(श्रीसमन्तभद्र आचार्य विरचित)..
पद्यानुवाद-गणिनी आयिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी
मंगलाचरण
नम: श्री वर्धमानाय, निर्धूतकलिलात्मने।
सालोकानां त्रिलोकानां; यद्विद्या दर्पणायते।।१।।
जिनने सब कर्म कालिमा को, धोकर निज आत्मा शुद्ध किया।
कैवल्यज्ञान को विकसित कर, त्रयकालिक सर्व प्रत्यक्ष किया।।
जिनके सुज्ञान में दर्पणवत्, त्रयलोक अलोक झलकते हैं।
उन तीर्थंकर श्रीवर्धमान, को नमस्कार हम करते हैं।।१।।
अर्थ-जिन्होंने सम्पूर्ण कर्म कलंक को धोकर अपनी आत्मा को शुद्ध कर लिया है। केवलज्ञान को प्रकट कर तीनों कालों को प्रत्यक्ष कर लिया है। जिनके केवलज्ञान रूपी दर्पण में तीनों लोक और अलोक स्पष्ट झलकते हैं, उन तीर्थंकर श्री वर्धमान स्वामी को मैं नमस्कार करता हूँ।।१।।
उद्देश्य या धर्म का लक्षण
देशयामि समीचीनं, धर्मं कर्म-निवर्हणम्।
संसारदु:खत: सत्त्वान्, यो धरत्युत्तमे सुखे।।२।।
भवदुःख में डूबे भविप्राणी उनको कर का अवलम्बन दे।
लेता निकाल उत्तम सुख में, धरता शिव में भी पहुंचा दे।।
सब कर्म नष्ट करने वाला, बस धर्म वही कहलाता है।
मैं उसी धर्म को कहता हूँ, वह समीचीन है त्राता है।।२।।
अर्थ-जो संसार समुद्र में डूबे हुए संसारी प्राणी को हाथ का अवलम्बन देकर निकालकर उत्तम सुख में धरता है और मोक्ष में भी पहुँचा देता है। वही धर्म कहलाता है। वह सर्व कर्म को नष्ट करने वाला है, समीचीन है और रक्षक है, मैं उसी धर्म को कहूँगा।।२।।
धर्म का लक्षण
सद्दृष्टिज्ञानवृत्तानि, धर्मं धर्मेश्वरा विदु:।
यदीय-प्रत्यनी-कानि, भवन्ति भवपद्धति:।।३।।
सम्यग्दर्शन औ ज्ञान चरित, ये धर्म नाम से कहलाते।
धर्मेश्वर तीर्थंकर गणधर, इनको ही शिवपथ बतलाते।।
इनसे उल्टे मिथ्यादर्शन, औ मिथ्याज्ञान चरित्र सभी।
भव दु:खों के ही कारण हैं, नहिं हो सकते सुख हेतु कभी।।३।।
अर्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यव्âचारित्र इन्हीं का नाम धर्म है। धर्म के स्वामी तीर्थंकर और गणधर इन्हें ही मोक्ष का मार्ग कहते हैं। इनसे विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ये तीनों संसार दु:ख के कारण हैं, ये कभी भी सुख के हेतु नहीं हो सकते हैं।।३।।
सम्यग्दर्शन (सम्यक्त्व) का लक्षण
श्रद्धानं परमार्थाना-माप्तागमतपोभृताम्।
त्रिमूढापोढ-मष्टाङ्गं, सम्यग्दर्शन-मस्मयम्।।४।।
परमार्थभूत जो आप्त औ, आगम औ मुनिगण होते हैं।
इनकी श्रद्धा सम्यग्दर्शन, ये भवि का भव मल धोते हैं।।
मद आठ आठ शंकादि तीन, मूढ़त्व अनायतनं छह हैं।
इनसे विरहित अष्टांग सहित, सम्यग्दर्शन ही शिवप्रद है।।४।।
अर्थ-सच्चे आप्त, आगम और मुनि, इनकी श्रद्धा ही सम्यग्दर्शन है। ये भव्यों का भवमल धोने वाले हैं। आठ मद, शंकादि आठ दोष, तीन मूढ़ता और छह अनायतन, इन पच्चीस दोषों से रहित और आठ अंग से सहित सम्यग्दर्शन ही मोक्ष को प्रदान करने वाला है।।४।।
सत्यार्थ देव (सुदेव, सच्चे देव) का लक्षण
आप्तेनोच्छिन्नदोषेण, सर्वज्ञेनागमेशिना।
भवितव्यं नियोगेन, नान्यथा ह्याप्तता भवेत्।।५।।
जो दोष रहित हैं वीतराग, सब के ज्ञाता सर्वज्ञ कहे।
जो हित उपदेष्टा होने से, आगम के ईश्वर मान्य रहे।।
इन तीन गुणों से संयुत जो, वे निश्चित आप्त कहाते हैं।
जो इन गुण से विरहित होते, वे आप्त नहीं बन पाते हैं।।५।।
अर्थ-जो दोष रहित होने से वीतराग, सर्व के ज्ञाता होने से सर्वज्ञ और हित के उपदेशक होने से हितोपदेशी हैं। अतः आगम के ईश्वर हैं। इन तीनों गुणों से युक्त ही आप्त कहलाते हैं। किन्तु जो इन गुणों से रहित हैं वे आप्त नहीं हो सकते हैं।।५।।
वीतराग का लक्षण
क्षुत्पिपासाजरातज्र्-जन्मान्तकभयस्मया:।
न रागद्वेषमोहाश्च, यस्याप्त: स: प्रकीर्त्यते।।६।।
जो क्षुधा तृषा वृद्धावस्था, आतंक जन्म मृत्यु भीती।
मद राग द्वेष औ मोह रोग, चिन्ता निद्रा विस्मय अरती।।
हैं स्वेद, खेद मिल अष्टादश, ये दोष नहीं जिनमें होते।
बस वही आप्त है वीतराग, निर्दोष सर्व गुण होने से।।६।।
अर्थ-भूख, प्यास, बुढ़ापा, आतंक, जन्म, मरण, भय, मद, राग द्वेष, मोह, रोग, चिंता, निद्रा, आश्चर्य, अरति, पसीना और खेद ये अठारह दोष जिनमें नहीं हैं वही वीतराग है। उसे ही निर्दोष और सर्वगुण युक्त आप्त कहते हैं।।६।।
सर्वज्ञ का लक्षण या देव के विशेषण
परमेष्ठी परंज्योति-र्विरागो विमल: कृती।
सर्वज्ञोऽनादिमध्यान्त:, सार्व: शास्तोपलाल्यते।।७।।
परमेष्ठी परंज्योति आत्मा, नीराग विमल कृतकृत्य हुये।
जो आदि मध्य औ अन्त रहित, तीर्थंकर जिन सर्वज्ञ हुए।।
वे सब जन का हित करते हैं इसलिए ‘सार्व’ कहलाते हैं।
उन हित उपदेशी का शासन बस ‘सार्वभौम’ मुनि गाते।।७।।
अर्थ-जो परमेष्ठी, परंज्योति, विराग, विमल, कृतकृत्य आदि मध्य और अन्त से रहित, तीर्थंकर जिन और सर्वज्ञ हैं। सभी जन का हित करने वाले होने से ‘सार्व’ हैं, वे ही सच्चे उपदेष्टा हैं। इसीलिए उनके शासन को मुनिगण ‘सार्वभौम’ कहते हैं।।७।।
वीतराग देव के उपदेश में राग का अभाव
अनात्मार्थं बिना रागै:, शास्ता शास्ति सतो हितम्।
ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शान्मुरज: किमपेक्षते।।८।।
जैसे मृदंग शिल्पी करके, ताड़न से बजने लगता है।
नहिं रहे अपेक्षा कुछ उसको, वह बिन इच्छा ही बजता है।।
वैसे ही जिनवर बिना राग, बिन इच्छा औ बिन स्वारथ के।
निजवाणी से भव्यों को, हित उपदेश सुनाते ही रहते।।८।।
अर्थ-जैसे बजाने वाले के हाथ के ताड़न से बिना इच्छा के ही मृदंग बजने लगता है उसे कुछ अपेक्षा भी नहीं रहती है। वैसे ही जिनेन्द्र देव ाfबना इच्छा, बिना राग और बिना स्वार्थ के अपनी वाणी से भव्यों को हित का उपदेश देते हैं।।८।।
सत्यार्थ (सच्चे) शास्त्र का स्वरूप
आप्तोपज्ञमनुल्लङ्घ्य- मदृष्टेष्टविरोधकम्।
तत्त्वोपदेशकृत्सार्वं, शास्त्रं कापथघट्टनम्।।९।।
जो आप्त कथित है वचन तथ्य, जिनका न उलंघन हो सकता।
प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणों से जो, बाधित कभी न हो सकता।।
जो सब कुमार्ग का खंडन कर, तत्त्वोपदेश करने वाला।
सबका हितकारी सार्वशास्त्र, वह भ्रमतम को हरने वाला।।९।।
अर्थ-जो आप्त के द्वारा कथित है, जिसका कोई उल्लंघन या खंडन नहीं कर सकते हैं। जो प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों से बाधित नहीं होता है। सर्व कुमार्गों का खंडन कर तत्त्व का उपदेश देने वाला है। सर्व का हितकारी होने से ‘सार्व’ है। वही सच्चा शास्त्र है।।९।।
सत्यार्थगुरु (सुगुरु) का स्वरूप
विषयाशावशातीतो, निरारम्भोऽपरिग्रह:।
ज्ञानध्यानतपोरक्तस्-तपस्वी स: प्रशस्यते।।१०।।
जो विषयों की आशा के वश, नहिं कभी हुए ना होते हैं।
आरंभ-परिग्रह से विरहित, निर्ग्रन्थ दिगम्बर होते हैं।।
जो ज्ञान ध्यान औ तप में ही, अनुरागी देखे जाते हैं।
वे सच्चे साधु तपस्वी हैं, वे ही गुरुदेव कहाते हैं।।१०।।
अर्थ-जो पंचेंद्रिय के विषयों की आशा से रहित हैं, सम्पूर्ण आरम्भ और परिग्रह से रहित निर्ग्रन्थ दिगम्बर हैं, सदा ही ज्ञान, ध्यान और तप में अनुरागी हैं वे ही तपस्वी साधु सच्चे गुरु हैं।।१०।।
नि:शंज्र्ति अङ्ग (गुण) का लक्षण
इदमेवे-दृशमेव, तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा।
इत्यकम्पायसाम्भोवत्, सन्मार्गेऽसंशया रुचि:।।११।।
जिनदेव प्ररूपित तत्त्व यही, है ऐसा ही है अन्य नहीं।
नहिं अन्य रूप हो सकता है, ऐसा अचलित श्रद्धान सहीत।।
ऐसी अकंप असिधारावत्, सन्मारग में संशय विरहित।
रुचि होती जब वो ही श्रद्धा, कहलाती अंग सुनिःशंकित।।११।।
अर्थ-जिनेन्द्र देव द्वारा कथित तत्त्व यही है, ऐसा ही है, अन्य कुछ नहीं है और अन्य रूप भी नहीं है। तलवार की धार पर रखे हुए जल के सदृश ऐसा अचलित श्रद्धान करना और मोक्ष मार्ग में संशय रहित रुचि का होना निःशंकित अंग है।।११।।
नि:कांक्षित अङ्ग का स्वरूप
कर्मपरवशे सान्ते, दु:खैरन्तरितोदये।
पापबीजे सुखेऽनास्था, श्रद्धानाकाङ्क्षणा स्मृता।।१२।।
जो सुख कर्मों के परवश हैं, औ अन्त सहित क्षणभंगुर हैं।
दुःखों से व्यवहित हो जाते, औ पाप हेतु ये बीज कहें।।
जो ऐसे सांसारिक सुख की, कांक्षा किंचित् नहिं करते हैं।
इस आस्था के श्रद्धानी जन, निःकांक्षित अंग को धरते हैं।।१२।।
अर्थ-जो सुख कर्मों के आधीन है, अन्त सहित है, दुःखों से मिश्रित है और पाप का बीज है, ऐसे सांसारिक सुखों में नित्य बुद्धि से कांक्षा नहीं करना नि:कांक्षित अंग है।।१२।।
निर्विचिकित्सा अङ्ग की परिभाषा
स्वभावतोऽशुचौ काये, रत्नत्रयपवित्रिते।
निर्जुगुप्सा गुणप्रीति-र्मता निर्विचिकित्सिता।।१३।।
नरतन स्वभाव से अशुचिरूप, मलमूत्रादिक का पिंड कहा।
यह रत्नत्रय गुण से पवित्र, हो जाता है आश्चर्य अहा।।
इन रत्नत्रय युत मुनि शरीर में, ग्लानि जो नहिं करते हैं।
वे निर्विचिकित्सा अंग सहित, बस गुण में प्रीति धरते हैं।।१३।।
अर्थ-यह मानव शरीर स्वभाव से ही अपवित्र है क्योंकि यह मल-मूत्रादि का पिंड है। फिर भी यह रत्नत्रय गुण से पवित्र हो जाता है। अत: रत्नत्रय से युत मुनि के शरीर को देखकर ग्लानि नहीं करना और उनके गुणों में प्रीति करना निर्विचिकित्सा अंग है।।१३।।
अमूढ़दृष्टि अङ्ग का लक्षण
कापथे पथि दु:खानां, कापथस्थेप्यसम्मति:।
असम्पृक्ति-रनुत्कीर्ति-रमूढा-दृष्टिरुच्यते।।१४।।
मिथ्यात्व मार्ग दुःखों का पथ, इस मारग में जो चलते हैं।
उस कुपथ और कूपथिकों का, अनुमोदन कभी न करते हैं।।
नहिं उनका गुण कीर्तन करते, नहिं उनकी संगति करते हैं।
वे जन अमूढ़दृष्टी नामक, सम्यक्त्व अंग को धरते हैं।।१४।।
अर्थ-मिथ्यात्व दु:खों का मार्ग है, इस मार्ग में चलने वाले भी दुःख पथ में ही चलते हैं। उन कुपथ और कुपथिकों को मन से सहमति नहीं देना, शरीर से उनकी सराहना नहीं करना और वचनों से भी उनकी प्रशंसा नहीं करना अमूढ़दृष्टि अंग है।।१४।।
उपगूहन अङ्ग का लक्षण
स्वयं शुद्धस्य मार्गस्य, बालाशक्तजनाश्रयाम्।
वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति, तद्वदन्त्युपगूहनम्।।१५।।
यह मोक्षमार्ग है स्वयं शुद्ध, जिनदेव कथित शाश्वत निश्चित।
बस मूढ़ अशक्त जनों से ही, हो जाता मलिन कभी किंचित्।।
उनके दोषों को जैसे हो, वैसे जननीवत ढकते हैं।
वे ही उपगूहन अंग सहित, सम्यक्दर्शन गुण लभते हैं।।१५।।
अर्थ-मोक्ष मार्ग स्वयं शुद्ध है। मूढ़, अज्ञानी या असमर्थजनों के निमित्त से कभी इसमें कुछ दोष लग जाने से निंदा हो जाती है। सो जैसे बने वैसे माता के समान उनके दोषों को ढक देना उपगूहन अंग है।।१५।।
स्थितिकरण अंग की परिभाषा
दर्शनाच्चरणाद्वापि, चलतां धर्मवत्सलै:।
प्रत्यवस्थापनं प्राज्ञै:, स्थितिकरणमुच्यते।।१६।।
यदि कोई सम्यग्दर्शन से , च्युत होते हों या चारित से।
जो धर्म प्रेमवश उनको फिर, उसमें वापस स्थिर करते।।
वे बुद्धिमान स्थितीकरण सम्यक्त्व अंग को भजते हैं।
वे ही अपनी आत्मा को भी, निज में स्थिर कर सकते हैं।।१६।।
अर्थ-यदि कोई सम्यग्दर्शन से या सम्यक् चारित्र से च्युत हो रहा हो, तो धर्मप्रेमवश उसे वापस फिर उसी में स्थिर कर देना स्थितिकरण अंग है। इस तरह स्थिर करने वाले बुद्धिमान पुरुष ही अपनी आत्मा में अपने को स्थिर कर लेते हैं।।१६।।
वात्सल्य अंग (गुण) का लक्षण
स्वयूथ्यान्प्रति सद्भाव-सनाथापेतवैâतवा।
प्रतिपत्ति-र्यथायोग्यं, वात्सल्यमभिलप्यते।।१७।।
सहधर्मी जन के प्रति नितप्रति, सद्भाव सहित प्रीती करते।
छल कपट रहित हो यथायोग्य, भक्ती विनयादिक भी करते।।
गोवत्स प्रीति सम सहज प्रीति, करके वत्सल गुण धरते हैं।
वात्सल्य अंगधारी भविजन, ही धर्म प्रेम कर सकते हैं।।१७।।
अर्थ-सहधर्मीजनों के प्रति जो हमेशा ही छल कपट रहित होकर सद्भावना रखते हुए प्रीति करते हैं और यथायोग्य उनके प्रति विनय, भक्ति आदि भी करते हैं, वे ही वात्सल्य अंग के धारी होते हैं।।१७।।
प्रभावना अङ्ग का स्वरूप
अज्ञानतिमिरव्याप्ति-मपाकृत्य यथायथम्।
जिनशासनमाहात्म्य-प्रकाश: स्यात्प्रभावना।।१८।।
अज्ञान अन्धेरा सब जग में, सब तरफ व्याप्त हो रहा अरे।
दृग होते भी अज्ञानी को, हा ! सचमुच अन्धे सदृश करे।।
जैसे हो वैसे उसे दूर कर, जो स्वधर्म विस्तरते हैं।
जिनशासन का माहात्म्य प्रकाशन, कर प्रभावना करते हैं।।१८।।
अर्थ-अज्ञानरूपी अंधकार सर्व जगत में व्याप्त हो रहा है। जिससे नेत्र सहित भी अज्ञानी जीव अंधे के सदृश हो रहे हैं। जैसे होवे वैसे उस अज्ञान अंधकार को दूर कर अपने जैन धर्म के माहात्म्य का प्रकाश फैलाना प्रभावना अंग है।।१८।।
आठ अंगों (गुणों) में प्रसिद्ध व्यक्ति
ताव-दञ्जन-चौरो-ऽङ्गे, ततोऽनन्तमती स्मृता।
उद्दायनस्तृतीयेऽपि, तुरीये रेवती मता।।१९।।
निःशंकित हो अंजन तस्कर, तत्क्षण ही विद्या सिद्ध किया।
विषयेच्छा छोड़ अनंतमती, दुःख सह आर्यापद ग्रहण किया।।
उद्दायन ने विचिकित्सा तज, मुनि की बहु वैयावृत्य किया।
रेवती मूढ़ नहिं बनी परीक्षा, में निज को उत्तीर्ण किया।।१९।।
अर्थ-पहले निःशंकित अंग में अंजन चोर प्रसिद्ध हुआ जिसने आकाशगामी विद्या सिद्ध कर ली। अनंतमती ने अनेक दुःखों को सहन किया, फिर भी विषय भोगों की इच्छा नहीं की, इसलिए निःकांक्षित अंग में नाम पाया। उद्दायन राजा ने मुनि की वैयावृत्ति करके निर्विचिकित्सा अंग पाला और रेवती रानी ने क्षुल्लक द्वारा की गई परीक्षा में उत्तीर्णता प्राप्त कर अमूढ़दृष्टि अंग में नाम कमाया।।१९।।
ततो जिनेन्द्रभक्तोऽन्यो, वारिषेणस्तत: पर:।
विष्णुश्च वङ्कानामा च, शेषयो-र्लक्ष्यतां गतौ।।२०।।
उपगूहन में ही जिनेन्द्र भक्त ने, ब्रह्मचारी का दोष ढका।
मुनि वारिषेण ने पुष्पडाल को, स्थिर कर निज संघ रखा।।
