नव सौ पचीस कोटि त्रेपन, लाख सताइस सहस प्रमाण।
नव सौ अड़तालिस जिन प्रतिमा, त्रिभुवन में हैं करूं प्रणाम।।
ज्योतिष व्यंतर के गृह में, शाश्वत जिनप्रतिमा संख्यातीत।
पंच शतक धनु तुंग पूर्वमुख, पर्यंकासन वंदूँ नित्य।।१।।
भगवन् ! चैत्यभक्ति अरु कायोत्सर्ग किया उसमें जो दोष।
उनकी आलोचन करने को, इच्छुक हूँ धर मन संतोष।।
अधो मध्य अरु ऊध्र्वलोक में, अकृत्रिम कृत्रिम जिनचैत्य।
जितने भी हैं त्रिभुवन के, चउविध सुर करें भक्ति से सेव।।१।।
भवनवासि व्यंतर ज्योतिष, वैमानिक सुर परिवार सहित।
दिव्यगंध दिव पुष्प आदि से, दिव्य न्हवन करते नित प्रति।।
अर्चें पूजें वंदन करते, नमस्कार वे करें सतत।
मैं भी उन्हें यहीं पर अर्चूं, पूजूँ वंदूँ नमूँ सतत।।२।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे।
सुगति गमन हो समाधि मरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।३।।
भरत आदि क्षेत्रों में हिमवन, आदि सभी पर्वत ऊपर।
नन्दीश्वर द्वीपों में पाँचों, मेरू के अस्सी मंंदिर।।
मध्यलोक में जितने भी जिनवर के मंदिर शाश्वत हैं।
उन सबको मैं नितप्रति वंदूं वे भवदधि से तारक हैं।।१।।
भवनवासि व्यंतर ज्योतिष वैमानिक देवों के गृह में।
पृथ्वीतल में कृत्रिम अकृत्रिम जितने भी जिनगृह हैं।।
इस जग में मनुजों से निर्मित सुरनर से पूजित मंदिर।
भावसहित उन सबको वंदूं स्मरण करूं मैं शिर नत कर।।२।।
जम्बूद्वीप धातकी पुष्करअर्ध अढाई द्वीपों में।
रत्नत्रयधर तीर्थंकर हों इक सौ सत्तर क्षेत्रों में।।
श्वेत लाल नीले स्वर्णिम अरु हरित वर्ण के जिनवर ये।
कर्मेंधन को भस्म किया त्रयकालिक जिन को वंदन है।।३।।
मेरु कुलाचल रजतगिरि जम्बू शाल्मलि तरु गिरि वक्षार।
चैत्यवृक्ष मनुजोत्तर अंजन दधिमुख रतिकर इष्वाकार।
कुंडल रुचकाचल इन सब पर जिनगृह भावन व्यंतर के।
ज्योतिष के स्वर्गों के जिनगृह इन सबको प्रणमूं रुचि से।।४।।
कुंदकुसुम शशि बर्फ हार सम धवल चंद्रप्रभु सुविधि हैं।
इन्द्रनील सम दो जिन लालकमल सम दो व हरित दो हैं।।
सोलह जिनवर तप स्वर्णसम जन्ममृत्युहत सुरनुत हैं।
ये सज्ज्ञानसूर्य चौबिस जिन हम सबको सिद्धी देवें।।५।।
भगवन्! चैत्यभक्ति अरु कायोत्सर्ग किया उसमें जो दोष।
उनकी आलोचन करने को, इच्छुक हूँ धर मन संतोष।।
अधो मध्य अरु ऊध्र्वलोक में, अकृत्रिम कृत्रिम जिनचैत्य।
जितने भी हैं, त्रिभुवन के चउविध, सुर करें भक्ति से सेव।।१।।
भवनवासि व्यंतर ज्योतिष, वैमानिक सुर परिवार सहित।
दिव्य गंध सुम धूप चूर्ण से, दिव्य न्हवन करते नितप्रति।।
अर्चें पूजें वंदन करते, नमस्कार वे करें सतत।
मैं भी उन्हें यहीं पर अर्चूं, पूजूं वंदूं नमूं सतत।।२।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, होवे बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं मम जिनगुण सम्पत् होवे।।३।।