(भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ पुस्तक एवं सुरेश जैन, भोपाल द्वारा प्रेषित लेख के आधार पर प्रस्तुत) निर्वाण-क्षेत्र-श्री रेशन्दीगिरि निर्वाण-क्षेत्र है। इस क्षेत्र का दूसरा नाम नैनागिरि भी है। प्राकृत निर्वाण-काण्ड में इस क्षेत्र के विषय में निम्नलिखित उल्लेख आया है-
‘पासस्स समवसरणे, सहिया वरदत्त मुणिवरा पंचा।
रिस्सदे गिरिसिहरे, णिव्वाण गया णमो तेसिं।।१९।।’
अर्थात् भगवान पार्श्वनाथ के समवसरण में स्वहित के इच्छुक वरदत्त आदि पाँच मुनिराज रेशन्दीगिरि के शिखर से मोक्ष गये, उन्हें नमस्कार है। ये वरदत्त आदि पाँच मुनिवरों के क्या नाम थे, यह किसी पुराण-ग्रन्थ में देखने में नहीं आया किन्तु इस क्षेत्र के पर्वतस्थित प्रथम मंदिर में उन पाँचों मुनियों की मूर्तियाँ बनी हुई हैं और उनके नाम इस प्रकार अंकित हैं—मुनीन्द्रदत्त, इन्द्रदत्त, वरदत्त, गुणदत्त और सायरदत्त। इस गाथा से इतना ज्ञात होता है कि ये पाँच मुनि भगवान पार्श्वनाथ के समवसरण में थे। इस गाथा के अर्थ और पाठ के सम्बन्ध में विद्वानों में कुछ मतभेद है। कुछ विद्वान इस गाथा से यह आशय निकालते हैं कि पार्श्वनाथ भगवान का समवसरण इस क्षेत्र पर आया था। उनके इस प्रकार का आशय निकालने का आधार सम्भवत: भैया भगवतीदास द्वारा किया हुआ इस गाथा का पद्यात्मक हिन्दी अनुवाद है, जो इस प्रकार है—
‘समवसरण श्री पार्श्व जिनंद। रेसिंदीगिरि नयनानंद।
वरदत्तादि पंच ऋषिराज। ते वन्दों नित धरम जिहाज।।’
इस हिन्दी अनुवाद में रेशन्दीगिरि पर पार्श्वनाथ के समवसरण के आगमनविषयक कोई क्रियापद नहीं है और न वरदत्त आदि पाँच मुनियों के वहाँ से मुक्ति-गमन से संबन्धित ही कोई क्रिया पद है। सम्भवत: इसी से कुछ लोग यह आशय निकालते हैं कि पार्श्वनाथ का समवसरण इस क्षेत्र पर आया था। वस्तुत: यह हिन्दी अनुवाद त्रुटिपूर्ण है। मूल गाथा से ऐसा कोई आशय व्यक्त नहीं होता किन्तु कुछ विद्वान् यह कहते हैं कि इस गाथा को देखते हुए यह निश्चित धारणा जमती है कि रेशन्दीगिरि पर पार्श्वनाथ का समवसरण आया था क्योंकि इस गाथा में स्पष्ट उल्लेख है कि पार्श्वनाथ के समवसरण में स्थित वरदत्त आदि पाँच मुनि रेशन्दीगिरि से मुक्त हुए, क्योंकि यदि पार्श्वनाथ का समवसरण यहाँ न आया होता तो ‘पार्श्वनाथ के समवसरण में स्थित’ यह विशेष पद क्यों रहता? आचार्य ने यह पद वस्तुत: एक विशेष उद्देश्य से दिया है। वह उद्देश्य यह है कि इस क्षेत्र पर पार्श्वनाथ का समवसरण जब आया, तभी पाँच मुनियों ने तप किया और शुक्लध्यान द्वारा कर्मों का नाश कर यहाँ से निर्वाण प्राप्त किया। इसी स्थिति में ‘पार्श्वनाथ के समवसरण में स्थित’ इस पद की सार्थकता है। कुछ विद्वान ‘रिस्सिन्दे’ इस पाठ को अशुद्ध मानकर इसके स्थान पर ‘रिस्सद्धि’ शुद्ध पाठ मानते हैं और उसका अर्थ ऋष्यद्रि अर्थात् ऋषिगिरि करते हैं। ऋषिगिरि राजगृही के पाँच पहाड़ों में से एक पहाड़ है। ये विद्वान वरदत्त आदि मुनियों का निर्वाण-स्थान रेशन्दीगिरि न मानकर ऋषिगिरि को मानते हैं। इन विद्वानों ने इस पाठ-भेद की कल्पना किस आधार पर की, यह स्पष्ट नहीं हो पाया। लगता है, संस्कृत निर्वाण-भक्ति के ‘ऋष्यद्रिके च विपुलाद्रि बलाहके च’ इस पद के ‘ऋष्यद्रिके’ पाठ से उन्हेंं ऐसी कल्पना करने की प्रेरणा प्राप्त हुई होगी। किसी प्रति में ‘रिस्सद्धि’ यह पाठ नहीं मिलता। वस्तुत: ‘रिस्सिन्दे’ पाठ सर्वथा शुद्ध है। उसका संस्कृत रूप ‘रिष्यन्दे अथवा ऋष्यन्दे’ बनता है। ऋष्यन्दगिरि का अपभ्रंश होकर रेशन्दगिरि, फिर बोलचाल में रेशन्दीगिरि हो गया। पं. पन्नालाल जी सोनी द्वारा सम्पादित ‘क्रियाकलाप’ में यह गाथा निम्निलिखित रूप में दी गयी है—
