भाई को पड़ा देख विभीषण मोह और शोक से पीड़ित हो अपना वध करने के लिए छुरी को उठाता है कि इसी बीच उसे मूर्च्छा आ जाती है। सचेत हो पुनः आत्मघात करने के लिए तैयार होता है। तब श्रीराम रथ से उतरकर बड़ी कठिनाई से उसे पकड़ रखते हैं। वह बार-बार मूर्च्छित हो जाता है और होश में आने पर घोर विलाप करता है-
‘‘हे भाई! हे शूरवीर! हे आश्रितजनवत्सल! तुम इस पाप पूर्ण दशा को कैसे प्राप्त हो गये ? ओह! तुम्हारे ही इस चक्र ने तुम्हारे वक्षस्थल को वैâसे विदीर्ण कर डाला ? हे कृपासागर! मुझसे वार्तालाप करो, मुझे छोड़कर कहाँ चले गये….. ?’’
रामचन्द्र जैसे-तैसे उसे सान्त्वना देते हैं कि इसी बीच रावण की १८ हजार रानियाँ वहाँ एकत्रित हो जिस तरह करुण क्रंदन करती हैं कि वह लेखनी से नहीं लिखा जा सकता है। रत्नों की चूड़ियाँ तोड़-तोड़कर फेंक देती हैं और अपने वक्षस्थल को कूटते हुए बार-बार मूर्च्छा को प्राप्त हो जाती हैं। लक्ष्मण और विभीषण सहित श्री रामचन्द्र मंदोदरी आदि सभी को सान्त्वना देते हुए लंकेश्वर का विधिवत् दाह-संस्कार करते हैं। पुनः पद्म नामक महासरोवर में स्नान करके तीर पर बैठ जाते हैं और कुंभकर्ण आदि को छोड़ देने का आदेश देते हैं। भामंडल आदि मंत्रणा करते हैं-
‘‘विभीषण का भी इस समय विश्वास नहीं करना चाहिए।’’
‘‘कुंभकर्ण, इन्द्रजीत आदि भी पिता की चिता जलती देख कुछ उपद्रव कर सकते हैं।’’
अतः ये लोग सावधान हो पास में ही बैठ जाते हैं। रामचन्द्र के आदेश के अनुसार बेड़ियों से सहित कुंभकर्ण, इंद्रजीत और मेघवाहन लाये जाते हैं। आपस में दुःख वार्ता के अनंतर श्रीराम उनसे राज्य को संभालने के लिए अनुरोध करते हैं किन्तु वे कहते हैं-
‘‘अब हम लोग पाणिपात्र में ही आहार ग्रहण करेंगे ऐसी प्रतिज्ञा कर ली है।’’
उस समय रामचन्द्र आदि उन्हें भोगों में लगाने के लिए सब कुछ उपाय करते हैं किन्तु सफल नहीं हो पाते हैं।
महामुनि अनंतवीर्य का संघ सहित लंका आगमन और केवलज्ञान प्राप्ति-
उसी दिन अंतिम प्रहर में श्री अनंतवीर्य महामुनि अपने छप्पन हजार आकाशगामी मुनियों के साथ वहाँ आकर कुसुमायुध उद्यान में ठहर जाते हैं। दो सौ योजन तक पृथ्वी उपद्रव रहित हो जाती है और वहाँ पर रहने वाले सभी जीव परस्पर में निर्वैर हो जाते हैं। आचार्य कहते हैं कि-
‘‘यदि यह संंघ प्रातःकाल में आ जाता तो रावण और लक्ष्मण की परस्पर में परम प्रीति हो जाती।’’
रात्रि में अनंतवीर्य सूरि को केवलज्ञान प्रगट हो जाता है और देवों के आगमन का दुंदुfिभ वाद्य आदि का मधुर शब्द होने लगता है। इन्द्रजीत, कुम्भकर्ण और मेघवाहन आदि विद्याधर वहाँ पहुँच कर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर महामुुनि बन जाते हैं। शशिकान्ता आर्यिका से संबोधन को प्राप्त हुई मंदोदरी आदि ४८ हजार स्त्रियाँ संयम धारण कर आर्यिका हो जाती हैं।
श्रीराम और सीता का मिलन—
अनंतर राम-लक्ष्मण महावैभव के साथ लंका नगरी में प्रवेश करते हैं। सीता से मिलने के लिए उत्कंठित हुए प्रमदवन की तरफ चलते हैंं। पतिदेव को आते हुए देख उनके स्वागत के लिए आकुल हुई सीता उठकर आगे कदम बढ़ाती हैं, रामचन्द्र निकट आकर हाथ जोड़े हुए विनय से नम्र सीता का अपनी भुजाओं से आलिंगन कर लेते हैं। उस समय उनके सुख का अनुभव वे ही कर रहे हैंं। शीलशिरोमणि दम्पत्ति के समागम को देखकर आकाश से देवतागण पुष्पांजलि छोड़ते हैं। सर्वत्र सब तरफ से जय-जयकार की ध्वनि गूंज उठती है-
‘‘अहो! धन्य है सीता का धैर्य, धन्य है इसका शीलव्रत और धन्य है इसका शुद्ध आचरण।’’
लक्ष्मण भी विनय से सीता के चरणयुगल को नमस्कार करते हैं और भामंडल भी भ्रातृ प्रेम से निकट आ जाते हैंं सीता के नेत्रों में वात्सल्य के अश्रु आ जाते हैं। सुग्रीव, हनुमान आदि विद्याधर सीता देवी को सिर झुकाकर अभिवादन करते हैं अन्य सभी विद्याधर अपना-अपना परिचय देते हुए अभिवादन करते हैं। अनन्तर रामचन्द्र सीता का हाथ पकड़कर अपने साथ ऐरावत हाथी पर बिठाकर वहाँ से चलकर रावण के भवन में प्रवेश करते हैं।
श्री शांतिनाथ जिनालय में पहुँचकर भावविभोर हो स्तुति पाठ पढ़ते हुए वंदना करते हैं। अनंतर विभीषण के अनुरोध से उनके महल में प्रवेश करके पद्मप्रभ जिनालय में पहुँचकर श्री पद्मप्रभजिनेन्द्र की वंदना करते हैं, पुनः विभीषण की प्रार्थना से स्नान आदि से निवृत्त होकर सभी लोग वहीं पर भोजन करते हैं। तत्पश्चात् विभीषण, सुग्रीव आदि विद्याधर श्रीराम-लक्ष्मण के बलदेव-नारायण पद प्राप्ति के लिए राज्याभिषेक की तैयारी प्रारंभ कर देते हैं और पास आकर प्रार्थना करते हैं-
‘‘हे देव! अब आप हम लोगों के द्वारा किये जाने वाले राज्याभिषेक को स्वीकार करके हम लोगों को सनाथ कीजिए।’’
तब श्रीराम कहते हैं-
‘‘पिता दशरथ की आज्ञा से अयोध्या में भरत का राज्याभिषेक किया गया था अतः वे ही तुम्हारे और हम दोनों के स्वामी हैं।’’
विभीषण आदि कहते हैं-
‘‘स्वामिन् ! जैसा आप कह रहे हैं यद्यपि वैसा ही है तथापि महापुरुषों से मान्य इस मंगलमय अभिषेक में क्या दोष है ?’’
‘‘ओम्’’ स्वीकृति प्राप्त कर सभी विद्याधर इन दोनों का बलदेव और अर्धचक्री के पद के उचित महावैभवशाली राज्याभिषेक करके इनके ललाट पर उत्तम मुकुट बाँध देते हैं।
अनंतर वनवास का समय श्रीराम और लक्ष्मण ने जिन-जिन कन्याओं को विवाहा था, पत्र देकर भामंडल, हनुमान आदि को भेजकर उन सबको वहीं बुला लेते हैं। वहाँ लंका नगरी में सबके द्वारा स्तुति प्रशंसा को प्राप्त करते हुए और दिव्य अनुपम भोगों को भोगते हुए इन राम-लक्ष्मण का समय सुख से व्यतीत हो रहा है।
माता कौशल्या सुमित्रा के साथ अपने सतखण्डे महल की छत पर खड़ी हैं और पताका के शिखर पर बैठे हुए कौवे से कहती है-
‘‘रे रे वायस! उड़ जा, उड़ जा, यदि मेरा पुत्र राम घर आ जायेगा तो मैं तुझे खीर का खोजन देऊँगी।’’
पागल सदृश हुई कौशल्या को जब कौवे की तरफ से कोई उत्तर नहीं मिलता है तब वह नेत्रों से अश्रु बरसाते हुए विलाप करने लगती है-
‘‘हाय पुत्र! तू कहाँ चला गया ? ओह!….बेटा! तू कब आयेगा ? मुझ मंदभागिनी को छोड़कर कहाँ चला गया ?…..’’
इतना कहते-कहते दोनों माताएं मुक्त कंठ से रोने लगती हैं। इसी बीच क्षुल्लक के वेष में अवद्वार नाम के नारद को आते देख उनको आसन देती हैं। बगल में वीणा दबाए नारद माता को रोते देख आश्चर्यचकित हो पूछते हैं-
‘‘मातः! दशरथ की पट्टरानी, श्रीराम की सावित्री माँ! तुम्हारे नेत्रों में ये अश्रु वैâसे ? क्यों ?…..कहो, कहो, जल्दी कहो, किसने तुम्हें पीड़ा पहुँचाई है ?’’
कौशल्या कहती है-
‘‘देवर्षि! आप बहुत दिन बाद आये हैं अतः आपको कुछ मालूम नहीं है कि यहाँ क्या-क्या घटनाएं घट चुकी हैं ?’’
‘‘मातः! मैं धातकीखंड में श्री तीर्थंकर भगवान की वंदना करने गया था उधर ही लगभग २३ वर्ष तक समय निकल गया। अकस्मात् आज मुझे अयोध्या की स्मृति हो आई कि जिससे मैं आकाशमार्ग से आ रहा हूँ।’’
कुछ शांतचित्त हो अपराजिता ‘सर्वभूतिहित’ मुनि का आगमन, पति का दीक्षा ग्रहण, राम का वनवास, सीताहरण और लक्ष्मण पर शक्ति प्रहार के बाद विशल्या का भेजना यहाँ तक का सब समाचार सुना कर पुनः रोने लगती है और कहती है-
‘‘हे नारद! आगे क्या हुआ ? सो मुझे कुछ भी विदित नहीं है मेरा पुत्र सुख में है या दुःख में, कौन जाने ?….. इतना कहकर पुनः विलाप करती है-
‘‘हे पुत्र! तू किस दशा मे है ? मुझे खबर दे। हे पतिव्रते सीते! बेटी! तेरा संकट से छुटकारा हुआ या नहीं ? तू दुष्ट रावण द्वारा वैâसे हरी गई ? समुद्र के मध्य भयंकर दुःख को वैâसे झेला होगा ?’’
यह सब सुनते हुए नारद उद्विग्नमना हो वीणा को एक तरफ फेंक देते हैं और मस्तक पर हाथ धर कर बैठ जाते हैं। पुनः कुछ क्षण विचार कर कहते हैं-
‘‘हे कौशल्ये! हे शुभे! अब तुम शोक छोड़ो। मैं शीघ्र ही तुम्हारे पुत्रों का समाचार लाता हूँ। हे देवि! इतना कार्य तो मैं ही कर सकता हूँ। शेष कार्य में आपका पुत्र ही समर्थ है।’’
श्रीराम के समाचार लाने हेतु नारद का प्रस्थान-
इतना कहकर नारद बगल में वीणा दबाकर आकाशमार्ग से उड़ गये।…..वे नारद लंका नगरी में पहुँच कर पद्म सरोवर के तट पर क्रीड़ा करते हुए अंगद के साथियों से पता लगाकर श्रीराम की सभा में पहुँचे। नमस्कार करके आसन पर बिठाकर उनका कुशल समाचार पूछने के बाद रामचन्द्र पूछते हैं-
‘‘हे देवर्षि! इस समय आप कहाँ से आ रहे हैं ?’’
