राष्ट्रीय एकता एवं नैतिक मूल्यों की कसौटी पर जैन आचार
आज हम ही नहीं, अपितु संपूर्ण विश्व आने वाली कठिन और भयावह चुनौतियों से बेचैन और भययुक्त है। ऐसा क्यों हैं ? इसका विश्लेषण करना आज बहुत आवश्यक है। आज जब वैज्ञानिक उन्नति ने विश्व की दूरी बहुत कम कर दी है, तब हमारे पास सबसे बड़ा अवसर है कि विश्वबंधुत्व की भावना को साकार करने का प्रयास करें, किंतु इसके विपरीत हम दिनोंदिन पहले से कहीं ज्यादा छोटी इकाइयों में बाँटते चले जा रहे हैं। आज सर्वत्र सामाजिक व राजनैतिक व्यवस्था के बिखराव में हम देख सकते हैं कि निजि स्वार्थ के अलावा कोई भी नैतिक मूल्य नहीं रह गया है।’ मनुष्य मात्र अपनी चिंताओं में आत्म केद्रीत होता चला जा रहा है। हम जाति और कर्म के नाम पर मात्र मानव से मानव को जुदा होते हुए नहीं देख रहे हैं अपितु मानव से मापवता को भी अलग होते हुए तथा बढ़ता हुआ आतंक देख रहे हैं। आज यह संकट हमारे देश में ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व में है, किंतु नैतिक मूल्यों के ह्रास तथा एकता के इस संकट को अपने देश में इसलिए आसानी से रेखाकिंत कर सकते हैं क्योंकि हम दूसरे देशों की अपेक्षा कहीं अधिक, जातियों—उपजातियों, धर्मों—उपधर्मों तथा विविध संप्रदायों एवं विभिन्न भाषाओं में बँटे हुए हैं। राष्ट्रीय एकता के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि हम प्रांतीय, जातीय तथा संकीर्ण धार्मिक भावनाओं को तिलांजलि देकर इस बात का विशेष ध्यान रखें कि हम सबसे पहले भारतीय हैं तथा इसके बाद और कुछ। आज विज्ञान ने जहाँ विविध क्षेत्रों में भौतिक विकास और सुख—सुविधाओं की अनंत संभावनाओं के मार्ग प्रशस्त किए हैं, वहीं मनुष्य ही नहीं असंख्य जाति के जीवों के अस्तित्व पर भी प्रश्न चिन्ह लग रहा है। परमाणु हथियारों जैसी महाप्रलय की सामग्री तो खोज ली किंतु सहस्त्रों वर्षों से स्थापित नैतिक मूल्यों की पुर्नस्थापना के प्रति सजग नहीं हुए। यही कारण है कि बढ़ते आतंकवाद से भारत को ही क्या संपूर्ण विश्व के सभी राष्ट्रों को अपनी एकता और अखंडता का खतरा भयावह दिखलाई देने लगा है। आज विनाशकारी व भयानक युद्धों के खतरों और नाभिकीय शास्त्रों की होड़ तथा बढ़ते आतंकवाद से व्यक्ति, समाज, धर्म व राष्ट्र की एकता और अखंडता के विनाश का डर बना हुआ है। हम इस डर से मुक्त तभी हो सकते हैं, जब सभी व्यक्तियों में पारस्परिक मैत्री, सहयोग, शांति एवं नैतिकता के फूल सदा—सदा खिलते रहें और खुशियाँ बाँटते रहें। इन वर्तमान परिस्थितियों के समाधान हेतु भारतीय संस्कृति के प्राचीनतम जैन धर्म द्वारा प्रतिपादित नैतिक मूल्य, विशेषकर इसके सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक चारित्र रूपी रत्नत्रय के अंतर्गत सम्यक् चारित्र अर्थात् आचार संहिता और उसके सिद्धांतों की भूमिका की प्रासंगिकता और भी अधिक बढ़ गई है।
श्रमण संस्कृति का वैशिष्ट्य