मुनि विष्णू सातशतक मुनि की, रक्षा कर वत्सल गुण पाला।
मुनि वङ्काकुमार जैन का रथ, निकलाकर कीना उजियाला।।२०।।
अर्थ-जिनेन्द्र भक्त सेठ ने ब्रह्मचारी के दोष को ढककर उपगूहन अंग पाला। मुनि श्री वारिषेण ने पुष्पडाल मित्र को स्थिर करके स्थितिकरण किया। विष्णुकुमार मुनि ने सात सौ मुनियों की रक्षा कर वात्सल्य अंग में प्रसिद्धि पाई और वङ्काकुमार मुनिराज ने जैन का रथ निकलवाकर प्रभावना अंग में अपना नाम अमर किया है।।२०।।
अंगहीन सम्यग्दर्शन की असमर्थता
नाङ्गहीनमलं छेत्तुं, दर्शनं जन्मसन्ततिम्।
न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो, निहन्ति विषवेदनाम्।।२१।।
इन आठ अंग में एक अंग भी, कम हो यदि तो वह सम्यक्।
भव संतति का छेदन करने में, नहिं समर्थ हो सकता सच।।
इक अक्षर से भी न्यून मंत्र, क्या विष की व्यथा मिटा सकता।
अतएव अंग वसु पूर्ण करो, तब दर्शन मुक्ति दिला सकता।२१।।
अर्थ-इन आठ अंगों में से यदि एक अंग भी न हो तो वह सम्यग्दर्शन संसार की परम्परा का नाश करने में समर्थ नहीं हो सकता है, क्योंकि एक अक्षर से न्यून मंत्र क्या विष की वेदना को दूर कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता, अत: उन आठ अंगों से पूर्ण ही सम्यक्त्व मुक्ति को प्राप्त कराने वाला है।।२१।।
लोकमूढ़ता का लक्षण
आपगा-सागर स्नान-मुच्चय: सिकताश्मनाम्।
गिरिपातोऽग्निपातश्च, लोकमूढं निगद्यते।।२२।।
नदि सागर में स्नान किये से, मैं पवित्र हो जाऊँगा।
बालू पत्थर के ढेर लगा , मन वांछित सुख पा जाऊँगा।।
पर्वत से गिरकर मरने से, अग्नि में जलकर मरने से।
जो धर्म मानते हैं समझो, बस लोकमूढ़ता के वश वे।।२२।।
अर्थ-नदी, सागर में स्नान करके अपने को पवित्र मानना, बालू पत्थर के ढेर लगाने से, पर्वत से गिरकर मरने से, अग्नि में जलकर मरने से धर्म मानना, वह लोकमूढ़ता है।।२२।।
देवमूढ़ता का लक्षण
वरोपलिप्सयाशावान्, रागद्वेषमलीमसा:।
देवता यदुपासीत, देवतामूढमुच्यते।।२३।।
वरदान प्राप्ति की इच्छा से, जो प्राणी आशा के वश में।
रागी द्वेषी देवी देवों की, ही उपासना करने में।।
तत्पर रहते हैं उनकी ही, यह देवमूढ़ता कहलाती।
जो जिनशासन के भक्त सदा, यह उनके पास नहीं आती।।२३।।
अर्थ-वर प्राप्ति की इच्छा से रागी द्वेषी देव-देवियों की उपासना करना देवमूढ़ता है। जो जिनशासन के भक्त हैं वे इस मूढ़ता से दूर रहते हैं।।२३।।
गुरु (पाखण्डि) मूढ़ता की परिभाषा
सग्रन्थारंभहिंसानां, संसारावर्तवर्तिनाम्।
पाखण्डिनां पुरस्कारो, ज्ञेयं पाखण्डिमोहनम्।।२४।।
आरम्भ परिग्रह हिंसा में, आसक्त सदा जो रहते हैं।
संसार सिंधु में डूब रहे, नहिं कथमपि वो तिर सकते हैं।।
ऐसे पाखण्डी गुरुओं को, जो गुरू मान कर भजते हैं।
वे ही पाखण्ड बढ़ाते हैं, औ गुरू मूढ़ता भजते हैं।।२४।।
अर्थ-जो आरम्भ, परिग्रह और हिंसा में सदा आसक्त रहते हैं। वे संसार समुद्र में डूब रहे हैं तिर नहीं सकते हैं। जो ऐसे पाखंडी गुरुओं को गुरू मानकर उनकी उपासना करते हैं वे पाखंड को बढ़ाने वाले हैं, वे ही गुरुमूढ़ता वाले हैं।।२४।।
मद का लक्षण और भेद
ज्ञानं पूजां कुलं जातिं, बलमृद्धिं तपो वपु:।
अष्टावाश्रित्य मानित्वं, स्मयमाहुर्गतस्मया:।।२५।।
निजज्ञान और निजपूजा का, निजकुल जाती का निजबल का।
निज वैभव का निज तप का औ, निज के शरीर सुन्दरता का।।
इन आठों से या किसी एक के, आश्रय से मद हो जाता।
मदरहित मुनी मद करने को, बस दोष कहें ये दुःखदाता।।२५।।
अर्थ-अपने ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, वैभव, तप और रूप इन आठों में से किसी एक, दो आदि के आश्रय से गर्व करना मद है। मद से रहित साधु मद करने को दोष कहते हैं।।२५।।
मद (गर्व) से हानि
स्मयेन योऽन्यानत्येति, धर्मस्थान् गर्विताशय:।
सोऽत्येति धर्ममात्मीयं, न धर्मो धार्मिवैâ-र्बिना।।२६।।
जो मद के वश उन्मत्त हुआ, धर्मीजन का अपमान करे।
वह अभिमानी अपने स्वधर्म का, ही सचमुच अपमान करे।।
क्योंकि धर्मात्मा लोगों के बिन, धर्म नहीं रह सकता है।
अतएव सदृष्टी धर्मी का अपमान नहीं कर सकता है।।२६।।
अर्थ-जो मद के वश मत्त होकर धर्मात्मा जन का अपमान करते हैं वे अतिमानी अपने स्वधर्म का ही अपमान करते हैं क्योंकि धर्म धर्मात्माजनों के बिना नहीं रह सकता है इसलिए सम्यग्दृष्टि धर्मात्माओं का अपमान नहीं कर सकता है।।२६।।
गर्वत्याग के विषय में विचार
यदि पापनिरोधोऽन्य-सम्पदा किं प्रयोजनम्।
अथ पापास्रवो-ऽस्त्यन्य-सम्पदा किं प्रयोजनम्।।२७।।
यदि पापास्रव रुक जाता है, तो अन्य संपदा से क्या है ?
यदि पापास्रव होता रहता, तो अन्य संपदा से क्या है ?
अतएव पाप के कारण को, छोड़ो पापास्रव को रोको।
फिर सभी संपदा तुम्हें स्वयं, मिल जायेगी ऐसा सोचो।।२७।।
अर्थ-यदि पाप का आस्रव रुक जाता है तो अन्य सम्पत्ति से क्या प्रयोजन है ? और यदि पाप का आस्रव होता रहता है तो अन्य सम्पत्ति से क्या प्रयोजन है ? अतएव पाप के कारणों का त्याग करके पापास्रव को रोको। पुन: सभी सम्पदायें तुम्हें स्वयं मिल जायेंगी।।२७।।
मदत्याग के विचार का स्पष्टीकरण
सम्यग्दर्शन-सम्पन्न-मपि मातङ्ग-देहजम्।
देवा देवं विदु-र्भस्म-गूढाङ्गारान्तरौजसम्।।२८।।
जिस तरह भस्म से ढका हुआ, अंगारा अन्दर तेज सहित।
वैसे मातंग देहधारी, मानव भी सम्यग्दर्शन युत।।
इस जग में ऐसे मानव को, श्रीगणधरदेव देव कहते।
सम्यग्दर्शन की महिमा यह जो, नर क्या पशु भी सुर बनते।।२८।।
अर्थ-चांडाल देहधारी मनुष्य यदि सम्यग्दर्शन से युक्त है तो वह राख से ढके हुए अंगारे के समान अन्दर से तेजस्वी है। ऐसे मनुष्य को श्री गणधरदेव संसार में देव कहते हैं। यह सब सम्यग्दर्शन की महिमा है जो कि मनुष्य क्या पशु भी देव हो जाते हैं।।२८।।
धर्म (पुण्य) और अधर्म (पाप) का फल
श्वापि देवोऽपि देव: श्वा, जायते धर्मकिल्विषात्।
कापि नाम भवेदन्या, सम्पद्धर्माच्छरीरिणाम्।।२९।।
बस एक धर्म की महिमा ही, जो कुत्ता भी सुर हो जाता।
औ पाप किये से सुर भी तो, कुत्ता हो पशु योनी पाता।।
क्या कोई ऐसी संपति है, जो नहीं धर्म से मिल सकती ?
प्राणी को जग के वैभव क्या, मुक्ती भी इस ही से मिलती।।२९।।
अर्थ-इस धर्म के प्रभाव से कुत्ता जैसा हीन पशु भी देव हो जाता है और पाप के निमित्त से देव भी कुत्ता हो जाता है। ऐसी कोई भी सम्पत्ति नहीं है जो धर्म से नहीं मिल सकती है। प्राणियों को जगत के वैभव से क्या मुक्ति भी इसी धर्म से ही मिलती है।।२९।।
सम्यग्दृष्टि के कुदेवादिक के विनय आदिक का निषेध
भयाशा-स्नेह-लोभाच्च-कुदेवागमलिङ्गिनाम्।
प्रणामं विनयं चैव, न कुर्य्यु: शुद्धदृष्टय:।।३०।।
जो हैं कुदेव कुश्रुत कुगुरु, उनको भय से या आशा से।
सम्यग्दृष्टि नहिं विनय करें, स्नेह लोभ अथवा रुचि से।।
नहिं नमस्कार भी करें कभी, वे ही निज सम्यक् शुद्ध करें।
जिनदेव शास्त्र गुरु का शरणा, लेकर ही सब सुख प्राप्त करें।।३०।।
अर्थ-कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरुओं को सम्यग्दृष्टि जन भय से, आशा से, प्रेम से अथवा लोभ से नमस्कार नहीं करते हैं। तभी वे अपना सम्यग्दर्शन शुद्ध कर सकते हैं, क्योंकि सच्चे देव, शास्त्र और गुरु की शरण से सम्पूर्ण सुखों की प्राप्ति होती है।।३०।।
मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन की मुख्यता
दर्शनं ज्ञानचारित्रात्, साधिमानमुपाश्नुते।
दर्शनं कर्णधारं तन्, मोक्षमार्गे प्रचक्ष्यते।।३१।।
दर्शन यह ज्ञान चरित पेक्षा, साधित करना चाहिए सबको।
खेवटिया है भवसागर से, यह मोक्ष मार्ग में जाने को।।
अतएव प्रयत्न सभी करके, सम्यग्दर्शन को प्राप्त करो।
यदि भवसमुद्र तिरना चाहो, तो इसमें नहीं प्रमाद करो।।३१।।
अर्थ-ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा इस सम्यग्दर्शन को विशेष रीति से प्राप्त करना चाहिए क्योंकि संसार समुद्र से पार कर मोक्ष मार्ग में पहुँचाने के लिए यह कर्णधार-खेवटिया के समान है। अतः प्रमाद छोड़कर पूर्ण प्रयत्न करके इस सम्यग्दर्शन को ग्रहण करना चाहिए।।३१।।
मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन की मुख्यता का कारण
विद्यावृत्तस्य सम्भूति-स्थितिवृद्धिफलोदया:।
न सन्त्यसति सम्यक्त्वे, बीजाभावे तरोरिव।।३२।।
सम्यग्विद्या औ चारित की, उत्पत्ति स्थिति औ वृद्धी।
फल का होना नहिं हो सकता, जब तक नहिं हो सम्यग्दृष्टी।।
जिस तरह बीज नहिं होवे तो, तरु की उत्पत्ति स्थिति वृद्धी।
फल लगना कैसे हो सकते ? वैसे ही समकित बिन सिद्धी।।३२।।
अर्थ-सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल तभी हो सकता है जब सम्यग्दर्शन है। जैसे कि बीज के बिना वृक्ष की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल नहीं हो सकते हैं। वैसे ही सम्यक्त्व के बिना सिद्धि नहीं हो सकती हैं।।३२।।
सम्यग्दर्शन की उत्कृष्टता का भिन्न कारण
गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो, निर्मोहो नैव मोहवान्।
अनगारो गृही श्रेयान्, निर्मोहो मोहिनो मुने:।।३३।।
यदि मोह रहित है सद्गृहस्थ, वह मोक्ष मार्ग में सुस्थित है।
यदि मुनि होकर भी मोह सहित, नहिं शिवपथ में वह स्थित है।।
इस कारण मिथ्यात्वी मुनि से, वह श्रावक ही श्रेयस्कर है।
जो मिथ्यादर्शन से विरहित, वह सम्यक्त्वी निज हितकर है।।३३।।
अर्थ-यदि मोह रहित सद्गृहस्थ है तो वह मोक्ष मार्ग में स्थित है और यदि मुनि होकर भी मोह सहित है तो वह मोक्षमार्ग में स्थित नहीं है। इसलिए मिथ्यादृष्टी मुनि की अपेक्षा वह श्रावक ही श्रेयस्कर है जो कि मिथ्यात्व से रहित सम्यग्दृष्टी है।।३३।।
सम्यग्दर्शन की उत्कृष्टता का अन्य कारण
न सम्यक्त्वसमं किञ्चित्, त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि।
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्व-समं नान्यत्तनूभृताम्।।३४।।
संसारी को तीनों कालों, औ तीनों ही लोकों में भी।
नहिं सम्यग्दर्शन सम किंचित्, श्रेयस्कर हो सकता कुछ भी।।
वेसे ही मिथ्यादर्शन सम, तीनों लोकों त्रयकालों में।
दुःखकारी नहिं किचित् कुछ भी, हो सकता यह समझो मन में।।३४।।
अर्थ-तीनों लोकों और तीनों कालों में संसारी जीवों के लिए सम्यग्दर्शन के समान हितकारी और कुछ भी नहीं है। वैसे ही मिथ्यादर्शन के समान तीनों लोकों और तीनों कालों में अन्य कुछ भी दुःखकारी नहीं है।।३४।।
सम्यग्दर्शन की उत्कृष्टता का कारणान्तर,
महिमा और सम्यग्दृष्टि की अनुत्पत्ति के स्थान
सम्यग्दर्शनशुद्धा, नारकतिर्यङ्नपुंसकस्त्रीत्वानि।
दुष्कुलविकृताल्पायु-र्दरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यव्रतिका:।।३५।।
सम्यग्दर्शन से शुद्ध यदी, तो भले अव्रती ही होवे।
नारक तिर्यंच नपुंसक औ, स्त्री पर्याय न वह पावे।।
वह नीचकुली विकृत अंगी, अल्पायु दरिद्री नहिं होता।
भवनत्रिक एकेंद्रिय विकलत्रय, हीन मनुष भी नहिं होता।।३५।।
अर्थ-सम्यग्दर्शन से शुद्ध हुआ मनुष्य यदि अव्रती भी है तो भी वह नारकी, तिर्यंच, नपुंसक, स्त्री, नीचकुली, विकृत अंगवाला, अल्प आयु वाला और दरिद्री नहीं होता है। भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी भी नहीं होता। एकेन्द्रिय और विकलत्रय में भी जन्म नहीं लेता है।।३५।।
सम्यग्दृष्टि ही मरने पर महापुरुष होते हैं
ओजस्तेजोविद्या-वीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथा:।
महाकुला महार्था, मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूता:।।३६।।
सम्यग्दर्शन से शुद्ध मनुज, ओजस्वी तेजस्वी होते।
विद्या शक्ती यश वृद्धि विजय, औ वैभव के स्वामी होते।।
इक्ष्वाकु आदि उत्तम कुल में, ले जन्म महा पुरुषार्थी हो।
सब मानव में हों तिलकभूत, यह सम्यग्दर्शन का फल हो।।३६।।
अर्थ-शुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करने वाले मनुष्य ओजस्वी, तेजस्वी होते हैं। विद्या, शक्ति, यश, वृद्धि और विजय को प्राप्त कर अनेक वैभव के स्वामी होते हैं। इक्ष्वाकु आदि उत्तम कुल में जन्म लेकर महापुरुषार्थी होते हैं और सभी मनुष्यों में तिलकभूत होते हैं।।३६।।
सम्यग्दृष्टि ही इन्द्रपद पाते हैं
अष्टगुणपुष्टितुष्टा, दृष्टिविशिष्टा: प्रकृष्टशोभाजुष्टा:।
अमराप्सरसां परिषदि, चिरं रमन्ते जिनेन्द्रभक्ता: स्वर्गे।।३७।।
सम्यग्दर्शन से सहित हुये जो, श्री जिनेन्द्र के भक्त सदा।
अणिमादिक आठ गुणों से युत, उत्तम शोभा से युक्त मुदा।।
देवी अप्सरियों के परिषद में, बहुत काल तक रमते हैं।
होते सौधर्म इंद्र आदिक, नित जिनवर को ही भजते हैं।।३७।।
अर्थ-जो सम्यग्दृष्टि श्री जिनेन्द्रदेव के भक्त हैं, वे अणिमा, महिमा आदि आठ ऋद्धियों से युक्त, उत्तम शोभा से सहित, देवियों और अप्सराओं की सभा में चिरकाल तक सुख भोगते रहते हैं। इस तरह स्वर्ग में सौधर्म इन्द्र आदि के वैभव को प्राप्त करते हैं।।३७।।
सम्यग्दृष्टि ही चक्रवर्ती होते हैं
नवनिधिसप्तद्वयरत्ना-धीशा: सर्व-भूमि-पतयश्चक्रम्।
वर्तयितुं प्रभवन्ति, स्पष्टदृश: क्षत्रमौलिशेखरचरणा:।।३८।।
नवनिधि चौदह रत्नों को पा, छह खंड भूमि को विजय करें।
नृपगण बत्तीस हजार मुकुट-बद्धों को पग में नमित करें।।
वो चक्ररत्न का वर्तन कर, जग में प्रभाव फैलाते हैं।
शुचि सम्यग्दर्शन के फल से, ही चक्रवर्ति कहलाते हैं।।३८।।
अर्थ-नवनिधि चौदह रत्नों को पाकर छहखंड पृथ्वी को जीत लेते हैं। बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उनके चरणों में नमस्कार करते हैं, चक्ररत्न को प्रवर्तित करके इस पृथ्वी पर एक छत्र शासन करते हैं। ऐसी चक्रवर्ती की सम्पत्ति भी सम्यग्दर्शन से ही प्राप्त होती है।।३८।।
