मगध देश में अत्यन्त प्राचीन राजगृही नगरी है जो युगानुयुग से प्रसिद्ध है। वर्तमान में उस नगरी में विपुलाचल पर्वत पर भगवान महावीर के समवसरण के प्रतीक में समवसरण की रचना बनी हुई है जो कि अत्यन्त ऊँचाई पर है, वह पूरा समवसरण तो नहीं अपितु उसकी गन्धकुटी का रूप है जिसमें विशाल ४ प्रतिमाएं विराजमान हैं। भगवान महावीर का समवसरण राजगृही में विपुलाचल पर्वत पर अनेकों बार आया, इस बात की प्रसिद्धि सम्पूर्ण जैन समाज में है।
मैंने जबसे सभी तीर्थंकर भगवन्तों की जन्मभूमियों के विकास पर प्रकाश डाला तो कितने ही लोगों से मैंने यह प्रश्न किया कि राजगृही कौन से भगवान की जन्मभूमि है ? लेकिन कोई भी उसका उत्तर नहीं दे सका कि यह भगवान मुनिसुव्रतनाथ की जन्मभूमि भी है। लोग पुराण भी पढ़ते हैं और चौबीसों तीर्थंकरों की पूजा भी करते हैं फिर ऐसा क्यों हुआ? तीर्थंकरों की जन्मभूमि की जो इतनी उपेक्षा हुई है वर्तमान में वह शोचनीय विषय है। केवल साधुओं, विद्वानों के लिए ही नहीं अपितु श्रेष्ठीवर्ग के लिए भी बहुत ही विचारणीय विषय है।
तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ की जन्मभूमि है राजगृही, जहाँ आज से लगभग १२ लाख वर्ष पूर्व भगवान मुनिसुव्रतनाथ हुए हैं, शास्त्रीय दृष्टि से देखा जाए तो वर्तमान में वीर निर्वाण संवत् २५४८ चल रहा है उस हिसाब से ११ लाख ८६ हजार ५४८ वर्ष पूर्व भगवान मुनिसुव्रतनाथ उसी राजगृही नगरी में वहां के क्षत्रियवर्णी महाराज सुमित्र की महारानी सोमा की पवित्र कुक्षि से जन्मे थे, उनके वंश को पर्यायवाची शब्दों में यदुवंश और हरिवंश भी कहते थे।
जब तीर्थंकर भगवान स्वर्ग से चयकर माता के गर्भ में अवतीर्ण होने को होते हैं तो इन्द्र की आज्ञा से कुबेर छः महीने पूर्व ही माता के आंगन में रत्नों की वर्षा करता है। राजगृही में आज भी पंच पहाड़ियों में दूसरा पहाड़ रत्नागिरि के नाम से प्रसिद्ध है उसे लोग भगवान की जन्मभूमि कहते हैं परन्तु यह निश्चित है कि जन्मभूमि कभी भी पहाड़ पर नहीं होती है, पर्वत पर दीक्षा लेना, केवलज्ञान होना तो माना गया है परन्तु जन्मभूमि तो नगर में राजधानी में होती है। चूँकि जन्मभूमि राजगृही है अतः मैंने यहां ११ फुट उत्तुंग भगवान मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमा विराजमान करने की प्रेरणा दी, मुझे प्रसन्नता है कि शिलान्यास विधिपूर्वक वहाँ छोटे से मंदिर का निर्माण हुआ है और उसमें भगवान मुनिसुव्रतनाथ विराजमान होकर सभी को जैनत्व का संदेश प्रदान कर रहे हैं।
भगवान मुनिसुव्रतनाथ का चिन्ह कछुआ है, इनकी आयु ३० हजार वर्ष की थी, वैडूर्यमणि (नीलममणि) के सदृश उनका वर्ण था। उस वर्ण के बारे में सुनकर आज लोग कह देते हैं कि वह वैâसे लगते होंगे? पर हम और आप तो कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। कहते हैं कि इन्द्र दो नेत्रों से देखकर भी जब तृप्त नहीं हुआ तो हजार नेत्र बना लिये तब भी प्रभु की मनोहारी छवि देखकर तृप्त नहीं हो पाया तो उनकी सुन्दरता का वर्णन तो हम और आप कर ही नहीं सकते, ऐसा भगवान का सुन्दर वैडूर्यमणि सदृश नीलवर्ण था। भगवान की ऊँचाई ८० हाथ थी और वह श्रावण कृष्णा दूज को माता के गर्भ में अवतीर्ण हुए। तीर्थंकर भगवान के गर्भ में आने से पूर्व माता सोलह स्वप्न देखती हैं, माता सोमा ने भी सोलह स्वप्न देखे थे। उनका जन्म वैशाख कृष्णा द्वादशी को हुआ।