‘‘मैं दुःख के सागर में डूबी हुई आपकी माता के पास से आपको उनका समाचार बताने के लिए आ रहा हूूँ। हे देव! आपके बिना आपकी माता बालक से बिछुड़ी हुई सिंहनी के समान व्याकुल हो रही हैं। तुम जैसे सुपुत्र के रहते हुए वह पुत्रवत्सला माता रो-रो कर महल में छोटा-मोटा सरोवर बना रही हैं। ओह!…..श्रीराम! उठो, जल्दी चलो, माता के दर्शन करो, क्यों बैठे हो ?’’
इतना सुनते ही रामचन्द्र विह्वल हो उठते हैं। उनकी आँखें सजल हो जाती हैं। लक्ष्मण भी रो पड़ते हैं। तब विद्याधर लोग उन्हें सान्त्वना देने लगते हैं। रामचन्द्र कहते हैं-
‘‘अहो ऋषे! इस समय आपने हमारा बहुत बड़ा उपकार किया है। कुछ अशुभोदय से हम लोग माताओं को बिल्कुल ही भूल गये थे। अहो! आपने स्मरण दिला दिया, सो इससे प्रिय और क्या हो सकता है ? जो माता की विनय में तत्पर रहते हैं वास्तव में वे ही सत्पुत्र कहलाते हैं।’’
इतना कहकर श्रीरामचन्द्र नारद की पूजा करते हैं पुनः विभीषण भामण्डल, सुग्रीव आदि को बुलाकर कहते हैं-
‘‘हे विभीषण! इन्द्रध्वज सरीखे इस भवन में मुझे रहते हुए लगभग छह वर्ष का लम्बा समय व्यतीत हो गया। यद्यपि माता के दर्शनों की लालसा हृदय में विद्यमान थी फिर भी आज मैं उनके दर्शन करके ही शांति का अनुभव करूँगा तथा दूसरी माता के समान अयोध्या के दर्शन की भी उत्कंठा हो रही है।’’
विभीषण ने समझ लिया कि अब इन्हें यहाँ रोकना शक्य नहीं है तब वे कहते हैं-
‘‘हे नाथ! यद्यपि आपका वियोग हम लोगों को सहना ही होगा, फिर भी आप कम से कम भी सोलह दिन की अवधि मुझे और दीजिए। हे देव! मैं अभी-अभी अयोध्या के लिए दूत को भेज रहा हूँ।’’
जब राम असमर्थता व्यक्त करने लगते हैं तब विभीषण अपने मस्तक को उनके चरणों में रख देते हैं और जब राम उनकी बात मानकर ‘तथास्तु’ कह देते हैं तभी वे मस्तक ऊपर उठाते हैं। पुनः विभीषण, सुग्रीव आदि मंत्रणा करके माता के पास समाचार भिजवा देते हैं और अयोध्या नगरी को इतनी अच्छी सजाते हैं कि वह एक नवीन ही रूप धारण कर लेती है। रत्नों के बने हुए तोरणद्वार, पताकायें, मंगल कलश आदि से वह नगरी अनुपम शोभा को प्राप्त हो जात्ाी है।
श्रीरामचन्द्र का अयोध्या में आगमन एवं परिकर मिलन-
विभीषण को लंका का राज्य सौंप कर और सुग्रीव आदि को यथायोग्य राज्य देकर श्रीराम सीता सहित पुष्पक विमान में आरूढ़ हो अयोध्या की तरफ प्रस्थान कर देते हैं। लक्ष्मण, भामंडल आदि अपने-अपने परिवार सहित अपने-अपने वाहनों पर आरूढ़ होकर चल पड़ते हैंं। मार्ग में सीता को परिचित स्थानों की स्मृति दिलाते हुए रामचन्द्र अयोध्या के निकट पहुँच जाते हैं।
इधर से राजा भरत हाथी पर सवार हो भाइयों के स्वागत हेतु नगरी के बाहर आ जाते हैं। भरत को आता देख श्रीराम अपने विमान को पृथ्वी पर उतार लेते हैंं उस समय भरत हाथी से उतरकर स्नेह से पूरित हो सैकड़ों अर्घ्यों से उनकी पूजा करते हैं और कर-कमल जोड़कर नमस्कार करते हैं। राम उन्हें अपनी भुजाओं में भर लेते हैं। उस समय ‘भ्रातृ-मिलन’ अपने आप में एक ही उदाहरण रह जाता है चूँकि उसके लिए अन्य उदाहरण और कोई भी नहीं हो सकता है।
पुनः राम लक्ष्मण और भरत को पुष्पक विमान में बिठाकर नगरी में प्रवेश करते हैंं। वहाँ के लोग कृतकृत्य हो राम की आरती कर रहे हैं, पुष्पवृष्टि कर रहे हैं और जय-जयकारों की ध्वनि से पृथ्वीतल एवं आकाशमंडल को एक कर रहे हैं। सभी लोग आपस में एक-दूसरे का परिचय करा रहे हैं। ये लोग सर्वप्रथम राजभवन में पहुँचते हैं। माताएं महल की छत से उतर कर नीचे आ जाती हैं।
कौशल्या, सुमित्रा, वैâकेयी और सुप्रभा मंगलाचार में कुशल चारों माताएं राम-लक्ष्मण के समीप आती हैं। दोनों भाई विमान से उतरकर माता के चरणों में नमस्कार करते हैंं। उस समय स्नेह से पूरित उन माताओं के स्तनों से दूध झरने लगता है। वे सैकड़ों आशीर्वाद देते हुए पुत्रों का आलिंगन करती हैं। उनकी आँखों से वात्सल्य के अश्रु बरसने लगते हैं। पुत्रों के मस्तक पर हाथ फेरते हुए उन माताओं को इतना सुख का अनुभव होता है कि वह अपने आप में नहीं समाता है। सीता को हृदय से लगाकर उसे सैकड़ों आशीर्वाद देते हुए माता कौशल्या एक अनिर्वचनीय आनन्द को प्राप्त हो जाती हैं।
राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न माताओं और अपनी-अपनी स्त्रियों के मन को आह्लादित करते हुए धर्मचर्चा में तत्पर हैं। बलभद्र और नारायण के प्रभाव से जो वैभव प्रगट हुआ है उसका वर्णन कौन कर सकता है ? अयोध्या नगरी में निवास करने वालों की संख्या कुछ अधिक सत्तर करोड़ है। राम की गोशाला में एक करोड़ से अधिक गायें कामधेनु के समान दूध देने वाली हैं। नंद्यावर्त नाम की उनकी सभा है और हल, मूसल, रत्न तथा सुदर्शन नाम का चक्ररत्न है। उस समय वहाँ पर जैसी सुवर्ण और रत्नों की राशि थी शायद वैसी तीन लोक में भी अन्यत्र उपलब्ध नहीं थी।
रामचन्द्र ने हजारों चैत्यालय बनवाये और बड़े-बड़े महाविद्यालयों का निर्माण कराया जिनमें भव्य जीव नित्य ही पूजा-विधान महोत्सव किया करते हैं और विद्यालयों में बालक-बालिकाएं सर्वतोमुखी शिक्षा ग्रहण कर अपना बाल्य जीवन सफल बना रहे हैं। उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि अयोध्या नगरी के सभी नर-नारी महान् पुण्य का संचय करने ही यहाँ आये हैं। किमिच्छकदान में जब किसी से कहा जाता है कि ‘जो चाहो-सो ले जावो’ तब वह यही कहता है कि मेरे यहाँ कोई स्थान खाली ही नहीं है। सर्वत्र सुर्वण और रत्नों के ढेर रखे हुए हैं।
भरत को वैराग्य—
इतना सब कुछ होते हुए और डेढ़ सौ स्त्रियों के बीच में रहते हुए भी भरत सोच रहे हैं-
श्रीमान् बलभद्र रामचन्द्र जी भी अब घर आ चुके हैं अब मुझे जैसे भी बने वैसे आत्महित के साधन में लगना है। वैâकेयी भरत को विरक्तमना देख पुनः व्याकुल हो जाती है और राम से निवेदन करती है कि आप जैसे बने वैसे इन्हें रोको। रामचन्द्र भरत से कहते हैं-
‘‘बंधुवर! पिता ने जगत् का शासन करने के लिए आपका राज्याभिषेक किया था इसलिए हम लोगों के भी आप स्वामी हो। यह सुदर्शन चक्र, ये सब विद्याधर तुम्हारी आज्ञा में तत्पर हैं। मैं स्वयं तुम्हारे ऊपर छत्र लगाता हूँ, शत्रुघ्न चमर ढोरेगा और लक्ष्मण तेरा मंत्री रहेगा।’’ भरत हाथ जोड़कर कहते हैं-
‘‘हे देव! अब आप मुझे क्यों रोक रहे हो ? मैं अब संसार के परिभ्रमण से पूर्णतया ऊब चुका हूँ। अब मुझे तपोवन में प्रवेश करने दीजिए।’’
तब पुनः रामचन्द्र कहते हैं-
‘‘यदि तुम मेरी बात नहीं मानोगे तो पुनः मैं पूर्ववत् वन में चला जाऊँगा।’’
अनेक वार्तालाप के अनन्तर रामचन्द्र के नेत्र में अश्रु आ जाते हैं। भरत सिंहासन से उठ खड़े हो जाते हैं और रोती हुई माता को समझा रहे हैं कि इसी बीच राम की आज्ञा से सीता, विशल्या आदि सभी स्त्रियाँ आ जाती हैं एवं भरत को घेरकर उनसे वन क्रीड़ा के लिए अनुरोध करती हैं-
त्रिलोकमण्डन हाथी को जातिस्मरण—
‘‘हे देवर! हम लोगों पर प्रसन्नता कीजिए हम लोग आप के साथ वन क्रीड़ा करना चाहती हैं।’’
भरत दाक्षिण्यवश उन सबकी बात मान लेते हैं। वन में जाकर सरोवर में स्नान आदि करके कमल तोड़कर उनसे जिनेन्द्रदेव की पूजा करते हैंं, पुनः हजारों भावजों और डेढ़ सौ स्त्रियों के बीच भरत सुखपूर्वक बैठे हुए हैं। इसी बीच त्रिलोकमंडन नाम का महागजराज आलान बंधन को तोड़कर महा-उपद्रव करता हुआ उसी तरफ आ जाता है। श्रीरामचन्द्र आदि उसे रोकने के लिए तत्पर हो जाते हैं किन्तु वह भरत को देखते ही एकदम शांत्ा हो विनय से पास में बैठ जाता है। उसे तत्काल जातिस्मरण हो जाने से वह शोक से आक्रान्त हो जाता है।
भरत उस गजराज पर सवार हो सर्वपरिजन के साथ अपने महल में आते हैं। उधर सर्वत्र हाथीविषयक ही चर्चा चल पड़ती है।
राजसभा में राजा रामचन्द्र के समीप महावत आदि प्रमुख जन आकर निवेदन करते हैं-
‘‘देव! आज चौथा दिन है, त्रिलोकमंडन हाथी ने एक ग्रास भी नहीं लिया है वह सूंड पटकता है और सूं-सूं कर रहा है। हम लोग अनुनय, विनय, सेवा, शुश्रूषा, औषधि आदि सभी उपाय करके हार चुके हैं। अब आपको निवेदन करना ही हमारा कर्तव्य शेष रहा है। अब आपको जो उचित जँचे सो कीजिए।’’
हाथी का ऐसा समाचार सुनकर राम-लक्ष्मण भी चिंतित हो जाते हैं-
‘‘अहो! क्यों तो वह बंधन तोड़कर बाहर आया ? क्यों भरत को देखकर शांत हुआ ? और क्यों पुनः भोजन पान छोड़ बैठा है ? क्या कारण है ?’’