== वस्तुत: श्रमण संस्कृति का आचार पक्ष प्रारंभ से ही उच्च आदर्श की पराकाष्ठा कर प्रतीक रहा है। यह श्रम और शम (शांति) के मूल्यों की स्थापना के लिए सदैव सजग रहा है। इसने भारतीय संस्कृति के विविध क्षेत्रों के विकास और मूल्यों की रक्षा में तो अहं भूमिका का निर्वाह किया ही साथ ही यह श्रमण संस्कृति देशभक्ति में भी सदैव अग्रणी रही है। महामनीषी डॉ. हीरालाल जैन ने ‘ भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान’ नामक अपनी पुस्तक में इस विषय पर अपने उद्गार व्यक्त करते हुए लिखा है— जैन धर्म अपने विचार व जीवन संबंधी व्यवस्थाओं के विकास में कभी किसी संकुचित दृष्टि का शिकार नहीं बना। उसकी भूमिका राष्ट्रीय दृष्टि से सदैव उदार और उदात्त रही है। उसका यदि कभी कहीं अन्य धर्मों से विरोध व संघर्ष हुआ है, तो केवल इसी उदारनीति की रक्षा के लिए । जैनियों ने अपने देश के किसी एक भाग को कभी अपनी भक्ति का विषय नहीं बनने दिया, अपितु तीर्थंकरों, आचार्यों और मुनियों आदि महापुरुषों के जन्म, तपश्चरण, निर्वाण आदि की वंदना के निमित्त से उन्होंने देश की पद—पद भूमि को श्रद्धा व भक्ति का विषय बना डाला है। चाहे धर्म प्रचारार्थ हो और चाहे आत्मरक्षार्थ, जैनी कभी देश के बाहर नहीं गए। दुर्भिक्ष और विपत्तियों के समय वे कहीं गए, तो देश के भीतर ही गए। जहाँ उन्होंने दक्षिण भारत को अपनी श्रद्धांजलि दी, वहीं तमिल के सुदूरवर्ती प्रदेश में भी उनके अनेक बड़े—बड़े आचार्य व ग्रंथकार हुए हैं। कर्नाटक में श्रमणबेलगोला व कारकल आदि स्थानों पर भगवान बाहुबलि की विशाल कलापूर्ण मूर्तियाँ आज भी इस देश की प्राचीन कला को गौरवांतित कर रही हैं। तात्पर्य यह है कि समस्त भारत देश आज राजनैतिक दृष्टि मात्र से ही नहीं, अपनी प्राचीनतम धार्मिक परंपरानुसार भी जैनियों के लिए एक इकाई और श्रद्धाभक्ति का भाजन बना है। इस प्रकार प्रांतीयता की संकुचित भावना एवं बाह्य अनुचित अनुराग के दोषों से निष्कलंक रहते हुए जैनियों की देशभक्ति सदैव विशुद्ध, अचल और स्थिर कही जा सकती है। देशभक्ति केवल भूमिगत ही हो, ऐसा भी नहीं है। जैनियों ने लोक—भावनाओं के संबंध में अपनी वही उदार नीति रखी है।भाषा के प्रश्न को ले लीजिए।जैनाचार्य धर्म प्रचारार्थ जहाँ—जहाँ गए, उन्होंने उन्हीं प्रदेशों में प्रचलित लोक—भाषाओं को अपनी साहित्य—रचना का माध्यम बनाया। यही कारण है कि जैन साहित्य में ही भिन्न—भिन्न कालीन शौरसेनी, महाराष्ट्री, अपभ्रंश आदि प्राकृत भाषाओं का पूरा—पूरा प्रतिनिधित्व पाया जाता है।