धर्मप्रेमी महानुभावों! प्राचीनकाल से भारत की इस पावन वसुन्धरा पर अनेकों पर्व मनाने की परम्परा चली आ रही है। उन पर्वों में रक्षाबंधन पर्व भी अपने में विशेष महत्व रखता है और मात्र जैनियों का ही नहीं वरन् राष्ट्रीय पर्व माना जाता है। इस पर्व की उत्पत्ति ऐतिहासिक तीर्थक्षेत्र हस्तिनापुर से प्रारंभ हुई है।
यहाँ पर राजा बलि द्वारा ७०० मुनियों पर घोर उपसर्ग किया गया और उसके निवारण के लिए विष्णु कुमार महामुनि ने अपनी विक्रियाऋद्धि का प्रयोग किया था। इसी श्रावण शुक्ला पूर्णिमा को अकम्पनाचार्य आदि ७०० मुनियों के प्राणों की रक्षा हुई और उन्हें अत्यन्त मृदु खीर का आहार दिया गया। इसकी कथा इस प्रकार है- हस्तिनापुर के राजा महापद्म अपने बड़े पुत्र पद्मराज को राज्य देकर छोटे पुत्र विष्णुकुमार के पास मुनि हो गये।
राजा पद्म के चार मंत्री थे-बलि, बृहस्पति, नमुचि और प्रहलाद। किसी समय उन्होंने शत्रु राजा को जीतकर राजा पद्म से ‘वर’ प्राप्त किया था और उसे धरोहररूप में राजा के पास रख दिया था। एक समय अकम्पनाचार्य सात सौ मुनियों के साथ आकर वहाँ बगीचे में ठहर गये। जिनधर्म के विद्वेषी मंत्रियों ने राजा से मौका देखकर वर के रूप में सात दिन का राज्य मांग लिया। राजा को वर देना पड़ा। फिर क्या था, इन दुष्टों ने मुनियों को चारों तरफ से घेर कर बाहर से यज्ञ का बहाना कर आग लगा दी। उधर मिथिलानगरी में रात्रि में श्रवण नक्षत्र कंपित होते देख श्रुतसागर आचार्य के मुख से हाहाकार शब्द निकला।
पास में बैठे हुए क्षुल्लक जी ने सारी बात पूछी और उपसर्ग दूर होने का उपाय समझकर धरणीभूषण पर्वत पर आए और वहाँ विष्णुकुमार मुनि से कहा-भगवन्! आपको विक्रियाऋद्धि है अत: आप शीघ्र ही जाकर उपसर्ग दूर कीजिए। मुनि विष्णुकुमार वहाँ आए और राजा पद्म से (भाई से) सारी बातें अवगत कर मुनिवेष छोड़कर बलि के पास वामन का रूप लेकर पहुँचे, जहाँ बलि राजा दान दे रहा था। बलि ने इनसे भी कुछ मांगने को कहा।
वामन ने कहा-मुझे तीन पैर धरती दे दो। उसने कहा-आप अपने पैरों से ही नाप लें। बस! वामन विष्णुकुमार ने अपनी विक्रिया से एक पैर सुमेरुपर्वत पर रखा और दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर रखा। तीसरा पैर उठाया किन्तु उसके रखने को जगह ही नहीं थी। इतने में सर्वत्र हाहाकार मच गया, पृथ्वी कांप गई, देवों के विमान परस्पर में टकराने लग गये। चारों तरफ से क्षमा करो, क्षमा करो ऐसी आवाजें आने लगीं। देवों ने आकर बलि को बांधकर विष्णुकुमार मुनि की पूजा की और सात सौ मुनियों पर आया उपसर्ग दूर किया। विष्णुकुमार मुनि ने मुनियों के प्रति वात्सल्य करके उनका उपकार किया।
अन्त में जाकर प्रायश्चित्त आदि लेकर अपनी आत्मा का कल्याण कर लिया। उसी दिन से रक्षा की स्मृति में यह दिवस रक्षाबंधन पर्व के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। यह भगवान मल्लिनाथ के समय की बात है जिसे आज ६५ लाख ५२२ वर्ष हो गये हैं। वैसे वर्तमान में भाइयों द्वारा बहिन की रक्षा के प्रतीक के रूप में यह पर्व मनाया जा रहा है इसीलिए बहनें भाइयों के हाथ में रक्षासूत्र बांधकर मानो इस बात की प्रतिज्ञा भाइयों को देती हैं कि हमारी रक्षा का भार आपके हाथ में है।
