महात्माओं को र्धािमक दृष्टि से गुरु मान्य किया जाता है। जितेन्द्रिय श्रमण तीर्थंकरों द्वारा पुरस्कृत, आचरित एवं पोषित जैन संस्कृति निवृत्तिमूलक एवं संयम—त्याग—तप प्रधान है। ऐतिहासिक दृष्टि से वर्तमान कल्पकाल में योगेश्वर आदिनाथ ऋषभदेव इस संस्कृति के प्रस्तोता और भरत क्षेत्र के प्रथम संन्यासी थे। उनके उपरान्त वद्र्धमान महावीर पर्यन्त अन्य तेईस तीर्थंकर भगवानों ने स्व पर कल्याण के हित इसी तपोमार्ग का अवलम्बन लिया और प्रचार किया।
इस तप: पूत संस्कृति के अन्तिम सर्व महान् प्रतीक भगवान् महावीर के निर्वाण (ईसा पूर्व ५२७) के उपरान्त उनके मार्गानुयायी अनगिनत निग्र्रन्थ मुनि पुंगवों ने इस कल्पतरु को सींचा। काल दोष से मार्ग में शैथिल्य ने भी प्रवेश किया, संघ भेद और सम्प्रदाय भेद होते गये, और मध्य काल में तो, राजनैतिक, सामाजिक आदि अनेक परिस्थितियों के कारण दिगम्बर मुनि भी बहुधा वस्त्र धारी भट्टारक बन गये। विशेषकर उत्तर भारत में तो यदा—कदा ही कहीं कोई दिगम्बर मुनि देखने—सुनने में आता था। कुछ एक ब्रह्मचारी, क्षुल्लक, ऐलक ही दिगम्बर आम्नाय के साधु मार्ग का प्रतिनिधित्व करते थे।
वर्तमान शताब्दी के प्राय: दूसरे दशकान्त पर्यंत यही स्थिति थी—यह अवश्य सुना जाता था कि दक्षिण देश में कई एक दिगम्बर मुनि अभी भी विद्यमान हैं। १९२७ ई. में जब आचार्य शान्तिसागर महाराज का संघ श्री सम्मेद शिखर पर पधारा और तदनन्तर वाराणसी, कटनी, ललितपुर, मथुरा, आगरा, दिल्ली, मेरठ, हस्तिनापुर, जयपुर, उदयपुर, व्यावर आदि उत्तर भारत के विभिन्न नगरों में विचरा तो इस क्षेत्र के अनगिनत स्त्री—पुरुषों ने दिगम्बर मुनियों का सर्वप्रथम दर्शन पाकर अपने जन्म को सफल किया। हमने भी १९३०-३१ में ही गाजियाबाद, मेरठ, हस्तिनापुर और दिल्ली में इन पूज्य मुनिराजों के सर्वप्रथम दर्शन किये थे।
इस युग में, इस देश में, विशेषकर उत्तर भारत में, दिगम्बर मुनि मार्ग को पुन: गतिमान करने का प्रधान श्रेय प्रात: स्मरणीय चारित्र चक्रवर्ती युगंधर दिगम्बराचार्य शान्तिसागर जी को ही है। आचार्य शान्तिसागर जी छाणी व आचार्य सूर्यसागर जी भी प्राय: उसी काल में इस प्रान्त में विचरें। चारित्र चक्रवर्ती युगंधर आचार्य शान्तिसागर जी का जन्म १८७२ ई. में कर्नाटक (मैसूर राज्य) के बेलगांव जिले के भोजगाँव में भीमगौंडा पाटिल के तृतीय पुत्र सातगौंडा के रूप में हुआ था।
शैशवावस्था से ही संसार से विरक्त एवं दयालु प्रकृति विकसित होती गई। बाल्यावस्था में ही विवाह हो गया, किन्तु कुछ वर्ष बाद पत्नी की मृत्यु हो जाने पर दूसरा विवाह नहीं किया। बत्तीस वर्ष की आयु में शिखर जी की सर्वप्रथम यात्रा की और लोटकर स्वगुरु देवप्पा स्वामी (भट्टारक देवेन्द्र र्कीित) से ब्रह्मचर्य व्रत लिया। ४१-४२ की आयु में मुनि सिद्धसागर जी से क्षुल्लक दीक्षा ली, उन्हीं से यरनाल में, १९२० ई. में मुनि दीक्षा लेकर शान्तिसागर नाम प्राप्त किया तथा १९२४ ई. में समडोली में दो क्षुल्लक शिष्यों—(नेमिसागर और वीरसागर को) सर्वप्रथम मुनि दीक्षा देकर आचार्यपद ग्रहण किया, जिसका निर्वाह उन्होंने अपूर्व शासन प्रभावना करते हुए बत्तीस वर्ष पर्यन्त किया—१९५६ ई. में आचार्यश्री का समाधि मरण हुआ।