सम्यग्दृष्टि ही तीर्थंकर होते हैं
अमरासुरनर-पतिभि-र्यमधरपतिभिश्च नूतपादाम्भोजा।
दृष्ट्या सुनिश्चितार्था वृषचक्रधरा भवन्ति लोकशरण्या:।।३९।।
सुरपति नरपति अहिपति खगपति, औ यतिपति गणधर देव सभी।
जिनके चरणाम्बुज को नमते, जो सबके शरणभूत नित ही।।
ऐसे तीर्थंकर पद पाकर, वे धर्म चक्रधारी होते।
जो सम्यग्दर्शन से पवित्र, तत्त्वों के श्रद्धानी होते।।३९।।
अर्थ-देवेन्द्र, चक्रवर्ती, धरणेन्द्र, विद्याधर, मुनिपति और गणधर ये सभी जिनके चरण कमलों को नमस्कार करते हैं। जो सभी के लिए शरणभूत हैं। ऐसे तीर्थंकर पद को पाकर धर्मचक्र को धारण करते हैं। सम्यग्दर्शन से पवित्र तत्त्व श्रद्धानी लोग ही ऐसे तीर्थंकर पद को पाते हैं।।३९।।
सम्यग्दृष्टि ही मोक्षपद पाते हैं
शिवमजर-मरुजमक्षय-मव्याबाधं विशोकभयशज्र्म्।
काष्ठागतसुखविद्या-विभवं विमलं भजन्ति दर्शनशरणा:।।४०।।
जो सद्दर्शन की शरणागत, वे जरा रोग से रहित धाम।
भय शोक और शंका विरहित, अक्षय औ अव्याबाध नाम।।
वह चरम अवस्था प्राप्त सौख्य, परिपूर्ण ज्ञानयुत वैभव है।
मल कर्म रहित शिवपद उत्तम, पा लेते सद्दृष्टी जन हैं।।४०।।
अर्थ-जो सम्यग्दर्शन की शरण ले चुके हैं वे जरा, रोग, शोक और शंका से रहित, अक्षय अव्याबाध, अंतिम अवस्था को प्राप्त परम सौख्य और परिपूर्ण ज्ञान युक्त तथा कर्म मल रहित मोक्षधाम को भी प्राप्त कर लेते हैं।।४०।।
सम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति के स्थानों का उपसंहार
देवेन्द्र-चक्र-महिमान-ममेयमानं,
राजेन्द्र-चक्रमवनींद्र-शिरोऽर्चनीयम्।
धर्मेन्द्र-चक्रमधरी-कृत-सर्वलोकं,
लब्ध्वा शिवं च जिनभक्तिरुपैति भव्य:।।४१।।
जो भव्यजीव सम्यग्दृष्टी, जिनवर की भक्ती में रत हैं।
देवेन्द्रचक्र को प्राप्त करें, भोगे ऐश्वर्य अपरिमित हैं।।
नृपगण से शिरसा अर्चनीय, राजेन्द्र चक्र को पाते हैं।
त्रिभवन उत्तम धर्मेन्द्र चक्र, पाकर शिवलक्ष्मी पाते हैं।।४१।।
अर्थ-जो भव्य जीव सम्यग्दष्टि हैं जिनेन्द्र देव की भक्ति में सदा तत्पर रहते हैं। वे ही देवेन्द्र चक्र (सौधर्म इन्द्र) को प्राप्त करके अपरिमित ऐश्वर्य को भोगते हैं। राजाओं से अर्चनीय ऐसे राजेन्द्र चक्र (चक्रवर्ती पद) को पाते हैं पुन: त्रिभुवन में उत्तम ऐसे धर्मेन्द्र चक्र (तीर्थंकर पद) को प्राप्त करके मुक्ति लक्ष्मी को भी प्राप्त कर लेते हैं।।४१।।
धर्म के द्वितीय भेद सम्यग्ज्ञान का लक्षण
अन्यूनमनतिरिक्तं, याथातथ्यं बिना च विपरीतात्।
नि:संदेहं वेद, यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिन:।।४२।।
जो ज्ञान वस्तुओं के स्वरूप को, ऊन रहित और अधिक रहित।
विपरीत रहित संशय विहीन,ज्यों की त्यों जान रहा निश्चित।।
उसका ही सम्यग्ज्ञान नाम, श्री गणधर ने बतलाया है।
औ वेद उसी को भी कहते, जो चार भेद से गाया है।।४२।।
अर्थ–जो ज्ञान वस्तु के स्वरूप को न्यूनता रहित, अधिकता से रहित, विपरीतता रहित और संशय रहित ज्यों की त्यों जानता है, उसी का नाम सम्यग्ज्ञान है। इसे ही वेद कहते हैं और इसके चार भेद माने गये हैं। अर्थात् प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग नाम से ये प्रसिद्ध हैं।।४२।।
सम्यग्ज्ञान के विषय प्रथमानुयोग का स्वरूप
प्रथमानुयोग-मर्था-ख्यानं, चरितं पुराणमपि पुण्यम्।
बोधिसमाधिनिधानं, बोधति बोध: समीचीन:।।४३।।
जो धर्म अर्थ औ काम मोक्ष, पुरुषार्थ कहे औ चरित कहे।
त्रयसष्ठि शलाका पुरुषों के, आदर्श महान पुराण कहे।।
वह पुण्य रूप है रत्नत्रयमय, बोधि समाधि निधान महा।
यह समीचीन है ज्ञान उसे, प्रथमानुयोग है नाम कहा।।४३।।
अर्थ-जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों को, किसी एक महापुरुष के चरित को, त्रेसठ शलाका पुरुषों के पुराण को कहता है, पुण्य रूप है, रत्नत्रयमय बोधि और समाधि का खजाना है, उस समीचीन ज्ञान को प्रथमानुयोग कहते हैं।।४३।।
सम्यग्ज्ञान के विषय करणानुयोग का स्वरूप
लोकालोक-विभक्ते-र्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च।
आदर्शमिव तथामति-रवैति करणानुयोगं च।।४४।।
जो लोक-अलोक विभाग कहे, षट्काल परावर्तन कहता।
चारों गति के संसरण कहे, भव पंच परावर्तन कहता।।
दर्पण समान वह त्रिभुवन का, सब चित्र सामने झलकाता।
वह शास्त्र सदा करणानुयोग, यह नाम धरे भवि सुखदाता।।४४।।
अर्थ-जो लोक-अलोक के विभाग को, छह काल के परिवर्तन को, चारों गतियों के परिभ्रमण को और संसार के पाँच परिवर्तन को कहता है। तीन लोक का सम्पूर्ण चित्र दर्पण के समान झलकाता है, उस शास्त्र को करणानुयोग कहते हैं।
सम्यग्ज्ञान के विषय चरणानुयोग का स्वरूप
गृहमेध्यनगाराणां, चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षाङ्गम्।
चरणानुयोगसमयं, सम्यग्ज्ञानं विजानाति।।४५।।
श्रावक मुनि के आचाररूप, चारित्र सही जो बतलाता।
उसकी उत्पत्ति वृद्धि और, रक्षा के साधन सिखलाता।।
चरणानुयोग है शास्त्र वही, जो मोक्ष महल में चढ़ने को।
चरणों को रखने हेतु सहज, सोपानरूप समझो इसको।।४५।।
अर्थ-जो श्रावक और मुनि के आचरणरूप चारित्र का वर्णन करता है, उनके चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के साधनों को बतलाता है वह चरणानुयोग शास्त्र है। यही मोक्ष महल में चढ़ने वालों को चरण (पग) रखने के लिए सीढ़ी के समान है।।४५।।
सम्यग्ज्ञान के विषय द्रव्यानुयोग का स्वरूप
जीवाजीवसुतत्त्वे, पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च।
द्रव्यानुयोगदीप:, श्रुतविद्यालोकमातनुते।।४६।।
जो जीव-अजीव सुतत्त्वों को, औ पुण्य-पाप को बतलाता।
आस्रव संवर औ बंध मोक्ष, तत्त्वों को विधिवत् समझाता।।
वह दीप सदृश द्रव्यानुयोग, द्रव्यों को प्रगट दिखाता है।
श्रुत विद्या के सुन्दर प्रकाश में, निज पर का भान कराता है।।४६।।
अर्थ-जो जीव-अजीव तत्त्वों को, पुण्य-पाप को, आस्रव, संवर, बंध और मोक्ष इन सभी तत्त्वों को सही-सही समझाता है। वह दीपक के सदृश द्रव्यों को प्रगट दिखलाने वाला द्रव्यानुयोग है। यह श्रुतज्ञान के प्रकाश में निज और पर का भान कराने वाला है।।४६।।
चारित्रधारण करने की आवश्यकता
मोहतिमिरापहरणे, दर्शनलाभादवाप्तसञ्ज्ञान:।
रागद्वेषनिवृत्यै, चरणं प्रतिपद्यते साधु:।।४७।।
मोहांधकार जब दूर हटे, सम्यग्दर्शन प्रगटित होता।
उस ही क्षण सम्यग्ज्ञान उदय, होकर सब मिथ्यामल धोता।।
फिर राग-द्वेष को दूर करन, हेतू भविजन चारित धरते।
चूंकि बिन चरण मोक्षपथ में, कोई नहिं इक पग धर सकते।।४७।।
अर्थ-जब मोह (मिथ्यात्व) अंधकार दूर हटकर सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है तब सम्यग्ज्ञान उदित होकर मिथ्यामल को धो डालता है। पुनः भव्यजन रागद्वेष को दूर करने के लिए सम्यक् चारित्र को ग्रहण करते हैं, क्योंकि चारित्र के बिना कोई एक पग भी मोक्ष मार्ग में नहीं धर सकते हैं।।४७।।
रागद्वेष की निवृत्ति से चारित्रोत्पत्ति
रागद्वेषनिवृत्तेर्हिंसादिनिवर्तना कृता भवति।
अनपेक्षितार्थवृत्ति:, क: पुरुष: सेवते नृपतीन्।।४८।।
राग-द्वेषादि कषायें कुछ, जब हों क्षयोपशम आदिरूप।
तब हिंसा आदि पांच पाप, दूरी करते हो चरितरूप।।
क्योंकि धनधान्य अपेक्षा बिन, क्या कोई भी नर ऐसा है।
जो राजाओं की सेव करे, नहिं कोई भी कर सकता है।।४८।।
अर्थ-ये राग-द्वेष आदि कषायें जब कुछ क्षयोपशम आदिरूप होती हैं, तभी हिंसा आदि पांच पाप के दूर होने से चारित्र होता है। क्योंकि धन आदि की अपेक्षा के बिना क्या कोई पुरुष राजा की सेवा करता है ? अर्थात् नहीं करता है।।४८।।
सम्यक्चारित्र (धर्म के तृतीय भेद) का लक्षण
हिंसानृतचौर्येभ्यो, मैथुनसेवापरिग्रहाभ्यां च।
पापप्रणालिकाभ्यो, विरति: संज्ञस्य चारित्रम्।।४९।।
हिंसा अनृत चोरी मैथुन, औ परिग्रह पांच कहे जाते।
ये पापों के आस्रव हेतु, नालिका सदृश जाने जाते।।
इन पापों से जो विरती है, उस ही का चारित नाम कहा।
तीर्थंकर आदि नरों ने भी, इसको ही धर शिवधाम लिया।।४९।।
अर्थ-हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह ये पांच पाप हैं। ये नाली के समान पापों के आने में कारण हैं। इन पापों से विरति का नाम ही चारित्र है। तीर्थंकर आदि महापुरुषों ने इस चारित्र को धारण कर ही मोक्षपद को प्राप्त किया है।।४९।।
चारित्र के भेद और उपासक
सकलं विकलं चरणं, तत्सकलं सर्वसङ्गविरतानाम्।
अनगाराणां विकलं, सागाराणां ससङ्गानाम्।।५०।।
इस चारित के ही सकलचरित, औ विकलचरित दो भेद कहे।
संपूर्ण परिग्रह से विरहित, अनगारी सकल चरित्र ग्रहें।।
परिग्रह धारी सागारों का, चरित्र विकल कहलाता है।
जो गेही इसको धरें उन्हें, क्रम से शिव में पहुंचाता है।।५०।।
अर्थ-इस चारित्र के सकल चारित्र और विकल चारित्र ऐसे दो भेद होते हैं। संपूर्ण परिग्रह से रहित मुनि सकल चारित्र को धारण करते हैं और परिग्रह सहित गृहस्थ विकल चारित्र धारण करते हैं। जो गृहस्थ इस श्रावक के चारित्र को ग्रहण करते हैं उन्हें यह क्रम से मोक्ष में पहुँचाने वाला है।।५०।।
विकलचारित्र के भेद
गृहिणां त्रेधा तिष्ठ-त्यणुगुणशिक्षाव्रतात्मकं चरणम्।
पञ्चत्रिचतुर्भेदं, त्रयं यथासङ्ख्यमाख्यातम्।।५१।।
अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत से, त्रय भेद रूप यह विकल चरित।
इनके भी क्रम से पांच तीन, औ चार भेद मिल द्वादश विध।।
ये हैं गृहस्थ के बारह व्रत, इनको जो नर-नारी धरतें।
वे ही सच्चे श्रावक होते, वे ही शिवपथ गामी बनते।।५१।।
अर्थ-अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत ऐसे तीन भेदरूप यह विकल चारित्र होता है। इनमें भी अणुव्रत पांच, गुणव्रत तीन और शिक्षाव्रत चार ऐसे बारह भेद होते हैं। इनको जो स्त्री पुरुष धारण करते हैं वे ही सच्चे श्रावक मोक्षपथ में चलने वाले होते हैं।।५१।।
अणुव्रत का स्वरूप
प्राणातिपातवितथ – व्याहारस्तेयकाममूर्च्छेभ्य:।
स्थूलेभ्य: पापेभ्यो, व्युपरमणमणुव्रतं भवति।।५२।।
हिंसा औ झूठ तथा चोरी, मैथुन परिग्रह ये पाँच कहे।
इन पापों का स्थूल त्याग, इसका ही अणुव्रत नाम रहे।।
जो अणुव्रत को धारण करते, वे देव गती ही पाते हैं।
नारक तिर्यंच मनुष गति में, अणुव्रत धारी नहिं जातें हैं।।५२।।
अर्थ-हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पांचों पापों का स्थूल रूप से त्याग करना अणुव्रत है। जो अणुव्रतों को धारण करते हैं वे नियम से देवगति में ही जन्म लेते हैं। नरक, तिर्यंच और मनुष्य गति में जन्म नहीं ले सकते हैं।।५२।।
अहिंसाणुव्रत का लक्षण
सज्र्ल्पात्कृतकारित-मननाद्योगत्रयस्य चरसत्त्वान्।
न हिनस्ति यत्तदाहु:, स्थूलवधाद्विरमणं निपुणा:।।५३।।
मन वचन काय को कृतकारित, अनुमति से गुणते नव होते।
नव कोटी से संकल्प सहित, त्रस का जो घात नहीं करते।।
स्थूलरूप त्रस हिंसा से, वे विरत हुये अणुव्रत धरते।
श्री गणधर देव उन्हीं के तो, श्रावक का पहला व्रत कहते।।५३।।
अर्थ-मन, वचन, काय को कृत, कारित, अनुमोदना से गुणा करने पर नव भेद होते हैं। जो इन नव कोटि से संकल्पपूर्वक त्रसजीवों की हिंसा नहीं करते हैं वे स्थूलरूप से त्रसिंहसा से विरत होने से अहिंसा नहीं करते हैं। वे स्थूलरूप से त्रसहिंसा से विरत होने से अहिंसा अणुव्रती कहलाते हैं। गणधर देव इसे ही श्रावक का पहला व्रत कहते हैं।।५३।।
अहिंसाणुव्रत के पाँच अतिचार
छेदनबन्धनपीडन – मतिभारारोपणं व्यतीचारा:।
आहारवारणापि च, स्थूलवधाद् व्युपरते: पञ्च।।५४।।
जो पशु आदि के कान, नाक इत्यादि अंग को छेदें हैं।
दृढ़ सांकल आदी से बांधें, औ बेंतादी से पीटें हैं।।
शक्ती से अधिक भार लादें, भोजन, पानी न समय पर दें।
अतिचार अहिंसा अणुव्रत के, ये पाँच कहे जाते उनके।।५४।।
अर्थ-पशु आदि के नाक, कान आदि अंगों का छेदन करना, मजबूत सॉँकल आदि से बांधना, बेंत आदि से पीटना, उन पर शक्ति से अधिक भार लादना और उन्हें समय पर भोजन, पानी न देना अहिंसा अणुव्रत के ये पांच अतिचार कहे जाते हैं।।५४।।
सत्याणुव्रत का स्वरूप
स्थूलमलीकं न वदति, न परान् वादयति सत्यमपि विपदे।
यत्तद्वदन्ति सन्त:, स्थूलमृषावाद – वैरमणम्।।५५।।
स्थल झूठ नहिं आप स्वयं, बोले नहिं पर से बुलवावे।
ऐसा भी सत्य न बोले जो, पर को विपदाकृत हो जावे।।
वह सत्य अणुव्रत को पाले, ऐसा गणधर मुनि कहते हैं।
इस सत्यव्रतिक को सभी लोग, विश्वास पात्र ही कहते हैं।।५५।।
अर्थ-स्थूल झूठ न स्वयं बोलना, न दूसरों से बुलवाना और ऐसा सत्य भी नहीं बोलना कि जो दूसरों को विपत्ति देने वाला हो जावे, उसे गणधरदेव सत्य अणुव्रत कहते हैं। जो मनुष्य सत्यव्रती होते हैं वे सभी के विश्वास पात्र रहते हैं।।५५।।
सत्याणुव्रत के पाँच अतिचार
परिवाद-रहोभ्याख्या-पैशून्यं कूटलेखकरणं च।
न्यासापहारितापि च, व्यतिक्रमा: पञ्च सत्यस्य।।५६।।
झूठा उपदेश करें अन्यों की, गुप्त क्रिया को प्रकट करें।
पर की चुगली औ झूठ लेख, दस्तावेजादी झूठ लिखें।।
यदि कोई धरोहर की संख्या, भूले तो उसको हड़प करें।
सत्याणुव्रत के अतीचार ये, पांच इन्हें नहिं व्रतिक करें।।५६।।
अर्थ-झूठा उपदेश देना, अन्यों की एकान्त की गुप्त क्रियाओं को प्रगट करना, पर की चुगली निन्दा करना, झूठे लेख, दस्तावेज आदि लिखना और यदि कोई धरोहर की संख्या को भूल जावे तो उसे उतनी ही कहकर बाकी हड़प लेना, सत्याणुव्रत के ये पाँच अतिचार होते हैं। सत्यव्रती इन्हें छोड़ देते हैं।।५६।।
अचौर्याणुव्रत का लक्षण
निहितं वा पतितं वा, सुविस्मृतं वा परस्वमविसृष्टम्।
न हरति यन्न च दत्ते, तदकृशचौर्य्यादुपरिमणम्।।५७।।