हिंदी, गुजराती आदि आधुनिक भाषाओं का प्राचीनतम साहित्य जैनियों का ही मिलता है। यही नहीं किंतु दक्षिण की सुदूरवर्ती तमिल व कन्नड़ भाषाओं को प्राचीनकाल के साहित्य में होने का श्रेय संभवत: जैनियों को ही दिया जा सकता है। इस प्रकार जैनियों ने कभी भी किसी एक प्रांतीय भाषा का पक्षपात नहीं किया, सदैव देशभर की भाषाओं को समान आदरभाव से अपनाया। इस बात के लिए उनका उपलब्ध विशाल साहित्य साक्षी है। धार्मिक लोक — मान्यताआें की भी जैन धर्म में उपेक्षा नहीं की गई, उनका सम्मान करते हुए उन्हें विधिवत् अपनी परंपरा में यथास्थान सम्मिलित कर लिया गया है। राम और कृष्ण तथा लक्ष्मण एवं बलदेव आदि के प्रति जनता का पूज्य भाव रहा है व उन्हें अवतार पुरुष माना गया है। जैनियों ने तीर्थंकरो के साथ—साथ इन्हें भी त्रेसठ शलाका पुरुषों में आदरणीय स्थान देकर अपने पुराणों में विस्तार में उनके जीवन चरित्र का वर्णन किया है। उक्त सभी बातें किसी व्यापारिक सुविधा मात्र के विचार से ही नहीं लाई गई हैं, अपितु ये जैन धर्म के आधारभूत दार्शनिक व सैद्धांतिक पृष्ठभूमि से स्वभावत: ही उत्पन्न हुई हैं। भ्रम निवारण — यहाँ जैन—आचार के योगदान को अंकित करने के पूर्व जैन धर्म के विषय में फैली एक—दो भ्रांतियों का निराकरण करना आवश्यक है जो इस प्रकार है—
क्या जैन धर्म मात्र निवृत्ति मार्गी है ?
== भारतीय संस्कृति एवं इतिहास अथवा शिक्षा जगत् में धर्म—दर्शन विषयक पाठ्पुस्तकों एवं अन्य पुस्तकों में जैन धर्म के परिचय के विषय में अनेक भ्रांत धारणाएँ पढ़ने में आती हैं। उनमें एक विषय भ्रांत धारणा आम लोगों में , यहाँ तक कि कुछ जैन विद्वानों में ही गहराई से फैली हुई है कि जैन धर्म निवृत्ति प्रधान फल है। इस धारणा का निराकरण भी जरूरी है क्योंकि ऐसा जैन धर्म के अनेकांतवादी दृष्टिकोण के भी विरुद्ध है। वास्तविकता तो यह है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति संभव नहीं है और निवृत्ति के बिना प्रवृत्ति नहीं बन सकती। प्रवृत्ति और निवृत्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक के संपूर्ण निषेध से जीवन दूभर हो जायेगा क्योंकि जीवन का रथ तो प्रवृत्ति और निवृत्ति के चक्रों पर घूमता है।प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव आदिनाथ ने तो सर्वप्रथम प्रवृत्तिमार्गी धर्म का उपदेश देकर लोगों को जीवन जीने की कलाएँ सिखाई तथा फिर आत्मिक विकास हेतु निवृत्ति मार्ग का उपदेश दिया। तीर्थंकर शब्द ही प्रवृत्ति का सूचक है। प्रवृत्ति का इससे बढ़कर समन्वय और कहाँ मिलेगा ? इसलिए जैन धर्म के मात्र निवृत्तिवादी होने की यह आम भ्रांत धारणा की समाप्ति हेतु सभी को प्रयास करना आवश्यक है। अनेक बार यह प्रश्न उठता है—जैन धर्म आचार प्रधान एक श्रेष्ठ धर्म है, आदर्शपूर्ण धर्म है, फिर जैनियों की संख्या कम क्यों है? यदि धर्म—प्रसार—प्रचार के लिए अग्रणी जैन महापुरूष जैन धर्म अपनाने के लिए बल प्रयोग करते तो शायद धरती पर सबसे अधिक जैन ही होते। उनका मत है कि मात्र संख्यात्मक दृष्टि से कुछ अधिक होने की अपेक्षा गुणात्मक रूप में कम संख्या प्रभावी और अच्छी कहलाती है। इसलिए आज जैन कम हैं। हमें संख्या से मतलब नहीं क्योंकि बहुत विशालता भी