जुबां में शराफत की पहचान रखना, ना टूटे कोई दिल जरा ध्यान रखना,
मुश्किल से मिलते हैं रिश्ते जमीं पर, रिश्तों का नजरों में सम्मान रखना।’
प्राय: हमारे बुजुर्ग हमें बताते रहते हैं कि सामाजिक समरसता के लिये रिश्तों का दृढ़ता से निर्वाह करना आवश्यक है। सुख हो या दु:ख दोनों ही परिस्थितियों में रिश्तों का प्रभाव देखा जाता है। कहते हैं कि सुख यदि रिश्तेदारों के साथ मिलकर बांट लिया जाता है तो उसका आनंद दोगुना हो जाता है और दु:ख के समय रिश्तेदारों का साथ हो तो दु:ख आधा रह जाता है। ये रिश्ते रक्त संबंध के तो होते ही हैं, रिश्तों की प्रगाढ़ता पड़ौसियों में भी बन जाती है, रिश्तों का दायरा जब सामाजिक स्तर पर बढ़ता है तो व्यापक हो जाता है। हम सभी जानते हैं कि जब कभी हम रेल, बस में सफर करते हैं तो आपसी वार्तालाप करते—करते अपने प्रेम भरे व्यवहार की नींव आपकी मधुर वाणी, शालीन व्यवहार एवं आपके दृष्टिकोण की पृष्ठभूमि से तैयार होती है। आज से ५० वर्ष पूर्व के सामाजिक वातावरण में जो अपनत्व की गरिमा दिखाई देती थी, उस गरिमा की उष्मा का वर्तमान में अभाव सा है।जीवन में हो रही भागदौड़ से रिश्तों में काभी बदलाव आये हैं। सामाजिकता की रूढ़ पद्धतियां अब आकार बदल रही हैं। बदलाव के इस भागमभाग भरे दौर में जातिबंधन शिथिल होते जा रहे हैं। सामाजिक परम्पराओं को अब रूढ़िवादिता मानकर नजरअंदाज किया जाने लगा है। संयुक्त परिवार की ‘हम’ की भावना अब एकल परिवार में ‘मैं’ में बदल चुकी है। जहां पहले परिवार में ५—६ बच्चे हुआ करते थे, समय की पुकार एक या दो बस होने लगे और अब तो दम्पत्ति या तो संतान चाहते ही नहीं अथवा एक ही संतान का सूत्र अपनाने लगे हैं। अब लगता है कि रिश्तों की डोर शनै:शनै: कटती जा रही है और एक समय ऐसा आयेगा कि भाई—बहन, चाचा—मामा, मौसी—बुवा जैसे संबंध देखने और सुनने में भी नहीं आयेंगे। भौतिकता की दौड़ में भागते हुए, गलाकाट महंगाई के इस युग में शिक्षा के वर्तमान स्वरूप ने लोगों की मानसिकता एवं मान्यताओं को बदला है और जो परिवर्तन समाज में आ रहा है उसने रिश्तों की अहमियत पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। आज से २५ वर्ष पूर्व पर दृष्टिपात करें तो हम पाते हैं कि तब अपना गांव या शहर छोड़कर बड़े शहरों या विदेशों में जाकर पढ़ने वालों या नौकरी करने वालों की संख्या अति अल्प थी, उनमें भी लड़कियों को तो बाहर जाने का चांस बहुत कम ही मिला करते थे। समय बदला है और अब १२ वीं क्लास की पढ़ाई खत्म होते ही बच्चों का डॉक्टरी, इंजीनियरिंग, एम.बी.ए., सी.ए., अथवा अन्य किसी भी उच्च शिक्षा के लिये शहर से बाहर जाना सामान्य अथवा यों कहें कि गर्व की बात हो गई है। देश के कई बड़े शहर पूना, बाँम्बे, हैदराबाद, दिल्ली, मद्रास, कोटा आदि एजुकेशन हब्स के रूप में प्रसिद्ध हो चुके हैं और बड़ी संख्या में लड़के—लड़कियां अपने शहर को छोड़कर अन्य शहरों में जाने लगे हैं। उनका आना—जाना, मिलना—जुलना, पढ़ना, नौकरी करना संबंधों की नई कहानियां लिख रहा है। ‘लिव इन रिले्नानशिप’ की बढ़ती चाहत ने वैवाहिक प्रक्रिया का स्वरूप बदल दिया है। युवावस्था ने घर से बाहर निकलकर अचानक मिली स्वतंत्रता को स्वच्छंदता में बदला और कल के परिवारिक सामाजिक प्रतिबंधों की डोर टूटते ही युवाओं की भटकन के किस्से आम हो जा रहे हैं।