परकीय वस्तु जो रखी हुई, या गिरी पड़ी या भूली हो।
बिन दिये उसे नहिं खुद लेता, नहिं अन्य किसी को देता जो।।
वह ही अचौर्य अणुव्रत पाले, वह सब जन का विश्वासी हो।
पर धन के त्यागरूप व्नत से, वह नवनिधियों का स्वामी हो।५७।।
अर्थ-पर की वस्तु रखी हुई, गिरी हुई या भूली हुई हो ऐसी पर वस्तु को बिना दिए न स्वयं लेना न दूसरों को देना अचौर्य अणुव्रत कहलाता है। इस व्रत के धारी सर्वजन के विश्वासी होते हैं और पर धन त्याग व्रत के प्रभाव से वे नवनिधियों के भी स्वामी हो जाते हैं।।५७।।
अचौर्याणुव्रत के पाँच अतिचार
चौरप्रयोगचौरार्था – दानविलोपसदृशसन्मिश्रा:।
हीनाधिकविनिमानं, पञ्चास्तेये व्यतीपाता:।।५८।।
बतलावे चोरी का उपाय, औ चोरी का धन ग्रहण करे।
राजा की आज्ञा लोप करें, औ सदृश वस्तु संमिश्र करे।।
जो बांट तोलने के हीनाधिक रखें ऐसे दोष करे।
अतिचार पांच के लगने से वह, अचौर्य अणुव्रत मलिन करे।।५८।।
अर्थ-चोरी करने का उपाय बतलाना, चोरी का धन ग्रहण करना, राजा की आज्ञा का उल्लंघन करना, किसी वस्तु में उसी सदृश अन्य वस्तु की मिलावट कर देना और तोलने के बांट हीन-अधिक रखना ये अचौर्य अणुव्रत के पांच अतिचार हैं जो कि इस व्रत को मलिन करने वाले हैं।।५८।।
ब्रह्मचर्याणुव्रत का स्वरूप
न तु परदारान् गच्छति, न परान् गमयति च पापभीते-र्यत्।
सा परदार-निवृत्ति:, स्वदारसन्तोषनामापि।।५९।।
जो पापभीरु हो पर महिला से, कामभोग नहिं स्वयं करे।
पर से दुश्चरित न करवावें, निज स्त्री में संतोष धरें।।
वे ही कुशील त्यागी-नर हैं, वे शील धुरंधर व्रत धारें।
महिलायें भी पर पुरुष त्याग, करके दो कुल यश विस्तारें।।५९।।
अर्थ-जो पाप के डर से हर स्त्री के साथ काम भोग न स्वयं करते हैं न ऐसा दुष्चरित्र अन्य से ही करवाते हैं, अपनी स्त्री में ही संतोष रखते हैं वे कुशील त्यागी मनुष्य शीलधुरंधर व्रती ब्रह्मचर्य अणुव्रत के धारी होते हैं। ऐसे ही महिलायें भी परपुरुष के त्यागरूप व्रत का पालन करके अपने दोनों कुलों का यश पैâलाने वाली होती हैं।।५९।।
ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतिचार
अन्यविवाहाकरणा – नङ्गक्रीडाविटत्वविपुलतृष:।
इत्वरिकागमनं, चास्मरस्य पञ्च व्यतीचारा:।।६०।।
पर का विवाह करवाना औ, कुत्सिग अनंग क्रीड़ा करना।
कुत्सित अश्लील वचन कहना, मैथुन की अति इच्छा रखना।।
व्यभिचारिणि महिला के घर में, आना जाना करते रहना।
अतिचार पांच ये कहलाते, इनको तज व्रत रक्षा करना।।६०।।
अर्थ-पर का विवाह करवाना, अनंग क्रीड़ा-काम सेवन से अतिरिक्त अंगों से कुचेष्टा करना, अश्लील वचन बोलना, मैथुन सेवन की अति इच्छा रखना और व्यभिचारिणी स्त्रियों के यहां आना जाना, ये पाँच ब्रह्मचर्य अणुव्रत के अतिचार हैं। इनको त्याग करके इस पवित्र व्रत की रक्षा करनी चाहिए।।६०।।
परिग्रहपरिमाणाणुव्रत का लक्षण
धनधान्यादिग्रन्थं, परिमाय ततोऽधिकेषु निस्पृहता।
परिमितपरिग्रह: स्या-दिच्छापरिमाणनामापि।।६१।।
जो क्षेत्र वास्तु हीरण्य स्वर्ण, धन धान्य दास दासी होते।
औ कुप्य भांड ये दश परिग्रह, इनका जो परीमाण करते।।
फिर उससे अधिक नहीं चाहें, परिग्रह परिमाण व्रती वे हैं।
वे घर में रहकर संतोषी, अतएव सुखी भी वे ही हैं।।६१।।
अर्थ-खेत, मकान, चांदी, सोना, धन, धान्य, दास, दासी, कुप्य- कपास वगैरह और भांड-बर्तन आदि इन दस प्रकार के परिग्रहों का परिमाण करके फिर उससे अधिक नहीं चाहना परिग्रह परिमाण अणुव्रत है। इस व्रत के धारी घर में रहकर ही संतोषी होते हैं अत: वे ही सुखी हैं।।६१।।
परिग्रहपरिमाणाणुव्रत के अतिचार
अतिवाहनातिसङ्ग्रह-विस्मयलोभातिभारवहनानि।
परिमितपरिग्रहस्य च, विक्षेपा: पञ्च लक्ष्यन्ते।।६२।।
अति वाहन रखना परिग्रह का, अति संग्रह भी करते रहना।
पर वैभव में विस्मय करना, धन का अत्यधिक लोभ रखना।।
पशुओं पर भार अति धरना, अतिचार पांच मुनिगण कहते।
परिग्रह परिमाण व्रती इनको, तज कर निर्दोष व्र्रती बनते।।६२।।
अर्थ-वाहन आदि परिग्रह अधिक रखना, वस्तुओं का अति संग्रह करना, पर के वैभव को देखकर आश्चर्य करना, धन का लोभ अधिक रखना और पशुओं पर शक्ति से अधिक भार लादना, परिग्रहपरिमाण अणुव्रत के ये पांच अतिचार हैं, इनको त्यागने से ही निर्दोष व्रती होते हैं।।६२।।
पञ्चाणुव्रत धारण का फल
पञ्चाणुव्रतनिधयो, निरतिक्रमणा: फलन्ति सुरलोकम्।
यत्रावधिरष्टगुणा, दिव्यशरीरं च लभ्यन्ते।।६३।।
ये पांच अणुव्रत निधिस्वरूप, यदि निरतिचार पाले जाते।
नर पशु नरक गति से विरहित, निश्चित स्वर्गों में पहुंचाते।।
फिर वहाँ दिव्य वैक्रियिक काय, अणिमादि आठ ऋद्धी धरते।
अवधिज्ञानी सुर हो करके, बहुसागर तक सुख अनुभवते।।६३।।
अर्थ-निधिस्वरूप ये पाँच अणुव्रत यदि निरतिचार पाले जाते हैं, तो ये नरक पशु और मनुष्य गति से रहित देवपद को प्राप्त कराते हैं। फिर वहाँ वे देव दिव्य वैक्रियिक शरीर अणिमा, महिमा आदि आठ ऋद्धियाँ और अवधिज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं तथा कई सागर तक दिव्यसुखों का उपभोग करते हैं।।६३।।
पञ्चाणुव्रतधारियों में जगत्प्रसिद्ध होने वालों के नाम
मातङ्गो धनदेवश्च, वारिषेणस्तत: पर:।
नीली जयश्च सम्प्राप्ता: पूजातिशयमुत्तमम्।।६४।।
मातंग नाम चांडाल अहिंसा, अणुव्रत में सुरमान्य हुआ।
धनदेव सत्य में वारिषेण, अस्तेय अणुव्रतवान् हुआ।।
नीली ने ब्रह्मचर्य अणुव्रत, बल से सुर अतिशय प्राप्त किया।
औ जयकुमार ने परिग्रह का, परिमाण किया जगमान्य हुआ।।६४।।
अर्थ–अहिंसा अणुव्रत पालन कर मातंग चांडाल देवों द्वारा मान्यता को प्राप्त हुआ है। सत्य अणुव्रत में धनदेव ने, अचौर्य अणुव्रत में वारिषेण ने नाम पाया है। नीलीसती ने ब्रह्मचर्य अणुव्रत पालन कर देवों द्वारा अतिशय प्राप्त किया है और जयकुमार ने परिग्रह का परिमाण करके जगत में अपना नाम धन्य किया है।।६४।।
पाँचों पापों में प्रसिद्ध व्यक्ति
धनश्रीसत्यघोषौ च, तापसारक्षकावपि।
उपाख्येयास्तथा श्मश्रु-नवनीतो यथाक्रमम्।।६५।।
हिंसा में धनश्री झूठ-कपट, में सत्यघोष बदनाम हुवा।
चोरी करके अपसर तपसी, निज तप को भी बदनाम किया।।
यमदण्ड नाम का कोतवाल, पर रमणी सेवन पाप किया।
श्मश्रुनवनीत सु लुब्धदत्त, परिग्रह से दुर्गतिवास किया।।६५।।
अर्थ-हिंसा पाप में धनश्री, झूठ में सत्यघोष पुरोहित बदनाम हुए हैं। चोरी पाप में अपसर नामा तापसी ने अपने तप को कलंकित किया है, यमदण्ड नामक कोतवाल ने परस्त्री सेवन के पाप से अपयश पाया है और श्मश्रुनवनीत इस उपनाम को धारण करने वाला लुब्धदत्त सेठ परिग्रह के पाप से दुर्गति में गया है।।६५।।
श्रावक के आठ मूलगुण
मद्यमांसमधुत्यागै:, सहाणुव्रतपञ्चकम्।
अष्टौ मूलगुणानाहु-र्गृहिणां श्रमणोत्तमा:।।६६।।
मदिरा व मांस मधु त्याग और, पंचाणुव्रत पालन करना।
ये आठ मूलगुण गेही के, बचपन से ही धारण करना।।
जिस तरह मूल के बिन वृक्ष, नहिं हो सकता निश्चित जानो।
वैसे ही मूलगुणों के बिन, श्रावक नहिं हो सकता मानो।।६६।।
अर्थ-मदिरा, मांस और शहद का त्याग करके पाँच अणुव्रतों का पालन करना ये आठ मूलगुण हैं जो कि गृहस्थों के लिए कहे गए हैं। जिस प्रकार मूल-जड़ के बिना वृक्ष नही हो सकता, उसी प्रकार इन मूलगुणों के बिना कोई भी मनुष्य श्रावक नहीं हो सकता है, ऐसा समझना।।६६।।
गुणव्रतों के नाम
दिग्व्रतमनर्थदण्डव्रतं च, भोगोपभोग-परिमाणं।
अनुवृंहणाद् गुणाना-माख्यान्ति गुणव्रतान्यार्या:।।६७।।
जो मूलगुणों को वृद्धिंगत, करते हैं औ दृढ़ करते हैं।
उनकी गुणव्रत ऐसी संज्ञा, श्रीगणधर देव उचरते हैं।।
दिग्व्रत, अनर्थदण्डनव्रत औ, भोगोपभोग परिमाण कहे।
इन तीनों व्रत को जो पालें, वे जग में अनुपम सौख्य लहें।।६७।।
अर्थ-जो मूल गुणों की वृद्धि करते हैं और उन्हें दृढ़ करते हैं श्री गणधरदेव उन्हें गुणव्रत कहते हैं। उसके दिग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोग परिमाणव्रत भेद है। इन तीनों का जो पालन करते हैं वे जगत में अनुपम सुख को प्राप्त करते हैं।।६७।।
दिग्व्रत का लक्षण
दिग्वलयं परिगणितं, कृत्वातोऽहं बहिर्न यास्यामि।
इति सज्र्ल्पो दिग्व्रत-मामृत्यणुपापविनिवृत्त्यै।।६८।।
दश दिश की मर्यादा करके, जीवन पर्यंत नियम कर ले।
इसके बाहर नहिं जाऊँगा ऐसा निश्चित जो प्रण कर ले।।
वह सूक्ष्म पाप से भी बचता, इस मर्यादा के बाहर में।
जो जन इस दिग्व्रत का धारी, वह शांति लाभ करता जग में।।६८।।
अर्थ-दशों दिशाओं की सीमा करके जीवन भर उसके बाहर नहीं जाना। मैं जीवन भर इस मर्यादा के बाहर नहीं जाऊंगा, ऐसी प्रतिज्ञा कर लेना दिग्व्रत है। वह दिग्व्रती मर्यादा के बाहर में सूक्ष्म पाप से भी बच जाता है, अत: घर में रहते हुए भी शान्ति लाभ करता है।।६८।।
दिग्व्रत की मर्यादा का प्रकार
मकराकरसरिदटवी-गिरिजनपदयोजनानि मर्यादा:।
प्राहुर्दिशां दशानां, प्रतिसंहारे प्रसिद्धानि।।६९।।
सागर सरिता वन पर्वत या, पत्तन ग्रामादि स्थानों से।
योजन या कोश प्रमाणों से, सीमा कर लेना इस विध से।।
चारों दिश औ विदिशाओं में, ऊपर औ अध: सुरंगों में।
कुछ निर्धारित सीमा करना, यह ही दिग्व्रत माना श्रुत में।।६९।।
अर्थ-समुद्र, नदी, वन, पर्वत, शहर या ग्राम आदि स्थानों द्वारा योजन या कोश प्रमाण से मर्यादा कर लेना। चार दिशा, चार विदिशा, ऊपर और नीचे सुरंग आदि में कुछ सीमा निर्धारित कर लेना यह दिग्व्रत है।।६९।।
दिग्व्रत की मर्यादा के बाहर अणुव्रतों के महाव्रतपना
अवधे-र्बहिरणुपाप-प्रतिविरतेर्दिग्व्रतानि धारयतां।
पञ्च महाव्रतपरिणति – मणुव्रतानि प्रपद्यन्ते।।७०।।
दिग्व्रत के धारी श्रावक के, इस मर्यादा के बाहर में।
अणुमात्र पाप भी नहिं होता, ऐसा निश्चित समझो मन में।।
बस इसीलिए उसके पाँचों, अणुव्रत सीमा के बाहर में।
ये पांच महाव्रतमय परिणत, हो जाते हैं समझो सच में।।७०।।
अर्थ-दिग्व्रती श्रावक के इस मर्यादा के बाहर अणुमात्र भी पाप नहीं होता है। इसलिये उसके पांचों अणुव्रत सीमा के बाहर में पांच महाव्रतरूप से परिणत हो जाते हैं।।७०।।
दिग्व्रती के मर्यादा के बाहर साक्षात् महाव्रत न होने का कारण
प्रत्याख्यानतनुत्वान्, मन्दतराश्चरणमोहपरिणामा:।
सत्त्वेन दुरवधारा, महाव्रताय प्रकल्प्यन्ते।।७१।।
प्रत्याख्यानावरणी कषाय, के मंदरूप हो जाने से।
चारित्र मोह के परीणाम, अति मंद मंदतर हो जाते।।
यद्यपि ये चारों ही कषाय, अस्तित्व लिए रहती उसमें।
फिर भी अणुव्रत महाव्रत हों, यह है उपचार विधी सच में।।७१।।
अर्थ-प्रत्याख्यानावरण कषाय के मंद हो जाने से चारित्रमोह के परिणाम भी मंद-मंद हो जाते हैं। यद्यपि उस दिग्व्रती की ये कषायें विद्यमान हैं इनका अस्तित्व मौजूद है फिर भी मर्यादा के बाहर पाप का लेश न होने से अणुव्रत महाव्रत सदृश हो जाते हैं। यह कथन उपचार से माना गया है।।७१।।
महाव्रत का लक्षण
पञ्चानां पापानां, हिंसादीनां मनोवच: कायै:।
कृतकारितानुमोदै-स्त्यागस्तु महाव्रतं महताम्।।७२।।
हिंसा अनृत चोरी मैथुन, परिग्रह ये पाँच पाप माने।
मन वचन काय को कृत कारित, अनुमति से गुणते नव जाने।।
इन नवकोटी से पाँच पाप का, जो संपूर्ण त्याग करते।
उन महापुरुष के ये पांचों, व्रत नाम महाव्रत को धरते।।७२।।
अर्थ-हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पांचों पापों का मन-वचन-काय और कृत कारित अनुमोदनारूप नवकोटि से सम्पूर्णतया त्याग कर देना महाव्रत है, इन्हें महापुरुष ही धारण करते हैं।।७२।।
दिग्व्रत के अतिचार
ऊर्ध्वाधस्तात्तिर्यग्-व्यतिपाता: क्षेत्रवृद्धिरवधीनाम्।
विस्मरणं दिग्विरते-रत्याशा: पञ्च मन्यन्ते।।७३।।
जो ऊर्ध्वभाग औ अधोभाग, औ तिर्यग्भाग की सीमा को।
कर दिया उलंघन तब समझो, अतिचार तीन होते उसको।।
क्षेत्रों की सीमा वृद्धि करे, की मर्यादा को भूल गया।
अतिचार पांच इनको छोड़े, तब दिग्व्रत को निर्दोष किया।।७३।।
अर्थ-ऊर्ध्वभाग की मर्यादा का उलंघन कर देना, अधोभाग की मर्यादा का उलंघन करना, तिर्यव्âभाग की मर्यादा का उलंघन करना, क्षेत्रों की सीमा बढ़ा लेता और की हुई मर्यादा को भूल जाना, ये पांच अतिचार दिग्व्रत के माने गये हैं।।७३।।
अनर्थदण्डव्रत का स्वरूप
अभ्यन्तरं दिग्वधे-रपार्थिकेभ्य: सपापयोगेभ्य:।
विरमणमनर्थदण्डव्रतं, विदु-र्व्रतधराग्रण्य:।।७४।।
दश दिश में जो मर्यादा की, उसके ही अन्दर अन्दर में।
मन वच तन से जो पाप सदा, होते हैं बिना प्रयोजन में।।
उनका ही नाम अनर्थदण्ड, उनका जो रुचि से त्याग करें।
इसका ही नाम अनर्थदण्ड, व्रत इस विध श्रीगणधर उचरें।।७४।।
अर्थ-दशों दिशाओं में जो मर्यादा की है उसके भीतर-भीतर में बिना प्रयोजन ही मन वचन काय से जो पाप होते रहते हैं, उन्हें अनर्थ- दण्ड कहते हैं। उनका जो रुचि से त्याग करते हैं, गणधरदेव उसे अनर्थ- दण्डव्रत कहते हैं।।७४।।
अनर्थदण्ड के भेद
पापोपदेशहिंसा – दानापध्यान – दु:श्रुती: पञ्च:।
प्राहु: प्रमादचर्या – मनर्थदण्डानदण्डधरा:।।७५।।
पापोपदेश औ हिंसा के, उपकरण दान अपध्यान तथा।
चौथा है दु:श्रुति नाम लहे, पंचम प्रमादचर्या विरथा।।
इस विध ये पांच अनर्थदण्ड, जो सदा पाप आस्रव करते।
त्रययोगों के दण्डितकर्ता, मुनिगण इस विध से उच्चरते।।७५।।
अर्थ-पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दु:श्रुति और प्रमादचर्या ये पांच अनर्थ दण्ड हैं। इनसे सदा पाप का ही आस्रव होता रहता है। तीनों योगों को वश में करने वाले श्री गणधर आदि साधुओं ने ऐसा कहा है।।७५।।
पापोपदेश अनर्थदण्ड का स्वरूप
तिर्यक्क्लेशवणिज्या – हिंसारम्भप्रलम्भनादीनाम्।
प्रसव: कथाप्रसङ्ग: स्मर्तव्य:, पाप उपदेश:।।७६।।
पशुओं का वणिज दास-दासी, का क्लेशरूप वणिज करना।