देशभूषण-कुलभूषण केवली का आगमन और हाथी के भव-भवांतरों का कथन—
सभा विसर्जित हो जाती है। उधर देशभूषण-कुलभूषण केवली विहार करते हुए वहाँ आ जाते हैं। देवों द्वारा निर्मित दिव्य गन्धकुटी में विराजमान भगवान का दर्शन करने के लिए सभी राजा-प्रजा वहाँ उपस्थित हो जाते हैं। श्रीराम भी दर्शन करके अपने कोठे मेंं बैठकर हाथी के भवांतर को कहने के लिए प्रार्थना करते हैं। भगवान् की दिव्य देशना खिरती है-
‘‘रामचन्द्र! भगवान् ऋषभदेव के समय दीक्षित हुए चार हजार राजाओं में सूर्योदय और चन्द्रोदय नाम के दो भाई भी दीक्षित हो गये थे। वे मरीचि के शिष्य पारिव्राजक हो गये थे। असंख्य भवोें तक परिभ्रमण करते हुए पुनः सूर्योदय का जीव मृदुमति मुनि हो गया। एक समय गुणनिधि मुनि की पर्वत पर देवों ने पूजा की, अनन्तर वे आकाश से विहार कर गये तब मृदुमति मुनि वहाँ चर्या के लिए आये, उन्हें देखकर श्रावकों ने कहा, ‘‘आप की देव भी पूजा करते हैं अतः आप धन्य हैं।’’ इतना सुनकर मृदुमति ने सोचा, ‘‘यदि मैं कहूँगा कि मैं वह मुनि नहीं हूँ, तो ये लोग ऐसी पूजा नहीं करेंगे।’’ अतः मौन से रहकर उसने आत्मवंचना कर ली। समाधि से मरकर ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में दिव्य सुख भोग कर उस मायाचारी के पाप से यह त्रिलोकमंडन नाम का हाथी हो गया है और चन्द्रोदय का जीव कभी चक्रवर्ती का पुत्र अभिराम हुआ। पिता के अति आग्रह से दीक्षा न ले सका अतः वह घर में ही तीन हजार स्त्रियों के बीच रहकर पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए पक्ष, महीने आदि में पारणा करता था। इस तरह चौंसठ हजार वर्ष तक उसने असिधारा व्रत का पालन किया पश्चात् समाधि से मरकर ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ दोनों देव परस्पर में परम प्रीति को प्राप्त थे। आज वह चन्द्रोदय तो भरत है और यह सूर्योदय का जीव हाथी है। भरत को देखकर इसे जातिस्मरण हो जाने से यह शोक से आक्रांत हो रहा है। इतना सुनने के बाद हाथी ने भी सम्यग्दर्शन और अणुव्रत को ग्रहण कर लिया। भरत भी हाथ जोड़कर विनय करते हैं-
‘‘हे भगवन् ! अब मुझे संसार समुद्र से पार करने वाली जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान कीजिए।’’
भरत, कैकेयी आदि का दीक्षा ग्रहण करना एवं श्रीराम का राज्याभिषेक—
इतना कहकर वे वस्त्राभूषणों का त्याग करके केशलोंच करके निर्ग्रन्थ दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। भरत के अनुराग से प्रेरित हो कुछ अधिक एक हजार राजा भी राज्यलक्ष्मी का परित्याग कर मुनि दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। वैâकेयी को शोक से विह्लल देख राम-लक्ष्मण बहुत समझाते हैं किन्तु वह निर्मल सम्यक्त्व को ग्रहण कर तीन सौ स्त्रियों के साथ पृथ्वीमती आर्यिका के पास आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर लेती हैं।
अनन्तर राम-लक्ष्मण भरत के गुणों का स्मरण कर उद्विग्न हो उठते हैंं। इसी बीच राजा लोग अमात्य सहित आकर प्रार्थना करते हैं-
‘‘हे नाथ! हम विद्वान हों या मूर्ख। हम लोगों पर प्रसन्न होइये। हे पुरुषोत्तम! अब आप राज्याभिषेक की स्वीकृति दीजिए।’’
राम कहते हैं-
‘‘हे महानुभावों! जहाँ राजाओं का राजा लक्ष्मण मेरे चरणों का सेवक है वहाँ हमें राज्य की क्या आवश्यकता है ? अतः आप लोग उन्हीं का राज्याभिषेक करो।’’ इतना सुनकर लोग लक्ष्मण के पास पहुँचते हैं तब लक्ष्मण स्वयं उठकर राम के पास आते हैं और राज्याभिषेक का कार्यक्रम शुरू हो जाता है। महान वैभव के साथ अनेक राजागण सुवर्ण कलशों से राम और लक्ष्मण का बलभद्र और नारायण के पद पर महाराज्याभिषेक करते हैं, पुनः सीता देवी और विशल्या का भी राज्याभिषेक सम्पन्न होता है। सीता को आठ हजार रानियों में पट्टमहिषी का पट्ट बाँधा जाता है और विशल्या को सत्रह हजार रानियों में पट्टरानी घोषित किया जाता है। उस समय श्री रामचन्द्र विभीषण, हनुमान, सुग्रीव आदि को यथायोग्य राज्य प्रदान करते हैं और शत्रुघ्न को उसी की इच्छानुसार मथुरा का राज्य दे देते हैं।
उस रामराज्य में प्रजा स्वर्ग सुख का अनुभव कर रही है। उस नगरी में सब मिलाकर साढ़े चार करोड़ राजकुमार हैं जो अपनी कुमार क्रीड़ा से सबका मन हरण कर रहे हैं, सोलह हजार मुकुटबद्ध राजा श्रीराम और लक्ष्मण के चरणों की सेवा कर रहे हैं।
एक दिन महाराजा श्री रामचन्द्र ने अपने भाई शत्रुघ्न से कहा-
‘‘शत्रुघ्न! इस तीन खण्ड की वसुधा में तुम्हें जो देश इष्ट हो उसे स्वीकृत कर लो। क्या तुम अयोध्या का आधा भाग लेना चाहते हो ? या उत्तम पोदनपुर को ? राजगृह नगर चाहते हो या मनोहर पौंड्र नगर को ?’’
इत्यादि प्रकार से श्री राम और लक्ष्मण ने सैकड़ों राजधानियाँ बताई तब शत्रुघ्न ने बहुत कुछ विचार कर मथुरा नगरी की याचना की। तब श्री राम ने कहा-
‘‘मथुरा का राजा मधु है वह हम लोगों का शत्रु है यह बात क्या तुम्हें ज्ञात नहीं है ? वह मधु रावण का जमाई है और चमरेन्द्र ने उसे ऐसा शूलरत्न दिया हुआ है जो कि देवों के द्वारा भी दुर्निवार है, वह हजारों के भी प्राण हरकर पुनः उसके हाथ में आ जाता है। इस मधु का लवणार्णव नाम का पुत्र है वह विद्याधरों के द्वारा भी दुःसाध्य है उस शूरवीर को तुम किस तरह जीत सकोगे?’’
बहुत कुछ समझाने के बाद भी शत्रुघ्न ने यही कहा कि-
‘‘इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ ? आप तो मुझे मथुरा दे दीजिए। यदि मैं उस मधु को मधु के छत्ते के समान तोड़कर नहीं फेंक दूँ तो मैं राजा दशरथ के पुत्र होने का ही गर्व छोड़ दूँ। हे भाई! आपके आशीर्वाद से मैं उसे दीर्घ निद्रा में सुला दूँगा।’’
अनन्तर श्री राम के द्वारा मथुरा नगरी को प्राप्त करने की स्वीकृति मिल जाने पर शत्रुघ्न वहाँ जाने के लिए तैयार हुए तब श्री रामचन्द्र ने शत्रुघ्न को एकांत में ले जाकर कहा-
‘‘हे धीर! मैं तुमसे कुछ याचना करता हूँ तुम मुझे एक दक्षिणा दो।’’
शत्रुघ्न ने कहा-‘‘आप असाधारण दाता हैं फिर भी मुझसे कुछ मांग रहे हैं इससे बढ़कर मेरे लिए और क्या प्रशंसनीय होगा ? आप मेरे प्राणों के भी स्वामी हैं, एक युद्ध के विघ्न को छोड़कर आप कहिए मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?’’
तब श्रीराम ने कुछ चिंतन करके कहा-
‘‘हे वत्स! जब मधु शूलरत्न से रहित हो तभी तुम अवसर पाकर उससे युद्ध करना अन्य समय में नहीं……।’’
तब शत्रुघ्न ने कहा-‘‘जैसी आपकी आज्ञा है ऐसा ही होगा।’’
इसके बाद शत्रुघ्न ने जिनमंदिर में जाकर सिद्ध परमेष्ठियों की पूजा करके घर जाकर भोजन किया पुनः माता के पास पहुँचकर प्रणाम करके मथुरा की ओर प्रस्थान के लिए आज्ञा माँगी। माता सुप्रभा ने पुत्र के मस्तक पर हाथ फेरकर उसे अपने अर्धासन पर बिठाकर प्यार से कहा-
‘‘हे पुत्र! तू शत्रुओं को जीतकर अपना मनोरथ सिद्ध कर। हे वीर! तुझे युद्ध में शत्रु को पीठ नहीं दिखाना है।
हे वत्स! जब तू युद्ध में विजयी होकर आयेगा तब मैं सुवर्ण के कमलों से जिनेन्द्रदेव की परम पूजा करूँगी।’’
इसके बाद अनेक मंगल कामना के साथ माता ने शत्रुघ्न को अनेक शुभ आशीर्वाद प्रदान किये ।
करस्थामलकं यद्वल्लोकालोकं स्वतेजसा।
पश्यंतं केवलालोका भवंतु तव मंगलम्।।१।।
कर्मणाष्टप्रकारेण मुक्तास्त्रैलोक्यमूर्द्धगाः।
सिद्धाः सिद्धिकरा वत्स! भवन्तु तव मंगलम् ।।२।।
कमलादित्यचंद्रक्ष्मामन्दराब्धिवियत् समाः।
आचार्याः परमाधारा भवन्तु तव मंगलम् ।।३।।
परात्मशासनाभिज्ञाः कृतानुगतशासनाः।
सदायुष्मनुपाध्यायाः कुर्वन्तु तव मंगलम् ।।४।।
तपसा द्वादशांगेन निर्वाणं साधयन्ति ये।
भद्र! ते साधवः शूरा भवन्तु तव मंगलम् ।।५।।
जो अपने तेज से समस्त लोक-अलोक को हाथ पर रखे हुए आंवले के समान देख रहे हैं ऐसे केवलज्ञानी अर्हन्त भगवान् तुम्हारे लिए मंगल स्वरूप होवें। जो आठ प्रकार के कर्मों से रहित होकर त्रिलोक शिखर पर विराजमान हैं, सिद्धि को करने वाले ऐसे सिद्ध भगवान् हे वत्स! तुम्हारे लिए मंगलस्वरूप होवें। जो कमल के समान् निर्लिप्त, सूर्य के समान तेजस्वी, चन्द्रमा के समान शांतिदायक, पृथ्वी के समान निश्चल, सुमेरु के समान उन्नत, समुद्र के समान गंभीर और आकाश के समान निःसंग हैं तथा परम आधार स्वरूप हैं ऐसे आचार्य परमेष्ठी तुम्हारे लिए मंगल रूप होवें। जो स्व-पर के शासन के जानने वाले हैं जो अपने अनुगामी जनों को सदा धर्मोपदेश देते हैं। ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी हे आयुष्मन्! तुम्हारे लिए मंगल स्वरूप होवें। जो बारह तप के द्वारा मोक्ष की सिद्धि करते हैं ऐसे शूरवीर साधु परमेष्ठी हे भद्र! तुम्हारे लिए मंगल स्वरूप होवें।’’
इस प्रकार से विघ्नों के नाशक दिव्य स्वरूप ऐसे आशीर्वाद को प्राप्त कर माता को प्रणाम कर शत्रुघ्न घर से बाहर निकले। सुवर्णमयी मालाओं से युक्त हाथी पर सवार होकर मथुरा की ओर प्रस्थान कर दिया। उस समय भ्रातृ प्रेम से प्रेरित हुए श्री राम और लक्ष्मण भी शत्रुघ्न के साथ-साथ तीन पड़ाव तक गये थे। अनन्तर सैकड़ों राजाओं से घिरे हुए थे। इस समय लक्ष्मण नारायण ने अपना सागरावर्त धनुषरत्न और अग्निमुख नाम के अनेक बाण उसे दे दिये। श्री राम ने अपने सेनापति कृतांतवक्त्र को ही उनका सेनापति बना दिया था।
बहुत बड़ी सेना के साथ शत्रुघ्न ने क्रम-क्रम से पुण्यभागा नदी को पार कर आगे पहुँचकर अपनी सेना ठहरा दी और गुप्तचरों को मथुरा भेज दिया। उन लोगों ने आकर समाचार दिया-
‘‘देव! सुनिए, यहाँ से उत्तर दिशा में मथुरा नगरी है वहाँ नगर के बाहर एक सुन्दर राजउद्यान है। इस समय राजा मधुसुन्दर अपनी जयंत रानी के साथ वहीं निवास कर रहा है। कामदेव के वशीभूत हुए और सब काम को छोड़कर रहते हुए आज छठा दिन है। तुम्हारे आगमन का उसे अभी तक कोई पता नहीं है।’’
गुप्तचरों के द्वारा सर्व समाचार विदित कर शत्रुघ्न ने यही अवसर अनुकूल समझकर साथ में एक लाख घुड़सवारों को लेकर वह मथुरा की ओर बढ़ गया। अर्धरात्रि के बाद शत्रुघ्न ने मथुरा के द्वार में प्रवेश किया। इधर शत्रुघ्न के बंदीगणों ने-
‘‘राजा दशरथ के पुत्र शत्रुघ्न की जय हो।’’ ऐसी जयध्वनि से आकाश को गुंजायमान कर दिया था। तब मथुरा के अन्दर किसी शत्रुराजा का प्रवेश हो गया है ऐसा जानकर शूरवीर योद्धा जग पड़े। इधर शत्रुघ्न ने मधु के राजमहल में प्रवेश किया और मधु की आयुधशाला पर अपना अधिकार जमा लिया।
शत्रुघ्न का मथुरा में प्रवेश एवं राजा मधु से युद्ध—
शत्रुध्न को मथुरा में प्रविष्ट जानकर महाबलवान् राजा मधुसुन्दर रावण के समान क्रोध को करता हुआ उद्यान से बाहर निकला किन्तु शत्रुघ्न से सुरक्षित मथुरा के अन्दर व अपने महल में प्रवेश करने में असमर्थ ही रहा तब वह अपने शूलरत्न को प्राप्त नहीं कर सका फिर भी उसने शत्रुघ्न से सन्धि नहीं की प्रत्युत् युद्ध के लिए तैयार हो गया।
वहाँ दोनों की सेनाओं में घमासान युद्ध शुरू हो गया। इधर मधुसुन्दर के पुत्र लवणार्णव के साथ कृतांतवक्त्र सेनापति का युद्ध चल रहा था। बहुत ही प्रकार से गदा, खड्ग आदि से एक-दूसरे पर प्रहार करते हुए अन्त में कृतांतवक्त्र के द्वारा शक्ति नामक शस्त्र के प्रहार से वह लवणार्णव मृत्यु को प्राप्त हो गया। पुनः राजा मधु और शत्रुघ्न का बहुत देर तक युद्ध चलता रहा। बाद में मधु ने अपने को शूलरत्न से रहित जानकर तथा पुत्र के महाशोक से अत्यंत पीड़ित होता हुआ शत्रु की दुर्जेय स्थिति समझकर मन में चिंतन करने लगा-
‘‘अहो! मैंने दुर्दैव से पहले अपने हित का मार्ग नहीं सोचा, यह राज्य, यह जीवन पानी के बुलबुले के समान क्षणभंगुर है। मैं मोह के द्वारा ठगा गया हूँ। पुनर्जन्म अवश्य होगा ऐसा जानकर भी मुझ पापी ने समय रहते हुए कुछ नहीं सोचा। अहो! जब मैं स्वाधीन था तब मुझे सद्बुद्धि क्यों नहीं उत्पन्न हुई ? अब मैं शत्रु के सन्मुख क्या कर सकता हूँ ? अरे! जब भवन में आग लग जावे तब कुंआ खुदवाने से भला क्या होगा….. ?’’
राजा मधु को वैराग्य, केशलोंच एवं समाधिमरण—
ऐसा चिंतवन करते हुए राजा मधु एकदम संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो गया। तत्क्षण ही उसने अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पाँचों परमेष्ठियों को नमस्कार करके चारों मंंगल, लोकोत्तम और शरणभूत की शरण लेता हुआ अपने दुष्कृतों की आलोचना करके सर्व सावद्य योग-सर्व आरंभ-परिग्रह का भावों से ही त्याग करके यथार्थ समाधिमरण करने में उद्यमशील हो गया। उसने सोचा-
‘‘अहो! ज्ञान-दर्शन स्वरूप एक आत्मा ही मेरा है वही मुझे शरण है। न तृण सांथरा है न भूमि, बल्कि अंतरंग-बहिरंग परिग्रह को मन से छोड़ देना ही मेरा संस्तर है।…..।’’
ऐसा विचार करते हुए उस घायल स्थिति में ही शरीर से निर्मम होते हुए राजा मधुसुन्दर ने हाथी पर बैठे-बैठे ही केशलोंच करना शुरू कर दिया।
युद्ध की इस भीषण स्थिति में भी अपने हाथों से अपने सिर के बालों का लोच करते हुए देखकर शत्रुघ्न कुमार ने आगे आकर उन्हें नमस्कार किया और बोले-
‘‘हे साधो! मुझे क्षमा कीजिए…..। आप धन्य हैं कि जो इस रणभूमि में भी सर्वारंभ-परिग्रह का त्याग कर जैनेश्वरी दीक्षा के सन्मुख हुए हैं।’’
उस समय जो देवांगनाएं आकाश में स्थित हो युद्ध देख रही थीं उन्होंने महामना मधु के ऊपर पुष्पों की वर्षा की। इधर राजा मधु ने परिणामों की विशुद्धि से समता भाव धारण करते हुए प्राण छोड़े और समाधिमरण-वीरमरण के प्रभाव से तत्क्षण ही सानत्कुमार नाम के तीसरे स्वर्ग में उत्तम देव हो गये।
इधर वीर शत्रुघ्न भी संतुष्ट हुआ और युद्ध को विराम देकर सभी प्रजा को अभयदान देते हुए मथुरा में आकर रहने लगा।
राजा मधुसुन्दर का वह दिव्य शूलरत्न यद्यपि अमोघ था फिर भी शत्रुघ्न के पास वह निष्फल हो गया, उसका तेज छूट गया और वह अपनी विधि से च्युत हो गया। तब वह (उसका अधिष्ठाता देव) खेद, शोक और लज्जा को धारण करता हुआ अपने स्वामी असुरों के अधिपति चमरेन्द्र के पास गया। शूलरत्न के द्वारा मधु के मरण का समाचार सुनकर चमरेन्द्र को बहुत ही दुःख हुआ। वह बार-बार मधु के सौहार्द का स्मरण करने लगा। तदनंतर वह पाताललोक से निकलकर मथुरा जाने को उद्यत हुआ। तभी गरुड़कुमार देवों के स्वामी वेणुधारी इन्द्र ने इसे रोकने का प्रयास किया किन्तु यह नहीं माना और मथुरा में पहुँच गया।
वहाँ चरमेन्द्र ने देखा कि मथुरा की प्रजा शत्रुघ्न के आदेश से बहुत बड़ा उत्सव मना रही है तब वह विचार करने लगा-
‘‘ये मथुरा के लोग कितने कृतघ्न हैं कि जो दुःख-शोक के अवसर पर भी हर्ष मना रहे हैं। जिसने हमारे स्नेही राजा मधु को मारा है मैं उसके निवास स्वरूप इस समस्त देश को नष्ट कर दूँगा।’’
इत्यादि प्रकार से क्रोध से प्रेरित हो उस चमरेन्द्र ने मथुरा के लोगों पर दुःसह उपसर्ग करना प्रारंभ कर दिया। जो जिस स्थान पर सोये थे बैठे थे वे महारोग (महामारी) के प्रकोप से दीर्घ निद्रा को प्राप्त हो गये-मरने लगे।
