लेखक—उपाध्याय श्री भरतसागर महाराज
संघस्थ आ. श्री विमलसागर जी महाराज
संसार की प्रत्येक वस्तु का अपना स्वभाव है, धर्म है। धर्म प्राणी मात्र के लिये है। आज मानव—मस्तिष्क में प्रश्न है कि धर्म क्या चीज है ? कार्ल माक्र्स ने धर्म को अफीम की गोली बताया, किसी ने इसे पाखण्ड माना, अनेक लोगों ने अपने—अपने विचारानुसार धर्म की अनेक व्याख्यायें की हैं। धर्म शब्द अत्यन्त व्यापक शब्द है। इसको हम किसी सीमित दायरे में नहीं रख सकते। धर्म का व्यावहारिक अर्थ है कर्तव्य पालन। इस पर महान् ऋषि, मुनि, तपस्वियों, विद्वानों, चिन्तकों व आत्मानुभवियों ने अपने चिन्तन के आधार पर जो कुछ उपलब्ध हुआ, उसे ग्रंथों में लिखा। सर्वज्ञ जिनदेव ने इसे आत्म धर्म कहा, किसी ने इसे राष्ट्र धर्म कहा, किसी ने पारिवारिक धर्म कहा, किसी ने गृहस्थ धर्म कहा और किसी ने साधु धर्म कहा। धर्म शब्द व्यावहारिक जीवन की प्रत्येक स्थिति व वस्तु के साथ सम्बन्धित है। जीवन के विभिन्न अंगों व कार्यों के साथ धर्म का घनिष्ठ सम्बन्ध है। चिन्तन की धारा से प्राप्त सार रूप में कहा गया कि—
धम्मो वत्थु सहावो, खमादि भावेहि दसविहो धम्मो। रयणत्तयं च धम्मो, जीवाणं रक्खणं धम्मो।।का. अ.।।
जैन शासन अपेक्षा दृष्टि पर टिका हुआ है। जिनागम चार अनुयोगों में विस्तृत है—प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग व द्रव्यानुयोग। प्रथमानुयोग अपेक्षा—जीवों की रक्षा करना धर्म है या जीवों पर दया करना धर्म है। करणानुयोग अपेक्षा—रत्नत्रय धर्म है। चरणानुयोग अपेक्षा—उत्तम क्षमादि रूप दस प्रकार का धर्म है। और द्रव्यानुयोग अपेक्षा—वस्तु का स्वभाव धर्म है। इनमें रत्नत्रय धर्म सब धर्मों का शिरोमणि हैं अन्य धर्म कारण रूप हैं और रत्नत्रय धर्म कार्य रूप है। आचार्यश्री समन्तभद्र स्वामी ने जब धर्मोपदेश करने की प्रतिज्ञा की तब उन्होंने कहा—मैं समन्तभद्र उस धर्म का उपदेश दे रहा हूँ, जो धर्म कर्मों का क्षय करने के साथ जीवों को संसार के दु:खों से छुड़ाकर अनन्त सुखमय मोक्ष अवस्था में पहुँचा देता है। वह धर्म कौन सा है—
सद्दृष्टिज्ञानवृत्तानि, धर्म धर्मेश्वरा विदु:। यदीय प्रत्यनीकानि, भवन्ति भवपद्धति:।।३।। र. आ.।।
संसार के दु:खों से छुड़ाकर संतप्त जीवों को मोक्ष सुख में पहुँचाने के कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र तो धर्म कहलाते हैं तथा संसार में परिभ्रमण कराने के कारण मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान व मिथ्याचारित्र अधर्म कहे जाते हैं। तत्त्वार्थ सूत्र ग्रंथराज में उमास्वामी आचार्य ने सर्वप्रथम पहले सूत्रों में इसका कथन किया है—
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रणि मोक्षमार्ग:।।१।। अ. १ त. सू.।।
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्ष के मार्ग अर्थात् मोक्ष प्राप्ति के उपाय हैं। ‘‘मोक्षमार्ग:’’ इस पद में व्याकरण के नियमानुसार बहुवचन होना चाहिये पर आचार्यश्री ने एक वचन ही रखा; इसका तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन ज्ञान व चारित्र तीनों की एकता ही मोक्ष का मार्ग है—Right Faith, Right knowledge and Right conduct lead us, to Soldtation. तीनों की एकता ही मोक्ष है। Only the right Faith con-not, only the right knowledge con-not, only the right Conduct can-not but all the three together take us to solvation. ? अकेले सम्यक्दर्शन से, अकेले सम्यग्ज्ञान से और अकेले सम्यक्चारित्र से मोक्ष नहीं, तीनों की एकता ही मोक्ष है। आगम दृष्टि में सम्यक्दर्शन—ज्ञान व चारित्र—