हिंसा कृत वचनों को कहना, आरम्भकरी वच भी कहना।।
छल, इन्द्रजाल ठग विद्या का, उपदेश व्यर्थ ही कर देना।
पहला यह कहा अनर्थदण्ड, पापोपदेश इसको तजना।।७६।।
अर्थ-तिर्यक्वणिज्या-तिर्यंचों के व्यापार का उपदेश देना, क्लेशवणिज्या-दास-दासी आदि के क्लेशकारी व्यापार का उपदेश देना, हिंसोपदेश-हिंसा के कारणों का उपदेश देना, आरम्भोपदेश-बाग लगाने, अग्नि जलाने आदि आरम्भ कार्यों का उपदेश देना, प्रलम्भोपदेश-ठग विद्या, इन्द्रजाल आदि कार्यों का उपदेश देना। ये सब पापोपदेश अनर्थदण्ड हैं।।७६।।
हिंसादान अनर्थदण्ड का लक्षण
परशुकृपाणखनित्र-ज्वलनायुधशृङ्गशृङ्खलादीनाम्।
बधहेतूनां दानं, हिंसादानं ब्रुवन्ति बुधा:।।७७।।
फरसा, तलवार, कुदाली या, अग्नी नाना विध शस्त्रादी।
सींगी या विष साँकल आदी, ये वस्तू बध के कारण भी।।
इन हिंसा के उपकरणों को, जो देवे हिंसा दान करे।
अतएव अनर्थदण्ड यह है, ऐसा मुनिनाथ वचन उचरें।।७७।।
अर्थ-हिंसा के कारणभूत फरसा, तलवार, कुदाली, अग्नि, अनेक प्रकार के शस्त्र, सींगी, विष, सांकल आदि वस्तुओं का देना हिंसादान नामक अनर्थदण्ड कहलाता है।।७७।।
अपध्यान अनर्थदण्ड का लक्षण
वधबन्धच्छेदादे – र्द्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादे:।
आध्यानमपध्यानं, शासति जिनशासने विशदा:।।७८।।
पर की भार्या सुत मित्रादी, इनका अनिष्ट हो मर जावें।
इनको कोई बांधे, मारे, छेदे, काटे ये दुःख पावें।।
इस तरह राग द्वेषादीवश, जो पर हेतू दुर्भाव करें।
जिन शासन में आचार्यदेव, इसको अपध्यान नाम उचरें।।७८।।
अर्थ-पर के स्त्री, पुत्र, मित्र आदि का अनिष्ट हो जावे, वे मर जावें, इनको कोई बांध दे, मार दे, काट दे, इनकी हार हो जाये, इत्यादि प्रकार से राग या द्वेष की भावनावश अन्य के प्रति ऐसा चिंतन करना अपध्यान नाम का अनर्थदण्ड है, ऐसा जिनशासन में कुशल जनों ने कहा है।।७८।।
दु:श्रुति अनर्थदण्ड का स्वरूप
आरम्भसङ्गसाहस – मिथ्यात्वद्वेषरागमदमदनै:।
चेत: कलुषयतां श्रुति-रवधीनां दु:श्रुतिर्भवति।।७९।।
आरंभ परिग्रह दुःसाहस, मिथ्यात्व राग द्वेषादि से।
जो मन को मलिन बना देते, मद काम भोग लोभादी से।।
ऐसे पुस्तक ग्रन्थादिक का, सुनना दुःश्रुति कहलाता है।
पढ़ना या अध्यापन करना, वह भी दुःश्रुति में आता है।।७९।।
अर्थ-आरम्भ, परिग्रह, साहस, मिथ्यात्व, राग, द्वेष, मद और काम भोग लोभ आदि से मन को मलीन करने वाले ऐसे शास्त्रों का, पुस्तकों का सुनना या पढ़ना अथवा पढ़ाना यह सब दुःश्रुति नाम का अनर्थंदण्ड है।।७९।।
प्रमादचर्या अनर्थदण्ड का लक्षण
क्षितिसलिलदहनपवना-रम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदम्।
सरणं सारणमपि च, प्रमादचर्य्यां प्रभाषन्ते।।८०।।
पृथ्वी जल अग्नी वायू का, बिन कारण ही आरम्भ करे।
बिन कारण अंकुर वृक्षादी का, छेदन भेदन घात करे।।
बिन हेतू इधर उधर घूमे, औ पर को व्यर्थ घुमावे जो।
उसके प्रमादचर्या नामक, यह अनरथदण्ड कहावे जो।।८०।।
अर्थ-पृथ्वी, जल अग्नि, वायु का बिना कारण ही आरम्भ करना अर्थात् बिना प्रयोजन ही भूमि खोदना, जल गिराना, अग्नि जलाना, हवा करना, व्यर्थ ही वनस्पति, अंकुर, वृक्ष आदि का छेदन भेदन करना, व्यर्थ ही इधर उघर घूमना या अन्य को घुमाना ये सब प्रमादचर्या नामक अनर्थदण्ड है।।८०।।
अनर्थदण्डव्रत के अतिचार
कन्दर्प-कौत्कुच्यं, मौखर्य-मतिप्रसाधनं पञ्च।
असमीक्ष्याधिकरणं, व्यतीतयोऽनर्थदण्डकृद्विरते:।।८१।।
अश्लील वचन युत हंसी करे, औ काय कुचेष्टा सह बोले।
धृष्टता सहित बकवास करे, बिन कारण व्यर्थ बहुत बोले।।
आवश्यकता बिन अति संग्रह, औ बिना विचारे कार्य करे।
ये पांच अनर्थदण्डव्रत के, अतिचार व्रतीजन दूर करें।।८१।।
अर्थ-हास्य मिश्रित अश्लील वचन बोलना, काय की कुचेष्टा करते हुये अश्लील वचन बोलना, धृष्टता सहित बकवास करना-व्यर्थ ही बहुत बोलना, आवश्यकता से अधिक भोगोपभोग वस्तुओं का संग्रह करना और बिना विचारे कार्य करना, ये कंदर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, अतिप्रसाधन और असमीक्ष्याधिकरण नाम के पांच अतिचार अनर्थदण्डव्रत के माने गये हैं।।८१।।
भोगोपभोगपरिमाणशिक्षाव्रत का स्वरूप
अक्षार्थानां परिसंख्यानं, भोगोपभोगपरिमाणम्।
अर्थवतामप्यवधौ, रागरतीनां तनूकृतये।।८२।।
परिग्रह परिमाण अणुव्रत में, जीवनभर नियम किया जो भी।
उसके अन्दर पंचेंद्रिय के, विषयों का नियम करो फिर भी।।
यह रागासक्ति घटाने के, हेतू व्रत ग्रहण किया जाता।
अतएव प्रयोजन है जितना, उतने को रख सब छुट जाता।।८२।।
अर्थ-परिग्रह परिमाण व्रत में जीवन भर के लिए जो नियम किया था, राग आसक्ति की घटाने के लिये उसी के भीतर भी, पंचेन्द्रियों के विषयभूत वस्तुओं का नियम करते रहना भोगोपभोग परिमाण व्रत है इस व्रत से प्रयोजन से अतिरिक्त वस्तुओं का त्याग हो जाता है।।८२।।
भोग और उपभोग के लक्षण
भुक्त्वा परिहातव्यो, भोगो भुक्त्वा पुनश्च भोक्तव्य:।
उपभोगोऽशनवसन-प्रभृति: पाञ्चेन्द्रियो विषय:।।८३।।
जो भोगे जाकर छुट जाते, वे भोग शब्द से कहलाते।
ये भोजन, गंध, माल्य आदी, जो पुनः भोग में नहिं आते।।
जिस वस्तू का नर भोग करे, औ पुनः भोगने में आवे।
ऐसे वस्त्राभूषण आदी, उपभोग नाम जग में पावे।।८३।।
अर्थ-जो एक बार भोगकर छोड़ दी जाती है वह भोग कहलाती है और जो भोगकर पुनः भोगने में आती है वह उपभोग है। जैसे-भोजन, गंध आदि भोग हैं और वस्त्र, आभूषण आदि उपभोग हैं।।८३।।
भोगोपभोग परिमाणाणुव्रत में मकारों के सर्वथा त्याग का
उपदेश और उनके सेवन से हानि
त्रसहतिपरिहरणार्थं, क्षौद्रं पिशितं प्रमादपरिहृतये।
मद्यं च वर्जनीयं, जिनचरणौ शरणमुपयातै:।।८४।।
त्रसजीव घात के त्याग हेतु, मधु मांस त्याग निश्चित करिये।
त्रसहिंसा तथा प्रमाद त्याग, हेतू मदिरा भी परिहरिये।।
जिसने जिनचरण शरण ली है, वह श्रावक जिन आज्ञा पाले।
तीनों मकार ये भव भव में, दुखदायी जीवनभर टाले।।८४।।
अर्थ-त्रस जीवों की हिंसा के परिहार हेतु मधु और मांस का सदा के लिए त्याग कर देना चाहिए तथा त्रसहिंसा और प्रमाद को दूर करने के लिए मदिरा को छोड़ देना चाहिए। जिसने जिनेन्द्रदेव के चरणों की शरण ली है उस श्रावक को जिनेन्द्रदेव की आज्ञा के अनुसार इन तीनों मकारों का त्याग जीवनभर के लिए कर देना चाहिए।।८४।।
भोगोपभोगपरिमाणव्रत में त्याज्य वस्तुएँ
अल्पफलबहुविघातान्-मूलकमार्द्राणि शृङ्गवेराणि।
नवनीतनिम्बकुसुमं, वैâतकमित्येवमवहेयम्।।८५।।
जिनके खाने में फल थोड़ा, स्थावर हिंसा बहुत बड़ी।
ऐसी मूली आलू आदिक, सब कंदमूल अदरख गीली।।
मक्खन औ निम्बपुष्प केतकि, के पुष्प आदि को तज दीजे।
इनके भक्षण से पाप अधिक, इसलिए व्रतिक जन मत लीजे।।८५।।
अर्थ-जिनके खाने में फल थोड़ा है और स्थावर हिंसा बहुत होती है ऐसे मूली, आलू आदिक कंदमूल, गीली अदरक, मक्खन, नीम के पुष्प, केवड़ा के पुष्प आदि को छोड़ देना चाहिए, क्योंकि इनके भक्षण में पाप अधिक होने से व्रतिक जन इनको नहीं लेते हैं।।८५।।
व्रत का स्वरूप
यदनिष्टं तद् व्रतये-द्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यात्।
अभिसन्धिकृता विरति-र्विषयाद्योग्याद्व्रतं भवति।।८६।।
जो वस्तू तुम्हें अनिष्टरूप, हितकर औ पथ्य नहीं दिखती।
जो सेवनयोग्य न सज्जन को, वह अनुपसेव्य है वस्तु सभी।।
इन दोनों का त्याग करो, बस चूंकि योग्य विषयों से भी।
जो त्याग प्रतिज्ञापूर्वक हो, उसको व्न्रत नाम कहें सब ही।।८६।।
अर्थ-जो वस्तुयें अनिष्ट हैं-हितकर और पथ्य नहीं है, जो अनुपसेव्य-सज्जन पुरुषों के सेवन योग्य नहीं हैं, इन दोनों को भी छोड़ देना चाहिए, क्योंकि योग्य विषयों में भी प्रतिज्ञापूर्वक किया गया त्याग व्रत कहलाता है।।८६।।
यम और नियम का लक्षण
नियमो यमश्च विहितौ, द्वेधा भोगोपभोगसंहारे।
नियम: परिमितकालो, यावज्जीवं यमो ध्रियते।।८७।।
भोगोपभोग के विषय त्याग में, दो प्रकार ही मानें हैं।
जो नियम और यम नामों से, सब जग में जाने जाते हैं।।
मर्यादित काल किसी वस्तू, का त्याग नियम कहलाता है।
यावज्जीवन का त्याग वही, यम त्याग आर्ष में आता है।।८७।।
अर्थ-भोगोपभोग के विषयों के त्याग में नियम और यम ऐसे दो भेद होते हैं। किसी भी वस्तु का कुछ काल के लिए त्याग करना नियम है और जीवन भर के लिए त्याग कर देना यम कहलाता है।।८७।।
भोगोपभोगपरिमाणव्रत में नियम की विधि
भोजन-वाहन-शयन-स्नान-पवित्राङ्गरागकुसुमेषु।
ताम्बूलवसनभूषण – मन्मथसङ्गीत – गीतेषु।।८८।।
अद्य दिवा रजनी वा, पक्षो मासस्तथर्तुरयनं वा।
इति कालपरिच्छित्या, प्रत्याख्यानं भवेन्नियम:।।८९।।
भोजन वाहन शय्या आदी, स्नान गंध माला आदी।
तांबूल वस्त्र भूषण मैथुन, संगीत गीत औ नाट्यादि।।
इनमें से सबका नियम करें, कुछ कुछ दिन की मर्यादा से।
या किसी एक दो आदी का, भी त्याग करें मर्यादा से।।८८।।
सो आज दिवस या रात्री का, या पक्ष मास ऋतु छह महिने।
इत्यादि काल की अवधी से, जो त्याग करें वह नियम बने।।
पंचेन्द्रिय विषयों में जैसे, हो सके लालसा कम करना।
इस हेतू से ही यह व्रत है, इसको नितप्रति पालन करना।।८९।।
अर्थ-भोजन, वाहन, शय्या, स्नान, पवित्र अंग में सुगंधित गंध माला आदि तथा तांबूल-पान, वस्त्र, आभूषण, कामभोग, संगीत-श्रवण, गीत नाटक आदि ये सभी भोगोपभोग सामग्री हैं। इनमें से सभी का, किसी एक दो आदि विषयों का, कुछ दिन की मर्यादा से नियम करना जैसे कि आज एक दिन या रात्रि, पन्द्रह दिन, महिना, दो महिना, छ: महिना आदि की अवधि से इनका त्याग करना नियम है। जैसे भी हो सके वैसे इन विषयों में लालसा को घटाना ही इस व्रत का हेतु है।।८८-८९।।
भोगोपभोगपरिमाणव्रत के अतिचार
विषयविषतोऽनुपेक्षा-नुस्मृतिरतिलौल्यमतितृषानुभवो।
भोगोपभोगपरिमा-व्यतिक्रमा: पञ्च कथ्यन्ते।।९०।।
ये विषय महाविष सेवन कर, पश्चात् उपेक्षा नहिं करना।
स्मरण पुन: पुनरपि करना, उनमें ही अति लोलुप रहना।।
आगे भी अति तृष्णा रखना, तत्कालिक में अति आसक्ती।
अतिचार पांच ये माने हैं, इनको परिहारें गुणव्रती।।९०।।
अर्थ-इन विषयरूपी विष का सेवन कर इनकी उपेक्षा नहीं करना सो विषयविषानुपेक्षा नामक अतिचार है। भोगे हुए विषयों का पुनः पुन: स्मरण करना, भोगों के भोगने पर पुनः भोगने की इच्छा रखना, भविष्य में भी भोगों की अति इच्छा रखना और तात्कालिक भोग वस्तुओं का सेवन करते हुए अति आसक्ति रखना, ये पांच इस भोगोपभोगपरिमाण व्रत के अतिचार हैं। गुणव्रती श्रावक इनको छोड़ देते हैं।।९०।।
शिक्षाव्रत के भेद
देशावकाशिकं वा, सामायिकं प्रोषधोपवासो वा।
वैय्यावृत्यं शिक्षा-व्रतानि चत्वारि शिष्टानि।।९१।।
शिक्षाव्रत चार कहे ये व्रत, मुनिव्रत की शिक्षा देते हैं।
जो इनको पालें वे श्रावक, बारह व्रत धारी होते हैं।।
देशावकाशि व्रत सामायिक, प्रोषध उपवास तृतिय जानो।
चौथा व्रत वैयावृत्य कहा, इनका पालन कर भव हानो।।९१।।
अर्थ-जो मुनिव्रत की शिक्षा देते हैं वे शिक्षाव्रत हैं। इनमें चार भेद होते हैं-देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य। इन व्रत को पालन करने वाले श्रावक बारह व्रतों के धारक हो जाते हैं।।९१।।
देशावकाशिक शिक्षाव्रत का लक्षण
देशावकाशिकं स्यात्, कालपरिच्छेदनेन देशस्य।
प्रत्यहमणुव्रतानां, प्रतिसंहारो विशालस्य।।९२।।
दिग्व्रत में जो लम्बी चौड़ी है, मर्यादा की उसके अन्दर।
प्रतिदिन कुछ काल नियत करके, छोटी सीमा कर लें अन्दर।।
अणुव्रती धारकों का यह व्रत, कुछ देशों की मर्यादा से।
देशावकाशि व्रत कहलाता, इसको धारण करना रुचि से।।९२।।
अर्थ-दिग्व्रत में जो दशों दिशाओं की लम्बी चौड़ी मर्यादा की थी उसके अन्दर प्रतिदिन भी कुछ काल की अवधिपूर्वक नियम करते रहना देशावकाशिक व्रत है। अणुव्रती धारकों का यह व्रत देशों की मर्यादा करने से सार्थक नाम वाला है।।९२।।
देशव्रत में क्षेत्र की मर्यादा की रीति
गृहहारिग्रामाणां, क्षेत्रनदीदावयोजनानां च।
देशावकाशिकस्य, स्मरन्ति सीम्नां तपोवृद्धा:।।९३।।
गृह गली ग्राम की सीमा से, औ खेत नदी उद्यानों से।
योजन कोशादिक से सीमा, कर लेना संयम इच्छा से।।
जो यथाशक्ति इसविध करते, वे पहला शिक्षाव्रत धारें।
तप में प्रसिद्ध गणधर कहते, यह त्याग भवोदधि से तारे।।९३।।
अर्थ-घर, गली, ग्राम आदि से, खेत नदी बगीचों से, योजन या कोश आदि की अवधि से सीमा करके, संयम की इच्छा से आगे जाने का नियम कर लेना और यथाशक्ति इसको पालन करना, सो पहला देशावकाशिक शिक्षाव्रत है। तप में प्रसिद्ध गणधरदेवों ने इसे संसार से पार करने वाला कहा है।।९३।।
देशव्रत में काल की मर्यादा की रीति
सम्वत्सरमृतुरयनं, मासचतुर्मासपक्षमृक्षं च।
देशावकाशिकस्य, प्राहु: कालावधिं प्राज्ञा:।।९४।।
संवत्सर ऋतु या छह महिने, इक महिना चार महीने से।
पन्द्रह दिन दश दिन इक दिन से, वह काल अवधि है इसविधसे।।
मैं आज अमुक गृह या वन तक, जाऊंगा इससे बाह्य नहीं।
आचार्यदेव इस सीमा को, देशावकाशि व्रत कहें सही।।९४।।
अर्थ-वर्ष, छह महिने, च्ाार महिने, दो महिने, एक महिना, पन्द्रह दिन, दश दिन, एक दिन आदि से काल की अवधि कर लेना, जैसे-‘‘मैं आज अमुक घर या वन तक ही जाऊँगा, उससे बाहर नहीं जाऊँगा। आचार्य ने इसे ही देशावकाशिक व्रत कहा है।।९४।।
देशव्रती के उपचार से महाव्रत
सीमान्तानां परत: स्थूलेतरपञ्चपापसन्त्यागात्।
देशावकाशिकेन च, महाव्रतानि प्रसाध्यन्ते।।९५।।
इस व्रत में जो मर्यादा है, उसकी सीमा के बाहर में।
स्थूल सूक्ष्म पांचों पापों का, त्याग हो गया है सच में।।
इसलिए देशव्रतधारी के भी, इस सीमा के बाहर में।
अणुव्रत महाव्रत हो जाते हैं, यह है उपचार विधी सच में।।९५।।