पासस्स समवसरणे, गुरुदत्तवरदत्तपंचरिसिपमुहा।
गिरिसिंदे गिरिसिहरे, णिव्वाण गया णमो तेसिं।।
इस पाठ के अनुसार पार्श्वनाथ के समवसरण में स्थित गुरुदत्त, वरदत्त आदि पाँच मुनि गिरीशेन्द्र (हिमालय) के शिखर से मुक्त हुए। इस मान्यता का समर्थन किसी अन्य स्रोत से नहीं होता। १७ वीं शताब्दी में हुए पं. चिमणा पण्डित ने मराठी भाषा में ‘तीर्थवन्दना’ लिखी है। उसमें उन्होंने भी गुरुदत्त और वरदत्त मुनियों का नामोल्लेख करके उनका मुक्ति-स्थान रेशन्दीगिरि ही माना है। इसका मूल पाठ इस प्रकार है।
‘समोसरनरम्य श्री पासोजीचे। रीसिंदेगिरि आले होते तयाचे।
तेथे गुरुदत्त मुनि वरदत्त। तपे झाले पंच यति मुक्तिकांत।।२४।।’
इसी प्रकार सोलहवीं शताब्दी के विद्वान मेघराज ने मराठी में तीर्थ वन्दना लिखी है। उसमें उन्होंने भी रेशन्दीगिरि का ही नाम दिया है। इसका मूल पाठ इस प्रकार है—
‘वलि मुनि सिद्ध बहुत वरदत्त रंग आदि करीए। रीसंदीगिरिवर जाण तेहु वांदु भाव धरीए।।१४।।’
गुरुदत्त-वरदत्त सम्बन्धी पाठभेद विशेष महत्त्व का नहीं है। सम्भव है, पाँच मुनियों में गुरुदत्त और वरदत्त नामक दो मुनि भी रहे हों किन्तु ‘रिस्सिन्दे’ के स्थान पर ‘रिस्सद्धि’ या अन्य किसी पाठ की कल्पना बड़ी क्लिष्ट कल्पना है। परम्परागत रूप से रेशन्दीगिरि को ही निर्वाण-स्थान माना जाता है। तीर्थवंदनसम्बन्धी सभी पाठों में रेशन्दीगिरि का ही नाम आता है। रेशन्दीगिरि का नाम नैनागिरि क्यों और किस प्रकार पड़ा, इसका कोई युक्ति-संगत कारण नहीं मिलता। किसी ग्रन्थ मेें रेशन्दीगिरि का नाम नैनागिरि आया हो, ऐसा भी देखने मेें नहीं आया। भैया भगवतीदास ने निर्वाण-काण्ड का जो भाषानुवाद किया है, उसमें ‘रेशन्दीगिरि नैनानन्द’ आया है। इसमें नैनानन्द रेशन्दीगिरि का विशेषणपरक पद है। सम्भव है, भैया भगवतीदास के काल में रेशन्दीगिरि को नैनागिरि भी कहा जाता हो और नैनानन्द पद से उसी की ओर संकेत किया गया हो। हमें इसमें तो तनिक भी संदेह नहीं है कि वर्तमान रेशन्दीगिरि ही निर्वाण-क्षेत्र रहा है और किसी कारण से भी हो, इसे ही नैनागिरि कहा जाता है। ==पुरातत्त्व-== यहाँ क्षेत्र पर तथा उसके आस-पास कुछ पुरातत्त्व-सामग्री प्राप्त होती है। यहाँ जो मूर्तियाँ खुदाई में निकली हैं, वे अनुमानत: ११वीं शताब्दी की हैं। अनुश्रुति है कि लगभग १०० वर्ष पहले बम्होरी निवासी चौधरी श्यामलाल जी को स्वप्न आया। उसमें उन्होेंने रेशन्दीगिरि पर्वत पर एक मंदिर देखा। जब उनकी नींद खुली तो उन्होंने अपने स्वप्न की चर्चा अन्य धर्म-बन्धुओं से की। तब निश्चय हुआ कि क्षेत्र पर जाकर खुदाई करायी जाये। क्षेत्र पर स्वप्न में देखे हुए स्थान पर खुदाई करायी गयी। वहाँ एक प्राचीन मंदिर भूगर्भ से उत्खनन के फलस्वरूप