काम नहीं देती। समुद्र बहुत बड़ा होता है पर खारा होता है कुआँ छोटा होता है, पर उसका पानी मीठा होता है । अत: किसी धर्म के अनुयायियों की जनसंख्या अधिक है, इसका महत्व नहीं। महत्व इसका है कि उसके अनुयायी कैसे हैं ? किसी देश में शस्त्र बहुत हैं, धन बहुत है, विशाल अट्टालिकाएँ हैं, परंतु इससे वह देश महान नहीं बनता, देश महान बनता है सुरक्षित व सदाचारी आदर्श नागरिकों से। राष्ट्रीय एकता में बाधक तत्वों का विशलेषण भी आज आवश्यक है। हमारे देश में जो भी दंगे या हादसे हुये हैं, उनके पीछे धार्मिक वैमनस्य, जातिवाद एवं भाषायी झगड़े आदि प्रमुख कारण रहे हैं। वस्तुत: मनुष्य की सोच का दायरा बहुत बार इतना छोटा दिखाई दिया है कि सारी मानवता काँप उठी है। बच्चों के झगड़ों से शुरू होने वाली मामूली—सी घटनाएँ जब जाति और धर्म के नाम पर बड़े—बड़े सांप्रदायिक दंगों को आग में बदलने लगे, तब हम मानव और मानवता को ऊँचे उठाने की बात कैसे सोच सकते हैं ? कभी—कभी इन धार्मिक और जातीय उन्मादों को देखने से लगता है कि कुछ लोगों ने जाति और धर्म को काँच का नाजुक बर्तन बना दिया है, जो छोटे—से वंâकड़ या धक्के से टूट जायेगा। किंतु इन्हीं विषम परिस्थितियों के बीच इसी समाज में ऐसे भी लोग हैं जो सारी दुनिया के लोगों को ‘मानवता’ और सभी जीवों को सुख शांति का जीवन देने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं और संदेश देते हुए कहते हैं—
माध्यस्थ भावं विपरीतवृत्तों सदा मतात्मा विद्धातु देव ।।
बचपन से ही नैतिक शिक्षा की आवश्यकता
नैतिक मूल्यों के ह्रास से देश एवं समाज में अराजकता की प्रवत्ति को प्रोत्साहन मिलता है। पहले जिस तरह बच्चों के पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा के तत्वों का समावेश रहता था। आज की शिक्षा उनसे शून्य है। घर—बाहर कहीं भी ऐसा स्थान या क्षेत्र नहीं है, जहाँ वह नैतिकता का पाठ पढ़कर सच्चा नागरिक बन सके। इसके विपरीत बच्चे को बचपन से ही हिंसा या अन्य बुराइयों के शिक्षा संस्कार घर व बाहर सर्वत्र मिलते हैं। आज के प्रतिकूल वातावरण के साथ ही विज्ञान ने विभिन्न तकनीकी के अनेक सहज—सरल और सस्ते साधन दे दिये हैं— टेलीफोन, मोबाइल, इंटरनेट, ईमेल, कार्टून फिल्म, फैसबुक , शताधिक सैटेलाइट चैनलों से मनोरंजन आदि के बहाने घर—घर दस्तक देने वाले टेलीविजन और नए—नए संचार माध्यमों ने बच्चों के मानस पटल को इस प्रकार जकड़ रखा है कि वे अपना भोजन पानी, पढ़ाई, नींद तथा सामान्य व्यवहार सब कुछ भूलकर इसी रंगीन पर्दे पर अपनी आँखें गड़ाए रखते हैं। लिहाजा देश का भविष्य व देश की रीढ़ कहलाने वाले बच्चों एवं युवाओं के भीतर नैतिक मूल्यों के प्रति उपेक्षा होने लगती है। आज बच्चे खिलौनों के नाम पर हाथ में प्लास्टिक की बंदूकों और स्टेनगनों से अपनों पर ही हिंसा का अभ्यासपूर्ण करतब दिखाते हुए भविष्य में कदम रख रहें हैं। जिसे निश्चित