अर्थ-इसकी मर्यादा के बाहर स्थूल और सूक्ष्म ऐसे पांचों ही पापों का त्याग हो जाता है। इसलिए इस देशव्रती के इस सीमा के बाहर अणुव्रत भी महाव्रतरूप हो जाते है, यह औपचारिक कथन है ऐसा समझो।।९५।।
देशावकाशिक शिक्षाव्रत के अतिचार
प्रेषण-शब्दा-नयनं, रूपाभिव्यक्ति-पुद्गलक्षेपौ।
देशावकाशिकस्य, व्यपदिश्यन्तेऽत्यया: पञ्च।।९६।।
इस व्रत की मर्यादा बाहर, कारणवश भेजें मानव को।
या शब्दों से कुछ कह देना, या इधर मंगाना वस्तू को।।
बाहर निज काय दिखा देना, औ कंकड़ आदि फेंक देना।
इन पांच अतीचारों को तज, निज व्रत को शुद्ध बना लेना।।९६।।
अर्थ-इस देशावकाशिक व्रत की मर्यादा के बाहर किसी मनुष्य को भेज देना, मर्यादा के बाहर काम करने वाले के प्रति ताली, चुटकी, हुंकार आदि शब्द से संकेत करना, मर्यादा के बाहर से कोई वस्तु मंगाना, मर्यादा के बाहर वाले को अपना शरीर आदि दिखाना और मर्यादा के बाहर काम करने वाले को इशारा करने हेतु कंकड़ आदि फेंकना इस प्रकार से प्रेषण, शब्द, आनयन, रूपाभिव्यक्ति और पुद्गलक्षेप, ये पांच अतिचार देशावकाशिक व्रत के हैं।।९६।।
सामायिक शिक्षाव्रत का लक्षण
आसमयमुक्ति मुक्तं, पञ्चाघानामशेष-भावेन।
सर्वत्र च सामायिका:, सामयिकं नाम शंसन्ति।।९७।।
सामायिक हेतु समय निश्चित, करके पाँचों ही पापों का।
मनवचनकाय कृतकारित, औ अनुमति से त्याग करें सबका।।
बस उसी काल में सामायिक, शिक्षाव्रत होता श्रावक को।
श्रीगणधर आदि महामुनिगण, प्रतिपादन करते हैं भवि को।।९७।।
अर्थ-सामायिक के लिए समय निश्चित करके पापों का मन- वचन-काय और कृत-कारित-अनुमोदन से त्याग कर देने से उसी काल में श्रावक को सामायिक शिक्षाव्रत होता है, ऐसा श्री गणधरदेव ने कहा है।।९७।।
समय शब्द की व्युत्पत्ति
मूर्धरुहमुष्टि-वासो-बन्धं, पर्य्यज्र्-बन्धनं चापि।
स्थानमुपवेशनं वा, समयं जानन्ति समयज्ञा:।।९८।।
जब तक चोटी में गांठ लगी, रहवे या मुट्ठी बंधी रहें।
या वस्त्र हमारा बंधा रहे, या पर्यंकासन लगा रहे।।
या खड़गासन से खड़ा रहूँ, या बैठूँ किसी सुखासन से।
जब तक यह विधि हो तब तक ही, वह समय कहा सामायिक से।।९८।।
अर्थ-जब तक चोटी में गांठ लगी रहे, मुट्ठी बंधी रहे वा वस्त्र बंधा रहे या पर्यंकासन से बैठा रहूँ या खड़गासन से खड़ा रहूँ या अन्य किसी सुखासन आदि से बैठा रहूँ। जब तक ऐसी क्रिया हो, तब तक का वह काल सामायिक कहलाता है। अर्थात् उपर्युक्त प्रकार से कुछ बंधन करके सामायिक का काल निर्धारित करना ऐसा अभिप्राय समक्ष में आता है।।९८।।
सामायिक योग्यस्थान और बढ़ाने का उपदेश
एकान्ते सामयिकं, निर्व्याक्षेपे वनेषु वास्तुषु च।
चैत्यालयेषु वापि च, परिचेतव्यं प्रसन्नधिया।।९९।।
व्याक्षेप रहित एकांतशुद्ध, स्थानों में या जंगल में।
घर में या चैत्यालय में भी, या पर्वत गुफा मसानों में।।
मन को प्रसन्न करके नित ही, सामायिक विधि करनी चहिये।
श्री चैत्यपंचगुरुभक्तिपाठ, कृतिकर्म विधि करनी चहिये।।९९।।
अर्थ-आकुलता-उत्पादक-रहित शुद्ध एकांत स्थान में या वन में, घर में, चैत्यालय में या पर्वत पर, गुफा में, श्मशान में जहां कहीं भी चित्त को प्रसन्न करके नित्य ही सामायिक करना चाहिए। इसमें चैत्यपंचगुरु- भक्तिपाठ सहित कृतिकर्म विधिपूर्वक विधिवत् क्रिया करनी चाहिए।।९९।।
सामायिक बढ़ाने की रीति
व्यापार-वैमनस्या-द्विनिवृत्त्यामन्तरात्मविनिवृत्त्या।
सामयिकं बध्नीया-दुपवासे चैकभुक्ते वा।।१००।।
सब काय वचन की चेष्टा औ, मन का कालुष्य दूर करके।
संकल्प विकल्प अनेकों विध, जैसे हो उन्हें रोक करके।।
उपवास दिवस या एकाशन में, निश्चित सामायिक करिये।
व्रत के दिन में सामायिक कर, नानाविध पाप दोष हरिये।।१००।।
अर्थ-वचन और काय की क्रिया तथा मन की कलुषता को दूर करके सभी संकल्प-विकल्पों को भी रोक करके उपवास के दिन अथवा एकाशन के दिन सामायिक अवश्य करना चाहिये।।१००।।
प्रतिदिन सामायिक करने का उपदेश
सामयिकं प्रतिदिवसं-यथावदप्यनलसेन चेतव्यं।
व्रतपञ्चकपरिपूरण – कारणमवधान – युक्तेन।।१०१।।
प्रतिदिन आलस्य छोड़ करके, एकाग्रचित्त भी हो करके।
शास्त्रोक्त विधी के अनुसार, सामायिक करिये रुचि धरके।।
पांचों व्रत की पूर्ति हेतू, यह सामायिक व्रत माना है।
जो इस व्रत को पालन करते, उनने निज को पहचाना है।।१०१।।
अर्थ-प्रतिदिन भी आलस्य छोड़कर एकाग्रचित्त होकर शास्त्र कथित विधि के अनुसार रुचिपूर्वक सामायिक करना चाहिये। पांचों महाव्रतों को पूर्ण करने के लिए ही सामायिक व्रत माना गया है। जो इस व्रत का पालन करते हैं वे अपनी आत्मा को पहचान लेते हैं।।१०१।।
सामायिकी के मुनितुल्यता
सामयिके सारम्भा:, परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि।
चेलोपसृष्टमुनिरिव, गृही तदा याति यतिभावम्।।१०२।।
सामायिक के शुभ अवसर में, जो श्रावक उभय वस्त्र रखते।
आरम्भ परिग्रह शेष सभी, तज करके सामायिक करते।।
जैसे मुनि पर उपसर्ग काल में, वस्त्र पड़ा उस तरह कहो।
यद्यपि वह गृहस्थ है तो भी, मुनिरूप हुआ उस समय अहो।।१०२।।
अर्थ-जो श्रावक सामायिक के समय दो वस्त्र मात्र रखकर शेष सभी आरम्भ, परिग्रह छोड़कर सामायिक करते हैं वे जैसे मुनि के ऊपर उपसर्ग करते हुए कोई वस्त्र डाल दें उनके समान हैं। यद्यपि वे गृहस्थ हैं, तो भी उस समय मुनि के तुल्य माने जाते हैं।।१०२।।
सामायिक में परिग्रह और उपसर्ग सहन का उपदेश
शीतोष्णदंशमशक-परीषहमुपसर्गमपि च मौनधरा:।
सामयिकं प्रतिपन्ना, अधिकुर्वीरन्नचलयोगा:।।१०३।।
श्रावक जिस समय मौन धरके, निश्चल सामायिक किया करें।
उस समय शीत-उष्णादि दंश, मशकादि परीषह सहन करें।।
सुर नर तिर्यंचों द्वारा कृत, उपसर्ग भले ही आ जावे।
मनवचनकाय को वश में कर, सब सहन करें निज सुख पावें।।१०३।।
अर्थ-श्रावक जब मौनपूर्वक निश्चल होकर सामायिक करते हैं, उस समय उन्हें शीत, उष्ण, डांस, मच्छर आदि की परीषह भी सहन करना चाहिए। यदि देव, मनुष्य या तिर्यंचकृत उपसर्ग आ जावे, तो उसे भी सहन करना चाहिये और मन वचन काय को वश में रखना
चाहिए।।१०३।।
सामायिक के समय करने योग्य विचार
अशरणमाशुभमनित्यं दु:खमनात्मानमावसामि भवम्।
मोक्षस्तद्विपरीता-त्मेति ध्यायन्तु सामयिके।।१०४।।
यह जग अशरण औ अशुभरूप, क्षणभंगुर और दुःखमय ही।
यह पर है आत्मरूप नहिं है, इसमें मैं रहता हूँ नित ही।।
इससे विपरीत शरण शुभमय, मैं नित्य सौख्य स्वात्मीय रूप।
सामायिक में ऐसा ध्यावो, क्योंकि यह आत्मा शुद्धरूप।।१०४।।
अर्थ-यह संसार अशरण, अशुभ, क्षणभंगुर और दुःखरूप है, पर है, आत्मरूप नहीं है। मैं ऐसे संसार में निवास कर रहा हूँ। मोक्ष इससे विपरीत शरणभूत, शुभ, शाश्वत, सुखरूप और स्वात्मरूप है। सामायिक में ऐसा ध्यान करना चाहिये, क्योंकि शुद्ध नय से यह आत्मा शुद्ध स्वरूप है।।१०४।।
सामायिक शिक्षाव्रत के अतिचार
वाक्कायमानसानां, दु:प्रणिधानान्यनादरास्मरणे।
सामयिकस्यातिगमा, व्यज्यन्ते पञ्च भावेन।।१०५।।
मन वचन काय को अशुभ और, चंचल करना ये दोष तीन।
औ करे अनादर सामायिक, विधि में प्रमाद आलस्य लीन।।
विस्मरण पाठ का हो जावे, यह दोष पाँचवां माना है।
जिसने इन त्याग किया उसने, निजआत्मतत्त्व को जाना है।।१०५।।
अर्थ-मन को चंचल करना, वचन को अशुभ या चंचल करना, काय को अस्थिर रखना, सामायिक में अनादर करना, प्रमाद से पाठ को भूल जाना, ये पांच अतिचार सामायिक व्रत के हैं। इनको छोड़ने से आत्मतत्त्व का ज्ञान होता है।।१०५।।
प्रोषधोपवासशिक्षाव्रत का लक्षण
पर्वण्यष्टम्यां च, ज्ञातव्य: प्रोषधोपवासस्तु।
चतुरभ्यवहार्य्याणां, प्रत्याख्यानं सदेच्छाभि:।।१०६।।
अष्टमी चतुर्दशि पर्वों में, अपने अन्तर की इच्छा से।
चारों प्रकार आहार त्याग, कर देना जिनवच शिक्षा से।।
यह है प्रोषध उपवास नाम, शिक्षाव्रत तप को सिखलावे।
जो इसको पालन करते हैं, वे तनु से निर्मम बन जावे।।१०६।।
अर्थ-प्रत्येक मास की दोनों अष्टमी और दोनों चतुर्दशी को अपनी इच्छा से आगम के अनुसार चारों प्रकार के आहार का त्याग करना प्रोषधोपवास नामक शिक्षाव्रत है। यह तप करना सिखाता है। इस व्रत के धारी शरीर से निर्मम बन जाते हैं।।१०६।।
उपवास के दिन त्याज्य कार्य
पञ्चानां पापाना-मलङ्क्रिया-रम्भगन्धपुष्पाणाम्।
स्नानाञ्जननस्याना-मुपवासे परिहृतिं कुर्य्यात्।।१०७।।
जिस दिन उपवास करो उस दिन, पांचों पापों का त्याग करों।
आरंभ गंध माला आदिक, सब अलंकार का त्याग करो।।
स्नान और अंजन-मंजन, नस्यादि क्रियाओं को तजिये।
तन से ममत्व परिहार हेतु, वैराग्य भाव को आचरिये।।१०७।।
अर्थ-जिस दिन उपवास हो उस दिन पांचों पापों का त्याग करके आरम्भ, गंध, माला, अलंकार, स्नान, अंजन, मंजन, नस्य आदि क्रियाओं का त्याग कर देना चाहिये। उस दिन शरीर से ममत्व दूर करने हेतु वैराग्य भाव को धारण करना चाहिये।।१०७।।
उपवास के दिन का कर्त्तव्य
धर्मामृतं सतृष्ण:, श्रवणाभ्यां पिबतु पाययेद्वान्यान्।
ज्ञानध्यानपरो वा, भवतूपवसन्नतन्द्रालु:।।१०८।।
उपवास दिवस आलस्य रहित, होकर शास्त्रों का पठन करे।
उत्कण्ठित हो धर्मामृत को, निज कर्णों से भी पान करे।।
पर को भी धर्म सुधारस का, उस दिन वह पान करा देवे।
बस ज्ञान ध्यान में तत्पर हो, उपवास सफल निज कर लेवे।।१०८।।
अर्थ-उपवास दिवस आलस्य रहित होकर शास्त्रों का पठन करे। अति उत्कंठा से धर्मरूपी अमृत को पीवे अर्थात् कानों से श्रवण करे और अन्यों को भी धर्म श्रवण करावे। ज्ञान और ध्यान में तत्पर होता हुआ उपवास को सफल कर लेवे।।१०८।।
प्रोषध, उपवास और प्रोषधोपवास का लक्षण
चतुराहारविसर्जन-मुपवास: प्रोषध: सकृद्भुक्ति:।
स प्रोषधोपवासो, यदुपोष्यारम्भमाचरति।।१०९।।
जब अशन खाद्य औ लेह्य पेय, चउविध अहार का त्याग करे।
उपवास यही औ एक बार, भोजन प्रोषध यह नाम धरे।।
तेरस-पूनों एकाशन कर, चौदस का जब उपवास करे।
तब होता प्रोषधोपवासी, ऐसी विधि अष्टमी को भि करे।।१०९।।
अर्थ-अशन, खाद्य, लेह्य और पेय इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना ‘उपवास’ है और एक बार भोजन करना ‘प्रोषध’ है। तेरस को एकाशन करके चौदस का उपवास, पुन: प्ाूनों को एकाशन करना प्रोषधोपवास है, ऐसे ही अष्टमी के लिए समझना।।१०९।।
प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत के अतिचार
ग्रहणविसर्गास्तरणा-न्यदृष्टमृष्टान्यनादरास्मरणे।
यत्प्रोषधोपवास-व्यतिलङ्घनपञ्चकं तदिदम्।।११०।।
बिन देखे और बिना शोधे, पूजा की वस्तु ग्रहण करना।
बिन देखे मलमूत्रादि त्याग, बिन सोधे बिस्तर आस्तरना।।
आवश्यक आदि क्रियाओं में, आलस्य अनादर भी करना।
निज योग्यक्रिया को विस्मरणा, ये पांच दोष इनको तजना।।११०।।
अर्थ-बिना देखे, बिना शोधे पूजा के उपकरण ग्रहण करना, बिना देखी, बिना सोधी जमीन पर मलमूत्रादि त्याग करना, बिना देखें, बिना सोधे बिस्तर बिछाना, आवश्यक आदि क्रियाओं में अनादर करना और योग्य क्रियाओं को भूल जाना प्रोषधोपवास व्रत के ये पांच अतिचार होते हैं।।११०।।
वैयावृत्य (अतिथिसंविभाग) व्रत का लक्षण
दानं वैयावृत्यं, धर्माय तपोधनाय गुणनिधये।
अनपेक्षितोपचारो-पक्रियमगृहाय विभवेन।।१११।।
गुण के निधान मुनिराजों को, बस स्वपर धर्म की वृद्धि हेतु।
जो दान दिया जाता वह ही, है वैयावृत्य महाविशेष।।
यश मंत्र प्रतीउपकार आदि, से अनपेक्षित हो भक्ती से।
निज शक्ति विभव के अनूसार, उपकार करे गुरुभक्ती से।।१११।।
अर्थ-गुणों के निधान और तपरूपी धन को धारण करने वाले ऐसे मुनियों को धर्म के लिए जो दान देना वह वैयावृत्य है। यश, मंत्र आदि प्रत्युपकार की अपेक्षा के बिना अपने वैभव के अनुसार जो गृहत्यागी मुनियों की भक्ति और उनको दान आदि देना वही वैयावृत्य नामक शिक्षाव्रत है।।१११।।
वैयावृत्य का दूसरा लक्षण
व्यापत्तिव्यपनोद:, पदयो: सम्वाहनं च गुणरागात्।
वैयावृत्यं यावा-नुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम्।।११२।।
मुनि के गुण में अनुरागी बन, उनके दुःखों को दूर करे।
पद संवाहन मर्दन आदी, औ अन्य सभी उपचार करे।।
इस विध से मुनी, आर्यिकादी, संयमियों की वैयावृत्ती।
यह चौथा शिक्षाव्रत माना, इससे होती सुख संपत्ती।।११२।।
अर्थ-मुनियों के गुणों में अनुराग करते हुए उनके दु:खों को दूर करना, उनके पैरों को दाबना और भी यथायोग्य उपकार करना तथा आर्यिका आदि संयमियों की भी भक्ति, सेवा करना यह सब वैयावृत्य है, जो कि सुख सम्पत्ति का दाता है।।११२।।
दान का लक्षण
नवपुण्यै: प्रतिपत्ति:, सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन।
अपसूनारम्भाणा – मार्याणामिष्यते दानम्।।११३।।
पड़गाहन उच्चस्थान पाद, प्रक्षालन पूजन नमस्कार।
मन वचन काय शुद्धी भोजन, शुद्धी ये नवधा भक्तिसार।।
जो सात गुणों से युत श्रावक, रुचि से नवधाभक्ति पूर्वक।
देते संयमियों को अहार, उसको ही दान कहा गणभृत्।।११३।।
अर्थ-पड़गाहन, उच्चस्थान, पादप्रक्षालन, पूजन, नमस्कार, मन- शुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि और भोजनशुद्धि, ये नवधाभक्ति कहलाती है। श्रद्धा, भक्ति आदि सात गुणों से युक्त श्रावक मुनियों को नवधाभक्तिपूर्वक जो आहार देते हैं उसी का नाम दान है।।११३।।
दान का फल
गृहकर्मणापि निचितं, कर्म विमार्ष्टि खलु गृहविमुक्तानाम्।
अतिथीनां प्रतिपूजा, रुधिरमलं धावते वारि।।११४।।
गृहकर्मरूप अग्नीज्वालन, आदिक ‘सूना’ जो पांच कहे।
उनके करने से पापों का, संचय होता दिन रात रहे।।
गृहत्यागी अतिथी के अहार, से सर्व पाप धुल जाते हैं।
जिस तरह रुधिर से मलिन वस्त्र, जल से धो स्वच्छ बनाते हैं।।११४।।