निकला। यह पार्श्वनाथ मंदिर कहलाता है। क्षेत्र पर जो प्राचीन मूर्तियाँ निकली हैं, वे भी इसी मंदिर में रखी हुई हैं। यही मंदिर यहाँ का सबसे प्राचीन मंदिर कहलाता है। एक शिलालेख के अनुसार, जो मंदिर की दीवार में लगा हुआ है, इस मंदिर का निर्माण सं. ११०९ में हुआ है। इस प्रकार यह मंदिर एक हजार वर्ष से भी अधिक प्राचीन है। इस मंदिर में भूगर्भ से प्राप्त १३ प्राचीन मूर्तियाँ रखी हुई हैं। वे अपनी रचना-शैली से ही मंदिर की समकालीन प्रतीत होती हैं। पुरातत्त्व-सामग्री में एक वेदिका भी है जो क्षेत्र से लगभग एक मील दूर जंगल में है। इसे भी ११वीं-१२ वीं शताब्दी का बताया जाता है, यद्यपि यह इतनी प्राचीन नहीं है। इसके अतिरिक्त यहाँ और कोई पुरातत्त्व-सामग्री नहीं मिली है। ==क्षेत्र दर्शन-== यह पहाड़ी साधारण ऊँची है। यहाँ ३६ जिनालय पहाड़ी के ऊपर हैं और १५ जिनालय मैदान में सरोवर के निकट हैं। इस प्रकार यहाँ जिनालयों की कुल संख्या ५१ है तथा १ मानस्तम्भ है। इनमें से ३७ मंदिर शिखरबद्ध हैं। एक मंदिर सरोवर के मध्य में पावापुरी के समान बना हुआ है। इसे जल-मंदिर कहते हैं। तलहटी के मंदिर एक परकोटे के अंदर बने हुए हैं। यह क्षेत्र अपनी प्राकृतिक सुषमा के साथ आध्यात्मिक साधना का केन्द्र रहा है। इसी प्राकृतिक वैभव से आकर्षित होकर इस एकान्त निर्जन स्थान में वरदत्त आदि मुनीश्वरों ने इसे अपनी साधना-स्थली बनाया और यहाँ से मुक्ति प्राप्त करके इसे सिद्धक्षेत्र होने का गौरव प्रदान किया। ==पर्वत के मंदिर-== १. पार्श्वनाथ मंदिर-भगवान पार्श्वनाथ की बादामी वर्ण की यह खड्गासन प्रतिमा ११ फुट की (आसनसहित १६ फुट) है। इसकी प्रतिष्ठा वीर सं. २४७८ (विक्रम सं. २००९) में हुई। इस प्रतिमा के सिर पर सर्प-फणावली नहीं है। चरण-चौकी पर सर्प का लांछन है जो पार्श्वनाथ तीर्थंकर का लांछन है। सिर के पृष्ठभाग में सुन्दर भामण्डल है तथा ऊपर छत्रत्रयी सुशोभित है। परिकर में विमान में बैठ हुए देव, चमरेन्द्र और वाद्यवादक हैंं। मुख्य वेदियों के अतिरिक्त ६ वेदियाँ और २२ लघु वेदिकाएँ (आले) हैं, जिनमें २४ तीर्थंकरों की संवत् २४८२ की प्रतिमाएँ हैं। इसके अलावा पार्श्वनाथ के गर्भगृह के दरवाजे पर एक ओर ५ फुट ६ इंच ऊँची बाहुबली स्वामी की खड्गासन प्रतिमा है। एक वेदी में यहाँ से मुक्त हुए मुनिराज मुनीन्द्रदत्त, इन्द्रदत्त, वरदत्त, गुणदत्त और सायरदत्त की खड्गासन श्वेत वर्ण की मूर्तियाँ विराजमान हैं। इस मंदिर में मूर्तियों की कुल संख्या ३८ है। भक्तजन इस मंदिर को ‘बड़े बाबा का मंदिर’, ‘चौबीसी जिनालय’ आदि कई नामों से पुकारते हैं। यह मंदिर बहुत विशाल है। २. पार्श्वनाथ मंदिर—ऊपर दूसरी मंजिल पर यह मंदिर है। इसमें भगवान पार्श्वनाथ की कृष्ण पाषाण की १ फुट ४ इंच अवगाहना वाली पद्मासन प्रतिमा विराजमान है, जिसकी प्रतिष्ठा वीर संवत् २४६५ में हुई। ३. नेमिनाथ मंदिर—भगवान नेमिनाथ की श्वेत वर्ण पद्मासन प्रतिमा है। इसकी प्रतिष्ठा सं.