर्म बन्ध को कारणभूत मिथ्यादर्शनादि भावकर्म रूपी अंजन से रहित हैं, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, अव्याबाध, अवगाहन, सूक्ष्मत्व और अगुरुलघु ये आठ गुण जिनके प्रगट हो चुके हैं, कृतकृत्य हैं जिनको कोई कार्य शेष नहीं है और जो लोक के अग्रभाग में निवास करने वाले हैं उनको सिद्ध कहते हैं। इस गाथा में जो सिद्ध भगवान् के आठ गुण रूप विशेषण बताये हैं ये प्राय: अन्य दर्शन के निराकरण के लिये हैं। यथा—
सदसिव संखो मक्कडि बुद्धों णेयाइयो य वेसेसी। ईसर मंडलि दंसण—विदूसणट्ठं कयं एदं।।६९।।
सदाशिव: सदाकर्मा सांख्यो मुत्तं सुखोज्झितं। मस्करी किल मुक्तानां मन्यते पुनरागतिम्।।
क्षणिकं निर्गुणं चैव, बुद्धो योगश्च मन्यते। कृतकृत्यं तमीशानो मण्डली चोध्र्वगामिनम्।।
भावार्थ — सदाशिव मत वाले जीव को सदा कर्म से रहित ही मानते हैं, उनके निराकरण के लिये ६८ वीं गाथा में सिद्धों के ‘‘अट्ठविहकम्मवियला’’ अष्टविध कर्म से रहित हो चुके हैं ऐसा विशेषण दिया गया है। सांख्य मत वाले मानते हैं कि ‘‘बन्ध मोक्ष, सुख, दु:ख आदि प्रकृति के होते हैं आत्मा के नहीं। इसके निराकरण के लिये ही सिद्ध ‘‘शीदीभूदा’’ सुख स्वरूप हैं ऐसा विशेषण दिया गया है। मस्करी मत वाले मुक्त जीवों का पुन: आगमन मानते हैं उसको दूषित करने के लिये सिद्ध ‘‘णिरंजन’’ हैं—कर्मांजन से रहित हैं इसी कारण से पुनरागमन असम्भव है ऐसा कहा गया है। बौद्धों का मत है कि सभी पदार्थ क्षणध्वंसी हैं इसको दूषित करने के लिये सिद्ध ‘‘नित्य हैं’’ यह विशेषण दिया गया है। नैयायिक और वैशेषिक कहते हैं कि मुक्त जीवों में बुद्ध्यादि गुणों का विनाश हो जाता है उसको दूर करने के लिये सिद्ध ‘‘ज्ञानादि अष्ट गुणों से सहित है’’ ऐसा विशेषण दिया गया है। वैशेषिक ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानते हैं उनका निराकरण करने के लिये ‘‘कृतकृत्य’’ विशेषण दिया गया है क्योंकि जो कृतकृत्य हो चुके हैं वे पुन: सृष्टि आदि के करने के प्रपञ्च में नहीं पड़ेंगे। मंडलीक मत वाला कहता है। कि मुक्त जीव सदा ऊपर को गमन करता ही रहता है कभी ठहरता ही नहीं है उसके निराकरण करने के लिये ‘‘लोक के अग्रभाग में स्थित हैं’’ ऐसा विशेषण दिया गया है। इस प्रकार से सिद्ध परमेष्ठी तीन लोक के मस्तक पर विराजमान अनन्तानन्त काल तक अनन्त सुख का अनुभव करते रहते हैं उन सिद्धों को हमारा मन, वचन, काय पूर्वक नमस्कार होवे।