अर्थ-अग्नि जलाना आदि गृहस्थी के कार्यरूप जो पांच सूना हैं, उनके करने से रात-दिन पापों का संचय होता रहता है। वह सब पाप गृहत्यागी संयमी को आहार देने से नष्ट हो जाता है। जैसे कि रुधिर से गंदा हुआ वस्त्र जल से धुलकर स्वच्छ हो जाता है।।११४।।
नवधाभक्ति का फल
उच्चै र्गोत्रं प्रणते-र्भोगो दानादुपासनात्पूजां।
भक्ते: सुन्दररूपं, स्तवनात्कीर्तिस्तपोनिधिषु।।११५।।
संयमियों को करते प्रणाम, वे उच्च गोत्र को पाते हैं।
जो देते दान भोग पाते, सेवा से पूजा पाते हैं।।
भक्ती से सुन्दर रूप मिले, स्तुती प्रशंसा से कीर्ती।
गुरु की उपासना से इस विध, हो जाती सब सुख संपत्ती।।११५।।
अर्थ-तपोनिधि मुनियों को नमस्कार करने से उच्चगोत्र मिलता है, उनको दान देने से भोग मिलते हैं, उनकी उपासना करने से पूजा होती है, उनकी भक्ति करने से सुंदर रूप मिलता है और उनकी स्तुति करने से कीर्ति बढ़ती है। इस तरह गुरु की उपासना से सब सुख सम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं।।११५।।
अल्पदान से महाफल का स्पष्टीकरण
क्षितिगतमिव वटबीजं, पात्रगतं दानमल्पमपि काले।
फलतिच्छायाविभवं, बहुफलमिष्टं शरीरभृताम्।।११६।।
अच्छी उपजाऊ भूमी में, वट बीज बड़ा सा वृक्ष बने।
निजकाल पाय भारी छाया, देता औ फल दे मिष्ट घने।।
वैसे ही उत्तम पात्रों में, विधिवत् जो दान अल्प भी दे।
वह समय पाय बहु फल देता, इच्छानुकूल सब वैभव दे।।११६।।
अर्थ-अच्छी उपजाऊ भूमि में बोया गया छोटा भी बड़ का बीज बहुत बड़ा वृक्ष बन जाता है, समय पर बहुत बड़ी छाया देता है और मिष्ठ फल भी देता है। वैसे ही जो विधिवत् उत्तम पात्रों में यदि थोड़ा-सा भी दान देते हैं तो वह समय पर बहुत फल देता है, इच्छानुकूल सभी वैभव प्रदान करता है।।११६।।
दान के भेद
आहारौषधयोर-प्युपकरणावासयोश्च दानेन।
वैयावृत्यं ब्रुवते, चतुरात्मत्वेन चतुरस्रा:।।११७।।
आहार दान औषधी दान, उपकरण दान आवास दान।
वैयावृत्ती के चार भेद, से कहलाते ये चार दान।।
प्रासुक भोजन औषधियों से, श्रावकजन मुनि को स्वस्थ करें।
पिच्छी शास्त्रादी दे उनको, वसताr दे निज को धन्य करें।।११७।।
अर्थ-आहारदान, औषधिदान, उपकरणदान और आवासदान, इस वैयावृत्य के ये चार भेद कहे हैं। श्रावक मुनि को प्रासुक भोजन और शुद्ध औषधियों को देकर स्वस्थ करे तथा पिच्छी, कमंडलु, शास्त्र आदि देकर व वसतिका देकर अपने जीवन को धन्य कर लेवे।।११७।।
अर्हत्पूजा का वैयावृत्य में अन्तर्भाव
देवाधिदेवचरणे, परिचरणं सर्व-दु:खनिर्हरणम्।
कामदुहि कामदाहिनी, परिचिनुयादादृतो नित्यम्।।११८।।
देवाधिदेव अर्हंतों के, चरणों की पूजा करने से।
संपूर्ण दुःख स्वयमेव नशे, इच्छित फल आप स्वयं फलते।।
सब विषय वासना की इच्छा, को नष्ट करे अर्हत्पूजा।
आदर से नित करिये पूजा, नहिं इस सम अन्य कार्य दूजा।।११८।।
अर्थ-देवाधिदेव अर्हंत देव के चरणों की पूजा करने से सम्पूर्ण दुःख नष्ट हो जाते हैं और इच्छित फल स्वयं प्राप्त हो जाते हैं तथा यह पूजा सम्पूर्ण विषय वासनाओं की इच्छा को भी नष्ट कर देने वाली है। इसलिए आदरपूर्वक नित्य ही जिनपूजा करनी चाहिए, क्योंकि इसके सदृश अन्य दूसरा उत्तम कार्य नहीं है।।११८।।
दानों में प्रसिद्ध होने वालों के नाम
श्रीषेण-वृषभसेने, कौण्डेश: शूकरश्च दृष्टान्ता:।
वैयावृत्यस्यैते, चतुर्विकल्पस्य मन्तव्या:।।११९।।
श्रीषेण नृपति आहार दान, के फल से शांति जिनेश हुए।
दे औषधि दान वृषभसेना, तनुजल से पर दुख दूर किए।।
कौण्डेश शास्त्र देकर मुनि को, श्रुतज्ञान पूर्ण कर ख्यात हुआ।
शूकर मुनि को दे अभयदान, यशपूर्वक सुरपद प्राप्त किया।।११९।।
अर्थ-श्रीषेण राजा आहार दान के फल से श्री शांतिनाथ तीर्थंकर हुये हैं। वृषभसेना ने औषधिदान के प्रभाव से अपने शरीर के स्पर्शित जल से बहुतों के दुःख दूर किये हैं। कौंडेश ने मुनि को शास्त्रदान देकर अपने श्रुतज्ञान को पूर्ण कर प्रसिद्धि पाई है और सूकर ने मुनि को अभयदान देने के पुण्य से देवगति को प्राप्त किया है।।११९।।
पूजा का माहात्म्य और उसका फल भोक्ता
अर्हच्चरणसपर्या – महानुभावं महात्मनामवदत्।
भेक: प्रमोदमत्त:, कुसुमेनैकेन राजगृहे।।१२०।।
मेढक प्रमोद से मुदितमना, बस एक पुष्प को लेकर के।
जिनवर की पूजा हेतु चला, जब राजगृही में भक्ती से।।
हाथी के पैर तले दबकर, तत्क्षण ही सुर पद को पाया।
अर्हंत चरण की पूजा का, माहात्म्य सभी को दिखलाया।।१२०।।
अर्थ-राजगृही में मेढ़क प्रमोद से हर्षित हुआ एक पुष्प लेकर जिनेन्द्रदेव की पूजा के लिए चल पड़ता है। मार्ग में हाथी के पैर के नीचे दबकर मरकर तत्क्षण ही देव हो जाता है और इस तरह अर्हंत पूजा के महात्म्य को सभी को प्रगटरूप से दिखला देता है।।१२०।।
वैयावृत्य के अतिचार
हरितपिधाननिधाने, ह्यनादरास्मरणमत्सरत्वानि।
वैयावृत्यस्यैते, व्यतिक्रमा: पञ्च कथ्यन्ते।।१२१।।
भोजन पर हरित वस्तु ढकना, औ हरित पत्र पर रख देना।
पात्रों का आदर नहीं करना, या नवधा भक्ती विस्मरणा।।
दातारों से ईर्ष्या मत्सर, ये पांच दोष कहलाते हैं।
जो अतिचारों को तज देते, वे पूर्णदान फल पाते हैं।।१२१।।
अर्थ-कमल पत्र आदि हरी वस्तु से भोजन को ढ़क देना, हरित पत्ते आदि पर रख देना, देते हुए पात्रों का अनादर करना, नवधा भक्ति आदि भूल जाना और अन्य दातारों से मत्सर ईर्ष्याभाव रखना, ये वैयावृत्य के पांच अतिचार होते हैं।।१२१।।
सल्लेखना (समाधिमरण) का लक्षण
उपसर्गे दुर्भिक्षे, जरसि रुजायां च नि:प्रतीकारे।
धर्माय तनुविमोचन-माहु: सल्लेखनामार्या:।।१२२।।
जिसका प्रतिकार न हो सकता, ऐसा उपसर्ग यदी आवे।
ऐसा अकाल पड़ जावे या, जर्जरित बुढ़ापा आ जावे।।
अथवा हो रोग असाध्य कठिन, जिससे नहिं धर्म की रक्षा है।
तब करिये सल्लेखना ग्रहण, जो धर्म हेतु तनु त्यजना है।।१२२।।
अर्थ-जिसको किसी उपाय से दूर नहीं किया जा सकता ऐसा उपसर्ग यदि आ जावे, ऐसा अकाल पड़ जावे, जर्जरित बुढ़ापा आ जावे, या कठिन असाध्य रोग हो जावे, ऐसे समय में धर्म की रक्षा के लिए जो शरीर का त्याग किया जाता है, उसका नाम सल्लेखना है।।१२२।।
सल्लेखना की आवश्यकता
अन्त:क्रियाधिकरणं, तप: फलं सकलदर्शिन: स्तुवते।
तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम्।।१२३।।
तप का फल यह ही है समझो, जब अंत समाधीमरण मिले।
ऐसा कहते सर्वज्ञदेव, इससे सब धार्मिक कार्य फलें।।
इसलिए सर्वशक्ती पूर्वक, भविजन समाधि के लिए सदा।
अतिशय प्रयत्न करते रहिये, नहिं किचित् करो प्रमाद कदा।।१२३।।
अर्थ-सर्वज्ञ देव तप का फल अंत समय समाधिमरण की प्राप्ति को ही कहते हैं, क्योंकि समाधिमरण से ही सब धार्मिक कार्य फलित होते हैं। इसलिए सर्वशक्तिपूर्वक समाधिमरण के लिए सतत प्रयत्न करना चाहिए।।१२३।।
सल्लेखना (समाधिमरण) की विधि
स्नेह वैरं सङ्गं, परिग्रहं चापहाय शुद्धमना:।
स्वजनं परिजनमपि च, क्षान्त्वा क्षमयेत्प्रियैर्वचनै:।।१२४।।
स्नेह वैर औ राग मोह, परिग्रह संपूर्ण छोड़ करके।
हो शुद्ध चित्त विधिवत् समाधि, से मरने की वाञ्छा करके।।
प्रिय वचनों से तुम क्षमा करो, स्वजनों को औ परजन को भी।
सबसे भी क्षमा करा लेवो, जो कुछ अपराध हुए हों भी।।१२४।।
अर्थ-स्नेह, वैर, मोह और परिग्रह को छोड़ करके शुद्ध चित्त होते हुए समाधिमरण की इच्छा से प्रिय वचनों द्वारा अपने परिवार व अन्य लोगों से क्षमा याचना करे तथा स्वयं भी सभी के अपराधों को क्षमा करे।।१२४।।
समाधि में आलोचनापूर्वक महाव्रत धारण का उपदेश
आलोच्य सर्वमेन:, कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजम्।
आरोपयेन्महाव्रत-मामरणस्थायि नि:शेषम्।।१२५।।
जो किया कराया अनुमोदा, ऐसे समस्त भी पापों को।
छल कपट रहित आलोचन विधि, करिये सबही निज दोषों की।।
पुनरपि जीवनपर्यंत पांच, पापों का पूरण त्याग करो।
औ पंच महाव्रत धारणकर, निर्ग्रन्थ अवस्था प्राप्त करो।।१२५।।
अर्थ-जो पाप किये हैं, कराये हैं और उनकी अनुमोदना की है, उन सभी पापों की मायाचार रहित सरल भावों से आलोचना करके जीवन भर के लिए पांचों पापों का पूर्णतया त्याग करके सल्लेखना के समय पांच महाव्रत धारण कर मुनि बन जाना चाहिए।।१२५।।
महाव्रत ग्रहण के बाद स्वाध्याय करने का उपदेश
शोकं भयमवसादं, क्लेदं कालुष्यमरतिमपि हित्वा।
सत्त्वोत्साहमुदीर्य च, मन: प्रसाद्यं श्रुतैरमृतै:।।१२६।।
स्नेह शोक भय अप्रीति, मन की कालुषता भी तज के।
निज बल उत्साह प्रगट करके, मन को प्रसन्न करिये श्रुति से।।
यह निज आगम ही अमृत है, जो अतिशय तृप्ती करता है।
पुष्टी तुष्टी करके पुनरपि, इस मृत्यु को भी हरता है।।१२६।।
अर्थ-शोक, भय, स्नेह, अरति और मन की कलुषता को छोड़ करके तथा अपने बल और उत्साह को प्रगट करके अमृत के समान शास्त्रों से अपने मन को प्रसन्न करना चाहिए, क्योंकि जिनवचनरूपी अमृत अतिशय तृप्ति, पुष्टि और तुष्टि देकर पुनः मृत्यु को भी नष्ट कर देता है।।१२६।।
सल्लेखनाधारी के भोजन के त्याग का क्रम
आहारं परिहाप्य, क्रमश: स्निग्धं-विवर्धयेत्पानम्।
स्निग्धं च हापयित्वा, खरपानं पूरयेत्क्रमश:।।१२७।।
अन्नादिक भोजन छोड़ प्रथम, दुग्धादिक पेय वस्तु पीना।
स्निग्ध पेय को छोड़ पुनः, बस छाछ गर्म जल या पीना।।
जब क्रम से त्याग किया जाता, तब आकुलता नहिं होती है।
नहिं तन में पीड़ा कष्ट बढ़े, नहिं व्याधि विषमता होती है।।१२७।।
अर्थ-अन्नादि भोजन को छोड़कर दूध आदि स्निग्ध पेय पदार्थ को लेवे। पुनः स्निग्ध दूध आदि छोड़कर छाछ या गर्म जल पीना चाहिए। इस तरह क्रम से त्याग करने से आकुलता नहीं होती है तथा शरीर में पीड़ा और व्याधि की विषमता भी नहीं होती है।।१२७।।
सल्लेखना में भोजनत्याग का शेष कथन
खरपानहापनामपि, कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या।
पञ्चनमस्कारमनास्तनुं त्यजेत्सर्व-यत्नेन।।१२८।।
कांजी या छाछ गरम जल भी, तज करके यथाशक्ति पूर्वक।
उपवास करे भी जाप करे, बस महामंत्र की रुचि पूर्वक।।
सम्पूर्ण यत्नकर णमोकार, मंत्रादी को जपते जपते।
अंतिम क्षण में तन को छोड़े, प्रभु नाम मंत्र रटते रटते।।१२८।।
अर्थ-पुन: कांजी, तक्र या गरम जल को भी छोड़कर यथाशक्ति उपवास करना चाहिए और सम्पूर्ण प्रयत्न से महामंत्र का जाप करते हुए अंतिम क्षण में शरीर का त्याग कर देना चाहिये।।१२९।।
सल्लेखना के पाँच अतिचार
जीवितमरणाशंसे, भयमित्र-स्मृतिनिदाननामान:।
सल्लेखनातिचारा:, पञ्च जिनेन्द्रै: समादिष्टा:।।१२९।।
जीने की हो वाञ्छा मन में, या मरने की होवे वाञ्छा।
मरने से डर मित्रों की स्मृति, आगे भोगों की हो काङ्क्षा।।
ये होते सल्लेखनामरण के, अतीचार जो पांच कहे।
इन अतिचारों को जो तजते, वे क्रम से मुक्ती सौख्य लहें।।१२९।।
अर्थ-सल्लेखना लेने के बाद जीने की इच्छा करना, कष्ट आदि से घबड़ाकर जल्दी मरने की इच्छा करना, भूख आदि कष्टों से डरना, मित्रों का स्मरण करना और भविष्यकाल में भोगों की वाञ्छा करना इस तरह से जीविताशंसा, मरणाशंसा, भय, मित्र-स्मृति और निदान, ये सल्लेखना के पांच अतिचार होते हैं।।१२९।।
सल्लेखना धारण का फल
नि:श्रेयसमभ्युदयं, निस्तीरं दुस्तरं सुखाम्बुनिधिम्।
नि: पिबति पीत धर्मा, सर्वैर्दु:खैरनालीद:।।१३०।।
जो धर्मामृत को पी करके, इस विध समाधि से तनु तजते।
वे सब दुःखों से छुट करके, नि:श्रेयस परम धाम लभते।।
वहाँ पर चरमोत्तम परम सौख्य, सागरमय परमानंदरूप।
अक्षय अनंत गुण को पाकर, बस हो जाते चैतन्यरूप।।१३०।।
अर्थ-जो धर्मरूपी अमृत को पीता हुआ सल्लेखना विधि से शरीर को छोड़ता है वह सब दु:खों से छूटकर निःश्रेयस-मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। वहां पर सर्वश्रेष्ठ, अपार, उत्कर्षशाली परमानन्दमय सुख के समुद्र में अवगाहन करते हुए अक्षय-अनन्त गुणों को प्राप्त कर चिच्चैतन्यस्वरूप हो जाता है।।१३०।।
मोक्ष का लक्षण
जन्मजरामयमरणै-र्शोवैâ र्दु:खै र्भयैश्च परिमुक्तम्।
निर्वाणं शुद्धसुखं, नि:श्रेयसमिष्यते नित्यम्।।१३१।।
नहिं जन्म जरा मृत्यू व्याधी, नहिं शोक दु:ख भय त्रास जहां।
जहां शाश्वत नित्य शुद्ध सुख है, नि:श्रेयस उसका नाम कहा।।
वो ही निर्वाण कहाता है, जो भव्य व्रतों को धरते हैं।
वे ही इसके अधिकारी हैं, वे ही त्रिभुवन गुरु बनते हैं।।१३१।।
अर्थ-जहां पर जन्म, जरा, मरण, व्याधि, शोक, दुःख, भय और त्रास नहीं है, जहां पर शाश्वत शुद्ध सुख है उसी का नाम निःश्रेयस है और वही निर्वाण है। जो भव्य जीव सम्यक्त्व से लेकर सल्लेखना तक व्रतों को धारण करते हैं वे ही इस निर्वाण के अधिकारी होते हैं और वे ही तीन लोक के गुरू बनते हैं।।१३१।।
मुक्तजीवों का वर्णन
विद्यादर्शन-शक्ति-स्वास्थ्यप्रह्लादतृप्तिशुद्धियुज:।
निरतिशया निरवधयो, नि:श्रेयसमावसन्ति सुखम्।।१३२।।
वे अनंत दर्शन ज्ञान वीर्य, सुखरूप चतुष्टय पाते हैं।
परिपूर्ण स्वास्थ्य आल्हाद तृप्ति, परिपूर्ण शुद्धि पा जाते हैं।।
निरतीशायी अवधी विरहित, निःश्रेयस पद में वास करें।
सुख अव्याबाध प्राप्त करके, बस सदा आत्मसुख लाभ करें।।१३२।।
अर्थ-वे अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत वीर्य और अनंत सुख इन अनंत चतुष्टय को प्राप्त कर लेते हैं। वे निरतिशय, निरवधिक, निःश्रेयस पद में वास करते हैं। वहां अव्याबाध सुख प्राप्त करके हमेशा आत्मसुख में निमग्न रहते हैं।।१३२।।
मुक्तजीवों के गुणों में विकार का अभाव
काले कल्पशतेऽपि च, गते शिवानां न विक्रिया लक्ष्या।
उत्पातोऽपि यदि स्यात्, त्रिलोकसम्भ्रान्तिकरणपटु:।।१३३।।
तीनों लोकों में उथल पुथल, करने वाला उत्पात यदी।
हो जावे भी तो भी उनमें, नहिं किचित् हो विकृति कभी।।
शत-शत भी कल्पकाल बीतें, फिर भी शिवपद पाया जिनने।
उनमें नहिं किचिंत् हो अन्तर, नहिं आ सकते फिर वे जग में।।१३३।।
