चहुँगति-फनि-विष-हरन-मणि, दु:ख-पावक-जल-धार।
शिव-सुख-सुधा-सरोवरी, सम्यक्-त्रयी निहार।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयधर्म! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयधर्म! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयधर्म! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अष्टक (सोरठा छंद)-
क्षीरोदधि उनहार, उज्ज्वल जल अति सोहनो।
जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्न-त्रय भजूँ।।१।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय जन्मरोगविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन-केसर गारि, परिमल-महा-सुगंध-मय।
जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्न-त्रय भजूँ।।२।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
तंदुल अमल चितार, वासमती-सुखदासके।
जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्न-त्रय भजूँ।।३।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
महवैंâ फूल अपार, अलि गुंजैं ज्यों थुति करैं।
जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्न-त्रय भजूँ।।४।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लाडू बहु विस्तार, चीकन मिष्ट सुगंधयुत।
जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्न-त्रय भजूँ।।५।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीप रतनमय सार, जोत प्रकाशै जगत में।
जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्न-त्रय भजूँ।।६।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप सुवास विथार, चंदन अगर कपूर की।
जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्न-त्रय भजूँ।।७।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
फल शोभा अधिकाय, लोंग छुहारे जायफल।
जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्न-त्रय भजूँ।।८।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
आठ दरब निरधार, उत्तम सों उत्तम लिये।
जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्न-त्रय भजूँ।।९।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यक् दरशन ज्ञान, व्रत शिव-मग-तीनों मयी।
पार उतारन यान, ‘द्यानत’ पूजों व्रतसहित।।१०।।
ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।