प्रणिधानविशेषाहितद्वैविध्यजनितव्यापारं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्श।।रा. वा.।।१।१।।
अर्थ—प्रणिधान विशेष से आत्मसात्कृत दो प्रकार के कारणों से जनित है, व्यापार जिसका ऐसे तत्त्वार्थ श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं।
नयप्रमाणविकल्पूर्वको जीवाद्यर्थंयाथात्म्पावगम: सम्यग्ज्ञानम्।।रा. वा. १।२।।
अर्थ—नय—प्रमाण विकल्पूर्वक जीवादि पदार्थों को जैसे का तैसा जानना सम्यक्ज्ञान है।
संसारकारणविनिवृा\त प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवतो बाह्याभ्यन्तरक्रियाविशेषोपरम: सम्यक् चारित्रम्।।रा. वा.१।३।।
अर्थ—संसार के कारणभूत रागद्वेषादि की निवृत्ति के लिये कृतसंकल्प विवेकी पुरुष की बाह्य एवं आभ्यंतर क्रियाओं (शारीरिक और वाचनिक क्रियाओं को बाह्य क्रिया कहते हैं और मानसिक क्रिया को आभ्यंतर क्रिया कहते है) का रुक जाना ही सम्यक् चारित्र है।
विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावे निज परमात्मनि यद्रुचिरूपं सम्यग्दर्शनं तत्रैव रागादि रहित स्वसंवेदन ज्ञानं तथैव निश्चलानुभूतिरूपं वीतराग चारित्रमित्युक्तलक्षणेन निश्चयरत्नत्रेयणपरिणत जीवपदार्थ है शिष्य स्वसमयं जानीहि। जैन सिद्धान्त आगमदृष्टि व अध्यात्मदृष्टि दोनों अपेक्षाओं से वस्तु अविरोध विवेचन पाया जाता है। अथवा द्रव्र्यािथक व पर्यार्यािथक दोनों नयों की अपेक्षा से वस्तु का विवेचन किया जाता है।
शका—जब अज्ञान से बंध व ज्ञान से मोक्ष होता है, यह सभी को निर्विवाद रूप से स्वीकृत है तो सम्यग्दर्शनादि तीनों से मोक्ष की कल्पना युक्त नहीं है।
समाधान – आचार्य अकलंकदेव कलंकदेव करते हैं— रसायण के समान सम्यग्दर्शनादि तीनों में अविनाभाव सम्बन्ध है। तीनों की समग्रता के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है। जैसे रसायन के ज्ञानमात्र से रसायनफल व रोग निवृत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि रसायन श्रद्धान और रसायन क्रिया का अभाव है। यदि किसी ने रसायन ज्ञानमात्र रसायनफल—आरोग्य देखा हो तो बतावें ? परन्तु रसायन ज्ञानमात्र से आरोग्य फल नहीं मिलता है, न रसायन की क्रिया (अपथ्यत्यागादि) मात्र से रोगनिवृत्ति होती है। क्योंकि इसमें रसायन के आरोग्यता गुण का श्रद्धान और ज्ञान का अभाव है तथा ज्ञानपूर्वक क्रिया से रसायन का सेवन किये बिना केवल श्रद्धान मात्र से भी आरोग्यता नहीं मिल सकती है। जिस प्रकार पूर्ण फल की प्राप्ति के लिये रसायन का विश्वास, ज्ञान और उसका सेवन आवश्यक ही है, उसी प्रकार यह बात ववाद सिद्ध है कि—दर्शन और चारित्र के अभाव में सिर्पक ज्ञान मात्र से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। मोक्षमार्ग के ज्ञान और तदनुरूप क्रिया के अभाव में सिर्पक श्रद्धान माप्त से मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता और न ज्ञान श्रद्धानशून्य क्रिया मात्र से मुक्ति प्राप्त हो सकती है क्योंकि ज्ञार—श्रद्धान रहित क्रिया निष्फल है। द्रव्र्यािथक दृष्टि से ज्ञान—दर्शन व चारित्र में एकत्व है—तथा पर्यार्यािथकनय की दृष्टि से ज्ञानादि ने नानात्व है।
प्रश्न—लक्षण भेद होने से एक मार्गत्व की उत्पत्ति नहीं हो सकती है ?
समाधान—सम्यग्दर्शन—ज्ञान व चारित्र में परस्पर संसर्ग होने पर एक मार्ग की उत्पत्ति होती है। दीपक के समान।
शंका—भिन्न—भिन्न लक्षण वालों के एकत्व नहीं हो सकता इसलिये तीन मोक्षमार्ग हैं तीनों का समुदाय मोक्षमार्ग एक नहीं है ?
