ज्ञान अपने स्वरूप को नहीं जानने वाला अस्वसंवेदी है। ऐसा भी नहीं कह सकते, क्योंकि ज्ञान प्रकाशरूप है। वह ज्ञान स्व और पर को विषय करने वाला-जानने वाला है यह बात प्रतीति से सिद्ध है। इस ‘नील’ आदि को ‘मैं’ जानता हूँ। इस प्रकार से ‘मैं’ शब्द से अंतरंग का और ‘नीलादि’ शब्द से बाह्य पदार्थों का अनुभव सिद्ध है।
अन्यथा-यदि नहीं मानोगे तो बाह्य पदार्थों के अनुभव का भी अभाव हो जायेगा।
यौग-स्वात्मा में क्रिया का विरोध है अर्थात् अपने आप में क्रिया न हो सकने से ज्ञान अपने आपको वैâसे जानेगा ?
जैन-यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि विरोध दो में से किसी एक के अभाव से सिद्ध होता है अर्थात् शीत और उष्ण इन दोनों का विरोध है अत: शीत के अभाव में रहता हुआ उष्ण शीत का विरोध करता है यह बात सिद्ध है किन्तु ज्ञान में तो ऐसी बात है नहीं कि वह अपने में रहते हुए अपने आपका ही विरोध करे। इसलिए ज्ञान की जानने रूप क्रिया का स्वयं ज्ञान में विरोध नहीं है।
ज्ञान में स्वरूप और जानना ये दोनों बातें उपलब्ध हो रही हैं। देखो! जिस प्रकार से प्रदीप और प्रकाशन का एक जगह अविरोध सभी लोगों को मान्य है, उसी प्रकार से स्वरूप और जानना इन दोनों का भी अविरोध स्वीकार करना ही चाहिए, क्योंकि न्याय से यह बात सिद्ध है अन्यथा पक्षपात का प्रसंग आ जाता है इसलिए ठीक ही कहा है कि अपना और अपूर्व अर्थ का निश्चय करने वाला ज्ञान ही विज्ञान है। (यहाँ तक आचार्यों ने प्रमाण के निर्दोष लक्षण को सिद्ध किया है। अब आगे प्रमाण की संख्या के विसंवाद को दूर करते हैं)-
वह प्रमाण एक प्रत्यक्ष ही है, इस प्रकार चार्वाक विसंवाद करते हैं। प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण हैं’ इस प्रकार सौगत और वैशेषिक कहते हैं। सांख्य प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाण को मानते हैं। नैयायिक प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम ऐसे चार मानते हैं। प्रभाकर प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान और अर्थापत्ति ऐसे पाँच मानते हैं। भाट्ट प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव ऐसे छह मानते हैं। इन सभी के विसंवाद को दूर करने के लिए आचार्य कहते हैं कि ‘प्रमाणे इति संग्रह:’-सकल प्रमाण के भेद-प्रभेदों की संख्या को संग्रह करने वाले प्रमाण के दो प्रकार ही हैं किन्तु उपर्र्युक्त माने गये एक, दो, तीन आदि नहीं हैं क्योंकि इन दो प्रमाणों में ही अन्य सभी भेद गर्भित हो जाते हैं। संक्षेप से अथवा समस्त रूप से ग्रहण करना ‘संग्रह’ शब्द का अर्थ है, यहाँ ऐसा समझना।
शंका-‘प्रमाण है’ इस एक संख्या से ही बस हो उसी एक में ही ये संख्याये गर्भित हो जायेंगी, पुन: प्रमाण को दो मानने से क्या प्रयोजन है ?
समाधान-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि भेदों की गणना ही संख्या कहलाती है और एक तो अभेदरूप है। हाँ, द्रव्यार्थिक नय की विवक्षा से वह प्रमाण एक ही है किन्तु पर्यायार्थिक नय की विवक्षा से तो प्रमाण के सभी भेदों को दो प्रमाण में ही संग्रहीत किया गया है अर्थात् द्रव्यार्थिक नय से सामान्यतया प्रमाण एक है और पर्यायार्थिकनय से प्रमाण के दो भेद हैं प्रत्यक्ष और परोक्ष। इन दो में ही सारे प्रमाण के भेद-प्रभेद गर्भित हो जाते हैं।
प्रमाण के दो भेद होवें ठीक ही है किन्तु प्रत्यक्ष और अनुमान के भेद से दो भेद होते हैं। इस प्रकार की सौगत की आशंका को दूर करते हुए प्रत्यक्ष, परोक्ष के भेद से दो भेद हैं, ऐसा मन में करके श्री भट्टाकलंक देव उनमें से प्रथम को पहले कहते हैं-