मेघ के समान दुंदुभि का शब्द सुनकर लक्ष्मण विराधित से पूछते हैं- ‘‘कहो, यह किसका शब्द है?’’ विराधित कहता है- ‘‘हे देव! वानर वंशियों का स्वामी सुग्रीव आपके पास आया हुआ है यह उसी की सेना का शब्द है।’’ इसी वार्तालाप के मध्य सुग्रीव राजभवन में प्रवेश करता है। लक्ष्मण आदि उसका आलिंगन कर अमृततुल्य वाणी से परस्पर वार्तालाप करते हैं तदनन्तर एक वृद्ध सज्जन रामचन्द्र से सुग्रीव का परिचय देते हुए कहते हैं- ‘‘हे नाथ! यह किष्किन्ध नगर का राजा सुग्रीव है। एक समय कोई दुष्ट मायावी विद्याधर इसी जैसा रूप बनाकर इसके अन्तःपुर में घुस आया। उस समय उसकी रानी सुतारा उसे कृत्रिम समझकर भयभीत हो अपने परिजनों से कहती है कि यद्यपि इसका रूपरंग सभी मेरे पति के सदृश है फिर भी जैसे चिह्न, व्यंजन आदि मेरे पति के हाथ आदि में हैं वैसे इसके नहीं हैं। इसी बीच सत्य सुग्रीव भी वहाँ आ जाता है। वह अपने जैसे रूपधारी को देख गर्जना करके उसे पराजित करना चाहता है कि वह भी गर्जना करने लगता है किन्तु युद्ध में सत्य सुग्रीव ही कहीं न मारा जाय इस कारण युद्ध रोक दिया जाता है। इस समस्या में मंत्री आदि लोग संदिग्ध होकर मंत्रणा करके यह निर्णय करते हैं कि ‘लोक में गोत्र की शुद्धि दुर्लभ है अतः उसकी रक्षा करना अपना कर्तव्य है।’’ इसलिए वे लोग नगर के दक्षिण भाग में कृत्रिम सुग्रीव को और उत्तर भाग में सत्य सुग्रीव को स्थापित कर देते हैं। सात सौ अक्षौहिणी प्रमाण आधी सेना और अंग पुत्र पिता की आशंका से कृत्रिम सुग्रीव के पास चला जाता है और आधी सेना के साथ अंगद पुत्र अपने पिता के पास चला जाता है। सुग्रीव के बड़े भाई बालि ने दीक्षा ले ली थी। उनका पुत्र चन्द्ररश्मि यह आदेश दे देता है कि सही निर्णय होने तक दोनों सुग्रीव में से जो भी सुतारा के भवन की ओर आयेगा वह मेरे द्वारा बाध्य होगा। इस संकट में पड़े हुए सुग्रीव का संकट हनुमान आदि भी दूर नहीं कर सके हैं अब यह आपकी शरण में आया है सो आप ही इसके दुःख को दूर करने में समर्थ हैं। इतना सुनकर रामचन्द्र मन में सोचते हैं- ‘‘ओह! यह तो मुझ से भी अधिक दुःखी है, अहो! इसका शत्रु तो प्रत्यक्ष में ही इसे बाधा पहुँचा रहा है।’’ पुनः रामचन्द्र और लक्ष्मण विराधित आदि के साथ मंत्रणा करके सुग्रीव को आश्वासन देते हुए कहते हैं- ‘‘भद्र! मैं तुम्हारे शत्रु को मारकर तुम्हारी प्रिया और राज्य को वापस दिला दूँगा। बाद में यदि तुम मेरी प्राणाधिका प्रिया का पता लगा सको तो उत्तम बात है।’’ सुग्रीव कहता है- ‘‘नाथ! यदि मैं सात दिन के अंदर सीता का पता न लगा दूँ तो मैं अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगा।’ राम और सुग्रीव जिनालय में जिनधर्मानुसार शपथ ग्रहण करते हैं कि ‘‘हम दोनों परस्पर में द्रोह रहित एक-दूसरे के मित्र हैं।’’ पुनः महासामंतों से सेवित राम-लक्ष्मण सुग्रीव के साथ किष्ंकिधपुर चल देते हैं। वहाँ पर पहुँचकर दोनों सुग्रीव का युद्ध शुरू हो जाता है। एक बार तो राम भी संशय में पड़ जाते हैं कि वास्तव में सुग्रीव कौन है? और मायावी कौन है? युद्ध में सुग्रीव को मायावी सुग्रीव पराजित कर देता है वह मूचछत हो जाता है तब लोग उसे शिविर में ले आते हैं। होश आने पर वह रामचन्द्र से कहता है- ‘‘नाथ! आपने हाथ में आए हुए शत्रु को कैसे छोड़ दिया? ओ हो!! मालूम पड़ता है कि मेरे दुःखों का अंत अब नहीं होगा।’’ रामचन्द्र कहते हैं- ‘‘भद्र! कहीं तेरा ही वध न हो जाये इसलिए मैं आज तटस्थ रहा हूँ। चूँकि जिनागम का उच्चारण कर तू मेरा मित्र बना है।’’ पुनः द्वितीय दिवस लक्ष्मण वास्तविक सुग्रीव का आलिंगन कर युद्ध में जाने से उसे रोक लेते हैं उधर रामचन्द्र कृत्रिम सुग्रीव का सामना करते हैं उस समय रामचन्द्र को बलभद्र समझ वैताली विद्या उस मायावी के शरीर से निकलकर भाग जाती है और वह अपने असली रूप में दिखने लगता है। सारे विद्याधर चिल्ला उठते हैं- ‘अरे, अरे! यह साहसगति नाम का विद्याधर है जो कि माया से सुग्रीव बना हुआ था। इसी बीच रामचन्द्र उसके साथ घोर युद्ध कर अन्त में उसे पृथ्वी का आलिंगन करा देते हैं। साहसगति को मरा हुआ सुनकर सुग्रीव हर्ष से विभोर हो लक्ष्मण सहित राम की पूजा करता है और अपनी सुतारा को तथा राज्य को पाकर कृतकृत्य हो जाता है। रामचन्द्र चन्द्रप्रभ जिनालय में जाकर भगवान की पूजा भक्ति कर वहीं ठहर जाते हैं और विराधित आदि विद्याधर उस चैत्यालय के बाहर ही अपनी सेना ठहरा लेते हैं। अनंतर सुग्रीव अपनी चंद्रा, हृदयावली आदि तेरह पुत्रियाँ राम को समर्पित करते हैं। वे कन्यायें वीणा वादन, मधुर गान आदि से राम को सुखी करना चाहती हैं किन्तु रामचन्द्र सीता के स्थान के सिवाय किसी की तरफ आँख उठाकर देखते भी नहीं हैं। यदि कदाचित् किसी से बोलते भी हैं तो सीता समझकर ही बोलते हैं। एक समय रामचन्द्र उद्विग्न चित्त हो सोच रहे हैं- ‘‘क्या सुग्रीव को भी सीता का पता नहीं लगा? क्या वह मृत्यु को प्राप्त हो गई है या जीवित है? अहो, देखो सुग्रीव अपनी पत्नी में आसक्त हो मेरे दुःख को भूल गया है।…….ओह!!…..अब मुझे वह मेरी प्रिया मिलेगी या नहीं?….’’ सोचते-सोचते उनकी आँखें सजल हो जाती हैं और शरीर शिथिल हो जाता है। उस समय लक्ष्मण अग्रज के अभिप्राय को समझकर क्षुभितचित्त हो नंगी तलवार हाथ में लेकर सुग्रीव के भवन में पहुँच जाते हैं और बोलते हैं- ‘‘अरे पापी, दुर्बुद्धिधर! मूढ़! जबकि परमेश्वर रामचन्द्र स्त्री दुःख में निमग्न हैं तब तू स्त्री के साथ सुखोपभोग क्यों कर रहा है? अरे दुष्ट! नीच विद्याधर! मैं तुझ भोगासक्त को वहीं पहुँचाए देता हूँ जहाँ के स्वामी ने तेरी आकृति के धारक को पहुँचाया है।’’ इस गर्जना को सुनकर घबराया हुआ सुग्रीव लक्ष्मण को नमस्कार करता है और उसकी स्त्रियाँ हाथ में अर्घ ले-लेकर प्रणाम करके लक्ष्मण को शांत करती हैं। लक्ष्मण सुग्रीव को प्रतिज्ञा का स्मरण कराते हैं और सुग्रीव पश्चात्तापपूर्वक क्षमायाचना करके राम के समीप आकर नमस्कार करके अपने सामंतों को व किन्नरों को बुलाकर सर्वत्र भेज देता है और भामंडल को भी समाचार भिजवाकर स्वयं ही वह विमान में बैठकर सीता की खोज के लिए निकल पड़ता है। आकाश में भ्रमण करते हुए सुग्रीव को एक पर्वत पर ध्वजा दिखती है। वहाँ पहुँचकर वह रत्नजटी नाम के विद्याधर से मिलता है और उसे विमान में बिठाकर ले आता है। रत्नजटी राम के पास आकर नमस्कार कर निवेदन करता है- ‘‘प्रभो! आपकी सीता का अपहरण दुष्ट रावण ने किया है। वह पुष्पक विमान में बिठाकर ले जा रहा था और मैं उधर से आ रहा था। सीता के करुण क्रंदन से मैंने परिचय पूछकर रावण से उसे छोड़ देने को कहा। जब वह नहीं माना तब मैंने उसका सामना किया। उस समय उस पापी ने मेरी विद्यायें छीनकर मुझे आकाश से नीचे गिरा दिया।’’ सीता का समाचार सुनते ही राम बार-बार उसका आलिंगन कर प्रसन्न होते हैं। पुनः हर्ष-विषाद को प्राप्त हुए राम लोगों से पूछते हैं- ‘‘कहो, लंका यहाँ से कितनी दूर है?’’ लोग कहते हैं- ‘‘नाथ! लवणसमुद्र में एक राक्षसद्वीप है उसमें त्रिकूटाचल पर्वत है उसके शिखर पर लंका नगरी स्थित है।’’ पुनः ये लोग रावण के पराक्रम का वर्णन करते हुए बार-बार यही कहते हैं कि- ‘‘देव! उस रावण से आपका और हम लोगों का युद्ध सर्वथा विषम है। हम लोग उसे जीतने में सर्वथा असमर्थ हैं।’’ तब लक्ष्मण उन सबकी बातों का अनादर कर कहते हैं- ‘‘वह परस्त्रीलंपट महाक्षुद्र नीच है, हम उसे अवश्य ही निर्जीव करेंगे।’’ तब वे लोग पुनः कहते हैं- ‘‘हे राजन् ! एक बार अनंतवीर्य केवली ने यह बताया था कि जो कोटि शिला को उठायेगा वही रावण का वधकत्र्ता होगा।’’ इतना सुनते ही राम-लक्ष्मण वहाँ चलने को उद्यत हो जाते हैंं। वहाँ पहुँचकर ये लोग गंध पुष्प आदि से उस कोटि शिला की अच्छी तरह पूजा करते हैं। सिद्धों को नमस्कार करके लक्ष्मण उस कोटि शिला को अपनी भुजाओं से हिला देते हैं पुनः उसे भुजाओं से ऊपर तक उठा लेते हैंं। आकाश से देवतागण पुष्पों की वृष्टि करते हुए धन्य-धन्य शब्द से दिशाओं को मुखरित कर देते हैं और विद्याधरों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता है। अब वे लोग निश्चय कर लेते हैं कि रावण का शत्रु लक्ष्मण ही होगा। फिर भी आपस में मंत्रणा करते हैं- युद्ध में न जाने कितने जीवों का संहार होगा अतः पहले दूत भेजकर उसके अभिप्राय को जाना जाये और उसे समझाकर सीता को वापस लाकर राम-लक्ष्मण व रावण की परस्पर में संधि करा दी जाये। इस कार्य के लिए पवनञ्जय के पुत्र हनुमान को उपयुक्त समझकर उन्हें वहाँ बुलाया जाता है और रामचन्द्र उसे अपनी अँगूठी देकर सीता की खबर लाने के लिए उसे तरह-तरह से समझाकर भेज देते हैं।
११ -हनुमान दुवारा सीता की खौज
हनुमान विमान में बैठे हुए बहुत ऊँचे आकाश में उड़ते चले जा रहे हैं। प्राकृतिक शोभा को देखते हुए दधिमुख नगर के ऊपर से निकलते हैं। उस नगर के बाहर चारों तरफ के उद्यान की शोभा हनुमान के मन को बरबस अपनी ओर खींच रही है। धीरे-धीरे विमान आगे बढ़ता जा रहा है, कुछ दूर चलकर भंयकर वन दिखता है। वहाँ पर तमाम जंगली पशु विचरण कर रहे हैं, आगे बढ़ते ही देखते हैं कि उस वन में भयंकर अग्नि की ज्वाला अपनी लपटों से मानों आकाश को छूने का ही उपक्रम कर रही है। एकदम घबराते हुए हनुमान तत्क्षण ही दूसरी तरफ दृष्टि डालते हैं तो क्या देखते हैं- दो महामुनि अपनी भुजाओं को नीचे लटकाये हुए नासाग्र दृष्टि सौम्यमुद्रा से युक्त कायोत्सर्ग से खड़े हुए हैं। उनसे कुछ दूर ही वह अग्नि मानों उनके दर्शन की अभिलाषा से ही अथवा उनके ध्यान का परीक्षण करने के लिए उधर की ओर बढ़ती आ रही है। वहीं से लगभग पांच कोश की दूरी पर तीन कन्यायें ध्यान मुद्रा में स्थित हैं। वे शुक्ल वस्त्र को धारण किए हुए हैं उनका मनोहर रूप उनके विशेष पुण्य को सूचित कर रहा है। हनुमान के हृदय में उन महामुनियों के प्रति परम भक्ति- भाव उमड़ पड़ता है और साथ ही वात्सल्य भाव से प्रेरित हो सोचने लगते हैं- ‘‘अहो! सुख-दुख में समभावी ये महामुनि कुछ क्षण में ही इस अग्नि के उपसर्ग से इस नश्वर शरीर को छोड़ने को प्रयत्नशील हैं। इनके लिए जीवन और मरण एक समान है फिर भी मेरा क्या कर्तव्य है?……क्या मैं इनके उपसर्ग को दूर करके सातिशय पुण्य का भागी बन सकता हूँ? और ये कन्यायें कौन हैं?….जो भी हो’। इतना सोचते ही हनुमान शीघ्रता से ही समुद्र का जल खींच कर उसे मेघरूप में परिणत कर लेते हैं और उन मेघों को हाथ में लेकर आकाश में ऊँचे जाकर वर्षा शुरू कर देते हैं। देखते ही देखते दावानल अग्नि शांत हो जाती है और हनुमान कृतकृत्य हुए के समान नीचे आकर गुरु के चरणों में नमस्कार कर पुष्प, अक्षत आदि सामग्री से उनके चरणों की पूजा करना शुरू कर देते हैं। इसी बीच वे कन्यायें मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देकर वहीं पर आ जाती हैं और गुरु की वंदना करके बैठ जाती हैं पुनः हनुमान से कहती हैं- ‘अहोबन्धु! आप जिन शासन के परमभक्त हैं। आज आपने अन्यत्र कहीं जाते हुए जो इन महामुनियों के उपसर्ग का निवारण किया है सो आपका यह धर्मी के प्रति वात्सल्य आपके अपूर्व माहात्म्य को प्रकट कर रहा है।’ तब हनुमान पूछते हैं- ‘‘इस भयंकर निर्जन वन में आप लोग कौन हैं? और यह दावानल कब एवं कैसे प्रज्ज्वलित हुआ था?’’ ज्येष्ठ कन्या कहती है- ‘भद्र! दधिमुख नगर के राजा गंधर्व की अमरा नाम की रानी से उत्पन्न हुई हम तीनों बहने हैं। मैं चन्द्रलेखा हूँ मेरी यह दूसरी बहन विद्युत्प्रभा है एवं यह तीसरी तरंगमाला है। एक बार अष्टांग निमित्त ज्ञाता महामुनि से हमें यह मालूम हुआ कि जो महापुरुष युद्ध में विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी के अधिपति साहसगति विद्याधर को मारेगा वही इन तीनों का भर्ता होगा। कितने ही विद्याधर हम तीनों के लिए प्रार्थना कर रहे हैं उनमें से एक अंगारक नाम का विद्याधर है वह विशेष रूप से संताप को प्राप्त हो रहा था। साहसगति को मारने वाला कौन होगा? इस बात को समझने की उत्कंठा से हम तीनों ‘मनोनुगामिनी’ नामक उत्तम-विद्या सिद्ध करने के लिए यहाँ आई थीं। दुष्ट अंगारक ने यह अग्नि प्रज्ज्वलित कर दी और भाग गया। आज हमें यहाँ बारहवाँ दिन है। जो विद्या छः महीने से भी अधिक दिनों में सिद्ध होने वाली थी वह आज आपके निमित्त से हमें सिद्ध हो गई है और आज इन मुनियों को यहाँ पर आकर ध्यानस्थ हुए आठ दिन हुए हैं। यदि आप उपसर्ग निवारण न करते तो मेरे निमित्त से ये महामुनि भी अग्नि में भस्मसात् हो जाते। ‘हे भ्रातः! आपने आज हम तीनों पर व जैन शासन पर महान् उपकार किया है।’ इन बातों के मध्य ही विद्याधर राजा गंधर्व भी अपनी रानी आदि सहित वहाँ आ जाते हैं। पुनः हनुमान साहसगति को मारने वाले रामचन्द्र की सारी घटना उन सबको सुना देते हैं। सुनते ही राजा गन्धर्व व कन्याओं के हर्ष का पार नहीं रहा। हनुमान के कहे अनुसार वे सब किष्वकंधपुर पहुँचते हैं। राम के साथ तीनों कन्याओं का पाणिग्रहण संस्कार हो जाता है। राजा गंधर्व राम की आज्ञा में रहते हुए अपने को पुण्यशाली मानते हैं किन्तु रामचन्द्र सीता के बिना दशों दिशाओं को शून्य सा ही अनुभव करते हैं। इधर हनुमान वहाँ से चलकर त्रिकूटाचल के सन्मुख पहुँचते हैं। सेना की गति अकस्मात् रुकती हुई देखकर पता लगाते हैं। मायामयी कोट की रचना समझकर अपनी सेना को आकाश में ही रोककर गदा को हाथ में लेकर मायामयी पुतली के मुख में घुस जाते हैं और उसे तीक्ष्ण नखों के द्वारा चीर डालते हैं। उस समय आशालिक विद्या चट-चट शब्द करते हुए पलायमान हो जाती है। यन्त्रमय कोट को नष्ट होता हुआ देख, उसके रक्षक राजा वङ्कामुख सेना सहित आ जाते हैं। भयंकर युद्ध के मध्य श्रीशैल उस वङ्कामुख का शिर काटकर नीचे गिरा देते हैं। पिता की मृत्यु से कुपित हुई लंकासुन्दरी हनुमान के साथ घमासान युद्ध करती है। बहुत कुछ समय के बाद युद्ध करते-करते श्रीशैल के मन में उस कन्या के प्रति अनुरागभाव जाग्रत हो जाता है। उसी क्षण वह कन्या भी श्रीशैल के प्रति मुग्ध हो जाती है। तब वह अपने नाम से अंकित एक बाण छोड़ती है। गोद में आये हुए बाण को हाथ में लेकर उसके पत्र को श्रीशैल बाँचते हैं- ‘हे नाथ! जो मैं अगणित देवों के द्वारा भी जीती नहीं जा सकती थी सो मैं, इस समय आपके मोहनीय काम बाणों से पराजित हो चुकी हूँ। इतना पढ़ते ही श्रीशैल अपने रथ से उतरकर आगे बढ़ते हैं और शीध्र ही उस लंकासुन्दरी को अपने हृदय से लगाकर गाढ़ आलिंगन कर लेते हैं। कुछ एक क्षण लंकासुन्दरी श्रीशैल के स्पर्शजन्य सुख का अनुभव करती है। पुनः उसके नेत्रों से अविरल अश्रु की धारा बह चलती है। पिता की मृत्यु से वह शोक से विह्वल हो जाती है। तब हनुमान समझाते हैं- ‘हे सौम्यमुखि! शोक छोड़ो, अपने अश्रुओं को रोको। सनातन क्षत्रिय धर्म की यही रीति है कि राज्य कार्य में अपना सर्वस्व समर्पित कर देना। तुम्हारे पिता भी वीरगति को प्राप्त हुए हैं। हे प्रिय! यह आर्तध्यान समाप्त करो। युद्ध में किसी के द्वारा किसी का मरण यह तो एक निमित्त मात्र है। वास्तव में जिसकी जैसी होनहार होती है वह होकर ही रहती है।’ अनेक सम्बोधन को प्राप्त कर लंकासुन्दरी शांत हो जाती है। उनकी आज्ञा से आकाश में ही सुन्दर नगर बन जाता है। कुछ समय विश्राम कर हनुमान वहाँ से चलने को उद्यत होते हैं तब लंका सुन्दरी कहती है- ‘नाथ! अब रावण का आपके प्रति पहले जैसा सौहार्द नहीं है अतः आप सावधान होकर जाइये।’ हनुमान कहते हैं- ‘‘हे सुमुखि! तुम धैर्य को धारण करो मैं यथायोग्य ही सब कार्य करूँगा। हनुमान सीता के दर्शन की उत्सुकता को मन में लिए हुए लंका में प्रवेश करते हैं। पहले वे विभीषण के महल में प्रवेश करते हैं। कुशल समाचार के अनन्तर सीता संबंधी चर्चा चलती है। हनुमान कहते हैं- ‘अहो! जैसे पर्वत नदियों का मूल है वैसे ही राजा भी सभी मर्यादाओं का मूल है यदि राजा स्वयं अनाचार में प्रवृत्त हो तो प्रजा क्या करेगी?’ विभीषण ने कहा- ‘बन्धुवर! मैंने तो बहुत कुछ समझा लिया है। क्या करूँ समझ में कुछ नहीं आता है। आज सीता को आहार छोड़े हुए ग्यारहवां दिन है फिर भी लंकाधिपति को विरति नहीं है। ओह!……’ विभीषण की बात सुनते ही दया से आद्र्र हो हनुमान प्रमदवन में पहुँचते हैं। नन्दन वन के सदृश उद्यान की शोभा देखते ही बनती है किन्तु हनुमान उस समय पूâलों की सुगंधि और मयूरों की नृत्यकला की तरफ दृष्टिपात न करते हुए सीधे वहाँ पहुँचते हैं कि जहाँ रामदेव की सुन्दरी सीता कृश शरीर हुई अपने कपोलों पर हाथ रखकर चिंतित मुद्रा में बैठी हैं। विचार करते हैं- ‘‘ओहो! ऐसा रूप क्या देव अप्सरा में संभव है?…त्रिखंडाधिपति रावण इस रूप सौंदर्य से ही शायद पागल हो रहा है। फिर भी उसे यह तो सोचना ही था कि परस्त्री अग्नि की कणिका के समान है। अहो!……इस समय यह दुःख रूपी सागर में निमग्न है।’ ऐसा सोचते हुए हनुमान सीता की गोद के वस्त्र पर श्री रामचन्द्र की अँगूठी छोड़ देते हैं। उस मुद्रिका को देखकर सीता सहसा मुस्करा उठती है और उसके सारे शरीर में रोमांच हो जाता है। सीता को प्रसन्नमना देखकर वहाँ पर खड़ी हुई विद्याधरियाँ रावण तक समाचार पहुँचा देती हैं। मन्दोदरी आकर बोलती हैं- ‘‘हे बाले! आज तूने हम सभी पर बहुत बड़ा अनुग्रह किया है। अब तू शोक रहित हो त्रिखंडाधिपति चक्रवर्ती रावण की सेवा करके अपने यौवन को सार्थक कर।’’ तब सीता कुपित होकर कहती है- ‘‘हे विद्याधरि! आज तो मेरे पतिदेव का समाचार मुझे प्राप्त हुआ है इसलिए मैं तुझे प्रसन्न दिख रही हूँ……। जान पड़ता है कि अब तेरी माँग का सिंदूर जल्दी ही धुलने वाला है।’’ इतना सुनते ही सब विद्याधरियाँ एक साथ कोलाहल करके बोलती हैं- ‘‘अरे दुष्टे! ऐसा लगता है कि क्षुधा से पीड़ित हो तुझे वायु रोग हो गया है कि जिससे तू बक रही है।’’ उस समय सीता कहती है- ‘‘आज इस समय इस समुद्र के मध्य महान संकट में कष्ट को प्राप्त हुई ऐसी मैं, सो मेरा कौन स्नेही उत्तम बंधु यहाँ आया है?’’ उस समय हनुमान तत्क्षण ही सीता के निकट पहुँचकर अंजलि जोड़कर नमस्कार करते हुए कहते हैं- ‘‘हे मातः! मैं श्री रामचन्द्र के द्वारा भेजा गया पवनंजय का पुत्र हनुमान हूँ। हे पतिव्रते! तुम्हारे विरह रूपी सागर में डूबे हुए राम स्वर्ग के सदृश वैभव से युक्त महल में भी रति को प्राप्त नहीं हो रहे हैं…..।’’ इत्यादि वचनों को सुन सीता परमप्रमोद को प्राप्त होती है। पुनः विषाद से खिन्नमना हो बोलती है- ‘‘हे भाई! इस दुःखावस्था में निमग्न आज इस समय मैं तुझे क्या दूँ? तूने मेरा जो आज उपकार किया है….उसके प्रतिफल में मैं….।’’ इसी बीच में हनुमान कहते हैं- ‘‘मातः! आपके दर्शनों को प्राप्त कर मैं सब कुछ प्राप्त कर चुका हूँ।’’ पुनः सीता पूछती है- ‘‘हे भद्र! तुम यहाँ कैसे आये हो? क्या सच में यह अँगूठी तुम्हें मेरे स्वामी ने दी है अथवा कहीं उनकी अँगुली से गिर कर तुम्हें मिल गई है। हे भाई! सच-सच कहो?’’ इतना सुनकर हनुमान लक्ष्मण के सूर्यहास खड्ग की प्राप्ति से लेकर तब तक के हुए सारे समाचारों को सुना देता है। सीता पतिदेव के सर्व समाचारों को जानकर विश्वास को प्राप्त होती हुई एक क्षण के लिए हर्ष भाव को धारण करती है। पुनः तत्क्षण ही अश्रु से नेत्रों को पूरित कर करुण विलाप करने लगती है। हनुमान उसे तरह-तरह से सान्त्वना देते हैं पुनः निवेदन करते हैं- ‘‘हे मातः! चूँकि शरीर को धारण करने से ही आप पुनः रामचन्द्र के दर्शन प्राप्त कर सकोगी और अपने प्राणों की रक्षा के साथ-साथ ही उनके प्राणों की रक्षा कर सकोगी। अतः मेरी प्रार्थना स्वीकार करके और अपने पतिदेव की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए अब आप भोजन ग्रहण करो। हे देवि! यह समुद्र सहित पृथ्वी रामदेव के शासन में है अतः यहाँ का अन्न छोड़ने के योग्य नहीं है….।’’ इत्यादि अनुनय विनय के पश्चात् सीता आहार ग्रहण के लिए स्वीकृति दे देती है। तब हनुमान ‘इरा’ नाम की कुलपालिक को आहार वस्तु लाने के लिए आदेश देते हैं। सीता स्नानादि क्रिया से निवृत्त हो अतिथियों के समागम का चिंतवन करते हुए महामंत्र का स्मरण करती है। पुनः जो यह नियम लिया था कि- ‘जब तक पतिदेव का समाचार नहीं मिलेगा, तब तक आहार नहीं लूँगी।’ इस नियम को धीरता से समाप्त करती है। तब जिसके हृदय में भाई का स्नेह उमड़ रहा है ऐसे हनुमान स्वयं आगे होकर ‘इरा देवी’ के द्वारा लाये गये उत्तम-उत्तम पदार्थों से सीता को पारणा कराते हैं। अनन्तर भोजन के बाद सीता जब कुछ विश्राम कर लेती है तब हनुमान उनके पास पहुँच कर कहते हैं- ‘हे देवि! हे पवित्रे! हे गुणभूषणे! अब आप मेरे कंधे पर चढ़ो, मैं अभी समुद्र लांघकर तुम्हें श्री राम के दर्शन कराये देता हूँ।’ तब सीता कहती है- ‘‘भाई! स्वामी की आज्ञा के बिना इस तरह जाना योग्य नहीं है इसलिए प्राणनाथ ही स्वयं यहाँ आकर मेरा उद्धार करेंगे।’’ पुनः कहती है- ‘‘हे भद्र! अब तू जल्दी कर और जब तक रावण के द्वारा तुझे कोई उपद्रव नहीं होता है तब तक ही तू शीघ्र जाकर मेरे स्वामी को मेरा समाचार विदित करा दे।’’ पुनः अपने मस्तक का चूड़ामणि उतार कर हनुमान को देते हुए कहती है- ‘‘इस भूषण को दे करके तुम श्री रामचन्द्र को मेरे विषय में सब कुछ स्पष्ट कहना, भाई! तुम उन्हें यह भी कहना कि आपने जब दण्डक वन में चारण मुनियों को आहार दिया था उस समय गृद्ध पक्षी ने मुनि के चरणोदक से अपने को एक विलक्षण ही बना लिया था……।’’ इत्यादि अनेक स्मृतियों को सीता बताती है कि जिन्हें सुनकर रामचन्द्र को पूर्ण विश्वास हो जाये कि सीता अभी जीवित है और मेरे वियोग से दुःख समुद्र में डूब रही है। अनंतर हनुमान को विदा कर पति की मुद्रिका को अपनी अंगुली में पहनकर इतनी संतुष्ट होती है कि मानों साक्षात् आज पति का समागम ही प्राप्त हुआ है। हनुमान बार-बार सीता को प्रणाम कर वहाँ से चल देते हैं। पुष्पोद्यान से बाहर निकलते समय रावण की आज्ञा से कुछ किंकर दौड़कर उन्हें घेर लेते हैं। तमाम सेना इकट्ठी हो जाती है। शस्त्रों से सहित योद्धाओं को पराजित करते हुए हनुमान कुछ ही क्षणों में उस उद्यान का सर्वनाश कर देते हैं। बड़े-बड़े वृक्षों को उखाड़ कर पेंâक देते हैं और योद्धाओं को चूर-चूर कर देते हैं। अनन्तर चिरकाल तक युद्ध करने के बाद ‘इन्द्रजीत’ हनुमान को नागपाश में बाँध लेता है। उस समय यद्यपि हनुमान नागपाश से छूट कर भाग सकते थे किन्तु फिर भी रावण से वार्तालाप के लिए उत्सुक होते हुए वैसे ही बंधन से बंधे रावण के पास लाये जाते हैं। रावण कहता है- ‘‘अरे रे! दुष्ट! तुझे धिक्कार है। अरे! जिनसे तूने वृद्धि को प्राप्त किया था आज उन्हीं के साथ शत्रु भाव को प्राप्त होता हुआ तू मूढ़ भूमिगोचरियों का दूत बनकर यहाँ मेरे सामने आया है। अरे! मैं तो तेरा मुख भी नहीं देखना चाहता हूँ, तू निर्लज्ज है, कृतघ्नी है, पापी है……।’’ हनुमान कहते हैं- ‘‘बहुत कहने से क्या, हे विद्याधराधिपते! अभी तो तुम सावधान होवो और पतिव्रता सीता को श्रीराम से मिलाओ, उनसे सौहार्दभाव स्थापित करके चिरकाल तक अपने चक्ररत्न का उपभोग करो।’’ रावण कुपित हो कहता है- ‘‘बस, बस, रहने दे, अपनी विद्वत्ता को रहने दे, आज मुझे मालूम पड़ रहा है कि तू पवनंजय का पुत्र नहीं है अन्यथा ऐसी चेष्टा नहीं करता।’’ उस समय हनुमान भी क्रोध के आवेश में गरजकर कहते हैं- ‘‘रावण! निश्चित ही तेरी मृत्यु लक्ष्मण के हाथ से होने वाली है ऐसा दिख रहा है। अब तू अपनी कीर्ति पताका को नष्ट कर अपकीर्ति की ध्वजा को चिरकाल के लिए सारे विश्व के ऊपर फहराने को उद्यत हुआ है। जभी तो परस्त्री में लंपट बन रहा है।’’ इत्यादि वार्तालापों के अनन्तर रावण कहता है- ‘‘मंत्रियों! तुम लोग इसे साँकल से बाँधकर धूलि से धूसरित कर घर-घर में घुमाओ और इसके आगे ढोल बजता जाये जोकि सबको सूचित करता जाये कि- देखो! देखो! आज यह भूमिगोचरियों का दूत बनकर यहाँ आया है और स्वामी की अवज्ञा से ऐसे अपमान को प्राप्त कराया गया है।’’ इसी क्रोध से लाल हो हनुमान नागपाश के बंधन को ध्वस्त कर निकल पड़ते हैं। अपने पैरों के आघात से इन्द्रभवन के समान रावण के उस सुवर्णमयी कोट को चूर-चूर कर डालते हैं। पुनः प्रसन्न हुए आकाश मार्ग से चले जाते हैं। उधर सीता भी हनुमान के पराक्रम को सुनती हुई पुष्पांजलि बिखेरकर उनके गमन की मंगलकामना करती हुई कहती हैं- ‘‘हे पुत्र! तेरे समस्त ग्रह मंगलकारी हों, तू विघ्नों को नष्ट कर शीघ्र ही अपने मनोरथ सफल कर।’’ ‘‘हनुमान कुछ ही समय में श्रीराम के पास पहुँचकर प्रणाम करते हैं-राम सहसा उठ कर उसका गाढ़ आलिंगन कर लेते हैं और प्रसन्न हो पुनः पुनः पूछते हैं- ‘हनुमान् ! क्या सच में तुमने मेरी प्रिया देखी है? क्या वह जीवित है?……क्या वह संकट में भी अपने प्राणों को धारण किए हुए है?…..’’ हनुमान कहते हैं- ‘‘ हे प्रभो! यह चूड़ामणि उन्होंने दिया है, वे केवल आपका ही मात्र ध्यान कर रही हैं। रो-रो कर उन्होंने अपने नेत्र लाल कर लिए हैं। प्रभो! ग्यारहवें दिन आपका समाचार पाकर ही उन्होंने मेरी अतीव प्रार्थना से भोजन ग्रहण किया है।’’ अनेक प्रकार से वार्तालाप के बाद रामचन्द्र सभी विद्याधरों के साथ मंत्रणा करके युद्ध के लिए प्रस्थान की तैयारी करने में लग जाते हैं।
१२ -राम रावण युद्ध एवं लक्ष्मण का मूर्छित हो जाना
