जैन धर्म में भगवान् महावीर ने २ प्रकार के मार्ग बतलाये हैं मुनि मार्ग और गृहस्थ मार्ग । ये दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं अर्थात् दोनों के सम्मिलन से ही मोक्ष का मार्ग साकार हो सकता है । जहाँ पूर्ण महाव्रत रूप मुनिधर्म साक्षात् मोक्ष का दिग्दर्शन कराता है वहीं बारह व्रत या पाँच अणुव्रत रूप एक देश त्याग रूप श्रावक धर्म भी परम्परा से मोक्ष की सिद्धि कराने वाला है । अनादि काल से दोनो ही धर्म चले आ रहे हैं । यदि गृहस्थ न हो तो मुनिचर्या का पालन नहीं हो सकता तथा यदि मुनि न होते तो मिथ्यात्व अंधकार में डूबे हूये संसारी प्राणियों को सम्यक्त्व की साधना करने का अवसर न प्राप्त होता। संसार के दु:खो से भयभीत हुआ प्राणी जब शाँति की खोज में महामुनियों की शरण में आता है तो सबसे पहले वे उसे मुनि धर्म का उपदेश देते हैं । जैसा कि पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में आचार्य अमृतचन्द्र सूरि ने कहा है—
यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमति।
तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम्।।
अर्थात जो मुनि अपनी शरण में आये हुए गृहस्थ को पहले मुनि धर्म का उपदेश न देकर गृहस्थ धर्म का ही उपदेश देते हैं वे जिन शासन में दोष के भागो कहे गये हैं । क्योंकि हो सकता है वह श्रावक मुनि लिंग को ग्रहण करने का इच्छुक हो और गृहस्थ धर्म के उपदेश से वह वहीं तक अपने भावों को सीमित कर ले। यदि उसमें अधिक योग्यता न नजर आये तब उसके योग्य श्रावक धर्म का उपदेश देना चाहिये। जैसे किसी दुकानदार के पास जब ग्राहक पहुंचता है तो सबसे पहले वह उसको अच्छी से अच्छी वस्तु दिखाता है किन्तु जब ग्राहक अपनी असमर्थता व्यक्त करता है तब दुकानदार मध्यम या निम्न श्रेणी की वस्तु भी प्रदर्शित करता है । ग्राहक अपनी योग्यतानुसार चयन करता है । ठीक उसी प्रकार जैन धर्म की विराटता में मनुष्य अपनी योग्यतानुसार मार्ग चयन करता है ।
पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीनगुप्ति इन तेरह प्रकार के चारित्र रूप मुनि धर्म हैं । इसका विशेष वर्णन मूलाचार , अनगार धर्मामृत आदि से दृष्टव्य है । पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इन बारह व्रत रूप श्रावक धर्म हैं । चूँकि श्रावक धर्म हैं ।चूँकि श्रावक गृहस्थी में रहता हुआ दान पूजा आदि षट् क्रियाओं को करके पंचसूना कार्यों को भी करता है व्यापार भी करता है इसलिए वह पूर्ण हिंसा से विरत नहीं हो सकता है । अहिंसा सर्वमान्य धर्म है पर उसकी सर्वरूपेण सूक्ष्म व्याख्या जैसे भगवान् महावीर ने की वैसी अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। उन्होंने एक सिद्धान्त दिया, उसे स्वयं अपनाया तथा औरों को उसमें प्रवृत्त किया । उससे महावीर की महानता में अभिवृद्धि हुई। इस प्रकार महावीर के उपदेश सर्वग्राह्य बने। बाद में चलकर व्यक्ति में स्वार्थबुद्धि के उदय से वे भिन्न रूप हो गये यह एक पृथक् बात है । जीवों के भेद-प्रभेद बतलाते हुये पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति तथा अन्य सूक्ष्मतम जीवों के सन्दर्भ में जो विवेचन महावीर की वाणी में उपलब्ध है वह अत्यन्त अद्वितीय है । सूक्ष्म जीवों के बाबत जो तथ्य वैज्ञानिक आज खोज रहे हैं महावीर ने उसे सदियों पूर्व प्रमाणित कर दिया था भगवान महावीर के निर्धारणों को ही जीवंतता है कि आज भी जैन साधुओं का आचार इतना उच्चकोटि का है । सारे संसार में अन्य किसी धर्म के साधु—सन्तों में अहिंसा के प्रति इतनी उत्कृष्ट श्रद्धा नहीं दिख पड़ती । अहिंसा प्राणी मात्र को अभय बनाती है ।
