जीव रागयुक्त होकर कर्म बांधता है और विरक्त होकर कर्मों से मुक्त होता है। असुहो मोह–पदोसो, सुहो व असुहो हवदि रागो।
मोह और द्वेष अशुभ ही होते हैं। राग शुभ और अशुभ, दोनों होता है। तं न कुणइ जं कुविओ, कुणंति रागाइणो देहे।।
शत्रु, विष, पिशाच, वेताल, प्रज्जवलित अग्नि—ये सब एक साथ कोपायमान होने पर भी शरीर में उतना अपकार—अवगुण नहीं करते जितना अपकार कुपित राग—द्वेष रूप अंतरंग शत्रु करते हैं। जो रागाईण वसे, वसंमि सो सयल दुक्खलक्खाणं। जस्स वसे रागाई, तस्स वसे सयलसुक्खाइं।।
जो रागद्वेषादि के वश में है, वह वस्तुत: लाखों दु:खों के वशीभूत है और जिसने रागद्वेष को वश में कर लिया है। उसने वस्तुत: सब सुखों को वश में कर लिया है। रागो द्वेष: च द्वौ पापौ, पापकर्मप्रवर्तकौ। यो भिक्षु: रुणद्धि नित्यं, स न आस्ते मण्डले।।
राग और द्वेष, ये दो पाप सभी पाप कर्मों के प्रवर्तक हैं। इनको नित्य रोकने वाला भिक्षु संसार में नहीं ठहरा करता। (मुक्ति पा लिया करता है।)