युवावस्था में टी.वी. और फिल्मों की महक में वयस्क बच्चे बहक जाते हैं और असंयमित आकर्षण के दुष्परिणाम से अनजान ये बालक उचित अनुचित में भेद नहीं कर पा रहे हैं। परिणामत: शादी से पूर्व संबंधों में वृद्धि हुई है। विवाह संबंध के लिये अब माता—पिता या परिवारजनों की राय कोई मायने नहीं रखती बल्कि बच्चे स्वयं अपना संबंध तय करने लगे हैं। स्टेट्स, योग्यता, नौकरी की समरूपता विवाह का पैमाना बन गई है और जातिगत पारिवारिक, सामाजिक संबंधों पर पैकेज का आकर्षण हावी होता जा रहा है। समान योग्यता, समान नौकरी के चलते तत्कालिक आकर्षण से निर्मित वैवाहिक संबंधों के विच्छेद की घटनाएं बढ़ने लगी हैं, ‘अहं’ भाव से ग्रसित युवा दम्पत्ति का जीवन ‘प्रेम—रस’ से रहित होजा जा रहा है। समर्पण, सामंजस्य, सहिष्णुता से शून्य दाम्पत्य जीवन सजा सा होता जा रहा है अत: कभी—कभी इसकी परिणति हत्या— आत्महत्या तक में देखी जाने लगी है। आज जब हम इन परिस्थितियों पर विचार करते हैं तो हमें बच्चों के स्वयं का,माता—पिता का,परिवार का, जाति का तथा समाज का भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा है। भौतिक रूप से होने वाली समृद्धि समाज को समृद्ध नहीं बना सकती। उच्च शिक्षा से शिक्षित पीढ़ी, रिश्तों पर आधारित पारिवारिक गौरव की महत्ता से अनभिज्ञ है। नैतिक संस्कारों के बीजारोपण के केन्द्र आपसी रिश्तों से रिक्त होते जा रहे हैं अब तो माता—पिता के घर में संतान मेहमान हैं तो बेटे—बहू के घर में माता—पिता अतिथि। दु:ख—दर्द को बांटने का जज्बा शनै: शनै: औपचारिकता में बदल गया है। प्रदर्शन और प्रतिष्ठा के चक्कर में समयानुकूल व्यवहार से व्यक्ति अनजान सा होता जा रहा है और किस क्षण में, किस तरह की वेशभूषा हो ? किस समय हमारा आचरण कैसा हो ? इसका विचार व्यक्ति कर नहीं पा रहा है। परिवारिक संबंधों का घटता दायरा और दोस्तों तथा गैर पारिवारिक संबंधों के बढ़ते प्रभाव ने रिश्तेदारों को पीछे धकेल दिया है जबकि सत्यता यह है कि चाहे व्यक्तिगत जीवन की खुशियां हो या पारिवारिक जीवन के उत्तरदायित्व, जातिगत नियम की अनुशंसा हो या सामाजिक जीवन के सह—संबंध सभी आपसी निश्छल प्यार की डोर से बंधे रहें तो आदर्श सथापित करते हैं। फिर वह रिश्ता मां—बेटे का हो या सास—बहु का, ननंद—भौजाई का हो या देवर—भाभी का, जीजा—शाली का हो या बुआ—भतीजे का , बहन—भाई का हो या पति—पत्नी का, गुरू—शिष्य का हो या पड़ोसी—पडोसी का प्रत्येक रिश्ता सामाजिक जीवन की आधारशिला है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्धा के इस युग में अपने बालकों को उच्च शिक्षित करने से पहले संस्कारों का पाठ पढ़ायें, जीवन–विकास की धरती में नैतिकता का बीजारोपण करें, वर्तमान माहौल में दृढता से खड़े होने, मुसीबतों से मुकाबला करने, परिस्थितियों पर विजय पाने के लिये हिम्मत का पाठ पढाये और अध्यात्म के महत्व को प्रतिपादित करें। रिश्तों को जीवंत बनाने के लिये हमें अपने बालकों को प्रारंभ से सिखाना हो—
‘जिंदगी में सदा मुस्कुराते रहो’ फासले कम करो , दिल मिलाते रहो।’