२०१२ में हुई। ४. चन्द्रप्रभ मंदिर—चन्द्रप्रभ भगवान की श्वेत वर्ण पद्मासन प्रतिमा है, जिसकी अवगाहना १फुट ३ इंच है। ५. अजितनाथ जिनालय—कृष्ण पाषाण की अजितनाथ भगवान की १ फुट १० इंच ऊँची प्रतिमा है। मूर्ति-लेख नहीं है। ६. आदिनाथ जिनालय—१ फुट ६ इंच अवगाहना वाली आदिनाथ भगवान की कृष्ण पाषाण की यह पद्मासन प्रतिमा संवत् १८५८ में प्रतिष्ठित हुई। ७. आदिनाथ जिनालय—आदिनाथ भगवान की श्वेत पाषाण की यह प्रतिमा आसनसहित ३ फुट ७ इंच है। यह पद्मासन है और इसकी प्रतिष्ठा संवत् १८५८ में हुई है। इसके आगे वरदत्तादि मुुनियों के दो चरण-चिन्ह विराजमान हैं। ८. शांतिनाथ जिनालय—भगवान शांतिनाथ की श्वेत वर्ण पद्मासन प्रतिमा २ फुट ५ इंच उन्नत है। यह वीर सं.२४९० में प्रतिष्ठित हुई है। इसके आगे तीन प्रतिमाएँ विराजमान हैं। तीनों ही साढ़े सात इंच ऊँची हैं और सं.१५४८ में प्रतिष्ठित हुई हैं। इनमें चन्द्रप्रभ की दो श्वेत वर्ण की हैं और पार्श्वनाथ की एक कृष्ण वर्ण की है। ९. शांतिनाथ जिनालय—इसमें शांतिनाथ भगवान की श्वेत पाषाण की पद्मासन प्रतिमा है। इसकी अवगाहना १ फुट ७ इंच है तथा इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९४३ में हुई। १०. चन्द्रप्रभ मंदिर—मूँगिया वर्ण की चन्द्रप्रभ भगवान की यह प्रतिमा १ फुट ४ इंच ऊँची है और संवत् १९४२ की प्रतिष्ठित है। इसके पाश्र्व में नमिनाथ भगवान की साढ़े नौ इंच ऊँची श्वेत वर्ण की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १५४८ में हुई है। ११. बड़ा मंदिर— यह मंदिर ‘बड़ा मंदिर’ कहलाता है। यह उत्खनन के फलस्वरूप भूगर्भ से १०० वर्ष पूर्व निकला बताया जाता है। यही वह मंदिर है जिसकी चर्चा जैन पुरातत्त्व के संदर्भ में पूर्व में की जा चुकी है। मंदिर के साथ १३ मूर्तियाँ भी भूगर्भ से प्राप्त हुई थीं और वे भी इसी मंदिर में विराजमान हैं। इस मंदिर और मूर्तियों की प्राचीनता बताने वाला एक शिलालेख इस मंदिर की एक दीवार में लगा हुआ है जिसमें प्रतिष्ठा-काल संवत् ११०९ अंकित है। मंदिर की मूलनायक प्रतिमा भगवान पार्श्वनाथ की है। यह ४ फुट ७ इंच उन्नत है, खड्गासन है और संवत् २०१५ में इसकी प्रतिष्ठा हुई। भूगर्भ से प्राप्त १३ मूर्तियों में से ९ मूर्तियाँ मुख्य वेदी पर विराजमान हैं और शेष ४ मूर्तियाँ अलग-अलग चबूतरों पर हैं। इन मूर्तियों में एक गोमेद यक्ष और अम्बिका की मूर्ति है जो ३ फुट ऊँची है। यह देशी पाषाण की और भूरे वर्ण की है। देवी गोद में बालक लिये हुए है। यक्ष-यक्षी दोनों ही अलंकारों से सज्जित हैं। दोनों के किरीट अत्यन्त कलात्मक हैं। दोनों के ऊपर जो आम्र-स्तवक है, उसकी कला भी असाधारण है। आम्रशाखाओं पर एक वानर चढ़ता हुआ दिखाई देता है। उसके ऊपर नेमिनाथ तीर्थंकर की पद्मासन प्रतिमा है। मूर्ति के हाथ खण्डित हैं। एक मूर्ति ४ फुट ऊँची है। यह ऋषभदेव की पद्मासन प्रतिमा है। प्रतिमा के सिर पर तीन छत्र हैं। सिर के दोनों ओर गजराज खड़े हुए हैं। छत्रों के दोनों पाश्र्वों में माला लिये हुए नभचारी गन्धर्व हैं। उनके नीचे ४ खड्गासन तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं। चरणों के दोनोें ओर चमरेन्द्र विनयमुद्रा में खड़े हैं। एक मूर्ति की अवगाहना ३ फुट ८ इंच है। इस शिलाफलक में दोनों ओर जो हाथी बने हैं, उनमें से एक खण्डित है। चमरवाहकों के नीचे दो भक्त हाथ जोड़े हुए बैठे हैं। मूर्ति के अधोभाग में यक्ष-यक्षी भी उत्कीर्ण हैं। मूर्ति की छाती पर श्रीवत्स है। मूर्ति का एक कान खण्डित है। ५ फुट की एक अन्य मूर्ति ऋषभदेव की है। परिकर अन्य मूर्तियों के समान है। मूर्ति के हाथ, पैर, नाक वगैरह खण्डित हैं। छत्रत्रयी के बगल में एक ओर गज नहीं है। एक चमरेन्द्र का सिर खण्डित है। १२. चन्द्रप्रभ जिनालय—इसमें भगवान चन्द्रप्रभ की २ फुट ऊँची कृष्ण वर्ण पद्मासन प्रतिमा है जो संवत् २००२ में प्रतिष्ठित की गयी। इस वेदी में दो मूर्तियाँ और हैं। इनके अतिरिक्त दो प्राचीन मूर्तियाँ अलग-अलग वेदियों में विराजमान हैं। १३. अभिनंदननाथ मंदिर—यहाँ अभिनंदननाथ भगवान की कृष्ण पाषाण की २ फुट ७ इंच ऊँची पद्मासन मूर्ति है। इसका संवत् पढ़ा नहीं गया। इसके अतिरिक्त ३ पाषाण मूर्तियाँ और हैं। १४. मुनिसुव्रतनाथ मंदिर—इसमें भगवान मुनिसुव्रतनाथ की कृष्ण पाषाण की पद्मासन मूर्ति वीर संवत् २४५१ में प्रतिष्ठित हुई। इसकी अवगाहना २ फुट ५ इंच है। पाँच मूर्तियाँ और हैं। इस मंदिर के आगे मानस्तम्भ है। १५. मुुनिसुव्रतनाथ मंदिर—यहाँ श्वेत वर्ण की भगवान मुनिसुव्रतनाथ की पद्मासन प्रतिमा है। यह २ फुट ६ इंच ऊँची है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९४३ में हुई। १६. नेमिनाथ मंदिर—यहाँ नेमिनाथ की १ फुट ३ इंच उन्नत कृष्ण वर्ण की पद्मासन प्रतिमा है। यह संवत् १९५५ में प्रतिष्ठित हुई। १७. मुनिसुव्रतनाथ मंदिर— इस मंदिर में विराजमान मुनिसुव्रतनाथ मूर्ति की अवगाहना ३ फुट की है। यह कृष्ण पाषाण की है, पद्मासन है और वीर संवत् २४८२ की प्रतिष्ठित हुई है। १८. चंद्रप्रभ मंदिर—भगवान चंद्रप्रभ की श्वेत वर्ण पद्मासन प्रतिमा की अवगाहना १ फुट ५ इंच है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९८३ में हुई। १९. अजितनाथ मंदिर—इस मंदिर में प्रतिष्ठित प्रतिमा की ऊँचाई २ फुट ८ इंच है। यह श्वेत पाषाण की पद्मासन है और संवत् १९४३ की इसकी प्रतिष्ठा हुई। २०. नेमिनाथ मंदिर—यहाँ वीर संवत् २४६४ में प्रतिष्ठित नेमिनाथ की १ फुट ३ इंच उन्नत कृष्ण पाषाण की पद्मासन प्रतिमा है। २१. चन्द्रप्रभ मंदिर—इसमें मूंगिया वर्ण की चन्द्रप्रभ भगवान की प्रतिमा है। यह १ फुट ७ इंच ऊँची है, पद्मासन है और संवत् १९४३ में प्रतिष्ठित हुई है। २२. पार्श्वनाथ मंदिर— इस मंदिर की मूलनायक प्रतिमा भगवान पार्श्वनाथ की है, पद्मासन है, कृष्ण पाषाण की निर्मित है और संवत् १९४३ की इसकी प्रतिष्ठा हुई है। इस वेदी पर एक कृष्ण वर्ण वाली मूर्ति और विराजमान है। २३. नेमिनाथ मंदिर—यहाँ भगवान नेमिनाथ की १ फुट ७ इंच ऊँची श्वेत पाषाण की प्रतिमा है। यह पद्मासन में आसीन है और संवत् १९४३ में प्रतिष्ठित करायी गयी है। २४. चन्द्रप्रभ मंदिर—इस मंदिर में श्वेत पाषाण की १ फुट उन्नत चन्द्रप्रभ की मूर्ति है। यह पद्मासन मुद्रा में आसीन है और संवत् १९४२ में प्रतिष्ठित हुई है। २५. पार्श्वनाथ जिनालय—यहाँ भगवान पार्श्वनाथ की श्वेत वर्ण की प्रतिमा है। यह पद्मासन है, २ फुट समुन्नत है और संवत् १९४३ में प्रतिष्ठित हुई है। २६. चन्द्रप्रभ जिनालय—यहाँ भगवान चन्द्रप्रभ की श्वेत पाषाण की प्रतिमा है। यह पद्मासन है। इसका माप १ फुट २ इंच है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९४२ में हुई है। इस मूर्ति के अलावा एक कृष्ण पाषाण की पद्मासन प्रतिमा और विराजमान है। २७. चन्द्रप्रभ जिनालय—यह प्रतिमा पद्मासन मुद्रा में विराजमान है। यह श्वेत वर्ण की है और १ फुट ऊँची है। इस मूर्ति के पीठासन पर लेख नहीं है। २८. पार्श्वनाथ मंदिर–इस मंदिर में पार्श्वनाथ भगवान की श्वेत पाषाण की संवत् १९९५ की प्रतिष्ठित प्रतिमा विराजमान है। २९.