उत्तर- में आचार्य देव लिखते हैं—जैसे परस्पर विलक्षण बत्ती, तेल, अग्नि आदि पदार्थों की बाह्याभ्यन्तर परिणाम कारण से प्राप्त संयोग पर्यायों का समुदाय एक दीपक होता है, तेल बत्ती और अग्नि—ये तीनों पृथक्—पृथक् दीपक नहीं हैं। उसी प्रकार परस्पर विलक्षण सम्यग्दर्शन—सम्यग्ज्ञान व सम्यक््â चारित्र—इन तीनों का समुदाय मोक्षमार्ग होता है। सम्यग्दर्शनादि पृथक्—पृथक् मोक्षमार्ग नहीं है। अर्थात् तेल, बत्ती और अग्नि तीनों मिलकर एक ऐसी ज्योति उत्पन्न करते हैं जिससे अज्ञानान्धकार नाशक एक दीपक बन जाता है, उसी प्रकार विभिन्न लक्षण वाले सम्यग्दर्शनादि भी तीनों मिलकर एक ऐसी आत्म जयोति उत्पन्न करते हैं जो अखंड भाव से एक मोक्षमार्ग बन जाता है। केवल दर्शन या ज्ञानमात्र से तथा अकेले चारित्र से भी अर्थ की सिद्धि दृष्टिगोचर नहीं होती है। अत: मोक्षमार्ग की कल्पना ‘‘रत्नत्रय’’ से करना ही श्रेष्ठ है। कहा भी है,—
हतं ज्ञानं क्रियाहीनं, हता चाज्ञानिनां क्रिया।
धावन् किलान्धकोदग्ध:, पश्यन्नपि च पंगुल:।।१।।
संयोगमेवेह वदन्ति तज्झा, न ह्येकचव्रेâण रथ: प्रायति।
अन्धश्च पद्गुश्च वने प्रविष्टो, तौ संप्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ।।२।।
क्रियाहीन ज्ञान नष्ट हो जाता है और अज्ञानियों की क्रिया निष्फल होती है। दावानल से प्याप्त वन में जिस प्रकार अन्धा इधर—उधर भाग कर भी जल जाता है, उसी प्रकार लंगड़ा देखता हुआ भी जल जाता है; क्योंकि एक चक्र से रथ नहीं चल सकता है। अत: ज्ञान और क्रिया का संयोग ही कार्यकारी है। एक अन्धा और एक लंगड़ा वन में प्रविष्ट थे। दोनों मिल गये तो नगर में आ गये। यदि अन्धा और लंगड़ा मिल जाये और अन्धे के कन्धे पर लंगड़ा बैठ जाये तो दोनों का ही उद्धार हो जाये। इन सम्यग्दर्शनादि में पूर्व की प्राप्ति होने पर उत्तर की प्राप्ति भजनीय होती है। परन्तु उत्तर की प्राप्ति हो जाने पर पूर्व का लाभ निश्चय से होगा ही। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक््âचारित्र पाठ के प्रति पूर्व उत्तरपना है। पूर्व सम्यग्दर्शन का लाभ हो जाने पर उत्तर ज्ञान भजनीय है अर्थात् सम्यक् दर्शन की पूर्णता क्षायिक सम्यक्त्व की अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थान में हो जाती है पर पूर्णज्ञान (केवलज्ञान) सम्यग्ज्ञान वहाँ भजनीय है पर जहाँ ज्ञान की पूर्णता है, वहाँ दर्शन की पूर्णता तो है ही। उसी प्रकार पूर्वज्ञान के प्राप्त हो जाने पर भी उत्तर—चारित्र की प्राप्ति हो भी और न भी हो परन्तु सम्यक् चारित्र की प्राप्ति हो जाने पर सम्यक् दर्शन और ज्ञान का लाभ अवश्य होगा क्योंकि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के अभाव में सम्यक् चारित्र बन नहीं सकता है। यहाँ इतनी बात ध्यान योग्य है कि—दर्शन के साथ ज्ञान को भजनीय कहा है। यह कथन पूर्ण केवलज्ञान की अपेक्षा कथन है, यहाँ सर्व कथन नय सापेक्ष है। यहाँ पूर्ण ज्ञान को भजनीय कहा है न कि सामान्य ज्ञान को। अर्थात् सम्यग्दर्शन की पूर्णता क्षायिक सम्यक्त्व अपेक्षा चतुर्थ गुणस्थान में ही हो जाती है, पर सम्यग्दर्शन होने पर पूर्ण द्वादशांग और चतुर्दश पूर्व रूप श्रुतज्ञान और केवलज्ञान हो ही जावेगा; ऐसा नियम नहीं है। इसी प्रकार पूर्व सम्यग्दर्शन के लाभ होने पर