भगवान मुनिसुव्रतनाथ ने विवाह किया और राज्य भी किया। अनन्तर उनके वैराग्य का निमित्त कुछ इस प्रकार मिला कि उनका जो हाथी था उसे जातिस्मरण हो जाने से उसने खाना-पीना छोड़ दिया, जब भगवान के सामने यह बात आई तो उन्होंने उसके पूर्व भवों के बारे में अवधिज्ञान से जान लिया और उस हाथी को सम्बोधित किया, हाथी को भगवान का उपदेश सुनकर बोध हो गया और उसने सम्यग्दर्शन ग्रहण कर लिया। यही निमित्त था कि भगवान को वैराग्य हो गया और उन्होंने वैशाख कृष्णा दशमी को चम्पक वृक्ष के नीचे अपनी राजधानी के उद्यान में दीक्षा ले ली। यह नियम है कि तीर्थंकर भगवान अपनी राजधानी के उद्यान में ही जाकर दीक्षा लेते हैं। दीक्षा के पश्चात् राजगृही नगरी के राजा ऋषभसेन के द्वारा उन्हें खीर का प्रथम आहार कराया गया। कालान्तर में भगवान समस्त आर्यखण्ड में विहार करते हुए राजगृही नगरी में आए और वहीं नील वन में चम्पक वृक्ष के नीचे उन्हें केवलज्ञान प्रकट हो गया और वे सम्मेदशिखर से मोक्ष गए हैं।
इन भगवान के श्रीमल्लि नाम के प्रथम गणधर थे तथा अन्य ११८ गणधर थे, ३० हजार मुनि थे, गणिनी आर्यिका श्री पुष्पदंता थीं जो कि ५० हजार आर्यिकाओं में गणिनी थीं, १ लाख श्रावक, ३ लाख श्राविका आदि समवसरण में चतुर्विध संघ था। भगवान के शासन यक्ष वरुण देव और यक्षी बहुरूपिणी देवी थीं। भगवान मुनिसुव्रतनाथ के बारे में विस्तार से जानकारी आप उत्तरपुराण से प्राप्त कर सकते हैं।
मेरा तो सदैव यही कहना रहता है कि प्रत्येक व्यक्ति को एक संकल्प करना चाहिए कि हमें अपने तीर्थंकरों की कौन-कौन सी जन्मभूमियां कहाँ-कहाँ हैं इस बारे में विस्तार से समझना है, साथ ही सब जन्मभूमियों के दर्शन करने का सौभाग्य भी प्राप्त करना चाहिए। हमारे भगवन्तों की जन्मभूमियों पर कब क्या हो रहा है इसकी भी जानकारी रखनी चाहिए। जैसे-भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर विवादित थी। मैं समझती हूँ कि वह विवाद समाप्तप्राय है, कतिपय लोगों के सिवाय जो प्रबुद्ध लोग हैं, दिगम्बर जैन परम्परा के ग्रंथों का अध्ययन करने वाले हैं वह कभी वैशाली को जन्मभूमि नहीं मानेंगे, वह भगवान की ननिहाल है, राजा चेटक की राजधानी है अतः वहाँ भगवान का जन्म मानना हास्यास्पद है। महाराजा सिद्धार्थ देवों से भी पूज्य महाराज थे, उनकी राजधानी १२ योजन विस्तृत थी, वर्तमान में जहाँ हम और आप बैठे हैं वह छोटा भले ही दिख रहा हो पर उस समय बहुत ही विस्तृत था। भगवान शीतलनाथ की जन्मभूमि भद्दिलपुर का विकास होकर वहाँ भगवान शीतलनाथ की प्रतिमा विराजमान हो चुकी हैं। बिहार प्रान्त के सक्रिय कार्यकर्ता अजय कुमार जैन-आरा द्वारा मिथिलापुर में जगह क्रय करके भगवान मल्लिनाथ व नेमिनाथ के चरण विराजमान किए जा चुके हैं और प्रतिमा शीघ्र ही निर्मित होकर विराजमान होने वाली हैं।
