सुधीर- भाई सुनील ! रात्रि भोजन के करने से क्या हानि होती है,हमें समझाओॽ
सुनील- हाँ सुनो। किसी जमाने में हस्तिनापुर नगर में यशोभद्र महाराज के यहाँ रुद्रदत्त नाम के एक पुरोहित जी थे। एक बार उनकी पत्नी ने रात्रि में रसोई बनाई। चूल्हे के ऊपर बर्तन रखकर बघार के लिए वह हींग लेने बाहर चली गई। इधर एक मेंढक उछलकर उसमें गिर पड़ा। पुरोहित की स्त्री को कुछ मालूम नहीं हुआ। उसने आकर उसी में बैंगन छोंक दिये और उसी में बेचारा मेंढक मर गया। रात्रि में राज्य कार्य से समय पाकर पुरोहित जी आये।
बहुत देर हो गयी थी,घर में सब सो गये थे,दीपक बत्ती कुछ नहीं था। भूखे पुरोहित जी ने अपने हाथ से खाना परोस लिया और खाने लगे। जब मुँह में मेंढक का ग्रास पहुँचा और वह दाँतो से नहीं चबा,तब पुरोहित जी ने उसे निकाल कर एक तरफ रख दिया और प्रातः उसे देखा तो मेंढक था। फिर भी पुरोहित जी को ग्लानि नहीं आई और न ही उसने रात्रि भोजन का त्याग ही किया।
फलस्वरूप आयु के अन्त में मरकर उल्लू हो गया।
पुनः मरकर नरक गया। पुनः कौवा हो गया,पुनः नरक गया। पुनः बिलाव हो गया,पुनः नरक गया।
पुनः सावर हो गया,पुनः गिद्ध पक्षी हो गया। पुनः नरक गया। पुनः सूकर हो गया,पुनः नरक गया।
पुनः गोह हो गया और पुनः नरक चला गया। पुनरपि वहाँ से निकलकर जल में मगर हो गया और वहाँ भी हिंसा पाप करके नरक चला गया।
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