सम्यक् चारित्र—देशचारित्र, संयतासंयत चारित्र, सकल चारित्र, यथाख्यात चारित्र भजनीय है क्योंकि दर्शन की पूर्णता हो जाने पर सम्पूर्ण चारित्र हो जायेगा, ऐसा नियम नहीं है। परन्तु सम्यक् दर्शन अवश्य होगा। तात्पर्य यह है कि क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति चतुर्थ गुणस्थान में हो गई पर मुक्ति नहीं मिलती। क्षायिक ज्ञान, केवलज्ञान, की प्राप्ति तेरहवें गुणस्थान में हो जाती है फिर भी जीव आठ वर्ष कम पूर्व कोटि काल तक संसार में बना रहता है। इससे सिद्ध होता है कि अकेला दर्शन व अकेला ज्ञान, अथवा दर्शन व ज्ञान उभय भी मुक्ति के कारण नहीं हैं जैसे ही चौदहवें गुणस्थान के चरम समय में चारित्र की पूर्णता कर जीव रत्नत्रय की पूर्णता को प्राप्त होता है, तभी मुक्तावस्था को प्राप्त हो जाता है।
रयणत्तयं ण वट्टइ, अप्पाणं मुयत्तु अण्णदवियम्हि। तम्हा तत्तियमइयो, होदि हु मोक्खस्स कारणं आदा।।
यह रत्नत्रय आत्मा को छोड़कर अन्य किसी द्रव्य में नहीं पाया जाता है, इसलिये तीनों से युक्त आत्मा ही मुक्ति का कारण है।
सम्यक दश्शन—ज्ञान—व्रत बिन मुकति न होय। अन्ध पंगु अरु आलसी, जुदैं जलैं दव—लोय।।
सम्यग्दर्शन—ज्ञान व चारित्र की एकता मोक्ष है अन्यथा जैसे अन्धा—लंगड़ा व आलसी अलग—अलग हैं तो जलते हुए वन में जलकर भष्म हो जावेंगे और यदि तीनों मिल जायेंगे तो जलने से बच जायेंगे इस प्रकार रत्नत्रय की एकता प्राप्त जीव संसार के दु:ख दावानल से बचकर मुक्ति को प्राप्त होता है। ==
प्रथम देव अरहन्त, सुश्रुत सिद्धान्त जू, गुरु निग्र्रंथ महन्त, मुकतिपुर पन्थ जू।
तीन रतन जग मांहि, सो ये भवि ध्याइये, तिनकी भक्ति प्रसाद, परमपद पाइये।।
आम से ही आम मिलता है—बोएं पेड़ बबूल के आम कहाँ से होय—इसी प्रकार कुगुरु—कुदेव—कुशास्त्र की उपासना करने वाले को कभी रत्नत्रय निधि उपलब्ध नहीं हो सकती है। रत्नों की उपासना ही रत्नों को प्रदान करती है। संसारी प्राणी पत्थर को रत्न माने बैठा है। हीरा—माणिक—पन्ना आदि मिट्टी—पत्थर के जड़ टुकड़ों को अज्ञानी जीव ने आज तक रत्न मानकर इन्हीं की संभाल की, सच्चे जौहरी बनकर रत्नों की परख भी नहीं की। सच्चे रत्न १. सच्चे देव (जिनेन्द्र) २. सच्चे गुरु (निग्र्रंथ) ३. जिनागम; ये वास्तव में रत्न हैं। जो भव्यात्मा इन तीनों रत्नों की भक्ति में जीवन को समर्पण कर देता है वह स्वयं सम्यग्दर्शन — सम्यग्ज्ञान व सम्यक् चारित्र रूप रत्नत्रय का स्वामी बन शाश्वत, अमरपद को प्राप्त करता है। ==
जिने भक्तिजने भक्र्ति जिने भक्ति: सदास्तु मे। सम्यक्त्वमेव संसार—वारणं मोक्ष कारणं।।२१।।
मेरी जिनेन्द्र देव में बार—बार भक्ति हो, क्योंकि उनकी भक्ति से होने वाला सम्यग्दर्शन ही संसार का निवारण कर मोक्ष का कारण होता है।
श्रुते भक्ति: श्रुते भक्ति: श्रुते भक्ति: सदास्तु मे। सज्ज्ञानमेव संसार—वारणं मोक्ष—कारणम्।।२२।।
मेरी द्वादशांग श्रुत में सदा बार—बार भक्ति हो, क्योंकि इसके निमित्त से होने वाला सम्यग्ज्ञान ही संसार का निवारण कर मोक्ष का दाता है।
गुरौ भक्तिर्गुरौ भक्तिर्गुरौ भक्ति: सदास्तु मे। चारित्रमेव संसार—वारणं मोक्ष कारणम्।।२३।।
मेरी गुरु में सदा बार—बार भक्ति हो, क्योंकि इनके निमित्त के प्रकट होने वाला चारित्र ही संसार का विनाश कर मोक्ष का कारण होता है।