मगसिर वदी पंचमी के दिन सूर्योदय के समय अनेक विद्याधरों के साथ महाराजा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र लक्ष्मण के साथ प्रयाणकालिक बाजे बजवाकर प्रस्थान कर देते हैं। उस काल में उत्तम-उत्तम शकुनों से उन सबका उत्साह द्विगुणित होता जा रहा है। निग्र्रंथ मुनिराज सामने आ रहे हैं, आकाश में छत्र फिर रहा है, घोड़ों की गंभीर हिनहिनाहट फैल रही है, घंटों की मधुर ध्वनि हो रही है एवं दही से भरा हुआ कलश सामने आ रहा है। विद्याधरों के प्रमुख राजा सुग्रीव, हनुमान, शल्य, दुर्मषण, नल, नील आदि अपनी-अपनी सेनाओं के साथ चल रहे हैं। निमिषमात्र में ये सब वेलन्धर पर्वत से आगे बढ़ते हुए हंसद्वीप में पहुँच जाते हैं और भामंडल की प्रतीक्षा करते हुए वहाँ ठहर जाते हैं। शत्रु की सेना को निकट आती हुई सुनकर अर्धचक्री रावण भी मंत्रणा करके युद्ध के लिए प्रस्थान करना चाहते हैं। उस समय विभीषण आकर कहते हैं- ‘‘हे प्रभो! आपकी र्कीित कुन्द पुष्प के समान उज्जवल है। अतः हे परमेश्वर! परस्त्री के निमित्त इस कीर्ति को मलिन मत कीजिए। हे स्वामिन् ! श्रीराम यहाँ पधारे हैं सो आप उनका सम्मान कर सीता को उन्हें सौंप दीजिए।’’ पिता के अभिप्राय को जानने वाला इन्द्रजीत विभीषण को तर्जित कर कहता है- ‘‘हे भद्र! तुमसे किसने पूछा है? तुम्हें यहाँ इस समय बकवास करने का क्या अधिकार है? तुम कायर हो, चुपचाप अपने घर में बैठो।’’ बीच में ही बात काटकर विभीषण कहता है- ‘‘अरे बालक! तू रावण का नामधारी पुत्र है किन्तु वास्तव में शत्रु है। अरे मूढ़! जब तक लक्ष्मण आकर इस लंका नगरी को ध्वस्त नहीं करता है और रावण को धराशायी नहीं करता है तब तक तू पिता के लिए हितकर उपाय सोच….’’ इत्यादि वार्तालापों के प्रसंग में रावण क्रोध में लाल होकर उठकर खड़ा हो जाता है और म्यान से तलवार निकाल लेता है। इधर विभीषण भी वङ्कामयी खंभा उखाड़कर सामने हो जाता है। युद्ध के लिए उद्यत देख मंत्रीगण शीघ्र ही इन दोनों भाइयों को रोक लेते हैं और जैसे-तैसे शांत करने की कोशिश करते हैं। पुनः आवेश में भरा हुआ रावण कहता है- ‘‘इस दुष्ट विभीषण को यहाँ से शीघ्र ही निकाल दिया जाये। मेरे नगर में इसके रहने से भला क्या लाभ है? यहाँ रहते हुए यदि इसको मैं मृत्यु को प्राप्त न कराऊँ तो मैं रावण ही नहीं कहलाऊँ।’’ तब विभीषण कहता है- ‘‘क्या मैं रत्नश्रवा का पुत्र नहीं हूँ? मैं भी इस नगरी में अब एक क्षण नहीं रहना चाहता हूँ। ओह!….जहाँ राजा ही परस्त्रीलंपट हो वहाँ रहना क्या उचित है?’’ इतना कहकर वे वहाँ से चल पड़ते हैं और हंसद्वीप में पहुँचकर अपनी कुछ अधिक तीस अक्षौहिणी प्रमाण सेना वहाँ ठहरा देते हैं और स्वयं रामचन्द्र के दर्शन हेतु पहुँचते हैं। रामचन्द्र के यहाँ जब यह समाचार पहुँचता है तब सभी लोग काँप उठते हैं। लक्ष्मण अपनी दृष्टि सूर्यहास खड्ग की ओर डालते हैं तो श्रीराम वङ्काावर्त धनुष का स्पर्श करते हैं। इसी बीच विभीषण द्वारा भेजा हुआ द्वारपाल श्रीराम के पास पहुँचकर दोनों भाई के बीच हुए विवाद को स्पष्ट कर देता है पुनः निवेदन करता है- ‘‘हे नाथ! विभीषण आपकी शरण में आया है अतः आप उसे आश्रय दीजिए।’’ दूत के मधुर वाक्यों को सुनकर रामचन्द्र कुछ क्षण के लिए उसे अन्यत्र बिठाकर आप मंत्रियों व हनुमान आदि विश्वस्त जनों के साथ मंत्रणा करते हैं-मतिकांत मंत्री कहता है- ‘‘हो सकता है, रावण ने इसे छल से भेजा हो, क्योंकि राजाओं की कूटनीति विचित्र ही होती है।’’ तब मतिसागर मंत्री कहता है- ‘‘मैंने अनेक बार यह बात सुनी है कि विभीषण सदैव धर्म का ही पक्ष लेता है। अतः भाई-भाई में विरोध हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है।’’ इत्यादि मंत्रणा के बाद रामचन्द्र विभीषण को अन्दर आने की आज्ञा दे देते हैं। विभीषण निकट आकर हाथ जोड़कर रामचन्द्र को प्रणाम करते हुए कहते हैं- ‘‘हे प्रभो! मेरा यही निश्चय है कि इस जन्म में मेरे स्वामी आप हैं और परजन्म में श्री जिनेन्द्रदेव।’’ जब विभीषण निश्छलता की शपथ ग्रहण कर लेते हैं तब रामचन्द्र कहते हैं- ‘‘हे विभीषण! मैं निःसंदेह तुम्हें लंका का अधिपति बनाऊँगा।’’ इन सब शुभ वातावरण के मध्य ही भामंडल भी अपनी विशाल सेना सहित वहाँ आ जाते हैं और सब मिलकर लंका के निकट पहुँच जाते हैं। वहाँ पर बीस योजन प्रमाण भूमि में युद्धस्थल निर्धारित किया जाता है। उधर से रावण भी युद्ध के लिए प्रस्थान करता है। मारीचि, सिंहजवन, स्वयंभू आदि अनेक विद्याधर अधिपति चल पड़ते हैं। उस समय अपशकुन होने लगते हैं। पक्षी पंख फैलाकर फड़फड़ाने लगते हैं। महा भयंकर शब्द होने लगता है। अनेक अपशकुनों को देखकर मंदोदरी रावण को बहुत कुछ समझाती है किन्तु वह दुराग्रही अपने हठ को नहीं छोड़ता है। उस समय लंका नगरी से सब मिलकर साढ़े चार करोड़ कुमार युद्ध के लिए बाहर निकल पड़ते हैं। युद्ध प्रारंभ हो जाता है उधर इन्द्रजीत, मेघवाहन, कुम्भकर्ण, मय विद्याधर आदि प्रमुख हैं तो इधर सुग्रीव, हनुमान, भामंडल, विभीषण आदि प्रमुख हैं। इन लोगों में दिव्य अस्त्र-शस्त्रों के प्रहार चल रहे हैं। इन्द्रजीत वरुण अस्त्र छोड़कर सर्वदिशाओं को मेघ समूह से व्याप्त कर देता है तो सुग्रीव पवन बाण चलाकर मेघ को छिन्न-भिन्न कर देते हैं। मेघवाहन आग्नेयबाण से अग्नि प्रज्जवलित करता है तो हनुमान वरुण अस्त्र से उसे बुझा देते हैं। कई दिनों तक भयंकर युद्ध के चलने से असंख्य प्राणियों का संहार हो जाता है। इसी मध्य विभीषण देखते हैं कि मेघवाहन और इन्द्रजीत ने सुग्रीव और भामंडल को नागपाश से वेष्टित कर लिया है। वे निश्चेष्ट पड़े हैं। उस समय की दयनीय दशा को देखकर लक्ष्मण श्रीराम से कहते हैं- ‘‘हे नाथ! हे विद्याधरों के स्वामी! सुग्रीव और भामंडल जैसे महाशक्तिशाली विद्याधर भी रावण के पुत्रों द्वारा जहाँ नागपाश से बाँध लिए गये हैं तब हमारे और आपके द्वारा क्या रावण जीता जा सकता है?’’ इतना सुनते ही राम कुछ स्मरण करते हुए कहते हैं- ‘‘भाई! उस समय देशभूषण-कुलभूषण मुनियों का उपसर्ग दूर करने पर हम लोगों को जो वर प्राप्त हुआ था उसका स्मरण करो……।’’ उसी समय राम के स्मरण मात्र से महालोचन नामधारी गरुड़ेन्द्र का आसन कंपायमान हो जाता है। वह अवधिज्ञान से सर्व वृत्तान्त समझकर चिंतावेग नाम के देव को वहाँ भेजता है। देव उनके समक्ष उपस्थित होकर विनयपूर्वक सर्व संदेश सुनाकर श्री राम के लिए सिंहवाहिनी एवं लक्ष्मण को गरुडवाहिनी विद्या प्रदान करता है। पुनः वारुणास़्त्र, आग्नेयास्त्र, वायव्यास्त्र आदि हजारों देवोपनीत शस्त्र देकर राम के लिए छत्र, चामर आदि विभूति, अनेक विद्या रत्न और हल तथा मूसल नामक शस्त्र देता है एवं लक्ष्मण के लिए विद्युत्वक्त्र नाम की गदा प्रदान करता है। दोनों भाई इन महान् दिव्य अस्त्र-शस्त्र आदि को प्राप्त करके उस देव का सन्मान करके उसे विदा कर देते हैं पुनः आप दोनों मिलकर जिनेन्द्रदेव की महापूजा करते हैं। अनन्तर युद्धस्थल में पहुँचकर गरुड़वाहिनी विद्या के प्रयोग से भामंडल आदि को नागपाश बंधन से मुक्त कर देते हैं। कुछ क्षण बाद सुग्रीव आदि विद्याधर विस्मययुक्त हो राम लक्ष्मण से पूछते हैं- ‘‘हे नाथ! जो विपत्ति के समय कभी भी देखने में नहीं आई थीं ऐसी ये अद्भुत विभूतियाँ आज आपके पास कहाँ से प्राप्त हुई हैं। ये दिव्यवाहन, दिव्यास्त्र, छत्र, चामर, ध्वजाएं और विविध रत्न आपको कहाँ से मिले हैं?’’ श्रीराम कहते हैं- ‘‘हे बंधु! यह सर्व विभूति गुरुभक्ति के प्रसाद रूप में हमें गरुड़ेन्द्र के द्वारा प्राप्त हुई है।’’ इतना कहकर वे देशभूषण-कुलभूषण के उपसर्ग निवारण से उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति होना अनन्तर गरुड़ेन्द्र द्वारा संतुष्ट होकर वर माँगने की प्रेरणा करना इत्यादि समाचार सुना देते हैं। तब सभी लोग गुरुभक्ति और जिनेन्द्रभक्ति के माहात्म्य की चर्चा करते हुए राम-लक्ष्मण की अतिशय प्रशंसा करते हैं और उनकी सब प्रकार से पूजा करते हैं। पुनरपि युद्ध प्रारंभ हो जाता है। कभी रावण की सेना पराजित होती है तो कभी वानरवंशियों१ की सेना परास्त हुई दिखने लगती है। किसी समय भामण्डल, लक्ष्मण आदि भानुकर्ण और इन्द्रजित को नागपाश से वेष्ठित करके अपने रथ में उन्हें डाल देते हैं। इस घटना से कुपित हो रावण विभीषण को ललकारता है और शक्ति नामक शस्त्र को उठाता है। इसी बीच विभीषण को जैसे-तैसे अलग कर लक्ष्मण मध्य में आ जाते हैं। वह रावण उसी पर शक्ति का प्रहार कर देते हैं। बस, देखते ही देखते लक्ष्मण र्मूिच्छत हो पृथ्वीतल पर गिर जाते हैं। उन्हें ऐसा देख श्रीराम तीव्र शोक को रोककर रावण से भिड़ जाते हैं। यद्यपि राम छह बार रावण को धनुष रहित और रथरहित कर देते हैं तथापि उसे पराजित नहीं कर पाते हैं तब वे आश्चर्यचकित हो कहते हैं- ‘‘जब तू इस तरह भी मृत्यु को प्राप्त नहीं हुआ है तब तू अल्पायुष्क नहीं यह निश्चित है। ओह! पूर्व पुण्य तेरी रक्षा कर रहा है। हे विद्याधर राज! सुन! मैं तुझसे कुछ कहता हूँ। जिस मेरे प्राण प्यारे भाई को तूने घायल किया है वह मरने के सन्मुख है, यदि तू अनुमति दे तो मैं उसका मुख देख लूँ?’’ तब प्रसन्न हो रावण कहता है- ‘एवमस्तु’ और लंका की ओर चला जाता है। उस दिन युद्ध विराम ले लेता है।
१३ -विशल्या के परभाव से लक्ष्मण की र्मूिच्छॉ का दूर होना
उसी युद्ध भूमि में चारों तरफ से सफाई करके विद्याधर लोग तम्बू लगाकर शिविर बना देते हैं। पहले गोपुर के दरवाजे पर राजा नल, दूसरे पर नील, तीसरे पर विभीषण, चौथे पर कुमुद, पाँचवें पर सुषेण, छठे पर सुग्रीव और सातवें द्वार पर स्वयं भामंडल हाथ में नंगी तलवार लेकर सुरक्षा में खड़े हो जाते हैं। महाराज राम वहाँ आकर भाई के शोक में विह्वल हो र्मूिच्छत हो जाते हैं। अनेक उपचारों से होश को प्राप्त होकर वे करुण विलाप करने लगते हैं- ‘‘हे भाई! तू कर्मयोग से इस दुर्लंघ्य सागर को भी उल्लंघ कर यहाँ आया और अब इस दुरावस्था को कैसे प्राप्त हो गया? हाय भाई! मैं तेरे बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता हूँ अब जल्दी उठ और मेरे से वार्तालाप कर। ओह!….अब तुझे सीता से भी कुछ प्रयोजन नहीं है। अरे….तू सुख में दुःख में सदैव साथ देता रहा है। तेरे बिना मैं जीवित नहीं रह सकूगा।…..’’ राम इधर-उधर देखकर कहते हैं- ‘‘सुग्रीव! भामण्डल! अब तुम लोग अपने-अपने स्थान जाओ। ओह! विभीषण! मैं तुम्हारा कुछ भी उपकार नहीं कर सका सो मुझे बहुत ही दुःख है। ओह!……अब आप लोग चिता प्रज्ज्वलित करो मैं अपने प्यारे भाई के साथ उसी में बैठकर परलोक प्रयाण करूँगा। अब मुझे कुछ भी नहीं चाहिए।’’ इतना कहते हुए श्रीराम लक्ष्मण का आलिंगन करने को आगे बढ़ते हैं कि मध्य में ही जाम्बूनद राजा उन्हें रोक लेते हैं- ‘‘नाथ! सावधान होइए, ऐसा प्रमाद उचित नहीं है ये दिव्य अस्त्र हैं। देव! आप धैर्य धारण करो, विलाप करना यह इसका प्रतीकार नहीं है। आपका भाई नारायण है इसका असमय में मरण नहीं हो सकता। आप शांति धारण करो।’’ अन्य विद्याधर कहते हैं- ‘‘अहो! सूर्योदय के पहले-पहले यदि इस शक्ति का कुछ उपाय सूझ गया तो ठीक अन्यथा इनका मरण निश्चित है।’’ सभी विद्याधर मंत्रणा में लगे हुए हैं और र्दुिर्दन के समान अश्रुवर्षा कर रहे हैं। उधर दरवाजे पर एक अपरिचित व्यक्ति आता है और अन्दर घुसना चाहता है। तब भामंडल पूछते हैं- ‘‘तू कौन है? कहाँ से आया है? और किसलिए अन्दर जाना चाहता है?’’ वह कहता है- ‘‘मैं राम का दर्शन करना चाहता हूँ, यदि आप लक्ष्मण को जीवित देखना चाहते हो तो मुझे शीघ्र ही अन्दर ले चलो।’’ भामण्डल अपने स्थान पर अन्य विद्याधर को बिठाकर आप उसे साथ लेकर अन्दर पहुँचते हैं। वह राम को नमस्कार कर कहता है- ‘‘प्रभो! आपके भाई जीवित हैं, आप मेरी प्रार्थना सुनिए।’’ सभी एक स्वर से बोल उठते हैं- ‘‘कहिए, जल्दी कहिए।’’ ‘‘मैं देवगीतपुर का रहने वाला चन्द्रप्रतिम विद्याधर हूँ। एक बार शत्रु द्वारा शक्ति शस्त्र से घायल होकर मैं अयोध्या के उद्यान में गिरा था सो भरत महाराज ने मुझ पर चन्दन मिश्रित दिव्य जल छिड़क कर मुझे जीवन दान दिया था, उसी जल से ये लक्ष्मण भी जीवित होंगे, आप उस जल को शीघ्र ही यहाँ मँगाइये। राजा द्रोणमेघ की कन्या विशल्या के स्नान का वह जल स्वर्ग की दिव्य शक्ति और सर्वरोग को नष्ट करने में समर्थ है।’’ इतना सुनते ही हनुमान तथा भामंडल रामचन्द्र की आज्ञा लेकर विमान से रात्रि में ही वहाँ पहुँचते हैं। भरत इस घटना को विदित कर र्मूिच्छत हो जाते हैं उन्हें सचेत कर वे लोग उस जल की याचना करते हैं। तब भरत शीघ्र ही विश्वस्त लोगों को राजा द्रोणमेघ के पास भेज देते हैं साथ में माता वैकेयी भी जाती हैं। राजा द्रोणमेघ को सारी घटना मालूम होते ही वे कहते हैं- ‘‘ठीक है, स्वामी भरत की आज्ञा के अनुसार मेरी पुत्री विशल्या वहाँ स्वयं जायेगी। चूँकि वह लक्ष्मण की ही वल्लभा होगी ऐसा महामुनि ने बताया है।’’ भामण्डल स्वयं उस कन्या को अपने विमान में बैठाते हैं और चलने को उद्यत होते हैं। उस समय उस विशल्या के साथ एक हजार राजपुत्रियाँ भी भेजी जाती हैं। ये लोग तत्काल युद्धभूमि में पहुँच जाते हैं। वहाँ विशल्या का अघ्र्य आदि से यथायोग्य सन्मान कर उसे लक्ष्मण के पास ले जाया जाता है। जैसे-जैसे वह कन्या पास पहुँचती जाती है वैसे-वैसे ही लक्ष्मण की हालत सुधरती जाती है। जब वह निकट पहुँचती है कि ‘शक्ति’ नाम की विद्या लक्ष्मण के वक्षस्थल से निकलकर भागने लगती है। हनुमान बीच में ही पकड़ कर उससे पूछते हैं- ‘‘तू कौन है?’’ वह कहती है- ‘‘हनुमन् ! वैलाशपर्वत पर जब रावण ने अपने हाथ की नसों को खींचकर उसकी वीणा बनाकर भगवान जिनेन्द्रदेव की भक्ति की थी उस समय धरणेंद्र ने प्रसन्न हो रावण के लिए मुझे ‘अमोघ विजया’ नाम की विद्या दी थी। इस विशल्या के सिवाय इस संसार में आज किसी में यह शक्ति नहीं है कि जो मेरा पराभव कर सके।’’ ‘‘ऐसा क्यों?’’ हनुमान पूछते हैं, तब वह कहती है- ‘‘विशल्या ने पूर्वभव में महा घनघोर वन में तीन हजार वर्ष तक घोरातिघोर तपश्चरण किया है। जिसके फलस्वरूप आज उसे यह शक्ति प्राप्त हुई है जिसके स्नान के जल से ही संपूर्ण रोग और संकट दूर हो जाते हैं। उसके सम्मुख मैं भी नहीं ठहर सकती हूँ अतः अब आप मुझे जाने दो।’’ हनुमान उसे छोड़ देते हैंं। इधर चन्दन के द्रव को लेकर विशल्या श्रीराम की आज्ञा से लक्ष्मण के शरीर में विलेपन करती है और उनकी आज्ञा से ही अन्य कन्यायें भी उस विशल्या के हाथ से स्पर्शित चन्दन को अन्य विद्याधरों को लगाती हैं। वह चन्दन इन्द्रजीत आदि के पास भी भेजा जाता है। इधर जब लक्ष्मण सोये हुए से प्रतीत होते हैं तब बांसुरी की मधुर ध्वनि से उन्हें उठाया जाता है। उठते हुए लक्ष्मण कहते हैं- ‘‘वह रावण कहाँ गया? कहाँ गया?’’ कुछ-कुछ मुस्कराते हुए राम उन्हें अपनी बाहों में भर लेते हैं और कहते हैं- ‘‘भाई! रावण तो तुम्हें शक्ति द्वारा आहत कर कृतकृत्य होता हुआ अपने कटक में चला गया है और तुम इस कन्या के प्रभाव से आज पुनर्जन्म को प्राप्त हुए हो।’’ लक्ष्मण सारा वृत्तांत श्रवण करते हुए आश्चर्य व स्नेहपूर्ण दृष्टि से विशल्या की तरफ देखते हैं। उसी समय मंगलाचार में निपुण स्त्रियाँ कहती हैं-‘‘स्वामिन्! हम सब लोग अब आपका विवाहोत्सव देखना चाहते हैं।’’ लक्ष्मण मुस्कुराते हुए कहते हैं- ‘‘जहाँ प्राणों का संशय विद्यमान है ऐसे युद्ध क्षेत्र में यह विवाह कैसा?’’ ‘‘हे नाथ! इस कन्या के द्वारा आपका स्पर्श तो हो ही चुका है तथा आपके पुण्य के प्रभाव से समस्त विघ्न शांत हो चुके हैं। अतः अब आप इसके साथ पाणिग्रहण विधि को स्वीकार करके हम लोगों के मनोरथ सफल कीजिए।’’ राम की आज्ञा से लक्ष्मण स्वीकृति दे देते हैं और वहीं युद्धस्थल में बड़े ही वैभव के साथ इन दोनों की विवाह विधि सम्पन्न की जाती है। इधर इस समाचार से रावण के यहाँ अतीव क्षोभ उत्पन्न हो जाता है। अनेक सामंत और मंत्रीगण तरह-तरह से रावण को समझाते हैं और जैसे-तैसे एक दूत राम के पास भेजने का निर्णय लेते हैं। दूत आकर राम से निवेदन करता है- ‘‘हे पद्म! त्रिखंडाधिपति रावण का कहना है कि युद्ध में अनेक महापुरुषों के संहार से कोई लाभ नहीं है। आपको वे लंका का आधा भाग पर्यंत राज्य देकर संतुष्ट करते हैं किन्तु आप उनके भाई और पुत्रों को भेजो तथा सीता देना स्वीकृत करो।’’ तब राम कहते हैं- ‘‘हे भाई! तू रावण से कह दे कि मैं अभी ही उनके भाई एवं पुत्रों को भेजे देता हूँ किन्तु वह मेरी सीता मुझे वापस कर दे। मैं सीता के साथ वन में रहकर ही संतुष्ट हूँ मुझे राज्य की इच्छा नहीं है।’’
युद्ध में रावण की मृत्यु
इतना सुनकर दूत सीता को भेजने के बारे में उत्तर प्रत्युत्तर शुरू कर देता है। भामंडल आदि क्षुभित हो उसे अपमानित करके निकाल देते हैं। तब रावण मंत्रियों के साथ मंत्रणा करके बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करने हेतु श्री शांतिनाथ जिनालय में जाकर विधिवत् अनुष्ठान कर लेता है। मंदोदरी घोषणा कर देती है कि इस आष्टाह्निक महापर्व में रावण के अनुष्ठान तक सब लोग नियम अनुष्ठान करते रहें। युद्ध का विराम हो जाता है। भामंडल आदि यह समाचार ज्ञात कर चिंतित हो उठते हैं और श्रीराम के पास आकर निवेदन करते हैं- ‘‘प्रभो! रावण बहुरूपिणी विद्या सिद्ध कर रहा है, यह चौबीस दिन में सिद्धि को प्राप्त होती है। इसके सिद्ध हो जाने पर रावण इन्द्रों द्वारा भी जीता नहीं जा सकता पुनः हम जैसे क्षुद्र पुरुषों की तो बात ही क्या? अतः इस अवसर पर उसे क्षुभित किया जाये कि जिससे वह विद्या सिद्ध न कर सके।’’ मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र कहते हैं- ‘‘जो नियम लेकर जिनमंदिर में बैठा है उस पर ऐसा कुकृत्य करना कैसे योग्य हो सकता है? भाई! हम उच्चकुलीन क्षत्रियों की यह प्रवृत्ति प्रशंसनीय नहीं है।’’ सब लोग अपना सा मुंह लेकर चले जाते हैं और आपस में मंत्रणा करते हैं कि- ‘‘हमारे स्वामी राम महापुरुष हैं ये अधर्म में प्रवृत्ति नहीं करेंगे। अतः चुपचाप अपने-अपने कुमारों को इस कार्य में लगा देना चाहिए।’’ सुभूषण आदि कुमार आठ दिन तक तो विचार-विमर्श में समय यापन कर देते हैं, पूर्णिमा के दिन लम्बे-चौड़े वङ्कामय किवाड़ तोड़ कर लंका में घुस जाते हैं और उपद्रव करना शुरू कर देते हैं। तब शांतिनाथ जिनालय के शासनदेव बाहर निकल कर वानर सेना पर झपटते हैं यह देखकर इस पक्ष के रक्षक देव भी अपने शिविर से निकल कर परस्पर में युद्ध करने लगते हैं। तब पूर्णभद्र और मणिभद्र यक्षेन्द्र अपनी विक्रिया से इन सबको परास्त कर श्रीराम के पास उलाहना लेकर पहुँचते हैं और कहते हैं- ‘‘हे महानुभाव! जबकि रावण सम्यक्त्व की भावना से सहित है, जिनेन्द्रदेव के चरणों का सेवक है और इस समय शांतचित्त है तो पुनः क्या इन लोगोें को यह उपद्रव करना उचित है? उस समय उसके क्रोध को देखकर प्रायः विभीषण आदि सभी विद्याधर भयभीत हो जाते हैं किन्तु लक्ष्मण ओजपूर्ण वचन कहते हैं- ‘‘हे यक्षराज! जबकि उसने हमारे स्वामी की प्राणप्रिया का हरण कर कितना घोर अनर्थ किया है और इस विद्या को सिद्ध कर युद्ध में न जाने कितने जीवों का संहार करेगा तब भला तुम उस पर दया क्यों कर रहे हो…..?’’ इधर सुग्रीव आदि भी उन यक्षों को अघ्र्य समर्पण कर निवेदन करते हैं- ‘‘हे यक्षराज! क्रोध छोड़िये और समभाव से देखिये कि हमारी सेना में और लंका की समुद्र सदृश सेना में कितना अन्तर है? फिर भी रावण बहुरूपिणी विद्या सिद्ध कर रहा है। अहो! इस स्थिति में हम लोगों की विजय अथवा धर्म की विजय कैसे होगी?’’ इतना सुनकर वे दोनों यक्षेंद्र लज्जित हो जाते हैं पुनः सबसे वार्तालाप करते हुए कहते हैं- ‘‘हे सत्पुरुषों! लंका में जीर्णतृण को भी पीड़ा मत पहुँचाओ और रावण के शरीर की भी कुशलता रखते हुए भले ही उसे क्षुभित करने का प्रयत्न करो कि जिससे वह विद्या न सिद्ध कर सके।’’ तत्पश्चात् राम के गुणों की चर्चा करते हुए वे यक्षेंद्र चले जाते हैं और ये लोग रावण को क्षुभित करने के अनेक उपाय करते हैं, कभी उसकी माला तोड़ डालते हैं तो कभी स्त्रियों को उसके सामने कष्ट देते हैं। एक कुमार मंदोदरी को घसीट कर लाकर अनेक त्रास देने लगता है वह विलाप करने लगती है किन्तु रावण ध्यान मग्न है। उसी समय बहुरूपिणी विद्या देवता आकर उपस्थित हो जाती है और कहती है- ‘‘हे स्वामी! मैं सिद्ध हो गई हूँ आप आज्ञा दीजिए। प्रतिकूल खड़े हुए एक चक्रधर को छोड़ कर मैं समस्त लोक को आपके अधीन कर सकती हू।’’ विद्या सिद्ध होते ही अंग-अंगद आदि कुमार वहाँ से पलायन कर जाते हैं और रावण मंदिर की प्रदक्षिणा देकर अपने स्थान पर आ जाता है। विह्वल हुई मंदोदरी आदि रानियों को सान्त्वना देता है। अनंतर सीता को रिझाने के लिए उद्यान में पहुँचकर सीता को अपना वैभव, बल आदि दिखाकर कहता है- ‘‘हे सुन्दरी! मैं अपने सत्यव्रत का पालन करते हुए ही तुम्हारे प्रसाद की प्रतीक्षा कर रहा हूँ किन्तु बलपूर्वक मैं तुम्हारा उपभोग नहीं कर रहा हूँ। अब तुम राम की आशा छोड़ो, वह मेरे बाणों से मरने वाला ही है। अब तुम मुझ पर प्रसन्न होवो और मेरे साथ मेरु कुलाचल आदि में विहार करते हुए सर्वोत्तम सुखों का अनुभव करो।’’ अश्रुओं से मुँह को धोती हुई सीता कहती है- ‘‘हे दशानन! यदि तुम्हारी मेरे प्रति किंचित् भी सद्भावना है तो राम को मारने के पहले उन्हें मेरा एक समाचार कह देना कि हे राम! जनकनंदिनी कहला रही है कि मैंने जो अभी तक प्राण नहीं छोड़े थे सो केवल आपके दर्शन की उत्कंठा से ही नहीं छोड़े थे……।’’ इतना कहते हुए वह मूचर्छत हो पृथ्वी पर गिर जाती है। तब वैसी स्थिति में रावण अतीव दुःखी हो विचार करता है- ‘‘अहो! इन दोनों का यह कभी भी नहीं छुटने वाला निकाचित स्नेह है। ओह! मुझे बार-बार धिक्कार है, मैंने यह क्या किया? इस प्रेमयुक्त दम्पत्ति का विछोह क्यों करा दिया? हाय! परस्त्री हरण के अपयश से मलिन हुआ मैं किस गति में जाऊँगा? क्या करूँ?….मैं विचित्र ही धर्म संकट में पड़ गया हूँ।’’ कुछ क्षण बाद सोचता है- ‘‘ठीक है, अब तो युद्ध में करुणा करना विरुद्ध है अतः मैं युद्ध में रामचन्द्र को जीवित ही पकड़ लूँगा, पुनः वैभव के साथ उनकी सीता उन्हें सौंप दूँगा।’’ इत्यादि विचार करते हुए वह अपने स्थान पर पहुँचता है। पुनः इन्द्रजित, मेघनाद और कुम्भकर्ण को शत्रु के यहाँ बँधा हुआ स्मरण कर व्याकुल हो उठता है। अनेक अपशकुन होते हुए भी वह सब निमित्तज्ञानियों की उपेक्षा कर पुनः युद्ध के लिए निकल पड़ता है। पूर्ववत् युद्ध प्रारंभ हो जाता है, दोनों पक्ष में हार का नाम नहीं है। रावण का एक शिर कटते ही हजारों शिर बन जाते हैं, हजारों भुजाओं से एक साथ हजारों बाण छोड़ रहा है इस तरह वीर रावण और लक्ष्मण को युद्ध करते हुए दस दिन व्यतीत हो जाते हैं। आकाश मार्ग में स्थित चन्द्रवर्धन विद्याधर की आठ कन्यायें लक्ष्मण के युद्ध को देख रही हैं। आपस में उनका परिचय पूछा जाने पर वे कहती हैं- ‘‘ये वीर लक्ष्मण ही मेरे भावी पति हैं अतः इनकी जो गति होगी सो ही मेरी गति होगी।’’ कन्याओं के मनोहारी वचन सुनकर अकस्मात् लक्ष्मण ऊपर की ओर दृष्टि उठाकर देखते हैं कि कन्याओं के मुख से सहसा शब्द निकलता है- ‘‘हे नाथ! आप सब प्रकार से ‘सिद्धार्थ’ होओ।’’ इतना सुनते ही लक्ष्मण को सिद्धार्थ नामक अस्त्र का स्मरण हो आता है और वे उसके द्वारा रणक्षेत्र में हाहाकार मचा देते हैं। तब रावण चक्ररत्न का स्मरण करता है, चक्ररत्न हाथ में आते ही वह लक्ष्मण पर चला देता है। चक्ररत्न को आता हुआ देख अब तो मरना ही होगा ऐसा निश्चय करते हुए श्री लक्ष्मण वङ्कामुखी बाणों से उसे रोकने को तत्पर हो जाते हैं। उस समय श्रीरामचन्द्र एक हाथ में वङ्काावर्त धनुष से और दूसरे हाथ से घुमाये हुए तीक्ष्णमुख हल से, सुग्रीव गदा से, भामंडल तलवार से, विभीषण त्रिशूल से, हनुमान उल्का मुद्गर, लांगूल आदि से, अंगद परिध से, अंग कुठार से और अन्य विद्याधर भी शेष अस्त्रशस्त्रों से एक साथ मिलकर जीवन की आशा छोड़ उस चक्ररत्न को रोकने में लग जाते हैं किन्तु सब मिलकर भी उसे रोकने में समर्थ नहीं हो पाते हैं। राम की सेना में व्यग्रता बढ़ रही है फिर भी भाग्य की बात देखो, वह चक्ररत्न लक्ष्मण की तीन प्रदक्षिणाएं देता है उसके सब रक्षकदेव विनय से खड़े हो जाते हैं और वह चक्ररत्न. लक्ष्मण के हाथ मेें आकर ठहर जाता है। यह देख रावण एक क्षण के लिए चिन्तासागर में डूब जाता है- ‘‘अहो! उस समय जगद्वंद्य अनन्तवीर्य केवली ने दिव्यध्वनि में जो कहा था कि लक्ष्मण नारायण होगा सो ऐसा लगता है कि यह वही नारायण आ गया है……ओह! धिक्कार हो इस राज्य लक्ष्मी को…….धिक्कार हो इन पंचेन्द्रिय विषयों को! हाय, हाय,! अब मैं इस भूमिगोचरी रंक से मरण को प्राप्त होऊँगा……।’’ उधर लक्ष्मण पुनः रावण को समझाते हुए कहते हैं- ‘‘दशानन! अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है यदि तुम सीता को वापस देकर कहो कि मैं रामचन्द्र के प्रसाद से जीवित हूँ तो तुम्हारी लक्ष्मी ज्यों की त्यों अवस्थित है।’’ तब रावण गर्विष्ठ हो कहता है- ‘‘अरे नीच! तू यदि इस चक्र से अपने को नारायण मान रहा है तो अपने को इन्द्र क्यों नहीं मान लेता?’’ इत्यादि वार्तालाप के मध्य लक्ष्मण कहते हैं- ‘‘बहुत कहने से क्या? अब मैं तुझे मारने वाला नारायण उत्पन्न हो चुका हूँ।’’ ऐसा कहते हुए लक्ष्मण चक्र को घुमाकर चला देते हैं। रावण अपने चन्द्रहास खड्ग से उसे रोकना चाहता है किन्तु वह चक्र उसके वक्षस्थल को विदीर्ण कर देता है। रावण अर्धनिमिष मात्र में पृथ्वी पर गिर पड़ता है। उसकी सेना में चारों तरफ से हाहाकार मच जाता है। ‘‘रथ हटाओ, मार्ग देखो, भागो भागो, स्वामी धरती पर गिर पड़े, अरे अरे! हटो, हटो….।’’ इस तरह हलचल देख सुग्रीव, भामंडल, हनुमान आदि तत्क्षण वस्त्र के छोर को ऊपर उठाकर अभय घोषणा करते हुए कहते हैं- ‘‘डरो मत, डरो मत, शांत होओ, शांत होओ।’’ इधर पुनः चक्ररत्न कृतकृत्य होता हुआ लक्ष्मण के हाथ में आ जाता है और सब ओर से एक ही स्वर निकलता है- ‘‘ये लक्ष्मण आठवें नारायण के रूप में प्रकट हुए हैं। जय हो, जय हो। श्री रामचन्द्र बलभद्र की जय हो, जय हो, अर्धचक्री नारायण लक्ष्मण की जय हो, जय हो।’’ इधर युद्ध की विभीषिका समाप्त हो जाती है।