(पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका ग्रंथ के आधार से विशेषार्थ सहित)
-शार्दूलविक्रीडित-
तत्त्वार्थाप्ततपोभृतां यतिवराः श्रद्धानमाहुर्दृशं ज्ञानं जानदनूनमप्रतिहतं स्वार्थावसन्देहवत्।
चारित्रं विरतिः प्रमादविलसत्कर्मास्रवाद्योगिनामेतन्मुक्तिपथस्त्रयं च परमो धर्मो भवच्छेदकः।।७२।।
सात तत्त्व, आप्त और तपोधन-सिद्धान्त, सच्चे देव-अर्हन्त भगवान और मुनि इनका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। स्व और परपदार्थ दोनों की न्यूनता, बाधा और संदेह से रहित होकर जो जानना है वह ज्ञान है। योगियों के प्रमाद से होने वाले कर्मास्रवों से विरति होना चारित्र है, ऐसा यतियों में श्रेष्ठ ऐसे गणधर देव कहते हैं। ये तीनों मोक्ष के मार्ग हैं अतः ये तीनों ही संसार का छेदन करने वाले ऐसे परम धर्म कहे जाते हैं।
भावार्थ-आप्त, आगम और मुनि इनका श्रद्धान, हीनाधिक रहित संशय, विपर्यय रहित ज्ञान और कर्मास्रव को रोकने वाला आचरण यही रत्नत्रय है।
-मालिनी-
हृदयभुवि दृगेकं वीजमुप्तंत्वशज्रप्रभृतिगुणसदम्भःसारिणीसिक्तमुच्चैः।
भवदवगमशाखश्चारुचारित्रपुष्पस्तरुरमृतफलेन प्रीणयत्याशु भव्यम्।।७३।।
हृदयरूपी भूमि में बोया गया एक सम्यग्दर्शन रूपी बीज निःशंकित आदि आठ अंगस्वरूप उत्तम जल से परिपूर्ण नदी के द्वारा अत्यर्थरूप से सींचा जाकर उत्पन्न हुई ज्ञानरूपी शाखाओं और मनोहर सम्यक्- चारित्ररूपी पुष्पों से संपन्न होता हुआ वृक्ष के रूप में परिणत होता है। ऐसा यह रत्नत्रयरूपी वृक्ष भव्यों को शीघ्र ही मोक्षफल को देकर प्रसन्न करता है।
भावार्थ-यहाँ चित्त को भूमि बनाकर सम्यग्दर्शन को बीज बनाया है। शंकादि गुणों को सिंचन करने वाला जल कहा है। सम्यग्ज्ञान को शाखायें एवं चारित्र को पुष्प कहा है, ऐसा यह रत्नत्रयरूपी वृक्ष भव्यों को अमृतफल-मोक्ष फल देने वाला है।
दृगवगमचरित्रालंकृतः सिद्धिपात्रं लघुरपि न गुरुः स्यादन्यथात्वे कदाचित्।
स्फुटमवगतमार्गो याति मन्दोऽपि गच्छन्नभिमतपदमन्यो नैव तूर्णोऽपि जन्तुः।।७४।।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र से विभूषित पुरुष यदि तप आदि अन्य गुणों में मंद भी हों तो भी वे सिद्धि के पात्र हैं किन्तु इससे विपरीत यदि रत्नत्रय से रहित पुरुष अन्य गुणों में महान भी हों तो वे कभी सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकते हैं, सो ठीक ही है। स्पष्ट रूप से मार्ग से परिचित व्यक्ति यदि चलने में मंद भी हों तो भी वे धीरे-धीरे चलकर अभीष्ट स्थान में पहुंच जाते हैं किन्तु इससे विपरीत जो अन्य मनुष्य मार्ग से अपरिचित हैं वे चलने में शीघ्रगामी होकर भी अभीष्ट स्थान को नहीं प्राप्त कर पाते हैं।
-मालिनी-
वनशिखिनिमृतोऽन्ध: सञ्चरन्वाढमंघ्रिद्वितयविकलमूर्ति वीक्षमाणोऽपि खञ्ज:।