इस महामारी उपसर्ग को देखकर कुलदेवता की प्रेरणा से राजा शत्रुघ्न अपनी सेना के साथ अयोध्या वापस आ गये।
विजयी शत्रुघ्न का अयोध्या में अभिनंदन—
विजय को प्राप्त कर आते हुए शूरवीर शत्रुघ्न का श्रीराम-लक्ष्मण ने हर्षित हो अभिनंदन किया। माता सुप्रभा ने भी अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार सुवर्ण के कमलों से जिनेन्द्रदेव की महती पूजा सम्पन्न करके धर्मात्माओं को दान दिया। पुनः दीन-दुःखी जनों को करुणादान देकर सुखी किया। यद्यपि वह अयोध्या नगरी सुवर्ण के महलों से सहित थी फिर भी पूर्वभवों वâे संस्कारवश शत्रुघ्न का मन मथुरा में ही लगा हुआ था।
मथुरा नगरी में सप्तऋषि आगमन एवं महामारी का नष्ट होना—
इधर मथुरा नगरी के उद्यान में गगनगामी ऋद्धिधारी सात दिगम्बर महामुनियों ने वर्षायोग धारण कर लिया-चातुर्मास स्थापित कर लिया। इनके नाम थे-सुरमन्यु, श्रीमन्यु, श्रीनिचय, सर्वसुन्दर, जयवान, विनयलालस और जयमित्र।
प्रभापुर नगर के राजा श्रीनंदन की धारिणी रानी के ये सातों पुत्र थे। प्रीतिंकर मुनिराज को केवलज्ञान प्राप्त हो जाने पर देवों को जाते हुए देखकर प्रतिबोध को प्राप्त हुए थे। उस समय राजा श्रीनंदन ने अपने एक माह के पुत्र को राज्य देकर अपने सातों पुत्रों के साथ प्रीतिंकर भगवान के समीप दीक्षा ग्रहण कर ली थी। समय पाकर श्रीनंदन ने केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर लिया था और ये सातों मुनि तपस्या के प्रभाव से अनेक ऋद्धियों को प्राप्त कर सातऋषि (सप्तर्षि) के नाम से प्रसिद्ध हो रहे थे।
उद्यान में वटवृक्ष के नीचे ये सातों मुनि चातुर्मास में स्थित हो गये थे। इन मुनियों के तपश्चरण के प्रभाव से उस समय मथुरा में चमरेन्द्र के द्वारा पैâलायी गयी महामारी एकदम नष्ट हो गई थी। वहाँ नगरी में चारों तरफ के वृक्ष फलों के भार से लद गये थे और खेती भी खूब अच्छी हो रही थी। ये मुनिराज रस-परित्याग, बेला, तेला आदि तपश्चरण करते हुए महातप कर रहे थे। कभी-कभी ये आहार के समय आकाश को लांघकर निमिषमात्र में विजयपुर, पोदनपुर आदि दूर-दूर नगरों में जाकर आहार ग्रहण करते थे। वे महामुनिराज परगृह में अपने करपात्र में केवल शरीर की स्थिति के लिए आहार लेते थे।
सप्त ऋषियों का अयोध्या में आगमन—
एक दिन ये सातों ही महाऋषिराज जूड़ाप्रमाण (चार हाथ प्रमाण) भूमि को देखते हुए अयोध्या नगरी में प्रविष्ट हुए। वे विधिपूर्वक भ्रमण करते हुए अर्हद्दत्त सेठ के घर के दरवाजे पर पहुँचे। उन मुनियों को देखकर अर्हद्दत्त सेठ विचार करने लगा-
‘‘यह वर्षाकाल कहाँ ? और इन मुनियों की यह चर्या कहाँ ? इस नगरी के आस-पास पर्वत की कंदराओं में, नदी के तट पर, वृक्ष के नीचे, शून्य घर में, जिनमंदिर में तथा अन्य स्थानों में जहाँ कहीं जो भी मुनिराज स्थित हैं वे सब वर्षायोग पूरा किये बिना इधर-उधर नहीं जाते हैं परन्तु ये मुनि आगम के विपरीत चर्या वाले हैं, ज्ञान से रहित और आचार्यों से रहित हैं इसलिए ये इस समय यहाँ आ गये हैंं। यद्यपि ये मुनि असमय में आये थे फिर भी अर्हद्दत्त के अभिप्राय को समझने वाली वधू ने उनका पड़गाहन करके उन्हें आहारदान दिया।
आहार के बाद ये सातों मुनि तीन लोक को आनंदित करने वाले ऐसे जिनमंदिर में पहुँचे जहाँ भगवान् मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमा विराजमान थी और शुद्ध निर्दोष प्रवृत्ति करने वाले दिगम्बर साधुगण भी विराजमान थे।
ये सातों मुनिराज पृथ्वी से चार अंगुल ऊपर चल रहे थे। ऐसे इन मुनियों को वहाँ पर स्थित द्युति भट्टारक-द्युति नाम के आचार्य देव ने देखा। इन मुनियों ने उत्तम श्रद्धा से पैदल चलकर ही जिनमंदिर में प्रवेश किया तब द्युति भट्टारक ने खड़े होकर नमस्कार कर विधि से उनकी पूजा की।
‘‘यह हमारे आचार्य चाहे जिसकी वंदना करने के लिए उद्यत हो जाते हैं।’’
ऐसा सोचकर उन द्युति आचार्य के शिष्यों ने उन सप्तर्षियों की निंदा का विचार किया। तदनंतर सम्यक् प्रकार से स्तुति करने में तत्पर वे सप्तर्षि मुनिराज जिनेन्द्र भगवान् की वंदना कर आकाशमार्ग से पुनः अपने स्थान पर चले गये। जब वे आकाश में उड़े तब उन्हें चारण ऋद्धि के धारक जानकर द्युति आचार्य के शिष्य जो अन्य मुनि थे उन्होंने अपनी निंदा गर्हा आदि करके प्रायश्चित कर अपनी कलुषता दूर कर अपना हृदय निर्मल कर लिया।
इसी बीच में अर्हद्दत्त सेठ जिनमंदिर में आया तब द्युति आचार्य ने कहा-
‘‘हे भद्र! आज तुमने ऋद्धिधारी महान् मुनियों के दर्शन किये होंगे। वे सर्वजग वंदित महातपस्वी मुनि मथुरा में निवास करते हैं आज मैंने उनके साथ वार्तालाप किया है। उन आकाशगामी ऋषियों के दर्शन से आज तुमने भी अपना जीवन धन्य किया होगा।’’
इन आचार्यदेव के मुख से उन साधुओं की प्रशंसा सुनते ही सेठ अर्हद्दत्त खेदखिन्न होकर पश्चात्ताप करने लगा-‘‘ओह! यथार्थ को नहीं समझने वाले मुझ मिथ्यादृष्टि को धिक्कार हो, मेरा आचरण अनुचित था, मेरे समान दूसरा अधार्मिक भला और कौन होगा ? इस समय मुझसे बढ़कर दूसरा मिथ्यादृष्टि अन्य कौन होगा ? हाय! मैंने उठकर मुनियों की पूजा नहीं की तथा नवधाभक्ति से उन्हें आहार भी नहीं दिया।
साधुरूपं समालोक्य न मुंचत्यासनं तु यः।
दृष्ट्वाऽपमन्यते यश्च स मिथ्यादृष्टिरुच्यते।।
दिगम्बर मुनियों को देखकर जो अपना आसन नहीं छोड़ता है-उठकर खड़ा नहीं होता है तथा देखकर भी उनका अपमान करता है वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है।
मैं पापी हूँ, पाप कर्मा हूँ, पापात्मा हूँ, पाप का पात्र हूँ अथवा जिनागम की श्रद्धा से दूर निंद्यतम हूँ। जब तक मैं हाथ जोड़कर उन मुनियों की वंदना नहीं कर लूँगा तब तक मेरा शरीर एवं हृदय झुलसता ही रहेगा। अहंकार से उत्पन्न हुए इस पाप का प्रायश्चित्त उन मुनियों की वंदना के सिवाय और कुछ भी नहीं हो सकता है।’’
(इस कथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि आकाशगामी मुनि चातुर्मास में भी अन्यत्र जाकर आहार ग्रहण करके आ जाते थे।)
इधर इस मथुरा नग्ारी में इन मुनियों के चातुर्मास करने से चमरेन्द्र द्वारा किये गये सारे उपद्रव-महामारी आदि नष्ट हो गये थे। नगर में पुनः पूर्ण शांति का वातावरण हो गया था।
इधर अयोध्या से अर्हदत्त सेठ महान वैभव के साथ कार्तिक शुक्ला सप्तमी के दिन उन ऋषियों की वंदना करने के लिए पहुँच गये थे। राजा शत्रुघ्न भी इन मुनियों का उपदेश श्रवणकर भक्ति से प्रेरित हुए मथुरा के उद्यान में आ गये थे और उनकी माता सुप्रभा भी विशाल वैभव और धन आदि को लेकर इन मुनियों की पूजा करने के लिए आ गई। उन सम्यग्दृष्टि महापुरुषों ने और सुप्रभा आदि रानियों ने मुनिराज की महान पूजा की। उस समय वहाँ वह उद्यान और मुनियों के आश्रम का स्थान प्याऊ, नाटकशाला, संगीतशाला आदि से सुशोभित हुआ स्वर्गप्रदेश के समान मनोहर हो गया था।
अनन्तर भक्ति एवं हर्ष से भरे हुए शत्रुघ्न ने वर्षायोग को समाप्त करने वाले उन मुनियों को पुनः-पुनः नमस्कार करके उनसे आहार ग्रहण करने के लिए प्रार्थना की तब इन सातों में जो प्रमुख थे, वे ‘‘सुरमन्यु’’ महामुनि बोले-
‘‘हे नरश्रेष्ठ! जो आहार मुनियों के लिए संकल्प कर बनाया जाता है दिगम्बर मुनिराज उसे ग्रहण नहीं करते हैं। जो आहार न स्वयं किया गया है न कराया गया है और जिसमें न बनाते हुए को अनुमति दी गई है ऐसे नवकोटि विशुद्ध आहार को ही साधुगण ग्रहण करते हैं।’’
पुनः शत्रुघ्न ने निवेदन किया-
‘‘हे भगवन् ! आप भक्तों के ऊपर अनुग्रह करने वाले हैं। आप अभी कुछ दिन और यहीं मथुरा में ठहरिये। आपके प्रभाव से ही यहाँ महामारी की शांति हुई है….।’’
पुनः शत्रुघ्न चिंता करने लगा-
‘‘ऐसे महामुनियों को विधिवत् आहार दान देकर मैं कब संतुष्ट होऊँगा ?’’ शत्रुघ्न को नतमस्तक देखकर उन मुनिराज ने पुनः आगे आने वाले काल का वर्णन करते हुए उपदेश दिया-
‘‘हे राजन् ! जब अनुक्रम से तीर्थंकरों का काल व्यतीत हो जायेगा-पंचम काल आ जाएगा तब यहाँ धर्म कर्म से रहित अत्यन्त भयंकर समय आ जाएगा। दुष्ट पाखण्डी लोगों द्वारा यह परम पावन जैन शासन उस तरह तिरोहित हो जायेगा कि जिस तरह धूलि के छोटे-छोटे कणों द्वारा सूर्य का बिम्ब ढक जाता है। यह संसार चोरों के समान कुकर्मी, क्रूर, दुष्ट, पाखण्डी लोगों से व्याप्त होगा। पुत्र, माता-पिता के प्रति और माता-पिता पुत्रों के प्रति स्नेह रहित होंगे। उस कलिकाल में राजा लोग चोरों के समान धन के अपहर्ता होंगे। कितने ही मनुष्य यद्यपि सुखी होंगे फिर भी उनके मन में पाप होगा, वे दुर्गति में ले जाने वाली ऐसी विकथाओं से एक-दूसरे को गोहित करते हुए प्रवृत्ति करेंगे।
