आकाश मार्ग से आते हुए सुगुप्ति और गुप्ति नामक दो मुनिराजों का पड़गाहन करके श्रीरामचन्द्र सीता के साथ भक्तिपूर्वक आहार दान दे रहे हैं, सामने वृक्ष पर बैठा एक गिद्ध पक्षी एकटक देख रहा है। उस आहारदान के समय देवतागण आकाश से रत्नवृष्टि करने लगे, दुंदुभि बाजे बजने लगे। इधर पंचाश्चर्य वृष्टि हो रही है, उधर गिद्ध पक्षी को मुनिराज के दर्शन से अपने अनेकों पूर्वभवों का स्मरण हो जाता है। वह आकुल-व्याकुल होकर वृक्ष के नीचे आ जाता है। उसे निकट आया देख सीता घबड़ा कर हल्ला मचाते हुए उसे दूर करने का प्रयत्न करती है किन्तु वह न हटकर पास में ही रखे हुए मुनि के चरणोदक को पीने लगता है। चरणोदक के प्रभाव से उसी समय उसका शरीर रत्नराशि के समान नाना प्रकार के तेज से युक्त हो जाता है। उसके दोनों पंख सुवर्ण के सदृश, पैर नील मणि के सदृश, शरीर नाना रत्नों की कांति के सदृश एवं चोंच मूंगे के सदृश दिखने लगती है। अपने आपको अन्य रूप हुआ देख वह हर्षित होता हुआ देवदुंदुभि की ध्वनि के साथ नृत्य करने लगता है। आहार के अनन्तर मुनिराज रामचन्द्र की प्रेरणा से पास के शिलातल पर बैठ जाते हैं उस समय वह पक्षी मुनिराज की तीन प्रदक्षिणा देकर उनके निकट हर्षाश्रु को गिराता हुआ विनीत भाव से बैठ जाता है। रामचन्द्र कौतुक पूर्ण दृष्टि से पक्षी को देखते हुए गुरु के चरणों में नमस्कार कर प्रश्न करते हैं- ‘‘भगवन् ! अत्यन्त विरूप का धारक यह पक्षी क्षणमात्र में रत्नों की कांति का धारक कैसे हो गया?’’ मुनिराज कहते हैं- ‘‘रामचन्द्र! इसे अपने अनेकों भवों का जातिस्मरण हो आया है अतः यह घबड़ाकर अब धर्म की शरण में आया है।’’ ‘‘प्रभो! इसे क्या जातिस्मरण हुआ है?’’ ‘‘सुनो!’’ इसी देश में कर्णकुण्डल नाम का एक मनोहर देश था। उस देश का परमप्रतापी महामानी दण्डक नाम का राजा था। उसकी रानी परिव्राजकों की भक्त थी। राजा दण्डक भी रानी के वशीभूत होने से उसी पापपोषक धर्म का आश्रय लेता था। किसी समय राजा ने ध्यान में स्थित एक महामुनि के गले में मरा हुआ सर्प डाल दिया। कई दिन बाद एक श्रावक उधर से निकला, यह दृश्य देखकर घबराया हुआ वह मुनि के गले से सर्प निकाल रहा था कि अकस्मात् राजा भी उसी मार्ग से निकले। उन्होंने पूछा- ‘‘यह क्या है?’’ श्रावक ने कहा-‘‘महाराज! नरक की खोज करने वाले किसी पापी ने अकारण ही इन महामुनि पर उपसर्ग किया है।’’ कुछ भी प्रतीकार नहीं करने वाले मुनि को उसी प्रकार ध्यानारूढ़ देख राजा ने मुनि को बार-बार प्रणाम किया और क्षमा याचना की।
पुनः यथास्थान चला गया। उस समय से राजा दिगम्बर मुनियों की भक्ति में तत्पर रहने लगा। राजा के इस धर्म परिवर्तन को देखकर एक परिव्राजक ने कुपित हो उपाय सोचा। पुनः उसने नग्न दिगम्बर मुनि के वेश को बनाकर रानी के साथ संपर्वâ किया। जब राजा को इस निंद्य कार्य का पता लगा तब वह पूर्व में मंत्री द्वारा कहे गये निग्र्रन्थ मुनियों के निंदा के वाक्यों का स्मरण कर-करके दिगम्बरों के प्रति पुनः द्वेष भाव को प्राप्त हो गया। पुनः दुष्ट लोगों के द्वारा प्रेरित हुए राजा ने अनेक सेवकों को कहा कि जितने भी दिगम्बर मुनि दिखें सभी को घानी में पेल दो। उस काल