श्री गुणधर आचार्य रचित कषायपाहुड गाथासूत्रों पर चूर्णिसूत्रों की रचना करने वाले आचार्य का नाम यतिवृषभ है। जयधवला टीका के निर्देशानुसार आचार्य यतिवृषभ ने आर्यमंक्षु और नागहस्ति से कसायपाहुड की गाथाओं का सम्यक् प्रकार अध्ययन कर अर्थ अवधारण किया और कसायपाहुड पर चूर्णिसूत्रों की रचना की। इस प्रकार से इन आचार्य महोदय ने चूर्णिसूत्रों की रचना संक्षिप्त शब्दावली में प्रस्तुत कर महान अर्थ को निबद्ध किया है। यदि ये आचार्य चूर्णिसूत्रों की रचना न करते तो सम्भव है कि कसायपाहुड का अर्थ ही स्पष्ट न हो पाता अत: दिगम्बर सम्प्रदाय में चूर्णिसूत्रों के प्रथम रचयिता होने के कारण इन यतिवृषभ आचार्य का अत्यधिक महत्त्व है। श्री वीरसेनाचार्य ने अपनी धवला टीका में षट्खण्डागम के सूत्रों को भी चुण्णिसुत्त कहा है। इससे यह अर्थ स्पष्ट हो जाता है कि यतिवृषभ के चूर्णिसूत्रों का महत्त्व कसायपाहुड की गाथाओं में किसी तरह कम नहीं है। आचार्य वीरसेन के उल्लेखानुसार चूर्णिसूत्रकार श्री यतिवृषभ का मत कसायपाहुड और षट्खण्डागम के मत के समान ही प्रामाणिक एवं महत्त्वपूर्ण है। विक्रम सं. की ११वीं शताब्दी में आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने लब्धिसार नामक ग्रन्थ में पहले यतिवृषभ के मत का निर्देश किया है, तदनन्तर भूतबलि के मत का निर्देश किया है। इससे भी स्पष्ट हो जाता है कि इनके चूर्णिसूत्र मूलग्रन्थों के समान ही महत्त्वपूर्ण और उपयोगी थे।
समय निर्णय
इनके विद्यागुरु के नाम आर्यमंक्षु और नागहस्ति बताए गए हैं। यथा-
गुणहरवयणविणिग्गय-गाहाणत्थोवहारिओ सव्वो।
जेणज्जमंखुणा सो, सणागहत्थी वरं देऊ।।७।।
जो अज्जमंखुसीसो, अंतेवासी वि णागहत्थिस्स।
सो वित्तिसुत्तकत्ता, जइवसहो मे वरं देऊ।।८।।
जिन आर्यमंक्षु और नागहस्ति ने गुणधराचार्य के मुखकमल से विनिर्गत कसापाहुड़ की गाथाओं के समस्त अर्थ को अवधारण किया वे हमें वर प्रदान करें। जो आर्यमंक्षु के शिष्य और नागहस्ति के अंतेवासी हैं, वृत्तिसूत्र के कर्ता वे यतिवृषभ मुझे वर प्रदान करें।
इस प्रकरण से यह स्पष्ट झलकता है कि आर्यमंक्षु और नागहस्ति समकालीन थे तथा यतिवृषभ के गुरू थे।
इन्द्रनंदि के श्रुतावतार में आर्यमंक्षु और नागहस्ति को श्री गुणधर आचार्य का शिष्य कहा है। यथा-
गुणधराचार्य ने पन्द्रह महाधिकारों में गाथा सूत्रों को रचकर नागहस्ति और आर्यमंक्षु को उसका व्याख्यान किया तथा उपर्युक्त प्रमाण से यह भी स्पष्ट है कि यतिवृषभ ने नागहस्ति और आर्यमंक्षु से ज्ञान प्राप्त कर चूर्णिसूत्र रचना की है। इस दृष्टि से इनका समय वीर निर्वाण सं. की सातवीं शताब्दी आता है। चूंकि ये भूतबलि आचार्य के समकालीन अथवा उनके कुछ ही उत्तरवर्ती प्रतीत होते हैं।
अत: यतिवृषभ का समय वि. सं. ६६६ के पश्चात् नहीं हो सकता है।
आचार्य आर्यमंक्षु और नागहस्ति दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं में समानरूप सम्मानित हुए हैं।
रचना
यतिवृषभाचार्य की दो ही कृतियाँ प्रसिद्ध हैं-
१. कषायपाहुड पर रचित ‘‘चूर्णिसूत्र’’और २. तिलोयपण्णत्ति।
तिलोयपण्णत्ति की अन्तिम गाथा में चूर्णिसूत्र का उल्लेख आया है। यथा-
अर्थात् तिलोयपण्णत्ती में चूर्णिसूत्रों की संख्या ८००० मानी है पर इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार में चूर्णिसूत्रों का परिमाण ६००० श्लोक प्रमाण कहा गया है किन्तु इससे यह स्पष्ट नहीं होता है कि चूर्णिसूत्र कितने थे।
जयधवला टीका से इन सूत्रों का प्रमाण ७००९ आता है। अस्तु, चूर्णिसूत्र रचना महान सिद्धान्त है और तिलोयपण्णत्ती की रचना में तीन लोक का सविस्तार वर्णन बहुत ही सुन्दर किया गया है।
पं. हीरालाल जी शास्त्री के मतानुसार आचार्य यतिवृषभ की एक अन्य रचना कम्मपयडि चूर्णि भी है। जिसका उल्लेख उन्होंने कसायपाहुडसुत्त ग्रन्थ की प्रस्तावना में किया है।
श्री नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ने यतिवृषभ का समय ईस्वी सन् की द्वितीय शती माना है।
कसायपाहुड में तो चूर्णिसूत्रों को भगवान महावीर की दिव्यध्वनि की किरण माना है। यथा-
अर्थात् विपुलाचल के ऊपर स्थित भगवान महावीररूपी दिवाकर से निकलकर गौतम, लोहार्य, जम्बूस्वामी आदि आचार्य परम्परा से आकर गुणधराचार्य को प्राप्त होकर वहाँ गाथारूप से परिणमन करके पुन: आर्यमंक्षु और नागहस्ति आचार्य के द्वारा यतिवृषभाचार्य को प्राप्त होकर चूर्णिसूत्ररूप से परिणत हुई दिव्यध्वनि किरणरूप से हमने जाना है।
इस प्रकार से यतिवृषभाचार्य के वचनों की प्रमाणता को समझकर उनके ग्रन्थों पर पूर्ण श्रद्धान रखना हमारा कर्तव्य हो जाता है।
इस इतिहास को पढ़कर निम्नलिखित तथ्यों को ध्यान में रखना चाहिए-
यतिवृषभाचार्य ने आर्यमंक्षु और नागहस्ति आचार्य के पास कसायपाहुड की गाथाओं का अध्ययन किया था। इनके द्वारा रचित चूर्णिसूत्र और तिलोयपण्णत्ती ग्रन्थ महान प्रमाणता की कोटि में आते हैं। ये आचार्य परमागमरूप सिद्धान्त के और भौगोलिक विषय के तथा बीजगणित आदि के उच्चकोटि के विद्वान थे।