हे शत्रुघ्न! कषायबहुल समय के आने पर देवागमन आदि समस्त अतिशय नष्ट हो जायेंगे। तीव्र मिथ्यात्व से युक्त मनुष्य व्रतरूप गुणों से सहित एवं दिगम्बर मुद्रा के धारक मुनियों को देखकर ग्लानि करेंगे। अप्रशस्त को प्रशस्त मानते हुए कितने ही दुर्बुद्धि लोग भय पक्ष में उस तरह जा पड़ेंगे जिस तरह के पतंगे अग्नि में जा पड़ते हैं। कितने ही मूढ़ मनुष्य हंसी करते हुए शान्तचित्त मुनियों को तिरस्कृत करके मूढ़ मनुष्यों को आहार देवेंगे। जिस प्रकार शिलातल पर रखा हुआ बीज यद्यपि सदा सींचा जाय तो भी उसमें फल नहीं लग सकता है वैसे ही शील रहित मनुष्यों के लिए दिया हुआ दान भी निरर्थक होता है। ‘जो गृहस्थ मुनियों की अवज्ञा कर गृहस्थ के लिए आहार देते हैं वे मूर्ख चंदन को छोड़कर बहेड़ा ग्रहण करते हैं।
हे शत्रुघ्न! इस प्रकार दुषमता के कारण निकृष्ट काल को आने वाला जानकर तुम आत्मा के लिए हितकर शुभ और स्थायी ऐसा कार्य करो। तुम नामी पुरुष हो अतः निर्ग्रन्थ मुनियों को आहार देने का निश्चय करो यही तुम्हारी धन-संपदा का सार है। हे राजन् ! आगे आने वाले काल में थके हुए मुनियों के लिए आहार देना अपने गृहदान के समान एक बड़ा भारी आश्रय होगा इसलिए हे वत्स! तुम ये दान देकर इस समय गृहस्थ के शीलव्रत का नियम धारण करो और जीवन को सार्थक बनाओ। मथुरा के समस्त लोग समीचीन धर्म को धारण करें। दया और वात्सल्य भाव से सम्पन्न तथा जिनशासन की भावना से युक्त होवें। घर-घर में जिनप्रतिमाएं स्थापित की जावें, उनकी पूजाएं हों, अभिषेक हों और विधिपूर्वक प्रजा का पालन किया जाये।
हे शत्रुघ्न! इस नगरी की चारों दिशाओं में सप्तर्षियों की प्रतिमाएं स्थापित करो, उसी से सब प्रकार की शांति होगी। आज से लेकर जिस घर में जिनप्रतिमा नहीं होगी उस घर को मारी उसी तरह खा जायेगी कि जिस तरह व्याघ्री अनाथ मृग को खा जाती है। जिसके घर में अंगूठा प्रमाण भी जिनप्रतिमा होगी उसके घर में गरुड़ से डरी हुई सर्पिणी के समान मारी का प्रवेश नहीं होगा।’’
महामुनि के इस उपदेश को सुनकर हर्ष से युक्त हो राजा शत्रुघ्न ने कहा-
‘‘आपने जैसी आज्ञा दी है वैसा ही हम लोग करेंगे’’ इत्यादि। इसके बाद वे महामना सातों मुनि आकाश में उड़कर विहार कर गये। वे सप्तर्षि निर्वाण क्षेत्रों की वंदना करके अयोध्या में सीता के घर उतरे। अत्यधिक हर्ष को धारण करने वाली एवं श्रद्धा आदि गुणों से सुशोभित सीता ने उन्हें विधिपूर्वक उत्तम आहार दिया। जानकी के नवधाभक्ति से दिये गये सर्वगुणसम्पन्न आहार को ग्रहण कर उसे शुभाशीर्वाद देकर वे मुनि आकाश मार्ग से चले गये।
अनन्तर शत्रुघ्न ने नगर के भीतर और बाहर सर्वत्र जिनेंद्र भगवान की प्रतिमाएं विराजमान करायीं तथा ईतियों को दूर करने वाली सप्तर्षियों की प्रतिमाएं भी चारों दिशाओं में विराजमान करायीं। उस समय वहाँ पर सर्वप्रकार से सुभिक्ष, क्षेम और शांति का साम्राज्य हो गया। तब राजा शत्रुघ्न निर्विघ्नरूप से राज्य का संचालन करते हुए और प्रजा का पुत्रवत् पालन करते हुए सुखपूर्वक मथुरा नगरी में रहने लगे।
श्रीरामचन्द्र अपने सिंहासन पर विराजमान हैं। सखियों सहित सीता वहाँ आकर विनयपूर्वक नमस्कार कर यथोचित आसन पर बैठ जाती हैं पुनः निवेदन करती हैं-
‘‘हे नाथ! रात्रि के पिछले प्रहर में आज मैंने दो स्वप्न देखे हैं सो उनका फल आपके श्रीमुख से सुनना चाहती हूँ।’’
‘‘कहिए प्रिये! वो स्वप्न कौन-कौन से हैं ?’’ ऐसा राम पूछते हैं।
‘‘प्रथम ही मैंने दो अष्टापद अपने मुख में प्रविष्ट होते देखे हैं। हे नाथ! पुनः मैंने देखा है कि मैं पुष्पक विमान के शिखर से नीचे गिर पड़ी हूँ।’’
तब राम कहते हैं-
‘‘हे प्रिये! अष्टापद युगल को देखने से तुम शीघ्र ही युगल पुत्र को प्राप्त करोगी…..।’’ पुनः राम किंचित् विराम लेते हैं कि सीता संदिग्ध हो पूछती हैं-
‘‘स्वामिन् ! द्वितीय स्वप्न का फल…..।’’
‘‘सुन्दरि! यद्यपि पुष्पक विमान से गिरना अच्छा नहीं है फिर भी चिंता की बात नहीं है क्योंकि शांति कर्म तथा दान करने से पाप ग्रह शांति को प्राप्त हो जाते हैं।’’
सीता हर्ष एवं विषाद को धारण करती हुई वहाँ से आ जाती हैंं और धर्मकार्य में तत्पर हो जाती हैं।
इधर बसंत ऋतु सर्वत्र अपना प्रभाव पैâला रही है। कुछ समय बाद सीता को गर्भ के भार से भ्रांत देख रामचन्द्र पूछते हैं-
‘‘हे कांते! तुम्हें क्या अच्छा लगता है ? सो कहो मैं अभी तुम्हारी इच्छा पूरी करूँगा। तुम ऐसी म्लानमुख क्यों हो रही हो ?’’
सीता कहती है-
‘‘हे नाथ! मैं पृथ्वीतल पर स्थित अनेक चैत्यालयों के दर्शन करना चाहती हूँ। पंच वर्णमय रत्नों की प्रतिमाओं की वंदना करके रत्न और सुवर्णमयी पुष्पों से उनकी पूजा करना चाहती हूँ। हे देव! इसके सिवाय और मेरी कुछ भी इच्छा नहीं है।’’
इतना सुनते ही रामचन्द्र हर्षितमना द्वारपालिनी को आदेश दे देते हैं-
‘‘हे कल्याणि! अविलम्ब ही अयोध्या के जिन मंदिरों को एवं निर्वाण क्षेत्रों के जिन मंदिरों को नाना उपकरणों से विभूषित करो और उत्तम पूजन सामग्री तैयार कराओ।’’
पुनः श्रीराम सीता के साथ उत्तम हाथी पर सवार हो समस्त परिजनों को साथ लेकर बड़े वैभव के साथ उद्यान में जाते हैं। वहाँ पर सरोवर में चिरकाल तक क्रीड़ा कर अपने हाथों से सुन्दर फूल तोड़कर और दिव्य सामग्री लेकर सीता के साथ मिलकर जिनेन्द्रदेव के बिम्बों की महापूजा करते हैं। आठ हजार रानियों से घिरे राम सर्वत्र पुण्य तीर्थों की वंदना कराते हुए और सीता के साथ जिन पूजा को करते हुए सीता का दोहला पूर्ण करते हैं।
कुछ दिन बाद सीता की दाईं आँख फड़कने से वह चिंतातुर हो उठती हैं। तब गुणमाला आदि रानियाँ उसे शांति विधान आदि कार्यों के लिए प्रेरणा देती हैें। सीता कोषाध्यक्ष को बुलाकर कहती हैं-
‘‘हे भद्र! आज से प्रत्येक जिनालय में महामहिम पूजन शुरू करा दो और किमिच्छक दान देना प्रारंभ कर दो।’’
‘‘जो आज्ञा महारानी जी’’ ऐसा कहकर वह भद्रकलश कोषाध्यक्ष दूध, दही आदि से श्री जिनदेव का महाभिषेक प्रारंभ करा देता है और दान देना भी शुरू कर देता है।
इधर सीता दान आदि क्रियाओं में आसक्त हैं। उधर द्वारपाल से आज्ञा लेकर अयोध्या के कुछ प्रमुख लोग राज-दरबार में आते हैं। यद्यपि ये लोग रामचन्द्र के तेज के सामने कुछ भी कहने में असमर्थ हो जाते हैं फिर भी बार-बार राम द्वारा सान्त्वना दी जाने पर जैसे-तैसे एक विजय नामक मुखिया हाथ जोड़कर निवेदन करता है-
प्रजा द्वारा सीता के शील पर प्रश्नचिन्ह लगाना-
‘‘हे नाथ! हे पुरुषोत्तम! मेरी कहने की इच्छा व शक्ति न होते हुए भी मैं लाचार हो निवेदन कर रहा हॅूं। हे राम! इस समय समस्त प्रजा मर्यादा से रहित हो रही है। तरुण पुरुष किसी की स्त्री का हरण कर लेते हैं पुनः उसके पति उसे वापस लाकर घर में रख लेते हैं और आपका उदाहरण सामने रखते हैंं। स्वामिन् ! जिधर देखो उधर एक ही चर्चा सुनने में आती है कि सर्वशास्त्रज्ञ महाविद्वान् महाराजा श्री रामचन्द्र रावण के द्वारा हरी गई सीता को वापस वैâसे ले आये ? हे देव! यदि आपके राज्य में यह एक दोष न होता तो यह राज्य इन्द्र के साम्राज्य को भी निलंबित कर देता।’’
इतना सुनते ही राम अवाक् रह जाते हैं-
‘ओह! यह दारुण संकट वैâसा ?……’’
रामचन्द्र प्रजा को सान्त्वना देकर विदा करते हैं और आप स्वयं लक्ष्मण आदि प्रधान पुरुषों को बुला लेते हैं और कहते हैं-
‘‘भाई! सीता के प्रति जनता अपवाद की चर्चा कर रही है। ओह!……एक ओर लोकनिंदा और दूसरी ओर निकाचित स्नेह । भाई! मैं इस समय गहरे संकट में आ फंसा हूँ।’’
लक्ष्मण इतना सुनते ही क्रोध से तमतमा उठते हैं-
‘‘अरे! महासती सीता के बारे में कौन अपनी जिह्वा खोल सकता है ? मैं उसकी जिह्वा के सौ-सौ टुकड़े कर दूँगा। सीता के प्रति द्वेष करने वालों को मैं आज ही यमराज के मुख में पहुँचा दूँगा।’’
रामचन्द्र कहते हैं-
‘‘हे सौम्य! शांत होओ और मेरी बात सुनो! मैं सीता के स्नेह में अपने उज्ज्वल रघुवंश को मलिन नहीं कर सकता हूँ अतः सीता का त्याग करना ही श्रेयस्कर है।’’
‘‘हे राम! लोकापवाद के भय से आप पवित्र शीलशिरोमणि सीता को न छोड़िये।’’
‘‘लक्ष्मण! मैंने जो निर्णय ले लिया वही होगा।’’
‘‘भाई! आप यह क्या कह रहे हो ?’’
