बिजली चमके अतिजल वर्षे, वर्षा में तरुतल बैठें।
शीतकाल रात्री में निर्भय, काष्ठसदृश निर्मम तिष्ठें।।
गर्मी में रविकिरण तप्तगिरि, शिखरों पर निजध्यान धरें।
शिवपथ पथिक साधुपुंगव वे, मुझको धर्म प्रदान करें।।१।।
ग्रीष्मऋतू में पर्वत ऊपर, वर्षा में तरु के नीचे।
शीतकाल में बाहर सोते, उन मुनि को वंदूँ रुचि से।।२।।
पर्वत कंदर दुर्गों में जो, नग्न दिगंबर तनु रहते।
पाणिपात्रपुट से आहारी, वे मुनि परमगती लभते।।३।।
हे भगवन् ! इस योगिभक्ति का, कायोत्सर्ग किया रुचि से।
उसके आलोचन करने की, इच्छा करता हूँ मुद से।।
ढाई द्वीप अरु दो समुद्र गत, पंद्रह कर्मभूमियों में।
आतापन तरुमूल योग, अभ्रावकाश से ध्यान धरें।।
मौन करें वीरासन कुक्कुट, आसन एकपार्श्व सोते।
बेला तेला पक्ष मास, उपवास आदि बहु तप तपते।।
ऐसे सर्व साधुगण की मैं, सदा काल अर्चना करूँ।
पूंजूँ वंदूँ नमस्कार भी, करूँ सतत वंदना करूँ।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुणसंपति होवे।।१।।