तेरहवाँ द्वीप रुचक नाम का है। उसके मध्य में तपाये हुये सुवर्ण के समान कान्ति वाला वलयाकार रुचक नाम का पर्वत स्थित है।।६८।। वह विस्तार और उँचाई में महान् अंजनगिरि के समान (८४००० यो.) है। उसके शिखर के ऊपर पूर्व दिशा में ये आठ कूट माने गये हैं—कनक, कांचन, तपन, स्वस्तिक, सुभद्र, अंजन, अंजनमूल और वङ्का।।६९-७०।। ये कूट सहस्र के आधे अर्थात् पाँच सौ (५००) योजन उँचे और मूल में उतने (५०० यो.) ही विस्तृत हैं। शिखर पर उनका विस्तार उससे आधा (२५०) है। इनके ऊपर जो प्रासाद स्थित हैं वे गौतमदेव के प्रासादों के समान हैं। इन कूट के ऊपर उक्त प्रासादों में विजया आदि (वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता) चार तथा नन्दा, नन्दवती, नन्दोत्तरा और नन्दिषेणा ये आठ दिक्कुमारी देवियाँ रहती हैं।।७२।। स्फटिक, रजत, कुमुद, नलिन, पद्म, शशी नामक (चन्द्र), वैश्रवण और वैडूर्य ये आठ वूकूटर्वदिशागत कूटके ही समान होकर दक्षिण दिशा में स्थित हैं। इन कूटके ऊपर निम्न दिक्कुमारी देवियाँ स्थित हैं—इच्छा, समाहार, सुप्रतिज्ञा, यशोधरा, लक्ष्मी, शेषवती, चित्रगुप्ता और वसुंधरा।।७३-७५।। अमोघ, स्वस्तिक, तीसरा मन्दर, हैमवत, राज्य, राज्योत्तम, चन्द्र और सुदर्शन; ये आठ वकूटचक पर्वत के मध्य में पश्चिम दिशा में स्थित जानना चाहिये। उनके ऊपर ये दिक्कुमारिकायें निवास करती हैं—इलादेवी, सुरादेवी, पृथिवी, पद्मवती, एकनासा, नवमिका, सीता और आठवीं भद्रा।।७६-७८।। विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित, कुण्डल, रुचक, रत्नवान् और सर्वरत्न; ये आठ कूटके ऊपर उत्तर दिशा में स्थित हैं।।७९।। इनके ऊपर ये आठ दिक्कुमारी देवियाँ रहती हैं—अलंबूसा, मिश्रकेशी, तृतीय पुण्डरीकिणी, वारुणी, आशा, सत्या, ह्री और श्री।।८०।। इनमें से पूर्व दिशा में स्थित उक्त आठ दिक्कुमारिकायें झारियों को, दक्षिणदिशागत आठ देवियाँ उत्तम दर्पणों को, पश्चिमदिशावासिनी छत्रों को तथा उत्तरदिशा की आठ दिक्कन्यायें चामरों को ग्रहण कर; इस प्रकार वे सुसज्जित बत्तीस (३२) दिक्कुमारिकायें तीर्थंकरों के जन्मकल्याणकों में सविनय सेवा करने के लिये उपस्थित होती हैं।।८१-८२।। उक्त कूकूटके अभ्यन्तर भाग में पूर्व (आदि दिशाओं में क्रम से) में विमल कूटत्यालोक, स्वयंप्रभ और नित्योद्योत ये चार कूटकूटत हैं। वे सब गृहमानों से समान हैं।।८३।। इनमें से विमल कूट कूटपर कनका, दक्षिण कूट कूटपर शतह्रदा, पश्चिम कूट कूटपर कनकचित्रा और उत्तर कूट कूटपर सौदामिनी देवियाँ स्थित हैं।।८४।। वे देवियाँ तीर्थंकरों के जन्मकालों में दिशाओं को उद्योतित करती हैं। ये सब देवियाँ परिवार आदि में श्रीदेवी के समान मानी गई हैं।।८५।। उनके भी अभ्यन्तर भाग में वैडूर्य, रुचककूट,कूट कूटन्तिम राज्योत्तम ये चार कूट कूटत हैं। इनका प्रमाण पूर्व कूटोंकूट समान है।।८६।। उनके ऊपर रुचका, रुचककीर्ति, रुचककान्ता और रुचकप्रभा ये चार दिक्कुमारिकायें रहती हैं जो तीर्थंकरों के जातकर्म को समाप्त किया करती हैं।।८७।। उन कूटोंकूट अभ्यन्तर भाग में पूर्वादिक दिशाओं में चार सिद्धकूटत हैं। इनके ऊपर पूर्वोक्त जिनभवनों के समान प्रमाण वाले चार जिनभवन हैं।।८८।। इसकी दिशाओं में, विदिशाओं में और आठ अन्तर्दिशाओं में भी सोलह चैत्यालय स्वीकार किये गये हैं जो प्रमाण में निषधपर्वतस्थ जिनभवनों के समान हैं।।८९।। कहा भी है— रुचक पर्वत के ऊपर दिशाओं में चार, विदिशाओं में चार और अन्तदिशाओं में आठ इस प्रकार सोलह सिद्धकूट कूटत हैं जो ऊँचाई आदि में निषध पर्वत के सिद्धकूट कूटमान हैं; ऐसा कुछ आचार्य स्वीकार करते हैं।।५।। अन्तिम द्वीप स्वयम्भूरमण है। उसके मध्य में एक हजार योजन अवगाह वाला स्वयंप्रभ पर्वत स्थित है।।९०।। रत्नकिरणों से दिशाओं को प्रकाशित करने वाले एवं वेदी से संयुक्त उस पर्वत के विस्तार, उँचाई और कूटोंकूट प्रमाण जितना जिनेन्द्रों के द्वारा देखा गया है उतना जानना चाहिये। अभिप्राय यह है कि उसका उपदेश नष्ट हो चुका है।।९१।। मानुषोत्तर शैल, कुण्डलगिरि, रुचक पर्वत और स्वयंप्रभाचल ये चार पर्वत वर्तुलाकार माने गये हैं१।।९२।।