हिंसा के चार भेद हैं— संकल्पी हिंसा, आरंभी हिंसा, उद्योगी हिंसा, और विरोधिनी हिंसा। आरंभी, उद्योगी और विरोधी इनसे गृहस्थ प्राणी विरत नहीं हो सकता है किन्तु संकल्पी हिंसा का वह पूर्ण त्यागी होता है ।तभी देशव्रती संज्ञा को प्राप्त होकर पंचम गुणस्थान व्रती श्रावक कहलाता है । गृहस्थ कार्यों को करने में भी हमे विवेक की आवश्यकता है अन्यथा स्थावर जीवों की व्यर्थ हिंसा तो होगी ही साथ में अनेकों त्रस जीवों का प्रमादवश विघात हो जाने से हम पूर्ण अहिंसक नही कहला सकते। आज हम देखते हैं प्राणियों को भक्ष्य अभक्ष्य का विवेक नहीं हैं । लोग आँख खोलकर खाद्य पदार्थों का अवलोकन नहीं करना चाहते। यह केवल आलस्य से उत्पन्न हुआ अविवेक है । मैं भी एक गृहिणी हूं अत: इन बातों का उल्लेख करना आवश्यक समझती हूँ चूँकि जिन पवित्र संस्कारों में मेरा पालन हुआ उनमें मैं झांक कर देखती हूं तो मिलता है पूज्य माँ का असीम उपकार जो माँ आज रत्नमती माताजी के नाम से जगत् विख्यात हुई हैं ।
जब आज से लगभग ४५—५० वर्ष पूर्व गृह कार्य के संचालन में माँ की शोध, चतुराई , विवेकपूर्ण पाकशुद्धि को मैं देखती थी वे मुझे तभी इन कार्यों में लक्ष्य देने के लिये आग्रह करतीं तो मुझे बड़ी झुंझलाहट महसूस होती और मैं मन में सोचती कि इन सब क्रियाकाण्डों में क्या रखा है क्या इसके बिना आत्म—कल्याण नहीं हो सकता। लेकिन जब मेरी बड़ी बहिन श्री मती सांसारिक परंपरानुसार विवाह होकर ससुराल चली गई तब माँ की गृहस्थचर्या का उत्तरदायित्व मेरे ऊपर आ पड़ा। प्रारंम्भ में तो मुझे कुछ घबड़ाहट हुई चूँकि बड़ी बहन के रहते हुये मेरी इस विषय में कोई विशेष दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन माँ की सेवा करना सन्तान का परम कर्तव्य होता है तथा लड़की के लिए गृहकार्य हर क्रिया में दक्ष होना अनिवार्य होता है इस दृष्टि से भी मैंने गृहकार्य को संभाला। मेरी शादी होने से पूर्व तक जो मेरे अनुभव रहे शायद मैंने ऐसी पाकशुद्धि आज तक कहीं नहीं देखी। मेरे अन्दर भी आज तक वे ही संस्कार हैं अत: मैं भी यथासम्भव उसी प्रकार की शुद्धि पालन करने में अपना हित समझती हूं।क्योंकि एक कहावत हमेशा स्मृति में आया करती है कि ‘‘जैसा खाये अन्न वैसा होवे मन’’। ‘‘जैसा पीवे पानी वैसी होवे वाणी’’। अत: अपने विचारों को पवित्र बनाने के लिये प्रत्येक खाद्य वस्तु की शुद्धि आवश्यक है । प्रसंगोपात्त में थोड़ा सा इस विषय पर प्रकाश डालती हूं जो कि हर कुशल गृहणी के लिये उपयोगी सिद्ध होगा ।
सर्वप्रथम आप दाल चावल, गेहूं आदि को शोधने के कार्य में चतुराई बर्तें गेहूं के जिन दानों में छोटे—छोटे छेद दिखा करते हैं उन्हें नाखून से कुरेद कर देखें अंदर से छोटा सा जीव जिसे घुन कहते हैं वह निकलता है । यदि साफ किये हुए गेहूं में यदि वे घुन रह जाते हैं तो दो तीन दिन बाद उस गेहूं को छलनी से छानकर देखें तो कितने ही घुन निकलेंगे तथा बहुत सारे गेहूं या किसी भी घुने अन्न को काम मे नहीं लेना चाहिये। चना, मटर, लोबिया, राजमा आदि किसी भी अन्न को रात्रि में पानी में भिगो दीजिए सुबह साफ करते समय आप पायेंगी कि सजीव चना या मटर के ऊपर एक काला गोल निशान मिलेगा उसके छिलके को उतारने पर जीव बाहर निकाल आता है । बरसात में इन चीजों में जीव अधिक पाये जाते हैं । बाजार में बनी हुई चीजो को खाने से इसलिये अनेकों प्रकार की बीमारियों उत्पन्न हो जाया करती हैं क्योंकि