हिन्दू समाज में नारी का स्थान बहुत ऊँचा है। नारी भगवती दुर्गा की प्रतिमूर्ति समझ जाती है। जिस जाति में नारी का जितना अधिक सम्मान होता है वह जाति उतनी ही अधिक सभ्य समझी जाती है। नारी जाति के सम्बन्ध में स्मृतिकारों के विचार भी बहुत ही श्रेष्ठ तथा उन्नत हैं। मनु जी महाराज का कथन है कि नारियाँ साक्षात् देवी और लक्ष्मी स्वरूपा हैं। हिन्दु समाज विश्व भर के सब समाजों से अधिक सभ्य इसलिये भी है कि यहाँ नारियों को सर्वाधिक सम्मान दिया है। जहाँ नारियों का आदर होता है वहाँ हर कार्य में सफलता मिलती है तथा सभी देवता प्रसन्न होकर उस वातावरण में विधायक ऊर्जा प्रदान करते हैं। उन तरंगों से सारा वातावरण आनंद से परिपूर्ण रहता है। जिस स्थान पर नारियों का आदर नहीं होता वहाँ सभी कार्य विफल हो जाते हैं तथा वातावरण में रोग, शोक, नकारात्मक ऊर्जा के बादल छाये रहते हैं। मनु जी कहते हैं समय—समय पर नारी को वस्त्र, आभूषण और उत्तम भोजन देकर सम्मानित करना चाहिये और उसके भीतर स्थित दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती का शुभ आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिये। प्राप्त किया गया शुभ आशीर्वाद ही तो जीवन का सुख है। जिस जीवन में नारी से प्राप्त किया आशीर्वाद नहीं उसमें सुख कैसे हो सकता है ? इसलिये नारियों का आदर न केवल लौकिक दृष्टि से ही किया जाता है बल्कि उनका आदर धार्मिक और अलौकिक स्तर पर भी किया जाता है। नारियों को भी चाहिये वे जीवन में सदा धर्म को धारण किये रहें। धर्म ही तो समाज की रीढ़ है। जिस समाज में धर्म तिरोहित हो जाता है वह समाज नष्ट—भ्रष्ट हो जाता है। नारियाँ सदा मन में यह धारण रखें कि वह केवल पुरूष का मनोरंजन तथा भोग विलास की सामग्री नहीं है वे तो महान देवियाँ, मातायें और सदाचारिणी पतिव्रतायें हैं। वे त्याग और सेवा के सात्विक गुणों द्वारा जाति, समाज और राष्ट्र को ऊँचा उठाने में कभी भी पीछे नहीं रह सकती । हिन्दू समाज में वही घर की स्वामिनी हैं।
पुरूष तो केवल धनोपार्जन करता है उसका संग्रह तथा उपयोग घर की स्वामिनी के ही अधीन होता है। पुरूष द्वारा लाये धन से वह घर गृहस्थी भी चलाती है तथा कुछ भाग को धार्मिक अनुष्ठान के लिये भी लगाती है। हिन्दु परिवार धर्म की नींव पर खड़ा है। इसमें नारी का योगदान पुरूष के योगदान से भी अधिक है ।नारी जानती है कि उसे असावधानी, क्रोध, ईष्र्या, जीवाqहसां, अहंकार, नास्तिकता, कपट आदि दुगुर्णों से सदा दूर रहना है। सात्विक गुण वह बचपन से ही अपनी माता तथा दादी से सीख लेती है। वैसे भी स्वभाव से ही उसमें सात्विक गुण ओर त्याग की भावना अधिक होती है। भारतीय समाज में पति—पत्नि परस्पर सहमति से चलते है। विरोधी विचारों को प्रश्रय नहीं देते। एक दूसरे के सहयोगी बनने में ही उनका लाभ है। कन्या के लिये वर माता—पिता ढूंढते हैं क्योंकि कन्या अपने हित तथा अहित के बारे में निर्णय नहीं कर सकती। लेकिन ऐसी भी स्वतंत्रता उसे है कि वह अपना वर चुन सके। इसलिये धर्मशास्त्रों में एक सीमा तक नारी को अपने विवाह की स्वतन्त्रता भी दी है। विवाह और संतति की उत्पत्ति के पश्चात ही जीवन में पूर्णता आती है। नारी ममता का भण्डार है। यदि माँ में ममता न हो तो बच्चे का पालन—पोषण कैसे करती ? स्वयं अनाहार रहकर बच्चे का पेट भरती है। यदि नारी मर्यादित जीवन जिये और स्वयं को केवल कामवासना की तृप्ति का साधन न बनने दे तो अधिक प्रशंसनीय और कौन हो सकता है? जीवन की हर स्थिति में उसे माता, गृहिणी पति एवं सखा तौर पर अपने गौरव की रक्षा करनी है