में वहाँ पर एक विशाल मुनि संघ आया हुआ था। आचार्य के साथ-साथ ही सभी मुनियों को किन्नरों ने राजाज्ञानुसार घानी में पेल डाला। सभी मुनि समता भाव से उपसर्ग को सहन कर उत्तम-उत्तम स्वर्ग को प्राप्त हो गये। उसी समय एक मुनि कहीं बाहर गये थे जो लौटकर वापस आ रहे थे। उन्हें देख किसी दयालु व्यक्ति ने कहा- ‘‘हे दिगम्बर रूपधारी महामुने! तुम इस वेष से इस नगरी में मत जाओ, ठहरो-ठहरो। अन्यथा तुम भी घानी में पेल दिये जाओगे।’’ मुनि ने पूछा- ‘‘क्यों, क्या बात है?’’ ‘‘महामुने! राजा ने कुपित होकर सारे मुनिसंघ को घानी में पिलवा दिया है।’’ संघ की मृत्यु के समाचार सुनते ही मुनि स्तब्ध रह गये। उन्हें ऐसी शल्य लगी कि उनकी चेतना अव्यक्त हो गई। उसी क्षण उन निर्ग्रन्थ मुनिरूपी पर्वत की शांतिरूपी गुफा से सैकड़ों दुःखों से प्रेरित हुआ क्रोधरूपी सिंह बाहर निकला अर्थात् मुनि के हृदय में क्रोध उत्पन्न होते ही उनके मुख से ‘हा’ शब्द निकला कि उसी के उच्चारण के साथ एकदम अग्नि का पुतला निकला। उससे चारों तरफ का वातावरण हाहाकारमय हो गया, लोग चिल्लाने लगे- ‘‘हाय माता! यह क्या हुआ?’’ ‘‘हाय हाय! यह ताप तो अत्यन्त दुस्सह है।’’
‘‘अरे रे! क्या अग्निदेव कुपित हो गये?’’ ‘‘हे भगवान् ! रक्षा करो, रक्षा करो।’’ देखते ही देखते उस अग्नि ने समस्त देश को भस्मसात् कर दिया। अंतःपुर, देश, नगर, पर्वत, नदियाँ, जंगल और प्राणी कुछ भी शेष नहीं रहे। महान् संवेग से युक्त मुनिराज ने चिरकाल से जो तप संचित कर रक्खा था वह सबका सब क्रोधाग्नि में दग्ध हो गया। पुनः दूसरी वस्तुएं भला कैसी बचतीं? दण्डक नाम के राजा के निमित्त से वह सारा देश दण्डक कहलाता था सो आज भी यह वन दण्डक नाम से प्रसिद्ध है। ‘‘हे रघुनन्दन! यह वही स्थान है जहाँ इस समय आप ठहरे हुए हैं। बहुत समय बीत जाने के बाद यहाँ की भूमि कुछ सुन्दरता को प्राप्त हुई है और ये वृक्ष, पर्वत, नदी, तालाब आदि दिखने लगे हैं। राजा दण्डक उस समय मरकर नरक गया था पुनः वहाँ से निकलकर त्रस-स्थावर योनियों में भटकता हुआ दुःख उठाता रहा। अब वही दण्डक राजा का जीव इस गिद्ध की पर्याय में आया है। इस समय हम दोनों को देखकर पाप कर्म की मंदता होने से यह जातिस्मरण को प्राप्त हो गया है।’’ ‘‘हे रामचन्द्र! देखो, जो राजा परम वैभव से युक्त था आज पाप कर्मों के कारण कैसा हो गया है? सो देखो! संसार में दूसरे के भी ऐसे उदाहरण जब जीवों की शांति के लिए हो जाते हैं तो पुनः यदि अपनी ही खोटी बात स्मरण हो जावे तो कहना ही क्या है?’’ रामचन्द्र से इतना कहकर वे मुनिराज अश्रु गिराते हुए उस गिद्ध पक्षी को सम्बोधित करते हुए कहने लगे- ‘‘हे द्विज! अब भयभीत मत होवो, मत रोवो, जो बात जैसी होने वाली होती है उसे अन्यथा कौन कर सकता है? धैर्य करो, निश्चिंत होकर कंपकंपी छोड़ो, सुखी होवो, देखो यह महावन कहाँ? और सीता सहित राम कहाँ? हमारा पड़गाहन कहाँ? और आत्मकल्याण के लिए दुःख का अनुभव करते हुए तुम्हारा प्रबुद्ध होना कहाँ? कर्मों की ऐसी ही चेष्टा है। कर्मों की विचित्रता के कारण ही यह संसार अत्यन्त विचित्र हो रहा है।’’ ‘‘हे पक्षिराज! तुमने धर्म के प्रसाद से यह एक नूतन शरीर प्राप्त कर लिया है और पाप के क्षीण हो जाने से तुम एक नूतन जन्म को ही प्राप्त हुए हो ऐसा समझो। अब संसार के समस्त दुःखों से छुड़ाने वाला ऐसा सम्यक्त्व ग्रहण करो, जिनेन्द्रदेव के सिवास अन्य किसी को देव मत समझो, निर्र्ग्रन्थ दिगम्बर मुनियों के सिवाय किसी को गुरु मत मानो और जैन आगम के सिवाय किसी के वचनों पर श्रद्धा मत रखो। देखो, मिथ्यात्व के ही निमित्त से तुमने ये भयंकर दुःख भोगे हैं। अतः मिथ्यात्व को महाशत्रु समझकर उससे दूर होवो। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांचों पापों से एकदेश विरक्त होवो क्योंकि सर्वदेश विरति तो पशु पर्याय में संभव ही नहीं है। इस समय इन व्रतों को धारण करो, रात्रि भोजन का त्याग करो और रात-दिन जिनेन्द्र भगवान् को हृदय में धारण करो, शक्त्यनुसार विवेकपूर्वक उपवास आदि नियमों का आचरण करो और साधुओं की भक्ति में तत्पर होवो।’’ मुनिराज के मुख से इस प्रकार के दिव्य उपदेश को सुनकर पक्षी ने अंजलि बांधकर बार-बार सिर हिलाकर तथा मधुर शब्द का उच्चारण कर उपदेश ग्रहण किया तथा मैं व्रत ग्रहण कर रहा हूं, ऐसा संकेत किया। उस समय प्रसन्नचित्त हो सीता बोली- ‘‘अहो! विनीत आत्मा को धारण करने वाला यह हम लोगों का विनोद करने वाला हो गया है।’’ पुनः मन्दहास्य करती हुई सीता अपने दोनों हाथों से उस गृद्ध पक्षी का स्पर्श करने लगी। तदनन्तर वे मुनि बोले- ‘‘रामचन्द्र! अब आप लोगों को इसकी रक्षा करना उचित है क्योंकि शांतचित्त हुआ यह बेचारा पक्षी अब कहाँ जायेगा? क्रूर प्राणियों से भरे हुए इस सघन वन में तुम्हें इस सम्यग्दृष्टि पक्षी की सदा रक्षा करनी चाहिए।’’
तब सीता ने कहा- ‘‘हे गुरुदेव! ऐसा ही होगा।’’ इतना कहने के बाद सबने पुनः पुनः मुनिराज को नमस्कार किया। मुनिराज भी सबको आशीर्वाद देकर आकाशमार्ग से विहार कर गये। उसी समय मदोन्मत्त हाथी को वश में कर उस पर सवार होकर लक्ष्मण वहाँ पर पहुँचे। रत्नों की राशि देखकर अग्रज की ओर देखने लगे। तब राम ने मुनि के आहारदान आदि का सारा वृत्तान्त सुना दिया। लक्ष्मण पहले तो अत्यन्त प्रसन्न हुए पुनः कुछ खेद प्रगट करते हुए बोले- ‘‘अहो! मुझे इन मुनियों के दर्शन का सौभाग्य नहीं मिला।’’ जिसे रत्नत्रय की प्राप्ति हुई है ऐसा वह पक्षी राम और सीता के बिना कहीं भी नहीं जाता था। अणुव्रत आश्रम में स्थित सीता भी उसे बार-बार मुनियों के उपदेश का स्मरण दिलाती रहती थी। वह राम, लक्ष्मण के पास ही क्रीड़ा किया करता था। सीता के द्वारा दिये हुए शाकपत्र का भोजन करता था। सीता ने उसके गले में छोटी-छोटी घंटियाँ तथा पैर में घुंघरू पहना दिये थे और जब कभी उसे ताल दे देकर नृत्य कराया करती थीं। उसके शरीर पर रत्न तथा सुवर्ण की किरणों के सदृश जटाएं सुशोभित हो रही थीं इसलिए रामचन्द्र आदि उसे ‘जटायु’ इस नाम से बुलाते थे और वह भी उन सबको बहुत ही प्यारा था। पात्रदान के प्रभाव से सीता सहित राम-लक्ष्मण उस समय रत्न, सुवर्ण आदि महती सम्पत्ति से युक्त हो गये थे। जिसमें चार हाथी जुते थे और विमान के समान सुन्दर ऐसे रथ पर सवार होकर इच्छानुसार क्रीड़ा करते हुए उस वन में सर्वत्र विचरण कर रहे थे।