ही शुभ लक्षण नहीं माना जा सकता है। इस तरह बच्चे और युवा न केवल अपने देश की परंपराओं, संस्कारों,नैतिक मूल्यों और इतिहास से दूर हटते जा रहे हैं, अपितु आने वाले समय में उन्हें अपने देश की महान विभूतियों का बौद्धिक, दार्शनिक तथा आध्यात्मिक चिंतन महज मूल्यहीन और व्यवहारहीन लगने लगता है। परिणामत: जब ऐसे ही बच्चे राष्ट्र की धुरी बनने के मुकाम पर खड़े होंगे, उस समय सबके सामने एक भयावह और खतरनाक संकट की स्थिति उत्पन्न हो चुकी होगी। विज्ञान के बढ़ते इन कदमों और संचार माध्यमों के नित बढ़ते साधनों को अनदेखा करना भी मुश्किल है। आज कोई कहे कि टी.वी. इंटरनेट,फैसबुक आदि का प्रयोग मत करो तो बेमानी होगी। किंतु राष्ट्रीय एकता, नैतिक एवं आदर्श जीवन जीने की प्रेरणा देने वाले कार्यक्रम दिखाकर तथा विज्ञान आदि के वे कार्यक्रम दिखाकर, जिनमें अपनी मिट्टी की भीनी—भीनी महक आए और बच्चों के भीतर से आक्रोश, खींझ, बदले की भावना, हथियार चलाना, बात—बात पर उत्तेजित होना, बड़ों का सम्मान न करने की बजाय शिक्षा, धैर्य, संतोष, पारस्परिक,सहयोग, बड़ों का आदर, अपने अच्छे कार्य और उद्देश्य के लगन पैदा हो ; सकारात्मक सोच वाला बचपन सुरक्षित रह सकता है। बालक ही भविष्य निर्माता है। अत: उसके भविष्य को सँवारने हेतु व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र व अंतराष्ट्रीय धरातल पर सुख—सौभाग्य अर्जित करने का प्रयास करना आवश्यक है। हमारी सुंदर पृथ्वी पर मानव के सुख—सौभाग्य के लिए सभी साधन उपलब्ध हैं। अत: शांति, मैत्री व परस्पर सहयोग से रहते हुए भी अपने और संपूर्ण राष्ट्र तथा संपूर्ण पृथ्वी के सुख—सौभाग्य को बनाए रखने के प्रयास करने चाहिए। यदि हम सच्चे मायने में राष्ट्रीय एकता स्थापित करना चाहते हैं तो उन नैतिक मूल्यों की स्थापना आवश्यक है, जो मानव को मानव से जोड़ते हैं, मानवता की रक्षा करते हैं साथ ही जो लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करते हैं और सांस्कृतिक तथा पारस्परिक विरासत को सम्मान प्रदान करते हैं। इसके लिए हमें जाति और धर्म के नाम पर राष्ट्रीय एकता होने वाली बाधाओं को दूर करना होगा। यदि हम ऐसा नहीं कर पाते तो वह आधुनिकता का दंभ भरने वाली हमारी नई पीढ़ी की हार है। उस आधुनिक और सांस्कृतिक समृद्धि का क्या महत्व है, जो जाति और धर्म के नाम पर दम तोड़ दे और हमें एक—दूसरे का गला काटने के लिए प्रेरित करे। मनुष्य की श्रेष्ठता दीर्घ आयुष्य के कारण नहीं, अपितु उसे प्राप्त हुई मानवता के कारण है। और वह मानवता जीवन की शुद्धि पर अवलंबित है। चित्त की निर्मलता, कर्मों की परिशुद्धि, सदगुणों की पूर्णता, सदैव सजगता, विवेक की सूक्ष्मता आदि आत्मोत्कर्ष की ओर बढ़ने के साधन हैं और इन्हीं से श्रेष्ठ मानवता प्राप्त होती है। धर्म और उसके आचार का वह स्वरूप श्रेष्ठ है जो मानवीय दृष्टिकोण को सबसे ज्यादा अहमियत देता है