तेरहमो रुचकवरो दीवो चेट्ठेदि तस्स बहुमज्झे। अत्थि गिरि रुचकवरो कणयमओ चक्कवालेणं१।।१४१।।
सव्वस्स तस्स रुंदो चउसीदिसहस्सजोयणपमाणं। तम्मेत्तो उच्छेहो एक्कसहस्सं पि गाढत्तं।।१४२।।
मूलोवरिम्मि भागे तडवेदीउववगाइं चेट्ठंति। तग्गिरिणो वणवेदिप्पहुदीहिं अधियरम्माइं।।१४३।।
तग्गिरिउवरिमभागे चउदाला होंति दिव्ववूडाणिं। एदाणं विण्णासं भासेमो आणुपुव्वीए।।१४४।।
कणयं वंचणवू तवणं सत्थियदिसासुभद्दाणिं। अंजणमूलं अंजणवज्जं वूडाणि अट्ठ पुव्वाए।।१४५।।
पंचसयजोयणाइं तुंगा तम्मेत्तमूलविक्खंभा। तद्दलउवरिमरुंदा ते वूडा वेदिवणजुत्ता।।१४६।।
५००। ५००। २५०।
ताणोवरि भवणाणिं गोदमदेवस्स गेहसरिसाणिं। जिणभवणभूसिदाणिं विचित्तरूवाणि रेहंति।।१४७।।
तेरहवाँ द्वीप रुचकवर है। इसके बहुमध्यभाग में मण्डलाकार से सुवर्णमय रुचकवर पर्वत स्थित है।।१४१।। उस सब पर्वत का विस्तार चौरासी हजार योजन, इतनी ही उँचाई और एक हजार योजनप्रमाण अवगाह है।।१४२।। उस पर्वत के मूल व उपरिम भाग में वनवेदी आदिक से अधिक रमणीय तटवेदियाँ व उपवन स्थित हैं।।१४३।। इस पर्वत के उपरिम भाग में जो चवालीस दिव्य कूट हैं, उनके विन्यास को अनुक्रम से कहता हूँ।।१४४।। कनक, कांचनकूट, तपन, स्वस्तिकदिशा, सुभद्र, अंजनमूल, अंजन और वङ्का, ये आठ कूट पूर्वदिशा में हैं।।१४५।। वेदी व वनों से संयुक्त ये कूट पाँच सौ योजन उँचे और इतने मात्र मूलविस्तार व इससे आधे उपरिम विस्तार से सहित हैं।।१४६।। उत्सेध ५००। मूलविष्कम्भ ५००। उपरिमविष्कम्भ २५०। इन वूâटों के ऊपर जिनभवनों से भूषित और विचित्र रूप वाले गौतम देव के भवन समान भवन विराजमान हैं।।१४७।।