राजगृही का इतिहास बहुत ही सुन्दर है। २६०० वर्ष पूर्व की घटना है, राजा चेटक की एक पुत्री और महारानी त्रिशला की छोटी बहन चेलना, सम्राट् महाराज श्रेणिक की पट्टरानी थीं, राजा श्रेणिक उस समय राजगृही के महाराज थे। भगवान महावीर को जब वैशाख सुदी दशमी को केवलज्ञान प्रकट हुआ तब अर्धनिमिष में इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने समवसरण की रचना कर दी, यहीं कहीं ऋजुकूला नदी रही होगी। उसी के तट पर भगवान को केवलज्ञान हुआ था, भगवान समवसरण में विराजमान थे, बारह सभा, सारी रचना, सारा वैभव था, जब भगवान श्रीविहार करते तब समवसरण विघटित हो जाता और-
‘चरण कमल तल कमल हैं नभ तें जय जयवान’
भगवान आकाश में अधर ही चलते थे और देवगण उनके चरणोें के नीचे दिव्य कमलों की रचना करते जाते थे उसमें दिव्य सुगन्धि निकलती थी, जहाँ भगवान रुक जाते वहीं अर्धनिमिष में समवसरण की रचना तैयार हो जाती थी ऐसे श्रीविहार करते-करते लगभग ६६ दिन पश्चात् भगवान राजगृही नगरी पहुंचे ऐसा हरिवंशपुराण में विस्तृत वर्णन है-‘‘षट्षष्टि दिवसान् प्रभू विहरन्’’। उसके बार अकस्मात् इन्द्र को चिन्तन चला कि भगवान की दिव्यध्वनि नहीं खिरी सो क्या कारण है? ६५ दिन निकल गए, दिव्य अवधिज्ञान से उन्होंने चिन्तन किया और समझ लिया कि गणधर का अभाव है। उसकी पात्रता किसमें है? यह चिन्तन करते हुए वहीं ब्राह्मण नगर नामक एक ग्राम था वहाँ ब्राह्मण के वेश में पहुँचे। वहाँ शांडिल्य नाम के ब्राह्मण की दो पत्नियाँ थीं स्थण्डिला और केशी, उनके तीन पुत्र थे। पहली के दो पुत्र इन्द्रभूति और वायुभूति तथा दूसरी के अग्निभूति, इनमें इन्द्रभूति बहुत विद्वान् थे। १४ प्रकार की विद्याओं के पारंगत, वेद-वेदांगों के ज्ञाता, व्याकरण छन्दादि, वेदशास्त्रों (लौकिक शास्त्रों) के पारगामी, पूर्णरूपेण निष्णात थे। इनकी उपाध्यायशाला में ५००-५०० विद्यार्थी अध्ययन करते थे, ये तीनों ब्राह्मण गौतम गोत्रीय थे, समस्त आर्यखण्ड में विख्यात थे, अभिमानी थे। जैनधर्म के नाम से विद्वेष नहीं करते थे अपितु पराङ्मुख थे। ब्राह्मण वेशधारी उस इन्द्र ने वहाँ पहुँचकर एक बहुत ही सुन्दर श्लोक पढ़ा और कहा हे विद्वान् पण्डित! हम आपसे कुछ सीखने आए हैं, चूँकि मेरे गुरु अभी मौन हैं उन्होंने मुझे यह श्लोक पढ़ाया था मगर मैं उसका अर्थ भूल गया हूँ अतः कृपया आप उसका अर्थ बताएं। तब इन्द्रभूति ने कहा कि आप हमें वह श्लोक बताएं। यह सुनकर इन्द्र ने कहा-
धर्मद्वयम् त्रिविधकाल समग्रकर्म, षट्द्रव्य काय सहिताः समयैश्च लेश्याः।
तत्त्वानि संयमगती सहितं पदार्थै, रंगप्रवेदमनिशं वदचाश्तिकायम्।।