श्रीराम का सीता को वन में छोड़ने का आदेश-
इसी बीच राम कृतांतवक्त्र सेनापति को बुलाकर आदेश दे देते हैं-
‘‘सेनापते! तुम शीघ्र ही निर्वाण क्षेत्र की वंदना के बहाने सीता को कहीं घोर महाअटवी में छोड़कर आ जाओ।’’
‘जो आज्ञा स्वामिन्!’’ इतना कहकर सेनापति चल देता है।
अनेक रानियों और सखियों की प्रार्थना को ठुकरा कर सीता यही कहती है-
‘‘बहनों! पतिदेव की यही आज्ञा है कि मैं अकेली ही तीर्थवंदना के लिए जाऊँ अतः तुम सब क्षमा करो और वापस जाओ।’’
सिद्धों को नमस्कार कर सीता रथ में बैठ जाती हैं और रथ दु्रतगति से चल पड़ता है। मार्ग में कुछ क्षेत्रों की वंदना कराकर सेनापति निर्जन वन में रथ लेकर पहुँचता है और वहाँ पर उतर कर आँखों से अविरल अश्रु धारा की वर्षा करते हुए कहता है-
‘‘हे स्वामिनि! चूँकि आप रावण द्वारा हरी गई थीं इस कारण लोग आपका अवर्णवाद कर रहे हैं। यह बात रामचन्द्र को विदित हो चुकी है अतः अपकीर्ति के डर से उन्होंने दोहलापूर्ति के बहाने तुम्हें यहाँ निर्जन वन में छोड़ आने को मुझे आदेश दिया है।
इतना सुनते ही सीता अकस्मात् शोक से मूर्च्छित हो जाती है। होश आने पर कहती है-
‘‘हे सेनापते! तुम मुझे कुछ पूछने के लिए एक बार श्रीराम का दर्शन करा दो।’’
‘‘हे देवि! मुझे बस इतनी ही आज्ञा है। अब मैं कुछ भी करने में असमर्थ हूँ। हाय! इस किंकरता को धिक्कार हो! सौ-सौ बार धिक्कार हो जो कि मुझे आज यह अधर्म कार्य करने का अवसर आया है।’’
पुनः रोते हुए टूटे-फूटे अक्षरों में सीता कहती है-
‘‘हे सेनापते! तुम जाकर श्रीराम से मेरा एक समाचार अवश्य कह देना कि जैसे आपने लोकापवाद के डर से मुझे छोड़ दिया है वैसे ही सम्यग्दर्शनरूपी रत्न को, जैन धर्म को न छोड़ देना।’’
सीता का घोर अटवी में करुण क्रन्दन एवं राजा वङ्काजंघ का आगमन—
इधर सेनापति नमस्कार कर चला जाता है। उधर सीता करुण क्रंदन करते हुए विलाप करती है-
‘‘हे देव! आपने मुझे धोखा क्यों दिया ?
अरे दुर्दैव! तुझे मेरी दशा पर दया नहीं आई ? ओह! मैंने पूर्वजन्म में क्या पाप किया था ? क्या किसी मुनि को झूठा दोष लगाया था ?…..हाय मातः! यह क्या हुआ ? मैं कहाँ जाऊँ ? क्या करूँ ? किसकी शरण लूँ ? हे नाथ! आप वैâसे निष्ठुर हो गये ? ऐसा ही करना था तो आपने युद्ध में असंख्य प्राणियों का संहार कर मेरी रक्षा क्यों की थी ?…..अरे भक्त लक्ष्मण! हे मात अपराजिते! हे भाई भामंडल! हे पुत्र हनुमान! तुम सब आज ऐसे वैâसे हो गये हो ? ओह! विधाता तू कितना निष्ठुर है…… ?’’
उधर कृतांतवक्त्र के समाचार से रामचन्द्र एक बार आहत हो उठते हैं, मूर्च्छित हो जाते हैं पुनः सचेत हो कुछ संतोष को धारण करते हुए अपने राज कार्य में लग जाते हैं।
अकस्मात् राजा वङ्काजंघ के कुछ लोग सीता के सामने आकर पूछते हैं-
‘‘हे देवि! आप कौन हो ? और यहाँ ऐसी अवस्था में क्यों बैठी हो ?’’
उन्हें देखते ही सीता घबराकर उन्हें अपने आभूषण देने लगती है। इसी बीच राजा वङ्काजंघ आ जाते हैं और पूछते हैं-
‘‘हे भगिनि! तुम कौन हो ? किस निर्दयी ने तुम्हें यह वन दिखाया है ? डरो मत, कहो, कहो। मैं तुम्हारा भाई हूँ।’’
सीता अश्रु रोककर कहती है-
‘‘हे भाई! मैं राजा जनक की पुत्री, भामंडल की बहन, राजा दशरथ की पुत्रवधू और श्रीरामचन्द्र की रानी सीता हूँ।’’
पुनः धीरे-धीरे वह दशरथ की दीक्षा से लेकर अपने दोहदपूर्ति तक सारे समाचार सुना देती है। राजा वङ्काजंघ कहते हैं-
‘‘बहन! संसार में कर्मों की ऐसी ही विचित्र गति है अतः धैर्य धारण करो और मेरे साथ चलो, तुम मेरी धर्म बहन हो।’’
‘‘हाँ! तुम मेरे भाई हो, सच में तुम पूर्वभव में मेरे भाई रहे होंगे अन्यथा इस निर्जन वन में मेरे सहायक वैâसे बनते ?’’
सीता का राजा वङ्काजंघ के साथ पुण्डरीकपुर आगमन एवं पुत्रजन्म—
वङ्काजंघ सीता को साथ लेकर पुण्डरीकपुर में आ जाते हैं। कुछ ही दिनों में श्रावणमास की पूर्णिमा के दिन सीता युगल पुत्रों को जन्म देती है। उनके नाम अनंगलवण और मदनाँकुश रखे जाते हैं। वे बालक दूज के चन्द्रमा की तरह कला, गुण और शरीर से बढ़ते हुए सीता के शोक को भुला देते हैं। एक समय ‘सिद्धार्थ’ नामक क्षुल्लक राजा वङ्काजंघ के यहाँ आते हैं। वे इन दोनों बालकों को समस्त शास्त्र और शस्त्र कला में निष्णात कर देते हैं। वे क्षुल्लक प्रतिदिन तीनों कालों में मेरुपर्वत की वंदना करते रहते हैंं। दोनों भाई लवण और अंकुश सूर्य के तेज और प्रताप को भी लल्जित करते हुए यौवन अवस्था में प्रवेश करते हैं।
लवण एवं मदनांकुश का विवाह—
एक बार पृथिवीपुर के राजा पृथु के दरबार में दूत प्रवेश करता है और आज्ञा पाकर निवेदन करता है-
‘‘महाराज’’! राजा वङ्काजंघ ने सीता के पुत्र लवण को अपनी पुत्री शशिचूला देना निश्चित किया है अब वे अंकुश के लिए आपकी पुत्री कनकमाला को चाहते हैं, क्योंकि वे दोनों का विवाह एक साथ……।’’
बीच में ही बात काटकर राजा पृथु कहते हैं-
‘‘अरे दूत! चुप रह। वर के नव गुण कहे हैं-कुल, शील, धन, रूप, समानता, बल, अवस्था, देश और विद्या। इनमें से सर्वप्रथम कुल गुण ही प्रधान है और जिसमें वह नहीं है उसे अपनी कन्या देना भला कैसे संभव है ?’’
दूत वापस जाकर राजा वङ्काजंंघ को सर्व समाच्ाार दे देता है। राजा वङ्काजंघ पृथिवीपुर पर चढ़ाई करके उसे घेर लेते हैं। समाचार विदित होते ही लव-कुश भी आ जाते हैं और युद्ध में ललकार कर कहते हैं-
‘‘अरे पृथु! ठहर, क्यों भागता है ? आज हम दोनों तुझे युद्ध में ही अपने कुल का परिचय करायेंगे।’’
पृथु वापस मुड़कर क्षमा याचना करते हुए उन दोनों की प्रशंसा करते हैं और सम्मान के साथ नगर में प्रवेश कराते हैं।
अनंतर राजा पृथु की पुत्री और तमाम सेना प्राप्त कर ये वीर अन्य तमाम देशों को जीतने के लिए निकल पड़ते हैं। कुछ दिनों बाद दिग्विजय करके आते हुए वीर पुत्रों को देखकर माता सीता हर्ष से फूल जाती हैं। इधर वङ्काजंघ भी अपनी पुत्रियों का विवाह वीर लवण के साथ सम्पन्न कर देते हैं।
रत्नजटित सिंहासन पर लव-कुश विराजमान हैं। नारद प्रवेश करते हैं, देखते ही दोनों वीर उठकर खड़े होकर विनय सहित घुटने टेक कर उन्हें नमस्कार कर उच्च आसन प्रदान करते हैं। प्रसन्न मुद्रा में स्थित नारद कहते हैं-
‘‘राजा राम और लक्ष्मण का जैसा वैभव है सर्वथा वैसा ही वैभव आप दोनों को शीघ्र ही प्राप्त हो।’’
वे वीर पूछते हैं-
‘‘भगवन् ! ये राम-लक्ष्मण कौन हैं ? वे किस कुल में उत्पन्न हुए हैं ?’’
आश्चर्यमय मुद्रा को करते हुए कुछ क्षण स्तब्ध रहकर नारद कहते हैं-
‘‘अहो! मनुष्य भुजाओं से मेरु को उठा सकता है, समुद्र को तैर सकता है किन्तु इन दोनों के गुणों का वर्णन नहीं कर सकता है। यह सारा संसार अनंतकाल तक अनंत जिह्वाओं के द्वारा भी उनके गुणों को कहने में समर्थ नहीं है। फिर भी मैं उसका नाममात्र ही तुम्हें बता देता हूँ। सुनो, अयोध्या के इक्ष्वाकुवंश के चन्द्रमा दशरथ के पुत्र श्री राम और लक्ष्मण हैं।…दशरथ की दीक्षा के बाद भरत का राज्याभिषेक होता है और राम-लक्ष्मण, सीता वन को चले जाते हैं। वहाँ रावण सीता को हर ले जाता है पुनः रामचन्द्र, हनुमान, सुग्रीव आदि के साथ रावण को मार कर सीता वापस ले आते हैं। अयोध्या में आकर पुनः राज्य-संचालन करते हैं।
श्रीराम के पास सुदर्शन चक्र है तथा और भी अनेक रत्न हैं जिन सबकी एक-एक हजार देव सदा रक्षा करते रहते हैंं। उन्होंने प्रजा के हित के लिए सीता का परित्याग कर दिया है ऐसे राम को इस संसार में भला कौन नहीं जानता है ?’’
यह सब सुनकर अंकुश पूछता है-
‘‘हे ऋषे! राम ने सीता किस कारण छोड़ी सो तो कहो, मैं जानना चाहता हूँ।’’
नारद एक क्षण आकुल हो उठते हैं पुनः अश्रुपूर्ण नेत्र होकर कहते हैं-
‘‘जो जिनवाणी के समान पवित्र हैं ऐसी सीता का पता नहीं किस जन्म के पाप का उदय हो आया कि जनता के मुख से उसका अपवाद सुन मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने गर्भवती अवस्था में ही उसे वन में भेज दिया। ओह!…पता नहीं आज वह जीवित है या नहीं ?…..’’
इतना कहते हुए नारद का कंठ रुंध जाता है और वो आगे बोल नहीं पाते हैं। पुनः हँसते हुए अंकुश कहते हैं-
‘‘हे ब्रह्मचारिन् ! भयंकर वन में सीता को छोड़ते हुए राम ने कुल के अनुरूप कार्य नहीं किया। अहो! लोकापवाद के निराकरण के अनेक उपाय हो सकते हैं पुनः उन्होंने सीता को ऐसा कष्ट क्यों दिया ?’’ लवण कुमार पूछते हैं-
‘‘हे मुने! कहो अयोध्या यहाँ से कितनी दूर है।’’
‘‘अयोध्या यहाँ से ६० योजन दूर है।’’
‘‘ठीक है, हम राम-लक्ष्मण को जीतने के लिए प्रस्थान करेंगे।’’
लव-कुश के युद्ध हेतु अयोध्या प्रस्थान के लिए कहने पर सीता ने सारा वृतान्त बताया-
लव-कुश राजा वङ्काजंघ से कहकर सिंधु, कलिंग आदि देश में दूत भेजकर राजाओं को बुलाकर प्रस्थान की भेरी बजवा देते हैं। राम के प्रति चढ़ाई सुन सीता रोने लगती है। यह देख सिद्धार्थ क्षुल्लक कहते हैं-
‘‘नारद ऋषे! आपने यह क्या किया ? ओह! आपने कुटुम्ब में ही भेद डाल दिया।’’ नारद कहने लगे-
‘‘मैंने तो मात्र राम-लक्ष्मण की चर्चा की थी।….फिर भी डरो मत, कुछ भी बुरा नहीं होगा।’’
दोनों वीर माता को रोती हुई देखकर पूछते हैं-
‘‘हे अम्ब! क्यों रो रही हो ? अविलम्ब कहो, किसने तुम्हें शोक उत्पन्न कराया है ? कौन यमराज का ग्रास बनना चाहता है ?’’