अर्थ-यदि तीनों लोकों को उथल-पुथल करने वाला उत्पात भी हो जावे, तो भी उनमें किंचित मात्र भी विकृति या परिवर्तन कभी नहीं हो सकता है। जिन्होंने मोक्ष पद प्राप्त कर लिया है सैकड़ों कल्पकाल के बीत जाने पर भी उनमें किचित् भी अंतर नहीं पड़ता है और न वे पुन: वापस इस संसार में ही आते हैं।।१३३।।
मुक्तजीवों की शोभा का वर्णन
नि:श्रेयसमधिपन्ना-स्त्रैलोक्यशिखामणिश्रियं दधते।
निष्किट्टिकालिकाच्छवि-चामीकरभासुरात्मान:।।१३४।।
ज्यों किट्ट कालिमा से विरहित, सोना अतिशुद्ध चमकता है।
त्यों ही कलंक मलरहित मुक्त, आत्मा परिशुद्ध झलकता है।।
ऐसे ये मुक्तजीव त्रिभुवन, के शिखरमणी सम शोभें हैं।
लोकाग्रभाग पर जा करके, निज स्वात्मामृत सुख भोगे हैं।।१३४।।
अर्थ-जैसे किट्ट कालिमा से रहित हुआ सोना शुद्ध होकर चमकता है, वैसे ही कर्ममल से रहित मुक्त आत्मा शुद्ध होकर शोभायमान होता है। ऐसे ये मुक्त आत्मा तीन लोक के शिखरमणि होकर शोभते हैं और लोक के अग्रभाग पर जाकर स्वात्मजन्य पीयूषरूप सुख को भोगते हैं।।१३४।।
सल्लेखना धारण से इन्द्रादिक पद की प्राप्ति
पूजार्थाज्ञैश्वर्यै:, बलपरिजनकामभोगभूयिष्ठै:।
अतिशयितभुवनमद्भुत-मभ्युदयं फलति सद्धर्म:।।१३५।।
यह धर्म प्रतिष्ठा धन आज्ञा, ऐश्वर्य आदि फल फलता है।
बल परिजन और काम भोगों, की अधिक प्रचुरता करता है।।
लोकातिशायि आश्चर्यजनक, इन्द्रादि अभ्युदय देता है।
जिनवर भाषित सद्धर्म यही, त्रिभुवन के सब सुख देता है।।१३५।।
अर्थ-यह जिनकथित सच्चा धर्म ही इस जीव को प्रतिष्ठा, धन, आज्ञा, ऐश्वर्य तथा शक्ति, परिजन और कामभोगों की अधिकता को प्रदान करता है। लोकातिशायि आश्चर्यजनक इन्द्रादिक पदों को देता है और तो क्या तीन लोकों के सभी सुख को प्रदान कर देता।।१३५।।
श्रावक की ग्यारह प्रतिमा (कक्षा या पद)
श्रावकपदानि देवै-रेकादश देशितानि येषु खलु।
स्वगुणा: पूर्वगुणै: सह, सन्तिष्ठन्ते क्रमविवृद्धा:।।१३६।।
सर्वज्ञदेव ने श्रावक के, ग्यारह पद प्रतिमारूप कहे।
उनमें जो आरोहण करते, वे भव्य उपासक नाम लहें।।
अपनी अपनी प्रतिमाओं में, नीचे नीचे की प्रतिमा के।
गुण रहते हैं क्रम से बढ़ते, जाते हैं अगली प्रतिमा के।।१३६।।
अर्थ-सर्वज्ञदेव ने श्रावक के ग्यारह पद कहे हैं। उनको प्रतिमा भी कहते हैं। जो इन पर चढ़ते हैं अर्थात् ग्रहण करते हैं वे भव्य उपासक कहलाते हैं। अपनी-अपनी प्रतिमाओं में नीचे-नीचे की प्रतिमा का गुण होना जरूरी है। ये क्रम से बढ़ते रहते हैं।।१३६।।
दर्शनप्रतिमाधारी का लक्षण
सम्यग्दर्शनशुद्ध:, संसारशरीर-भोगनिर्विण्ण:।
पञ्चगुरुचरणशरणो, दर्शनिकस्तत्त्वपथगृह्य:।।१३७।।
निर्दोष शुद्ध सम्यग्दर्शन, धारी दर्शन प्रतिमा धरता।
संसार देह औ भोगों से, अतिशय विरक्त मन में रहता।।
बस मात्र पंचपरमेप्ठी के, चरणों की शरण ग्रहण करता।
वह अष्टमूलगुण का धारी, सच्चे शिवपथ में पग धरता।।१३७।।
अर्थ-निर्दोष शुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करने वाला दर्शन प्रतिमाधारी है। वह संसार, शरीर और भोगों से विरक्त रहता है, पंचपरमेष्ठी के चरणों की शरण ग्रहण करता है और अष्टमूल गुण को धारण करता हुआ मोक्षमार्ग में चरण रखता है।।१३७।।
व्रतप्रतिमाधारी का स्वरूप
निरतिक्रमणमणुव्रत-पञ्चकमपि शीलसप्तकं चापि।
धारयते नि:शल्यो, योऽसौ व्रतिनां मतो व्रतिक:।।१३८।।
जो पांच अणुव्रत निरतिचार, धारण करता व्नतधारी है।
गुणव्रत त्रय शिक्षाव्रत चारों, इन सात शील का धारी है।।
माया मिथ्यात्व निदान नाम, तीनों शल्यों से विरहित है।
वह व्रतिकजनों में मान्य व्रतिक, प्रतिमाधारी गुणमंडित है।।१३८।।
अर्थ-जो अतिचार रहित पांच अणुव्रतों के धारक हैं, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत इन सात शीलों का पालन करते हैं। माया, मिथ्यात्व, निदान इन तीनों शल्यों से रहित हैं, वे व्रतिक जनों से मान्य व्रतप्रतिमाधारी होते हैं।।१३८।।
सामायिक प्रतिमाधारी का लक्षण
चतुरावर्तत्रितय-श्चतु:प्रणाम: स्थितो यथाजात:।
सामयिको द्विनिषद्य-स्त्रियोगशुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी।।१३९।।
त्रयकालों में सामायिक में, जो देववन्दना करता है।
मन वचन काय की शुद्धि से, जो जातरूप को धरता है।।
बारह आवर्त प्रणाम चार, दो बार निषद्या विधि होती।
जो विधिवत् सामायिक करते, उनके तिसरी प्रतिमा होती।।१३९।।
अर्थ-जो तीनों संध्या कालों में सामायिक में देववंदना करता है, मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक जातरूप को धारण करके बारह आवर्त, चार प्रणाम और दो बार निषद्या विधि करके विधिवत् सामायिक करता है, वह सामायिक प्रतिमाधारी होता है।।१३९।।
प्रोषधप्रतिमाधारी का स्वरूप
पर्वदिनेषु चतुर्ष्वपि, मासे मासे स्वशक्तिमनिगुह्य।
प्रोषधनियमविधायी, प्रणधिपर: प्रोषधानशन:।।१४०।।
प्रति महिने दोनों अष्टमि औ, दोनों ही चतुर्दशी तिथि में।
निज शक्ती को भी नहीं छिपा, कर इन चारों ही पर्वों में।।
अनशन या एकाशन करना, बस धर्मध्यान में रत होना।
विधिवत् व्रत प्रोषधोपवासों, को करके यह प्रतिमा धरना।।१४०।।
अर्थ-प्रत्येक महिने की दोनों अष्टमी और दोनों चतुर्दशी इन चारों ही पर्वो में अपनी शक्ति को नहीं छिपाकर उपवास या एकाशन करना, धर्मध्यान में रत होते हुए विधिवत् प्रोषधोपवास करने वाले के यह चतुर्थ प्रोषधोपवास प्रतिमा होती है।।१४०।।
सचित्तत्यागप्रतिमाधारी का लक्षण
मूलफलशाकशाखा – करीरकन्दप्रसूनबीजानि।
नामानि योऽत्ति सोऽयं, सचित्तविरतो दयामूर्ति:।।१४१।।
फल मूल और पत्ते कोंपल, औ शाक करीर कंद आदी।
जो पुष्प बीज भी हैं सचित, ये हरित वनस्पति विविधादी।।
जो इन सचित्त को नहिं खाता, या प्रासुक करके खाता है।
वह सचित्त त्यागी प्रतिमाधर, बस दयामूर्ति कहलाता है।।१४१।।
अर्थ-फल, मूल, पत्ते, कोंपल, शाक, करीर, कंद, पुष्प और बीज ये सचित्त हैं और भी अनेक प्रकार की हरित वनस्पति हैं। इनको प्रासुक करके जो खाता है, सचित्त नहीं खाता है, वह दयामूर्ति सचित्त त्यागी प्रतिमाधारी कहलाता है।।१४१।।
रात्रिभुक्तित्यागप्रतिमाधारी का स्वरूप
अन्नं पानं खाद्यं, लेह्यं नाश्नाति यो विभावर्याम्।
स च रात्रिभुक्तिविरत: सत्त्वेष्वनुकम्पमानमना:।।१४२।।
जो अन्न खाद्य औ लेह पेय, इन चारों विध आहारों को।
रात्री में कभी नहीं करता, छट्ठी प्रतिमाधारी है वो।।
सब प्राणीगण में अनुकंपा, करने वाला वह श्रावक है।
वह गृहस्थ आश्रम में रहकर, कहलाता धर्मोपासक है।।१४२।।
अर्थ-जो अन्न, खाद्य, लेह्य, पेय, इन चार प्रकार के आहार को रात्रि में कभी नहीं करता है, वह सभी प्राणियों में दया करने वाला श्रावक गृहस्थ-आश्रम में रहकर भी धर्म का उपासक माना जाता है।।१४२।।
ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी का लक्षण
मलबीजं मलयोनिं, गलन्मलं पूतिगन्धि बीभत्सं।
पश्यन्नङ्गमनङ्गा-द्विरमति यो ब्रह्मचारी स:।।१४३।।
मल बीज बना रजवीरज से, मलयोनी मल उत्पन्न करे।
मलस्रवित करे बीभत्स ग्लानि, युत है संतत दुर्गंध धरे।।
इस तनु को ऐसा देख सर्व, महिलाओं से जो विरत रहें।
वे ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी, निज आत्म गुणों में निरत रहें।।१४३।।
अर्थ-यह शरीर मल बीज है अर्थात् रज और वीर्य से बना हुआ है। मलयोनि है अर्थात् मल को उत्पन्न करने वाला है। हमेशा इससे दुर्गंधित मल झरता रहता है। यह देखने में बीभत्स-ग्लानियुक्त है, ऐसे शरीर को देखकर जो सम्पूर्ण स्त्रियों से विरक्त होकर अपने आत्मगुणों में अनुरक्त रहते हैं, वे ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी होते हैं।।१४३।।
आरम्भत्याग प्रतिमाधारी का स्वरूप
सेवाकृषिवाणिज्य-प्रमुखादारम्भतो व्युपारमति।
प्राणातिपातहेतो – र्योऽसावारम्भ – विनिवृत्त:।।१४४।।
सेवा कृषि औ व्यापार आदि, सब विध गृहस्थ आरम्भ तजें।
प्राणी हिंसा के ही निमित्त, सब गृह कार्यों से दूर हटें।।
वे ही आरम्भ त्याग प्रतिमा, धर के पापास्रव से बचते।
जिनपूजा यात्रा दानादिक, सत्कार्यों को करते रहते।।१४४।।
अर्थ-सेवा, नौकरी, खेती और व्यापार आदि सभी गृहस्थी के आरंभ प्राणी हिंसा के निमित्त हैं। जो इन गृह-कार्यों से दूर हट जाते हैं, वे आरंभत्यागी प्रतिमाधारी पापास्रव से बच जाते हैं तथा जिनपूजा, यात्रा, दान आदि सत्कार्यों को भी करते हैं।।१४४।।
परिग्रहत्याग प्रतिमाधारी का लक्षण
ब्रह्मेषु दशसु वस्तुषु, ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरत:।
स्वस्थ: सन्तोषपर:, परिचितपरिग्रहाद्विरत:।।१४५।।
धन धान्यादी दश भेदरूप, जो बाह्य परिग्रह माने हैं।
इनसे ममत्व को छोड़ सतत, जो निर्ममत्व मन ठाने हैं।।
वे स्वस्थ और संतोषी बन, परिग्रह त्यागी प्रतिमा धारे।
कुछ वस्त्रादिक बस रख करके, बाकी का त्याग करे सारे।।१४५।।
अर्थ-धन, धान्य आदि दस प्रकार के बाह्य परिग्रह होते हैं। इनसे ममत्व को छोड़कर जो निर्ममत्व होकर, कुछ वस्त्र आदि मात्र परिग्रह रखते हैं, वे स्वस्थ और संतोषी हुए परिग्रहत्यागी प्रतिमाधारी कहलाते हैं।।१४५।।
अनुमतित्याग प्रतिमाधारी का स्वरूप
अनुमतिरारम्भे वा, परिग्रहे वैहिकेषु कर्मसु वा।
नास्ति खलु यस्य समधी-रनुमतिविरत: स मन्तव्य:।।१४६।।
गृह आरंभादी कार्यों में, परिग्रह में ऐहिक कार्यों में।
धन संचय और विवाहादी, औ व्यापारादी कार्यों में।।
जो अनुमति कभी नहीं देते, माध्यस्थ भाव को रखते हैं।
अनुमति त्यागी प्रतिमाधारी, वे निज में रमते रहते हैं।।१४६।।
अर्थ-जो गृह आरंभ आदि कार्यों में, परिग्रह में, विवाह आदि ऐहिक कार्यों में और धनसंचय व्यापारादि कार्यो में अनुमति नहीं देते हैं, माध्यस्थ भाव धारण करते हैं वे अनुमतित्यागी प्रतिमाधारी निज में ही रमते रहते हैं।।१४६।।
उद्दिष्टत्यागप्रतिमाधारी का लक्षण
गृहतो मुनिवनमित्वा, गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य।
भैक्ष्याशनस्तपस्य-न्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधर: ।।१४७।।
गृह को तजकर मुनि आश्रम में, जाकर गुरुवर के सन्निध में।
ग्यारहवीं प्रतिमा के व्रत लें, तप तपता औ रहता संघ में।।
भिक्षावृत्ती से ले अहार, कोपीन व खंडवसन धारे।
क्षुल्लक उत्कृष्ट उपासक यह, ऐलक कोपीन मात्र धारे।।१४७।।
अर्थ-जो घर को छोड़कर मुनि के आश्रम में जाकर गुरु के सान्निध्य में ग्यारहवीं प्रतिमा के व्रत लेकर तपश्चरण करते हैं और संघ में रहते हुए भिक्षावृत्ति से आहार लेते हैं, कोपीन और खंडवस्त्र धारण करते है। वे ग्यारहवीं उद्दिष्टत्यागी प्रतिमा के धारक होते हैं। इसमें क्षुल्लक-ऐलक ऐसे दो भेद हैं। क्षुल्लक कोपीन और खंडवस्त्र धारण करते हैं और ऐलक मात्र कोपीन ही रखते हैं। ये दोनों ही उपासक कहलाते हैं।।१४७।।
श्रेष्ठज्ञाता का स्वरूप
पाप-मराति र्धर्मो, बन्धु र्जीवस्य चेति निश्चिन्वन्।
समयं यदि जानीते, श्रेयान् ज्ञाता ध्रुवं भवति।।१४८।।
त्रिभुवन में सभी जीवगण का, इक पाप अकेला शत्रु है।
बस धर्म एक ही बंधु है, नहिं अन्य कोई भी बंधू है।।
जो ऐसा यदि चिन्तन करते, वे ही जिनशास्त्र जानते हैं।
उनको निश्चय से सर्वोत्तम, ज्ञाता मुनिनाथ मानते हैं।।१४८।।
अर्थ-तीन लोकों में जितने भी जीव हैं, उन सबके लिए एक पाप ही शत्रु है और एक धर्म ही बन्धु है, अन्य कोई बन्धु नहीं है। जो मनुष्य यदि ऐसा चिंतन करता रहता है, वह ही जिन शास्त्रों को जानने वाला सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता माना गया है ।।१४८।।
रत्नत्रय के सेवन का फल
येन स्वयं वीतकलज्र्विद्या-दृष्टिक्रियारत्नकरण्डभावम्।
नीतस्तमायातिपतीच्छयेव, सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषुविष्टपेषु।।१४९।।
जिस भव्य जीव ने निज, सम्यग्दर्शन निर्दोष बनाया है।
सज्ज्ञान व सम्यक्चारितमय, त्रय रत्नकरण्डक पाया है।।
त्रिभुवन में घूम स्वयं उसको, पति करने की इच्छा से हो।
चारों पुरुषार्थों की सिद्धी, स्वयमेव वरण कर लेती ही।।१४९।।
अर्थ-जिस भव्य जीव ने सम्यग्दर्शन को निर्दोष कर लिया है, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को प्राप्त कर लिया है, उसने इन तीन रत्नरूप रत्नों का करण्डक-पिटारा प्राप्त कर लिया है। तीनों लोकों में घूमकर स्वयं पतिरूप से वरण करने से चारों पुरुषार्थों की सिद्धि उसे स्वयं ही वर लेती हैं।।१४९।।
इष्टप्रार्थना या अन्तिम मङ्गल
सुखयतु सुखभूमि: कामिनं कामिनीव,
सुतमिव जननी मां शुद्धशीला भुनक्तु।
कुलमिव गुणभूषा, कन्यका सम्पुनीतात्-
जिनपतिपदपद्म – प्रेक्षिणी दृष्टिलक्ष्मी:।।१५०।।
सम्यग्दर्शन लक्ष्मी जिनपति, चरणाम्बुज अवलोकन कर्त्री।
सुख की भूमी कामिनी सदृश, मुझको सुख देवे नितप्रति ही।।
औ शुद्ध शीलवति जननीवत, निजपुत्र सदृश पाले मुझको।
गुणभूषित कन्या के समान, कुल सदृश पवित्र करें मुझको।।१५०।।
अर्थ-जिनेन्द्रदेव के चरण-कमलों का अवलोकन करने वाली ऐसी यह सम्यग्दर्शनरूपी लक्ष्मी सुख की भूमि ऐसी कामिनी के सदृश मुझे नित्य ही सुख देने वाली होवे और शुद्ध शीलवती माता जैसे अपने पुत्र का पालन करती है ऐसे ही मेरा पालन करे तथा गुणों से भूषित कन्या जैसे अपने कुल को पवित्र करती है वैसे ही वह मुझे पवित्र करे।
दोहा- वीर अब्द पच्चीस सौ, छह जग का विख्यात।
चैत्र कृष्ण नवमी तिथी, ऋषभ जन्म से ख्यात।।१।।
श्री समंतभद्राख्यमुनि, रचित श्रावकाचार।
‘रत्नकरण्ड’ सुनाम यह, शिवपथ का आधार।।२।।
‘ज्ञानमती’ मैं आर्यिका, किया पद्य अनुवाद।
पढ़ो सुनो सब चाव से, लो रत्नत्रय लाभ।।३।।
यावत् जिन शासन विमल, जग में करे प्रकाश।
तावत् भाषामय कृती, करे भव्य मन वास।।४।।