। उसे विलासमय जीवन त्याग कर परिश्रमी और कठोर बनना है, तभी उसके भीतर निहित दिव्य शक्तियाँ प्रकट हो सकती हैं। तमोगुणी और रजोगुणी प्रवृत्तियाँ नारी के भीतर छिपी दिव्य शक्तियों को प्रकट नहीं होने देतीं। जब वह जीवन को पूर्ण रूप से सात्विक तथा दिव्य बना लेती है तो कौशल्या, सीता, सावित्री, गार्गी, सति अनुसूया, सति मदालसा इत्यादि महान देवियों की प्रतिमूर्ति बन जाती है। यही तो हिन्दू सभ्यता की महानता है। नारी और ब्राह्मण की रक्षार्थ धर्मयुद्ध में किसी को मारना पड़े तो भी दोष नहीं होता। जिस दुष्ट के व्यवहार से नारी की आँखों में आंसू बहते हैं वह दुष्ट नरकगामी होता है तथा कभी भी मानसिक विश्राम को प्राप्त नहीं हो सकता । हिन्दू नारी वह तत्व हैं जिसके बिना ईश्वर भी अपने स्वरूप से आधे रह जाते हैं। और अपने पूरे रूप में अद्र्धनारीश्वर कहलाते हैं। धर्म तथा अर्थ संबंधी कोई भी कार्य नारी के बिना सिद्ध नहीं होता। कार्य चाहे लौकिक हो या वैदिक पत्नी का सहयोग आवश्यक है। नारी जाति ही भारतीय सभ्यता की मूल रही है। उसमें किसी प्रकार का दोष न आ जाये इसलिये उसकी रक्षा तथा सुरक्षा की शिक्षा भी धर्म —शास्त्र देते हैं।
नारी स्वयं को मात्र रमणी का ही रूप देकर मनुष्य के मनोरंजन को सामग्री ही बनकर न रह जाये आज यह चिन्ता का विषय है। क्योंकि वर्तमान समाज में नारी का यह रूप भी तीव्र गति से वृद्धि को प्राप्त हो रहा है। यही नारी की तमोगुणी तथा रजोगुणी चित्त वृत्तियों का विस्तार है। आज नारी केवल बाहरी बनावट पर ही केन्द्रित होकर रह गई, भीतर की अद्भुत दैवी शक्तियों को नहीं जगाया तो समाज के पतन का कारण बन जाती है। उसे विचार करना है कि शरीर की स्वतंत्रता को लेकर तथा रमणी बन कर उसका नारीत्व अधिक विकसित हो गया क्या ? क्या यह पूछने से अधिक शांति, आनंद, स्नेह और भावना के जगत में डूब गई है जितना की पुरूष। व्यवसाय की खोज में उसे नित नये दरवाजे को खटखटाना पड़ता है और उत्तर मिलता है स्थान रिक्त नहीं है । गृहलक्ष्मियाँ दर—दर के धक्के खाती देखी जाती हैं। क्या यही नारी स्वतंत्रता है ? आज व्यवसायिक एवं काम करने वाली महिलाओं की, नारियों की संख्या पहले से अधिक है। लेकिन घर का वातावरण अस्त—व्यस्त है। पवित्रता और धर्म खोता जा रहा है। गृहलक्ष्मी के स्थान पर खाना पकाने के लिये भी नौकर का आश्रय लेना पड़ता है ।
नौकर के द्वारा बना भोजन स्नेह , प्रेम तथा त्याग रहित होता है। इस प्रकार के भोजन से बच्चों के संस्कार कैसे बनेंगे ? यह चिन्ता तो हर मनुष्य कर सकता है। मनुष्य खाने के साथ पकाने तथा परोसने वाले की भावनाओं को भी मन तथा बुद्धि में उतारता है। भले ही यह आँखों से नहीं देखी जाती लेकिन सूक्ष्म रूप से सूक्ष्म शरीर में सब प्रविष्ट होती जाती है। यदि वातावरण में तमोगुण तथा रजोगुण की अधिकता है तो इसका कारण यह है कि भोजन में सतोगुण नहीं है। रजोगुणी तथा तमोगुणी खाने से आसुरी वृत्तियों का जन्म होता है। नारी के परिवर्तित स्वरूप के कारण समाज पतन की ओर जा रहा है। वर्तमान समय की नारी को कोई मध्यमार्ग खोजने की आवश्यकता है। उसका घर परिवार भी ठीक ढंग से चलता रहे। यदि पति की आय से घर नहीं चल पाता तो सप्ताह में एक—दो दिन ही बाहर का कार्य करे जिससे परिवारिक आय की भी वृद्धि हो। इससे परिवार में संतुलन बना रहेगा। घर पर ही किसी प्रकार कार्य करती रहे। भविष्य में आने वाली पीढ़ियाँ यदि संस्कार शून्य हो गई तब तो अनर्थ हो जायेगा। सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण में संतुलन होना चाहिये। तभी जीवन में संतुलन रहता है। यदि पवित्रता, धर्म, सात्विकता तिरोहित हो गई तो सब कुछ होते हुये भी वातावरण में अत्याचार, पाप, हिंसा, छल, कपट, दुराचार को बढ़ावा मिलेगा। यही समाज के पतन का कारण बनता है। हिन्दू समाज की नारी को जगाकर अपने वास्तविक स्वरूप और शक्ति को पहचानना है।