वहाँ बिना देखे, शोधे चीजों को पकाकर कमाई का साधन बनाया जाता हैं । अत: घर का बना हुआ शुद्ध सात्विक और सन्तुलित भोजन ही स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद है । यह तो सूखे अन्न से सम्बन्धित शुद्धि है कि इसके साथ आप सब्जियां बनाती हैं उसमें भी शोधन क्रिया की अत्यन्त आवश्यकता है । जैसे कि सर्दी के सीजन की फलियां आती हैं उनको छीलते समय कभी आप ध्यान से देखें किन्हीं-२ मटर के दानों पर बहुत सूक्ष्म छोटे—छोटे मटर के रंग के ही हरे जीव चिपके नजर आयेंगे कभी-कभी वे चलने भी लगते हैं । मटर की फली में जो मोटी लटे होती हैं वे तो आसानी से दिख जाती हैं और उन्हें हम निकाल देते है किन्तु ये सूक्ष्म जीव मैं समझती हूं शायद ही कोई दृष्टिपात करता हो जब आप प्रत्यक्ष में ये जीव देख लेंगी तो उसके बाद किसी दूसरे के द्वारा शोधित वस्तु के प्रति आपकी ग्लानि बनी रहेगी और जब तक आप स्वयं अपनी दृष्टि से उसका शोधन नहीं करेंगी उसे खाने की इच्छा नहीं हो सकती।
पत्तियों के साग में आप बथुआ पालक, मेथी, सरसों सभी कुछ प्रयोग में लाती होंगी। खास तौर से इनकी शोधन क्रिया और भी सूक्ष्म है । जैसे बथुआ को ले लें इसमें पत्तियों से मिश्रित सपेद छोटे—छोटे फूल भी होते हैं । उप फूलो में अनन्तकायिक जीव जैनागम में बताये गये हैं ।बथुआ की चार पत्तियों के आस—पास ४—५ फूल तो अवश्य मिलते हैं मैंने आज तक किसी को भी फूल तोड़कर बथुआ संवारते नहीं देखा। हाँ यह मैं अवश्य मानती हूं कि इन कार्यों में समय काफी नष्ट होता है किन्तु दोषास्पद अभक्ष्य वस्तुओं से तो अच्छा है कि उसके स्थान पर किसी दूसरी सब्जी का चयन किया जाये कि जिसे सरलता से अचित किया जा सके। अनन्तकायिक जीवों का ही पिण्ड गोभी को बतलाया है जिसे आज भी जैन समाज के बहुत से व्यक्ति अभक्ष्य मानकर नहीं खाते हैं । गोभी के फूल को सूरज की रोशनी में जमीन पर एक बारीक सफेद कपड़ा बिछाकर उस पर रख दीजिए। थोड़ी देर में साक्षात् त्रस जीव उस कपड़े पर चलते नजर आयेंगे। सूखे मसाले तैयार करते समय भी विशेष चतुराई की आवश्यकता है । जैसे कि सौंफ धनिया में बारीक छेद या काला निशान देखने में आता है जिन्हें टुकड़े करने पर जीव या अण्डा बाहर निकलता है । लाल मिर्ची के टुकड़े करके देखिये कई मिर्चियों में फफूंदी तथा जो मिलेंगे जिनमें बारीक जीव भी पाये जाते हैं । इन्हें सूक्ष्मता से साफ किये बिना प्रयोग में नहीं लेना चाहिये। अब आप स्वयं ही सोच सकती हैं कि हमें कितनी चतुराई पूर्वक गृहस्थ कार्यों का संचालन करना चाहिये। घर के पुरुष वर्गों के, बड़े बुजुर्गों के स्वास्थ्य का उत्तरादायित्व महिलाओं पर ही आधारित है ।ये तो थोड़ी सी बातें मैंने बताई जो नित्य दैनिक प्रयोग में आती हैं । कन्दमूल, आलू, गाजर, मूली, आचार, बड़ी पापड़ आदि तो अभक्ष्य हैं ही। इनके बारे में तो आप लोग भी जानती ही होंगी। ये कुछ मेरे निजी अनुभव हैं जैसा कि मैंने माँ के गृहस्थावस्था के जीवन से पाकशुद्धि की क्रियायें सीखी हैं । साधुओं की आहार शुद्धि श्रावकों के आश्रित होती है । उन्हें तो मात्र नवधा भक्ति पूर्वक जो शुद्ध प्रासुक आहार दाता द्वारा दिया जाता है वे ३२ अन्तरायों को टालकर अपने स्वास्थ्य के अनुकूल आहार करके समताभाव धारण करते हैं । रत्नमती माताजी हमेशा अपने संयम में पूर्ण सजग रही हैं । १५ जनवरी १९८५ को हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप पर इनकी बहुत सुन्दर समाधि हुई हैं । इनकी जीवनी पढ़कर आप सभी और भी अच्छी शिक्षाये ग्रहण करें।