अर्थात् दो प्रकार का धर्म क्या है ? तीन प्रकार का काल क्या है ? छह द्रव्य क्या हैं ? षट्काय क्या हैं ? समय क्या है ? अस्तिकाय क्या है ? पदार्थ क्या हैं ? लेश्याएं क्या हैं ? तत्त्व क्या हैं ? संयम क्याहै ? गति कितनी हैं ? इत्यादि को पूछते हुए वह अंग-पूर्व के बारे में पूछने लगे।
वर्तमान में तो देखा जाता है कि हिन्दू ही नहीं अपितु सभी धर्म के लोग एक दूसरे के धर्म ग्रंथों को पढ़कर ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और तब जैनधर्म का भी अच्छा प्रतिपादन कर लेते हैं, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि वह जैनधर्म को अच्छी तरह से जानते हैं। उस समय ऐसी परम्परा नहीं थी कि दूसरों के ग्रंथों को पढ़ें और उनके बारे में तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त करें।
इन्द्रभूति गौतम यह श्लोक सुनकर चिन्तन करने लगे कि कहीं इसे यह न पता लग जाए कि मुझे इसका अर्थ नहीं मालूम है अतः बोले कि ठीक है मैं आपके गुरु के पास चलकर उनसे ही शास्त्रार्थ करूँगा। शास्त्रों में आया है कि इन्द्र ने एक शर्त कराई थी कि अगर आपको हमारे गुरु ने पराजित कर दिया तो आप हमारे गुरु के शिष्य बन जाना और अगर आपने उन्हें जीत लिया तो मैं आपका शिष्य बन जाऊँगा। इन्द्र ने इसलिए ऐसा कहा क्योंकि वह जानते थे कि सर्वज्ञ भगवान विश्व में किसी के द्वारा नहीं जीते जा सकते हैं। जब उनका शासन और उनका स्याद्वादमयी धर्म ही किसी के द्वारा नहीं जीता जा सकता है तो उन्हें कौन जीत सकता है। इन्द्रभूति गौतम उन ब्राह्मणरूपी इन्द्र के साथ अपने-अपने भाइयों और १५०० शिष्यों के साथ पहुँचते हैं। आगे-आगे इन्द्रभूति थे पीछे उनकी शिष्य मंडली, राजगृही के निकट पहुँचते ही एकदम दूर से मानस्तम्भ देखते हैं और दर्शन से ही उनका मान गलित हो जाता है, परिणामों में शांति आ जाती है और यह महिमा तीर्थंकर के विद्यमान रहने की है। अगर समवसरण में तीर्थंकर भगवान विद्यमान न हों तो यह महिमा नहीं आ पाती है फिर भी आप देखते हैं कि हस्तिनापुर में वैâसा भी धर्म का विद्वेषी, वैâसा भी निन्दक व्यक्ति पहुँच जाए, जम्बूद्वीप में सुमेरु पर्वत को देखते ही उसका मान गलित हो जाता है, एकदम प्रसन्नमना हो भगवान के दर्शन करने लग जाता है फिर वह तो साक्षात् तीर्थंकर भगवान थे, उनके समवसरण में मानस्तंभ को देखकर मान गलित होना कोई बड़ी बात नहीं है। गौतम तत्क्षण बोल उठे-
जयति भगवान् हेमाम्भोज प्रचार विजृम्भिता
गौतमस्वामी द्वारा रचित यह चैत्यभक्ति हम लोग त्रिकाल सामायिक में पढ़ते हैं। कहते हैं कि ज्यों ही इन्द्रभूति ने चैत्यभक्ति का उच्चारण करते हुए भगवान की प्रसन्नमना होकर स्तुति की उन्हें सम्यग्दर्शन प्रकट हो गया और वस्त्राभरण त्यागकर भगवान के चरणों में दीक्षा ले ली, दिगम्बर महामुनि बन गए। उसी समय अन्तर्मुहूर्त में उन्हें केवलज्ञान प्रकट हो गया, अनेक ऋद्धियाँ प्रकट हो गयीं, गणधरपद प्राप्त हो गया। उन्होेंने समवसरण में भगवान से हाथ जोड़कर प्रश्न किया, भगवान की दिव्यध्वनि खिर पड़ी, यह आज से २५७३ वर्ष पूर्व की बात है। वह महान दिन श्रावण शुक्ला एकम का था जब भगवान की दिव्यध्वनि खिरी। उस समय १२ सभाओं में असंख्यात प्राणी बैठे थे उन्हें उस धर्ममयी अमृत की वर्षा का पान कर कितनी खुशी हुई थी यह वर्णनातीत है। भगवान की दिव्यध्वनि एक योजन तब सबको सुनाई देती है, यह ७१८ भाषाओं में परिणत हो जाती है।