अपि सनयनपादोऽश्रद्दधानश्च तस्मादृगवगमचरित्रै: संयुतैरेव सिद्धि:।।७५।।
वन की दावानल अग्नि से जलते हुए वन में शीघ्र गमन करने वाला अंधा मर जाता है, इसी प्रकार दोनों पैरों से रहित शरीर वाला लंगड़ा मनुष्य दावानल को देखता हुआ भी चलने में असमर्थ होने से जल कर मर जाता है तथा अग्नि का विश्वास न करने वाला मनुष्य भी नेत्र एवं पैरों से युक्त होकर भी उक्त दावानल में भस्म हो जाता है इसलिए सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों की एकता से ही सिद्धि प्राप्त होती है ऐसा समझना चाहिए।
भावार्थ–एक व्यक्ति तो वन में लगी हुई अग्नि देखकर और चलने में समर्थ होकर भी मैं जल जाऊंगा ऐसा विश्वास करके या आलसी होने से जलकर मर जाता है। दूसरा अंधा मनुष्य ‘मार्ग किधर से है, अग्नि कहां-कहां है ?’ ऐसा न देखकर चलने में सक्षम होते हुए भी जल कर मर जाता है और तीसरा व्यक्ति लंगड़ा होने से अग्नि को देखते हुए भी चल नहीं सकने से जल जाता है। उसी प्रकार पहला श्रद्धान रहित मनुष्य, दूसरा ज्ञानरहित मनुष्य और तीसरा चारित्ररहित मनुष्य ऐसे तीनों ही मोक्ष प्राप्त करने में असमर्थ हैं अतः सम्यग्दर्शनादि तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है, ऐसा समझना।
-मालिनी-
बहुभिरपि किमन्यै: प्रस्तरै: रत्नसंज्ञैर्वपुषिजनितखेदैर्भारकारित्वयोगात्।
हतदुरिततमोभिश्चारुरत्नैरनर्घै स्त्रिभिरपि कुरुतात्मालंकृति दर्शनाद्यै:।।७६।।
हे मुनिवरों! ‘रत्न’ संज्ञा को धारण करने वाले अन्य बहुत से पत्थरों से क्या लाभ है ? क्योंकि भारयुक्त होने से उनके द्वारा केवल शरीर में खेद ही उत्पन्न होता है इसलिए पापरूपी अंधकार को नष्ट करने वाले अमूल्य सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ऐसे तीन रत्नों से ही आप अपनी आत्मा को अलंकृत करो।
-मालिनी-
जयति सुखनिधानं मोक्षवृक्षैकबीजं सकलमलविमुक्तं दर्शनं यद्विना स्यात्।
मतिरपि कुमतिर्नु दुश्चरित्रं चरित्रं भवति मनुजजन्म प्राप्तमप्राप्तमेव।।७७।।
सर्व सुखों का स्थान, मोक्षरूपी वृक्ष का एक बीज और सकल दोषों से रहित ऐसा सम्यग्दर्शन जयशील हो रहा है कि जिस सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान मिथ्याज्ञान है और चारित्र मिथ्याचारित्र होता है और तो क्या, प्राप्त हुआ मनुष्य जन्म भी न प्राप्त हुए के समान ही रहता है।
भावार्थ-मनुष्य जन्म की सफलता सम्यग्दर्शन से ही है और ज्ञान तथा चारित्र भी सम्यग्दर्शन के प्रभाव से मिथ्यापने को छोड़कर समीचीन हो जाते हैं।
-आर्या-
भवभुजगनागदमनी दु:खमहादावशमनजलवृष्टि:।
मुक्तिसुखामृतसरसी जयति दृगादित्रयी सम्यक् ।।७८।।
जो समीचीन सम्यग्दर्शन आदि तीन रत्न हैं वे संसाररूपी सर्प का दमन करने के लिए ‘नागदमनी’ हैं, दुःखरूपी दावानल को शांत करने के लिए जल की वृष्टि ही हैं और मुक्तिसुखरूपी अमृत के लिए सरोवर ही हैं, वे सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रयी जयशील होवें।