और जिसमें प्रत्येक मानव के लिए उसकी खोज की जाती है। धर्म को विश्वधर्म के रूप में अभिव्यक्त करने के लिए जरूरी है कि प्रत्येक व्यक्ति नैतिकता एवं राष्ट्रीय एकता को प्रधानता दे। जैन आचार में वे सब विशिष्टताएँ हैं जिन्हें विश्व का प्रत्येक व्यक्ति अपना सकता है तथा उससे वह इस जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। श्रावकाचार और श्रमणाचार— जैन धर्म श्रावकाचार और श्रमणाचार में विभक्त है। आध्यात्मिक विकास की पूर्णता में श्रावक का आचार पूर्वार्ध और श्रमण का आचार उत्रार्थ है। श्रमण धर्म की नींव श्रावक धर्म पर मजबूत होती है। श्रावक त्यागपूर्वक भोग के समन्वय को ध्यान में रखकर आध्यात्मिक विकास में आगे बढ़ता है।जहाँ एक ओर श्रमण अर्थात् जैन मुनि नैतिक मूल्यों का प्रचार—प्रसार करते हुए बिना किसी भेदभाव के समाज और राष्ट्र के चरित्र निर्माण में प्रशस्त भूमिका का निर्वाह करते हैं, समाज में व्याप्त बुराइयों, कुरीतियों, नशाखोरी, धर्मांधता, व्यसनों को दूर करने हेतु जागरूकता का व्यापक प्रसार करते और आर्दश , चरित्रवान संयमी नागरिक बनने का अलख जगाते रहते हैं, वहीं सदाचार का पालन का पालन करने वाले श्रावक अपने सुसंस्कारों और शुभ संकल्पों से धर्म, संस्कृति, इतिहास, समाज की समृद्धि में महान योग करते हुए राष्ट्रोन्नति में महनीय योगदान कर सकते हैं। श्रावकाचार मुख्यत: बारह व्रतों में पूर्ण माना जाता है जिनमें पाँच अनुव्रत — अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह; तीन गुणव्रत— दग्व्रत, देशव्रत ओर अनर्थदंडव्रत तथा चार शिक्षाव्रत—सामाजिक, प्रोषधोपवास, भोगाप भोग—परिणाम एवं अतिथि संविभाग सम्मिलित हैं। इस तरह श्रावकाचार एक प्रथम सोपान है, जिसमें इन बारह व्रतों के साथ ही सामायिक,चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान— इन छह आवश्यक क्रियाओं के पालन से प्रत्येक व्यक्ति अपने को सभी प्रकार की बुराइयों से बचा सकता है। इनके माध्यम से नैतिक मूल्यों की पुन: स्थापना हो सकती है और नैतिक मूल्यों से ही देश की एकता एवं अखंडता अक्षुण्ण रह सकती है। श्रमणाचार का भव्य प्रासाद अट्ठाईस मूल गुणों पर आधारित है, जो इस प्रकार हैं— पाँच महाव्रत—हिंसा—विरित, सत्य, अदत्त—परिवर्जन (अचौर्य), ब्रह्मचर्य और संग—विमुक्ति (अपरिग्रह); पाँच समिति—ईष्र्या, भाषा, एषण, निक्षेपादन और प्रतिष्ठापनिका; पाँच इंद्रियनिग्रह, छह आवश्यक—समता, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान तथा कायोत्सर्ग और शेष सात अन्य मूल गुण—लोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदंतघर्षण, स्थितिभोजन और एकभक्त। इस तरह ये अट्ठाईस मूल गुण श्रमणधर्म की आधारशिला हैं। श्रमण का पर्याय यूँ तो आत्म—कल्याण के लिए ग्रहण किया जाता है, परंतु श्रमण के पर्याय प्राप्त करते ही उसके स्वार्थ तिरोहित हो जाते हैं और वह अपनी सारी वैयक्तिकता को विश्राम दे देता है जिससे उसके हृदय में निर्वेयक्तिता जाग उठती है। यही वह तथ्य है, जो उसे अन्य और सब स्थितियों से ऊपर उठाकर संपूर्ण विश्व के कल्याण में प्रवृत्त करता है। उसकी एक—एक क्रिया उस समय अति महत्वपूर्ण हो जाती है। वह जगत् का उपकर्ता हो जाता है। वर्तमान अनेक अनुकूलताओं, विषमताओं के मध्य राष्ट्र एवं समाज को मर्यादित तथा नैतिक बनाने में साधु संस्था महत्पूर्ण योगदान देती है। ये साधु समाज से सिर्फ भोजनादि आवश्यक साधन लेकर समाज के नैतिक आदर्शों को जीवत रखते हैं। यदि हम परस्पर प्रेम, स्नेह और सद्भावना के प्रतीकरूप समाज की कल्पना करते है, हमारे बच्चों और भावी पीढ़ी में संस्कार चाहते हैं, तो इन उच्चादर्शों के पालन करने वाले साधुओं के महत्व का स्वीकार करना ही होगा। आज जैन धर्म के प्रति जैनेत्तरों का आकर्षण उसके विशाल और विविध साहित्य और तत्वज्ञान की अनूठी प्रतिपादन शैली के कारण है। इसके अनेकांतवाद और स्याद्वाद का सिद्धान्त विश्व के लिये वरदान है तथा अहिंसा का उद्घोष विश्वशांति का मूल है।आज के संदर्भ में अत्याधिक उपयोगी होते हुए भी इन सिद्धांतों का प्रचार—प्रसार व्यापक न हो पाने से लोग इनकी महत्ता से परिचित ही नहीं हो सके। अहिंसा तो जीवन का शृंगार है, वह तो जीव का स्वभाव में रहकर ही जीवित रह सकता है, विभाव में नहीं। इसलिए हिंसा किसी को प्रिय नहीं है। अहिंसा के बिना समाज, राष्ट्र और विश्व की संपूर्ण व्यवस्था ही विकृत हो जाती है। अहिंसा जीवों में परस्पर विश्वबंधुत्व की भावना उत्पन्न करती है और मनुष्य मात्र को ही नहीं अपितु जीवत्व की दृष्टि से सूक्ष्म से सूक्ष्म और बड़े से बड़े सभी प्रकार के जीवों में समानता की भावना पैदा करती है, जो कि राष्ट्रीय ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व की एकता की कल्पना को साकार करने का सामथ्र्य रखती है। जीवन का कोई कार्य चाहे वह किसी भी क्षेत्र का क्यों न हो, अहिंसा के बिना हो ही नहीं सकता। गिरते को उठाना, दलित—पतितों को गले लगाना, दूसरों की उन्नति की चाह, वात्सल्य भाव— ये सभी गुण अहिंसक—भावना के विकास के सूचक हैं। आचारांगसूत्र में दोहरी मूर्खता को समझाते हुए कहा गया है कि आदमी की एक मूर्खता तो यह है कि वह हिंसा करता है और दूसरी मूर्खता यह है कि वह हिंसा को हिंसा नहीं मानता। सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों के प्रति आत्मीयता भाव की जागृति भारतीय संस्कृति के प्राणतत्व है, जिन्हें अहिंस, करुणा, दया, मैत्री आत्मीपम्य या समत्व की अनुभूति जैसे किसी भी गरिमामय शब्द से अभिव्यंजित किया जा सकता है। इसी के आधार पर भारत ने राष्ट्रीय अस्मिता को स्वतंत्र पहचान दी तथा विश्व का आध्यात्मिक गुरु बन सका। इसी के आधार पर मानवीय सभ्यता और संस्कृति ने सुख, शांति एवं समृद्धि से परिपूर्ण अखंड—मानव—समाज की परिकल्पना की।