षट्खण्डागम नामक ग्रंथ में बताया है कि वह दिव्यध्वनि सर्वभाषामयी है, जितने जीव वहाँ बैठे हैं वह सब अपनी-अपनी भाषा में समझ जाते हैं ऐसी भगवान की दिव्यध्वनि निरक्षरी होकर भी सब भाषा में खिरती है इसलिए साक्षर है। उसी दिन श्रावण कृष्णा एकम की रात्रि में गणधर देव ने अन्तर्मुहूर्त में द्वादशांग की रचना कर दी। षट्खण्डागम ग्रंथ में वर्णन है कि-बारह अंगाणं, चोद्दसपुव्वाणं च दंसणम् एक्केण चेव मुहुत्तेण रयणा कदा।
भावश्रुत पर्याय से परिणत होकर वह इन्द्रभूति गौतम गोत्र से पवित्र हो गए। इस प्रकार उस राजगृही नगरी में प्रथम बार भगवान की देशना खिरी, उसका वहाँ स्मारक बनाया गया और मैं समझती हूँ कि भगवान महावीर ने समस्त आर्यखण्ड में ३० वर्ष तक विहरण किया तो अधिकतर समवसरण राजगृही में विपुलाचल पर्वत पर ही आया होगा। यह मुख्य श्रोता राजा श्रेणिक का पुण्य था, बिहार प्रदेश का पुण्य विशेष था।
राजगृही से और भी अनेकों घटनाएं जुड़ी हैं जैसे एक बार राजा श्रेणिक भगवान के समवसरण में जा रहे थे, अकस्मात् एक मेढ़क जो कि कमल पांखुडी लेकर भगवान के समवसरण में दर्शन के लिए जा रहा था, राजा के हाथी के पैर के नीचे दबकर मर गया और शुभ भावों से मरकर देव हो गया। वह राजा श्रेणिक से पहले ही समवसरण में पहुँच गया और वहाँ भक्ति में सुन्दर नृत्य करने लगा। राजा श्रेणिक ने समवसरण में पहुँचकर भगवान को नमस्कार कर उस देव के मुकुट में मेढ़क का चिन्ह देखकर प्रश्न किया तब भगवान की दिव्यध्वनि खिरी-भव्यात्मन्! यह मेढ़क अभी-अभी तुम्हारे हाथी के पैर के नीचे दबकर मरा और दर्शनों के भाववश स्वर्ग में देव हुआ और इससे पूर्व का वर्णन यह है कि यह राजगृही नगरी में एक सेठ था, पत्नी के मोह में मरकर मेढ़क हो गया। तो यह संसार की स्थिति है कि गृहस्थाश्रम में रहकर पत्नी आदि परिवार के मोह में मरकर तिर्यंचगति मिल जाती है और भगवान की भक्ति से तिर्यंच को भी देवगति मिल जाती है, ऐसे अनेकों उदाहरण शास़्त्रों में भरे पड़े हैं। वर्तमान में जितना उपलब्ध ज्ञान है, श्रुत है, गुरु ग्रंथ हैं, वह सब राजा श्रेणिक के प्रश्न के अनुसार हैं और बड़े-बड़े महान आचार्यों के द्वारा रचे गए हैं इसलिए भी राजगृही का अपना विशेष महत्त्व है।
वर्तमान में वहाँ का वातावरण इतना पवित्र और सुन्दर है जब वहाँ दर्शन करने पहुँचते हैं तो मन इतना प्रसन्न होता है और ऐसा लगता है कि भगवान की दिव्यध्वनि के परमाणु वहाँ घूम रहे होंगे। ऐसे तीर्थ तो जैन समाज के लिए धरोहर हैं, महान हैं उनकी वन्दना करने से, उनके दर्शन से, उनके नाम मात्र से असंख्य पापों का नाश हो जाता है। राजा श्रेणिक का चरित्र, रानी चेलना का इतिहास उस भूमि से जुड़ा है। भगवान महावीर इस अवसर्पिणी काल के अंतिम तीर्थंकर हैं लेकिन आगे की तीर्थंकर परम्परा को उन्होंने चालू कर दिया है। उनके ही पादमूल में तीर्थंकर प्रकृति का बंध करने वाले एवं समवसरण के मुख्य श्रोता राजा श्रेणिक अगली आने वाली उत्सर्पिणी में अयोध्या नगरी में प्रथम तीर्थंकर होंगे। अयोध्या चौबीसों तीर्थंकरों की शाश्वत जन्मभूमि है।