-मालिनी-
वचनविरचितैवोत्पद्यते भेदबुद्धिर्दृगवगमचरित्राण्यात्मन: स्वं स्वरूपम्।
अनुपचरितमेतच्चेतनैकस्वभावं व्रजति विषयभावं योगिनां योगदृष्टे:।।७९।।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों आत्मा के निज स्वरूप हैं, इनमें जो भिन्नता की बुद्धि होती है वह केवल शब्दों की रचना ही है, वास्तव में वे तीनों अभिन्न ही हैं।
आत्मा का यह स्वरूप उपचार से रहित-परमार्थभूत है, चेतनारूप एक स्वभाव वाला है और योगियों की योगदृष्टि का ही विषय है।
-उपेन्द्रवज्रा-
निरूप्य तत्त्वं स्थिरतामुपागता मति: सतां शुद्धनयावलम्बिनी।
अखण्डमेकं विशदं चिदात्मकं निरन्तरं पश्यति तत्परं मह:।।८०।।
शुद्धनय का अवलंबन लेने वाली साधुजनों की बुद्धि तत्त्व का निरूपण करके स्थिरता को प्राप्त हुई निरंतर अखंड, एक, निर्मल एवं चैतन्यस्वरूप उस परम ज्योति का ही अवलोकन करती है।
-स्रग्धरा-
दृष्टिर्निर्णीतिरात्माह्वयविशदमहस्यत्र बोध: प्रबोध: शुद्धं चारित्रमत्र स्थितिरिति युगपद्बंधविध्वंसकारि।
बाह्यं बाह्यार्थमेव त्रितयमपि तथा स्याच्छुभोवाऽशुभोवा बंध: संसारमेवं श्रुतिनिपुणाधिय: साधवस्तं वदन्ति।।८१।।
आत्मा नामक उज्ज्वल ज्योति का जो निर्णय है उसी का नाम सम्यग्दर्शन है। उसी आत्मा का नाम सम्यग्ज्ञान है और उसी आत्मा में स्थिरता का नाम सम्यक्चारित्र है। ये तीनों एक साथ उत्पन्न होकर बंध का विध्वंस करने वाले हैं। जो बाह्य रत्नत्रय है वह केवल बाह्य पदार्थों को ही विषय करता है और इस बाह्य रत्नत्रय से शुभ अथवा अशुभ कर्म का बंध होता है, वह बंध संसार ही है ऐसा शास्त्र के निपुण ज्ञानी साधुजन कहते हैं।
विशेषार्थ-तत्त्वादि का श्रद्धान, द्वादशांग का ज्ञान और व्रत, समिति, गुप्ति आदि रूप चारित्र यह व्यवहार रत्नत्रय है, इसे भेद रत्नत्रय भी कहते हैं। छठे-सातवें गुणस्थान में यह व्यवहार रत्नत्रय ही होता है अतः यह साधन है और निश्चय रत्नत्रय साध्य है। शुद्ध आत्मतत्त्व का श्रद्धान, उसी का ज्ञान और उसी में स्थिर हो जाना यह निश्चय या अभेद रत्नत्रय है। यह एक साथ ध्यान में ही होता है। व्यवहार रत्नत्रय स्वर्ग का कारण है और परंपरा से मोक्ष का कारण है इसी हेतु से इसे बंध का कारण और बंध को संसार का कारण कह दिया है। इसे सर्वथा संसार का कारण नहीं समझना चाहिए क्योंकि मुनिराजों की जब तक आहार-विहार और आवश्यक क्रियाओं में प्रवृत्ति है तब तक व्यवहार रत्नत्रय ही है। यही रत्नत्रय शुक्लध्यान में निश्चय नाम को प्राप्त होकर शुद्धोपयोग बन जाता है। इससे इस भव में भी मोक्ष प्राप्ति संभव है कदाचित् नहीं हुई तो आगे भवों में क्षपक श्रेणी पर आरोहण कर मुनिराज मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं।