सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को रत्नत्रय कहते हैं। इन तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है। इसके दो भेद हैं- (१) व्यवहार रत्नत्रय (२) निश्चय रत्नत्रय व्यवहार सम्यग्दर्शन] जीवादि तत्त्वों का और सच्चे देव, शास्त्र, गुरु का २५ दोष रहित श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन है। (इसका विस्तृत वर्णन तीसरे भाग में आ चुका है।)
व्यवहार सम्यग्ज्ञान
तत्वों के स्वरूप को संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय दोष रहित जैसा का तैसा जानना सम्यग्ज्ञान है। सम्यग्दर्शन होने पर ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है। विषय के भेद से सम्यग्ज्ञान के चार भेद हैं-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग। इन्हें चार वेद भी कहते हैं।
प्रथमानुयोग – जिसमें तीर्थंकर आदि महापुरुषों का इतिहास बताया जाता है, उन पुराणों और चारित्र-गंथों को प्रथमानुयोग कहते हैं। जैसे-महापुराण, जीवंधर चरित्र आदि।
करणानुयोग –जो लोक-अलोक के विभाग को, युग परिवर्तन को और चारों गतियों को बतलाता है, वह करणानुयोग है। जैसे-त्रिलोकसार, त्रिलोकभास्कर, गोम्मटसार आदि।
चरणानुयोग – जिसमें श्रावक और मुनियों के चरित्र का वर्णन हो, वह चरणानुयोग है। जैसे-रत्नकरण्डश्रावकाचार, मूलाचार आदि।
द्रव्यानुयोग – जिसमें जीवादि तत्त्व, पुण्य-पाप और बंध-मोक्ष का वर्णन हो, वह द्रव्यानुयोग है। जैसे-तत्त्वार्थसूत्र, परमात्मप्रकाश, समयसार आदि। ये चारों अनुयोग सम्यग्ज्ञान को बढ़ाने वाले हैं अथवा सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के उपाय हैं। अत: इन अनुयोगों को ही सम्यग्ज्ञान कह देते हैं।
व्यवहार सम्यक्चारित्र
अशुभ-पाप क्रियाओं से हटकर शुभ-पुण्य क्रियाओं में प्रवृत्ति करना सम्यक्चारित्र कहलाता है। इसके दो भेद हैं-सकलचारित्र और विकलचारित्र। सम्पूर्ण परिग्रह के त्यागी मुनियों के चारित्र को सकलचारित्र कहते हैं, जो कि पाँच महाव्रत आदि २८ मूलगुणरूप होता है। इनका वर्णन साधु परमेष्ठी के मूलगुण में आ चुका है। श्रावक के एकदेशचारित्र को विकलचारित्र कहते हैं, उसके अणुव्रत आदि १२ व्रतों से १२ भेद होते हैं और दर्शन प्रतिमा आदि ११ प्रतिमारूप से ११ भेद होते हैं। इनका वर्णन पीछे हो चुका है। परद्रव्यों से भिन्न अपनी आत्मा का श्रद्धान करना निश्चय सम्यग्दर्शन है। परद्रव्यों से भिन्न अपनी आत्मा को जानना निश्चय सम्यग्ज्ञान है। पंचेन्द्रिय विषयों से और कषायों से रहित होकर निर्विकल्प शुद्ध आत्मा के स्वरूप में लीन होना निश्चय सम्यक्चारित्र है। ये तीनों एक साथ होते हैं। अत: इन्हें रत्नत्रय भी कहते हैं। व्यवहार रत्नत्रय को भेद रत्नत्रय कहते हैं। व्यवहार रत्नत्रय साधन है और निश्चयरत्नत्रय साध्य है अर्थात् व्यवहार रत्नत्रय के होने पर ही निश्चय रत्नत्रय प्रकट होता है, पहले नहीं होता है। यद्यपि निश्चय रत्नत्रय साक्षात् मोक्ष का कारण है और व्यवहार रत्नत्रय परम्परा से मोक्ष का कारण है फिर भी व्यवहार रत्नत्रय के बिना निश्चय रत्नत्रय प्रकट नहीं हो सकता, ऐसा महान आचार्यों का जिन शासन में उपदेश है।
प्रश्न-छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों का कौन सा रत्नत्रय होता है?
उत्तर –उन्हें व्यवहार रत्नत्रय ही होता है। निश्चय रत्नत्रय तो निर्विकल्प ध्यान की एकाग्रपरिणति में सातवें, आठवें आदि गुणस्थानवर्ती मुनियों के ही होता है।