दक्षिण मथुरा में दिगम्बर गुरु गुप्ताचार्य के पास क्षुल्लक चन्द्रप्रभ थे। उन्होंने आकाशगामिनी आदि विद्या को नहीं छोड़ने से मुनिपद नहीं लिया था। एक दिन वे तीर्थ वंदना के लिए उत्तर मथुरा आने लगे तब गुरु से आज्ञा लेकर पूछा-भगवन्! किसी को कुछ कहना है ? गुरु ने कहा-वहाँ पर विराजमान सुव्रत मुनिराज को नमोस्तु और रेवती रानी को आशीर्वाद कहना। तीन बार पूछने पर भी गुरु ने यही कहा। तब क्षुल्लक महाराज वहां आकर सुव्रत मुनिराज को नमोस्तु कहकर, वहीं पर ठहरे हुए भव्यसेन मुनिराज के पास गये। उनकी चर्या को दूषित देखकर उनका अभव्यसेन नाम रखकर आ गये। पुनः रेवती रानी की परीक्षा के लिए अपनी विद्या से पूर्व दिशा में ब्रह्म का रूप बनाया। सब नगरवासी आ गये किन्तु रानी नहीं आई। पुनः उसने दक्षिण दिशा में जाकर श्रीकृष्ण का रूप प्रकट किया, अनन्तर पश्चिम दिशा में जाकर पार्वती सहित महादेव का रूप बनाया। इस पर भी रेवती रानी के नहीं आने पर क्षुल्लक ने विद्या के बल से उत्तर दिशा में अरिहंत भगवान का समवसरण तैयार कर दिया। तब राजा वरुण ने कहा-प्रिये! अब तो चलो, जिनेन्द्र भगवान का समवसरण आया है। रानी ने कहा-राजन्! चौबीस तीर्थंकर तो हो चुके अब पच्चीसवें कहां से आये ? यह कोई मायावी का जाल है।
अनंतर क्षुल्लक विद्या के बल से रोगी क्षुल्लक बनकर रानी के यहाँ आये। रानी ने विनयपूर्वक सुश्रुषा आदि की और आहार दान दिया। क्षुल्लक ने वमन कर दिया। तब रानी ने भक्ति से सफाई आदि की। तब क्षुल्लक जी विद्या को समेट कर, वास्तविक रूप में गुरु के आशीर्वाद को सुनाकर, रानी की प्रशंसा करते हुए चले गये।