हुण्डावसर्पिणी कालदोषवश इस युग के केवल ५ तीर्थंकर अयोध्या नगरी में जन्में हैं और शेष सभी तीर्थंकर अलग-अलग जन्म हैं। लेकिन आगे आने वाली उत्सर्पिणी में सभी चौबीस तीर्थंकर अयोध्या में जन्म लेंगे और सम्मेदशिखर से मोक्ष प्राप्त करेंगे। शाश्वत तीर्थ इस धरती पर दो ही हैं-अयोध्या व सम्मेदशिखर। जिसमें अयोध्या शाश्वत जन्मभूमि तथा सम्मेदशिखर शाश्वत निर्वाण भूमि है। लेकिन वर्तमान में राजगृही, कुण्डलपुर आदि जन्मभूमियां और पावापुरी, चम्पापुरी आदि निर्वाणभूमियां हैं उनकी महिमा कम नहीं है। उनका चिन्तन करें तो हम पाएंगे कि यह जो महान तीर्थ हैं आज इनकी उपेक्षा हो रही है और नये-नये तीर्थ लोग बना रहे हैं। जहाँ कुछ भी नहीं है वहाँ करोड़ों की राशि वाले तीर्थ बनाए जा रहे हैं। मैं कई बार श्रावकों से प्रेरणा व साधुओं से निवेदन करती हूँ कि वह इस बात को सोचें कि हमें तीर्थ को तीर्थ बनाना चाहिए। जगह-जगह तीर्थ बनाना इतना महत्त्व का नहीं है जितना तीर्थ को तीर्थ बनाने का, तीर्थ के जीर्णोद्धार का पुण्य अधिक है। अगर आप अविकसित तीर्थ को, जीर्ण-शीर्ण तीर्थ को तीर्थ का रूप देंगे, जैसे राजगृही, पावापुरी, कुण्डलपुरी आदि जो तीर्थ हैं इनका जितना विकास करेंगे आपका पुण्य सौ गुणा नहीं, हजार गुणा वृद्धिंगत होगा। इस बात को भी आपको ध्यान में रखना है कि वर्तमान में राजगृही को सिद्धक्षेत्र भी कहते हैं। मैंने वहाँ का इतिहास जानना चाहा कि कौन-कौन से मुनि वहाँ से मोक्ष गए हैं तो वहाँ कोई नहीं बता पाया। अभी मैं उत्तरपुराण का स्वाध्याय कर रही थी तो उसमें बड़ा ही सुन्दर प्रकरण आया कि जीवन्धर कुमार भी वहाँ से तपश्चर्या करके मोक्ष गए हैं। जीवन्धर स्वामी का इतिहास बड़ा प्रसिद्ध है, छत्रचूड़ामणि, गद्यचिन्तामणि, जीवन्धर चम्पू आदि में इसका विस्तृत वर्णन है।
सुधर्माचार्यादि अनेक मुनि यहाँ से मोक्ष गए हैं इसलिए उसे सिद्धक्षेत्र भी कहते हैं लेकिन पहले यह जन्मभूमि है पुनः सिद्धक्षेत्र है फिर भगवान की प्रथम देशनाभूमि है। वर्तमान में यहां जैन, हिन्दू, बौद्ध आदि पर्यटक लोग बहुतायत संख्या में आते हैं।
यह तीर्थ जन्मभूमि के नाम से बिहार प्रदेश में ही नहीं, पूरे भारत एवं विश्व में प्रसिद्धि को प्राप्त हो। ऐसे ये पावन तीर्थ हमारे और आपके सभी के मन को पवित्र करें, जीवन को पवित्र करें। ऐसे पावन तीर्थों की वन्दना करके, भगवान की दिव्यध्वनि रूप ग्रंथों का स्वाध्याय करके आप सभी को अपने समीचीन ज्ञान को विकसित करना चाहिए और अपने जीवन में मोक्षमार्ग को साकार करने की सदैव भावना करना चाहिए।