चन्द्रप्रभ मंदिर—यहाँ भगवान चन्द्रप्रभ की यह मूर्ति १ फुट ५ इंच उत्तुंग श्वेतवर्ण और पद्मासन है। ३०. अजितनाथ मंदिर—इस मंदिर में भगवान अजितनाथ की ५ फुट अवगाहना वाली कृष्ण पाषाण की प्रतिमा है। यह संवत् १९४८ में प्रतिष्ठित हुई है। ३१. एक गुमटी में वरदत्तादि मुनियों के चरण-चिन्ह विराजमान हैं। ३२. ऋषभदेव मंदिर—यहाँ ऋषभदेव भगवान की श्वेतवर्ण, २ फुट ३ इंच ऊँची पद्मासन मूर्ति है। संवत् १९५२ में प्रतिष्ठित हुई है। ३३. चन्द्रप्रभ मंदिर—इसमें चन्द्रप्रभ भगवान की श्वेतवर्ण तथा १ फुट ३ इंच उत्तुंग पद्मासन प्रतिमा है। मूर्तिलेख न होने से प्रतिष्ठा-काल ज्ञात नहीं हुआ। ३४. अभिनंदननाथ मंदिर—श्वेत वर्ण की वीर संवत् २४७८ में प्रतिष्ठित और २ फुट २ इंच ऊँची अभिनंदननाथ की पद्मासन प्रतिमा इस मंदिर में विराजमान है। ३५. इस मंदिर में चरण-चिन्ह विराजमान हैं। ३६. मेरु मंदिर—इस मंदिर में अन्त: प्रदक्षिणा-पथ से गन्धकुटी तक पहुँचते हैं। गन्धकुटी में चन्द्रप्रभ की श्वेत पाषाण की १ फुट २ इंच ऊँची प्रतिमा विराजमान है। यह पद्मासन है और संवत् २००८ में प्रतिष्ठित हुई है। ==मानस्तम्भ—== मेरु मंदिर के निकट ही मानस्तम्भ बना हुआ है। इस पहाड़ी पर जैन मंदिरों का यह गुच्छा अधिक विस्तृत भूभाग में फैला हुआ नहीं है। इसलिये दर्शन करने में अधिक समय नहीं लगता। यहाँ की प्रबन्ध समिति की उदारता के कारण एक हिन्दू बाबा ने जैन मंदिर-गुच्छक के प्राय: मध्य में एक हनुमान मंदिर बना लिया है और कुछ ही वर्षोंे में उसे काफी बढ़ा लिया है, अस्तु। मंदिरों तक जाने का मार्ग पक्का है। प्रथम मंदिर के बाहर कुछ प्राचीन मूर्तियाँ रखी हुई हैं जो भूगर्भ से प्राप्त हुई हैं। उनमें अम्बिका की भी एक सुन्दर मूर्ति है। ये मूर्तियाँ प्राय: ११ वीं शताब्दी की प्रतीत होती हैं। ये समस्त मंदिर एक अहाते के अन्दर हैं। पहाड़ी पर खड़े होकर सरोवर की ओर दृष्टिपात करने पर दृश्य बड़ा आकर्षक प्रतीत होता है। मध्य में जल-मंदिर, उस ओर मैदान के शिखरबद्ध जिनालय और इस ओर पर्वत की मंदिर-माला, जिन पर उत्तुंग शिखर शोभायमान हैं।
तलहटी के मंदिर- १. जल-मंदिर—एक विशाल सरोवर के मध्य में एक भव्य मंदिर बना हुआ है। मंदिर तक जाने के लिय पुल है। पुल से जाने पर सर्वप्रथम चबूतरा मिलता है। चबूतरे पर एक पक्का कुआँ बना हुआ है। मंदिर के मूलनायक भगवान महावीर की श्वेत वर्ण की पद्मासन प्रतिमा है जो २ फुट ऊँची है और वीर सं. २४८२ में प्रतिष्ठित हुई है। समवसरण में ५ पाषाण की और ९ धातु की मूर्तियाँ हैं। पुल के पास सड़क के किनारे पाषाण का एक सूचना-पट लगा हुआ है। उसमें राज्य की ओर से सरोवर में मछली पकड़ने तथा पर्वत और जंगल में पशु-पक्षी का शिकार करने पर कड़ा प्रतिबन्ध लगाया गया है और इसकी अवहेलना करने पर कठोर दण्ड की व्यवस्था