लेकिन वास्तव में रक्षाबंधन पर्व बड़े गूढ़रहस्य को संजोये हुए है केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है कि बहनें अपने भाइयों के हाथ में पंचरंगी रेशमसूत्र की डोरी बांध दें और भाई उन्हें रुपया-पैसा या अन्य इच्छित वस्तु प्रदान करके आमोद-प्रमोदपूर्वक पर्व मना लें। आज समय बदल चुका है, कलिकाल है, हममें से हर एक को बदलना होगा तथा हर व्यक्ति को अपने कत्र्तव्य पालन करने की, अपने धर्म, धर्मायतन की रक्षा करने की शपथ लेनी होगी मात्र रक्षासूत्र बांधने या गिफ्ट दे देने से काम नहीं चलेगा।
हमें अपनी संस्कृति की रक्षा हेतु आह्वान उठाना होगा और जन-जन को जैनधर्म एवं भारतीय संस्कृति से परिचित कराना होगा। भगवान महावीर को मोक्ष गये हुए आज २५३४ वर्ष व्यतीत हो चुके हैं, लेकिन वास्तविक स्थिति यह है कि आज देश में, समाज में, घर-घर में अनेक कुतत्वों के प्रवेश से वातावरण दूषित होता जा रहा है।
हर व्यक्ति अपने पथ से विमुख हो रहा है। व्यापारी अपने व्यापार के मूल सत्य सिद्धान्तों को विस्मरण करता जा रहा है। विद्यार्थी अपने लक्ष्य विद्याध्ययन से हटकर तोड़-फोड़ हड़ताली प्रवृत्ति में आनंद ले रहा है। सदाचरण अनाचरण में परिवर्तित होता जा रहा है। तो आइए! सर्वप्रथम हम सब आज इस बात की प्रतिज्ञा करें कि भगवान् ऋषभदेव से लेकर महावीर स्वामीपर्यंत चौबीसों तीर्थंकरों द्वारा बताए हुए मूलभूत सिद्धान्त-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का पालनकर समाज में, देश में, घर-घर में सुख-शांति की स्थापना करेंगे, तभी हम महावीर के सच्चे अनुयायी कहे जा सकेगे। आज पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से जैनधर्म को मात्र २५०० वर्ष पुराना घोषित किया जा रहा है।
नर्सरी से लेकर आई.ए.एस., पी.सी.एस. की क्लासों में भी यही पढ़ाया जाता है कि जैनधर्म के संस्थापक महावीर स्वामी हैं और चूँकि बच्चे कच्चे घड़े के समान हैं जैसे उनको ढाला जाएगा वैसे ही परिपक्व होकर वे आगे की पीढ़ी का मार्गदर्शन करेंगे इसीलिए भी उनके लिए यह सब जानना अत्यन्त आवश्यक है।
‘‘जियो और जीने दो’’ के अमर सिद्धान्त को मानव भूल चुका है। आज समाजों में मांस, अण्डा, शराब एवं अभक्ष्य पदार्थों के सेवन की निरन्तर बढ़ती हुई प्रवृत्ति को देखकर दु:ख होता है। हम सबको त्याग एवं अहिंसक वृत्ति अपनाने की शपथ लेनी होगी, पग-पग पर झूठ बोलकर सत्य का गला घोंटने की प्रवृत्ति छोड़नी होगी, आचार्य उमास्वामी के सूत्र ‘अदत्तादानं अस्तेंय’ को जीवन में लाना होगा। स्त्रियाँ सती सीता जैसी चरित्रनिष्ठ एवं पातिव्रत्य धर्मपालन करने की प्रतिज्ञा करें।
पुरुषवर्ग सेठ सुदर्शन जैसे चारित्रवान बनने की प्रतिज्ञा करें, विद्वान शास्त्रों की रक्षा करें, ऐतिहासिक स्थलों,प्राचीन मंदिरों, अतिशय क्षेत्र व सिद्ध क्षेत्रों की रक्षा हेतु जन-जन की भावना को जीवन में अपनावें, तभी वात्सल्य एवं सहिष्णुता के प्रतीक रक्षाबंधन महापर्व के मनाने की सार्थकता है।