अपने आचार्य काल में उन्होंने अपने संघ को अनेक मुनियों, ऐलकों, क्षुल्लकों, र्आियकाओं, क्षुल्लिकाओं, ब्रह्मचारियों आदि त्यागी समुदाय से इतना विशाल और सुगठित कर लिया था कि मुनि मार्ग की पुन: सहज प्रवृत्ति हो गई। आज तो सैकड़ों दिगम्बर मुद्राधारी मुनि, अनेक र्आियकायें हैं, जो महाराज का ही प्रताप है। प्रात: स्मरणीय स्व. आचार्य वीरसागर जी महाराज उनके अग्रशिष्य एवं प्रथम पट्टधर हुए। सन् १९२३ ई. में नांदगांव के युवा एवं अविवाहित श्रावक हीरालाल ने गोम्मट स्वामी की यात्रार्थ जाते हुए कोन्नूर में सर्वप्रथम मुनिराज शांतिसागर के दर्शन किये थे और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया था।
यात्रा से लौटकर वह फिर महाराज के सान्निध्य में पहुँचे, जो इस बीच कुरूं दवाड़ में पधार गये थे। वहीं हीरालाल जी ने सप्तम प्रतिमा के व्रत उनसे ग्रहण किये। कुछ ही मास पश्चात् कुंभोज—बाहुबली में उन्होंने महाराज से क्षुल्लक दीक्षा ली और क्षुल्लक वीरसागर नाम प्राप्त किया। शीघ्र ही क्षुल्लक से ऐलक बन गये और १९२४ ई. में महाराज के समडोली चातुर्मास में उनसे मुनि दीक्षा लेकर मुनि वीरसागर हुए—फलस्वरूप महाराज स्वयं भी आचार्य पद पर आरूढ़ हुए।
मुनि नेमिसागर की दीक्षा भी वीरसागर जी के साथ ही हुई थी। वीरसागरजी के पुराने साथी, नांदगांव के खुशालचन्द्र पहाड़े भी इसी अवसर पर क्षुल्लक चन्द्रसागर बने थे। मुनि वीरसागर जी महाराज ने ३२ वर्ष पर्यन्त गुरु महाराज के साथ मुनि रूप में रहकर संघ के संरक्षण एवं संचालन में उन्हें पूरा योग दिया। उनके अग्रशिष्य, ज्येष्ठ शिष्य, सर्वाधिक दीर्घकालीन मुनि, सुशिक्षित, सुवक्ता एवं शास्त्र मर्मज्ञ होने के कारण सन् १९५६ में आचार्य महाराज के दिवंगत होने पर चर्तुिवध संघ ने सर्वसम्मति से उन्हें ही आचार्य महाराज का प्रथम पट्टधर मनोनीत किया और इस बाल ब्रह्मचारी, प्रशान्त र्मूित, दीर्घ तपस्वी, आम्नाय सम्पोषक श्री १०८ आचार्य शिरोमणि वीरसागर महाराज ने सुयोग्यता एवं सफलतापूर्वक, स्वगुरु के चरणों का अनुसरण करते हुए अपना आचार्य काल व्यतीत किया ओर अन्त में समाधि मरण किया।
उनके पट्टधर आचार्य शिवसागर हुए और शिवसागर जी के पट्टधर आचार्य धर्मसागर जी हुए तथा उनके पट्टधर आचार्य अजितसागर जी महाराज हैं ; जो वर्तमान में संघ का नेतृत्व एवं सरंक्षण कर रहे हैं। विदुषी रत्न गणिनी र्आियका ज्ञानमती माताजी के निर्देशन में प्रकाशित स्मृति ग्रंथ एक श्लाघनीय कार्य है।
सुयोग से यह दिन आगामी गुरु र्पूिणता को पड़ता है, जिए दिन तीर्थंकर भगवान् महावीर ने इन्द्रभूति गौतम को अपना प्रथम शिष्य एवं प्रधान गणधर बनाकर जगद्गुरु का पद प्राप्त किया था। मैं स्वर्गीय पूज्य आचार्य प्रवर वीरसागर जी महाराज की पुण्य स्मृति में अपनी भावावनत श्रद्धांजलि र्अिपत करता हूँ और कामना करता हूँ कि उनकी मुनि—सन्तति चिरकाल तक जिनेन्द्र के सन्मार्ग का सम्पोषण एवं संरक्षण करती रहे।