है। २. सुमतिनाथ मंदिर—यहाँ भगवान सुमतिनाथ की श्वेत वर्ण की २ फुट ऊँची प्रतिमा संवत् २००८ में प्रतिष्ठित हुई। यह पद्मासनासीन है। वेदी पर एक धातु—प्रतिमा भी है। ३. श्री नेमिनाथ मंदिर—नेमिनाथ की कृष्ण पाषाण की १ फुट ८ इंच ऊँची यह पद्मासन मूर्ति संवत् १९७९ में प्रतिष्ठित हुई। ४. नेमिनाथ मंदिर—यह मूर्ति १ फुट ५ इंच ऊँची है और इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९६६ में हुई। शेष सब कुछ मंदिर नं.-३ की मूर्र्ति के समान है। ५. चन्द्रप्रभ मंदिर— श्वेत वर्ण , १ फुट १० इंच ऊँची इस पद्मासन मूर्ति की प्रतिष्ठा संवत् १९५५ में हुई। इस मंदिर में ४ पाषाण की तथा २० धातु की छोटी मूर्तियाँ हैं। ६. पार्श्वनाथ मंदिर—यहाँ पार्श्वनाथ की सिलेटी वर्ण की, २ फुट २ इंच ऊँची पद्मासन मूर्ति है और इसका प्रतिष्ठाकाल संवत् १९१७ है। इस वेदी पर मूलनायक के अतिरिक्त २ पाषाण की और ५ धातु की प्रतिमाएँ हैं। ७. पार्श्वनाथ मंदिर-यहाँ चाँदी की एक वेदी में धातु की साढ़े सात इंच ऊँची एक पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है। यह संवत् १८८१ की है। इस प्रतिमा के अतिरिक्त इस वेदी में २ तीर्थंकर मूर्तियाँ और दो चमरवाहकों की धातु-मूर्तियाँ हैं। ८. चन्द्रप्रभ मंदिर—मूलनायक भगवान चन्द्रप्रभ की प्रतिमा श्वेत पाषाण की है। इसकी अवगाहना २ फुट है। इसका प्रतिष्ठा-काल संवत् १९६७ है। यह पद्मासन मुद्रा में है। इसके अतिरिक्त ३ पाषाण की और २१ धातु की मूर्तियाँ हैं। ९.चन्द्रप्रभ मंदिर—इसमें श्वेत पाषाण की १ फुट ४ इंच उन्नत पद्मासन मूर्ति है। यह संवत् १९५५ में प्रतिष्ठित हुई है। १०. नेमिनाथ मंदिर—इसकी वेदी पर मूलनायक नेमिनाथ की तथा ४ अन्य पाषाण-प्रतिमाएँ विराजमान हैं। मूलनायक का वर्ण श्वेत है। इसकी माप १ फुट ३ इंच है। संवत् १९४८ में यह प्रतिष्ठित हुई। यह पद्मासन है। ११. पार्श्वनाथ मंदिर—यहाँ की पार्श्वनाथ की प्रतिमा पूर्वोक्त नेमिनाथ प्रतिमा के साथ प्रतिष्ठित हुई। इसका वर्ण कृष्ण है और इसकी अवगाहना २ फुट २ इंच है। यह भी पद्मासन है। १२. पार्श्वनाथ मंदिर—यहाँ की पार्श्वनाथ की मूर्ति भी संवत् १९४८ में प्रतिष्ठित हुई। यह श्वेत वर्ण, पद्मासन और १ फुट ९ इंच अवगाहना की है। १३. ऋषभदेव मंदिर—ऋषभदेव की इस पाषाण-प्रतिमा की प्रतिष्ठा भी संवत् १९४८ में हुई है। इसका वर्ण श्वेत है। १४. पीतल की एक वेदी में कृष्ण वर्ण की तीन पाषाण-प्रतिमाएँ विराजमान हैं। १५. ऋषभदेव मंदिर—इसकी भी प्रतिष्ठा संवत् १९४८ में हुई थी। यह श्वेतवर्ण एवं पद्मासन है और इसकी माप १ फुट ८ इंच है। भगवान् की २ धातु प्रतिमाएँ भी हैं।
अतिशय-कभी-कभी इस क्षेत्र पर ऐसी घटना भी घटित हो जाती है जिसके कार्य-कारण का पता साधारण बुद्धि द्वारा नहीं चल पाता। ऐसी घटना को ही बोलचाल की भाषा में अतिशय या चमत्कार कहा जाने लगता है। घटना अद्भुत है। यह प्रत्यक्षदर्शियों से सुनी हुई है। ४० वर्ष पहले की बात है। एक बैल मंदिर नं.-२ में जीने से ऊपर चढ़ गया और कार्निश पर आ गया। जब लोगों को पता चला तो वहाँ एकत्र हो गये, किन्तु सभी िंककर्तव्यविमूढ़ थे। बैल न पीछे लौट सकता था, न मुड़ सकता था और गिरते ही उसके मरने का भय था। लाचार होकर उपद्रव की शांति के लिए मंदिर में शांतिविधान और हवन किया गया। हवन करते समय आवाज आयी-तुम लोग चिंता मत करो, बैल सकुशल उतर जायेगा। सब लोग निश्चिन्त होकर धर्मशाला में लौट आये। जब लोग लौट रहे थे, तब सबने आश्चर्य से देखा कि बैल तालाब के पास में चर रहा था। इस प्रकार की अद्भुत बातें यहाँ अनेक बार देखने को मिली हैं।