सीता धैर्य का अवलम्बन लेकर कहती है-
‘‘पुत्रों! आज मुझे तुम्हारे पिता का स्मरण हो आया है इसलिए अश्रु आ गये हैं।’’
आश्चर्यचकित हो दोनों बालक पूछते हैं-
‘‘मातः! हमारे पिता कौन हैं ? और वे कहाँ हैं ?’’
तब सीता सोचती है अब रहस्य छिपाने का समय नहीं है और वह स्पष्टतया कहती है-
‘‘प्यारे बेटे! ये राम ही तुम्हारे पिता हैं और वह सीता मैं ही हूँ। राजा वङ्काजंघ भामंडल के समान मेरा बंधु हुआ है और मेरे गर्भ से तुम दोनों वीर जन्मे हो। आज तुम्हारी रणभेरी सुन कर मैं घबरा रही हूँ। बेटे! क्या मैं पति की अमंगलवार्ता सुनूँगी ? या तुम्हारी ? या देवर की ?…..’’
सर्व वृत्तांत सुनकर लव-कुश के हर्ष का पार नहीं रहता है। वे कहने लगते हैं-
‘‘अहो! तीन खण्ड के स्वामी बलभद्र श्रीरामचन्द्र के हम सुपुत्र हैं।’’ पुनः माता से कहते हैं-
‘‘मातः! मैं वन में छोड़ी गई हूँ’’ तुम ऐसा विषाद अब मत करो। तुम शीघ्र ही राम-लक्ष्मण का अहंकार खण्डित देखो।’’
सीता विह्वल हो कहती है-
‘‘प्यारे पुत्रों! पिता के साथ विरोध करना ठीक नहीं है अतः तुम दोनों बहुत ही विनय के साथ जाकर उनका दर्शन करो, यही बात न्यायसंगत है।’’
दोनों वीर कहते हैं-
‘‘हे मातः! आज वे हमारे शत्रुस्थान को प्राप्त हैं उन्होंने अकारण ही आपका तिरस्कार किया है अतः हम उनसे यह दीन वचन नहीं कह सकते हैं कि हम आपके पुत्र हैं। अब तो संग्राम में ही परिचय होगा। संग्राम में ही हम लोगों को मरण भी इष्ट है किन्तु माता के अपमान को सहन कर जीवित रहना हमें इष्ट नहीं है।’’
लव-कुश का युद्ध हेतु प्रस्थान एवं श्रीराम लक्ष्मण से युद्ध-
सीता और सिद्धार्थ उन पुत्रों को तरह-तरह से समझा रहे हैं किन्तु वे युद्ध के लिए कमर कस चुके हैं। सिद्धों की पूजा कर माता को सान्त्वना देते हुए नमस्कार करते हैं-
‘‘बेटे! जिनेन्द्रदेव सर्वथा तुम्हारी रक्षा करें और परस्पर में मंगलक्षेम होवे।’’
माता के शुभाशीष को प्राप्त कर वे प्रस्थान कर देते हैंं। इधर सिद्धार्थ और नारद शीघ्र ही भामण्डल को खबर भेज देते हैंं। राजा जनक के साथ भामण्डल वहाँ आते हैं। कंठ फाड़-फाड़कर रोती हुई सीता को सान्त्वना देकर विमान में बिठाकर युद्ध स्थल में आते हैं। आकाशमार्ग में विमान को ठहरा कर दोनों का संग्राम देख रहे हैं। हनुमान को भेद मालूम होते ही वह भी लव-कुश की सेना में आ जाता है।
आपस में दिव्य शस्त्रों द्वारा घोर युद्ध चल रहा है। राम के साथ लवण कुमार और लक्ष्मण के साथ अंकुश भिड़े हुए हैं। एक दूसरे को ललकार रहे हैंं। रामचन्द्र कभी पराजित होते हैं तो लज्जित हो जाते हैं, हँसकर पुनः शस्त्र प्रहार करते हैं। इधर लव-कुश जानते हैं कि ये मेरे पिता और चाचा हैं अतः संभल कर प्रहार करते हैं किन्तु राम-लक्ष्मण को विदित न होने से वे शत्रु मानकर ही प्रहार कर रहे हैं-
राम-लक्ष्मण सोच रहे हैं-
‘‘क्या कारण है ? कि जो मेरे अस्त्र-शस्त्र निष्फल ही होते जा रहे हैं और शरीर में भी शिथिलता आ रही है ?’’
‘‘क्या कहॅूं भाई ? मेरी भी यही स्थिति है कुछ समझ में नहीं आता है कि क्या करना है ?’’
पुनः कुछ सोचकर युद्ध का अंत करने के लिए लक्ष्मण चक्ररत्न का स्मरण करते हैं और उसे घुमाकर अंकुश के ऊपर छोड़ देते हैं। वह अंकुश के पास पहुँचकर निष्प्रभ हो जाता है पुनः वापस लक्ष्मण के हस्ततल में आ जाता है। कई बार चक्ररत्न का वार होने पर भी जब वह निष्फल हो जाता है तब इधर अंकुश कुमार अपने धनुष दण्ड को ऐसा घुमाते हैं कि वह चक्र की शंका उत्पन्न कर देता है। राम-लक्ष्मण कहने लगते हैं-
‘‘क्या बात है ? केवली भगवान् के वचन असत्य हो जायेंगे क्या ? जान पड़ता है कि ये दोनों दूसरे ही बलभद्र और नारायण उत्पन्न हुए हैं।’’
सिद्धार्थ क्षुल्लक का युद्धस्थल पर आगमन एवं पिता-पुत्र मिलन-
लक्ष्मण को लज्जित और निश्चेष्ट देख नारद की सम्मति से सिद्धार्थ क्षुल्लक वहाँ आकर कहते हैं-
‘‘हे देव! नारायण तो तुम्हीं हो, जिनशासन की कही बात अन्यथा वैâसे हो सकती है ? भाई! ये दोनों कुमार सीता के लव-कुश नाम के दो पुत्र हैं कि जिनके गर्भ में रहते हुए उसे वन में छोड़ दिया गया था।’’
इतना सुनते ही लक्ष्मण के हाथ से शस्त्र और कवच गिर जाते हैं और राम तो धड़ाम से पृथ्वी तल पर गिर मूचर््िछत हो जाते हैं। शीतोपचार से सचेत होते ही राम-लक्ष्मण पुत्रों से मिलने के लिए आगे बढ़ते हैं। उधर लव-कुश भी रथ से उतर कर पिता के सम्मुख बढ़ते हैं। दोनों ही वीर पिता के चरणों में गिर नमस्कार करते हैं और श्रीराम अपनी भुजाओं से उन्हें उठाकर हृदय से लगा लेते हैं। तत्पश्चात् लक्ष्मण भी उनका आलिंगन करते हैं। भामण्डल भी उन्हें छाती से चिपकाकर मस्तक पर हाथ फिराते हैं। वहीं युद्धस्थल में ही पिता-पुत्र के मिलन की प्रसन्नता में मंगलबाजों की ध्वनि होने लगती है। पिता-पुत्र का मिलन होते ही सीता संतुष्टचित्त हुई अपनी पुत्रवधुओं के साथ पुण्डरीकपुर चली जाती है। रामचन्द्र दोनोें पुत्रों और भाई के साथ अपने पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या में प्रवेश करते हैं। उस समय के दृश्य को देखने के लिए वहाँ की प्रजा, महिलाएं और बालक-बालिकाएं तो पागलवत् चेष्टा करते ही हैं आश्चर्य यह कि वृद्ध लोग भी धक्का-मुक्की को सहन करते हुए प्राणों की परवाह न करके उनके दर्शनों के लिए पागल हो जाते हैं।
रामचन्द्र का सीता एवं पुत्रों सहित अयोध्या में प्रवेश, अयोध्या में उत्सव का वातावरण-
कोई महिला आँख का अंजन ललाट में लगाकर दौड़ आती है तो कोई दुपट्टी को पहन कर और लहँगा को ओढ़कर चल देती है। कोई अपने बच्चे को छोड़कर किसी अन्य के बालक को ही लेकर चल पड़ती है, तो कोई पति को आधा भोजन परोस कर ही भाग आती है। हल्ला-गुल्ला से उत्पन्न हुआ शब्द भूतल और आकाश मंडल को एक कर देता है।
‘‘अरे वृद्धे! हट, हट, मुझे भी देखने दे। तू यहाँ से चली जा अन्यथा गिरकर मर जायेगी।’’
‘‘अरे, रे, रे! मातः! मैं गिर गई, कोई मुझे सहारा दे दो।’’
‘‘सरको, सरको, जरा दूर हटो, मुझे भी देखने दो।’’
‘‘हाँ, हाँ देखो, जो ये रामचन्द्र जी के अगल-बगल में बैठे हैं वे ही सीता के पुत्र लव-कुश हैं।’’
‘‘बहन! कौन तो लव है और कौन कुश है ? दोनों तो एक सरीखे हैं।’’
‘‘बहन! देखो ना, इन दोनों का मुख कमल श्रीरामचन्द्र जैसा ही है।’’
‘‘हाँ बहन देखो, इतना भयंकर युद्ध करने के बाद भी दोनों अक्षत शरीर हैं। बड़े पुण्यशाली हैं ये।’’
‘‘ओहो! कितने सुन्दर हैं ये बालक।’’
‘‘कहीं इन्हें नजर न लग जाये, अतः इनके ऊपर ये सरसों के दाने बिखेर दे।’’
‘‘अरी माँ! तू यहाँ भीड़ में क्यों आ गई ? क्या मरना है ?’’
‘‘अरी बेटी! मुझे भी जरा देख लेने दे।’’
‘‘हाँ, हाँ ले आजा, मैंने तो दर्शन कर लिये।’’
‘‘अरी सखी! मैं एक बार इन दोनों का चेहरा और देख लूँ।’’
‘‘अरी पगली! तू तो बहुत देर से देख रही है। अब दूसरों को भी दर्शन कर लेने दे।’’
रामचन्द्र-महल में पहुँचकर स्नान आदि से निवृत्त हो दोनों पुत्रों के साथ भोजन करते हैं। पुनः राजा वङ्काजंघ को बुलाकर सम्मानपूर्वक कहते हैं-
‘‘आप मेरे लिए भामण्डल के समान हैं। अहो! संकट में सती सीता के भाई बनकर आपने हमारा बहुत बड़ा उपकार किया है कि जिससे इन पुत्रों के मुख कमल को मैं देख सका हूँ।’’
अयोध्या में सर्वत्र खुशियाँ मनाई जा रही हैं। मंगलवाद्य, तोरण, बंदनवार और फूलों से अयोध्या एक अपूर्व ही शोभा को धारण कर रही है।