दर्शनीय स्थल- क्षेत्र के निकट नदी की धारा के मध्य में ५० फुट ऊँची एक पाषाण-शिला है। कहा जाता है कि इसी शिला पर तप करते हुए वरदत्त आदि पाँच मुनिराज मुक्त हुए थे। अत: यह शिला सिद्धशिला कही जाती है। इसके अतिरिक्त क्षेत्र से लगभग एक मील दूर जंगल में एक वेदिका है जो काफी विशाल है। देखने में प्रतीत होता है कि वेदिका काफी प्राचीन है।
धर्मशालाएँ- क्षेत्र पर ३ धर्मशालाएँ हैं—१. सेठ शोभाराम मलैया-सागर द्वारा निर्मित, २.सिं.मूलचंद गिरधारीलाल-विलाई द्वारा निर्मित और ३. सागर वालों की। इन धर्मशालाओं में कुल मिलाकर ५२ कमरे और ३ हॉल हैं। क्षेत्र पर बिजली है, जल के लिए सरोवर कुएँ हैं। बस्ती बहुत छोटी सी है, किन्तु क्षेत्र पर खाद्य सामग्री मिल जाती है। क्षेत्र दलपतपुर-बकस्वाहा सड़क के बिलकुल किनारे है।
मेला- क्षेत्र का वार्षिक मेला प्रतिवर्ष अगहन सुदी ११ से १५ तक होता है। इस अवसर पर रथोत्सव भी होता है। क्षेत्र पर तीन उत्सवों के अवसर पर लगे मेले विशेष उल्लेखनीय हैं। प्रथम उत्सव संवत् १९४३ में हुआ। इस वर्ष यहाँ तीन गजरथ चले थे। दूसरा उत्सव संवत् २००८ में था। उस वर्ष यहाँ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई थी। तीसरा उत्सव संवत् २०१३ में हुआ और उस वर्ष यहाँ पर गजरथ चला था। इन उत्सवों में पंचकल्याणकपूर्वक बिम्ब-प्रतिष्ठाएँ हुई थीं। इन प्रतिष्ठोत्सवों में सहस्रों व्यक्तियों ने भाग लिया था। व्यवस्था-क्षेत्र की व्यवस्था प्रान्तीय समाज द्वारा निर्वाचित प्रबन्ध समिति करती है। प्रबन्ध समिति का चुनाव हर तीसरे वर्ष वार्षिक मेले के अवसर पर होता है।
अवस्थिति और मार्ग- रेशन्दीगिरि (नैनागिरि) सिद्धक्षेत्र मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले में अवस्थित हैै। यहाँ पहुँचने का मार्ग इस प्रकार है—सागर-कानपुर रोड पर सागर से ४५ कि.मी. दूर दलपतपुर गाँव है। यहाँ से पूर्व की ओर दलपतपुर-बकस्वाहा मार्ग पर दलपतपुर से १२ कि.मी. दूर यह क्षेत्र अवस्थित है। सड़क पक्की है। दलपतपुर में क्षेत्र की धर्मशाला भी है। सागर से रेशन्दीगिरि के लिए सीधे बस भी जाती है। प्रथम सागर-बकस्वाहा और द्वितीय सागर-विजावर मार्ग, दोनों ही बस मार्गों पर रेशन्दीगिरि पड़ता है।
सन् १९७४ के पश्चात्- यहाँ पर संवत् ११०९ से लेकर प्रत्येक शताब्दी की मूर्तियाँ प्राप्त हैं। सरोवर एवं पहाड़ी के संगम पर १०००० वर्ग फीट क्षेत्र में विशाल समवसरण मंदिर का निर्माण किया जा चुका है। इसकी पंचकल्याणक सन् १९८७ में हुई, जिसमें क्षेत्र के तत्कालीन मंत्री श्री सेठ शिखरचन्द्र जी का अनुकरणीय योगदान रहा है।
क्षेत्र पर उपलब्ध सुविधाएँ-क्षेत्र पर ११० कमरे हैं, जिसमें ३० डीलक्स हैं। ७ हॉल हैं। पुस्तकालय में लगभग ६००० पुस्तके हैं। भोजनशाला नियमित सशुल्क चलती है। विद्यालय एवं वृद्धाश्रम भी है।