जिनवर कथित, रचित गणधर से, श्रुत अंगांग बाह्य संयुत।
द्वादशभेद अनेक अनन्त, विषययुत वंदूँ मैं जिनश्रुत।।
हे भगवन् ! श्रुतभक्ती कायोत्सर्ग किया उसके हेतू।
आलोचना करना चाहूँ जो अंगोपांग प्रकीर्णक श्रुत।।
प्राभृतकं परिकर्म सूत्र प्रथमानुयोग पूर्वादीगत।
पंच चूलिका सूत्र स्तव स्तुति अरु धर्मकथादि सहित।।
सर्वकाल मैं अर्चूं पूजूँ, वंदूँ नमूँ भक्तियुत से।
ज्ञानफलं शुचि ज्ञान ऋद्धि, अव्यय सुख पाऊँ झटिति से।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधिलाभ होवे।
सुगति गमन हो समाधि मरणं, मम जिनगुण संपत् होवे।।
एक सौ बारह कोटि तिरासी, लाख अठावन सहस रु पाँच।
द्वादशांग श्रुत के पद इतने, वंदन करूँ नमाकर माथ।।१।।
अर्हत् कथित अर्थमय सम्यक्, गूँथा है गणधर गुरु ने।
उस श्रुतज्ञान जलधि को शिर से, प्रणमूँ भक्ति समन्वित मैं।।२।।
हे भगवन् ! श्रुत भक्ती कायोत्सर्ग किया उसके हेतु।
आलोचना करना चाहूँ जो, आंगोपांग प्रकीर्णक श्रुत।।
प्राभृतकं परिकर्म सूत्र, प्रथमानुयोग पूर्वादिगत।
पंच चूलिका सूत्र स्तव, स्तुति अरु धर्म कथादि सहित।।
सर्वकाल मैं अर्चूं पूजूँ, वंदूँ नमूँ भक्तियुत से।
ज्ञानफलं शुचि ज्ञान ऋद्धि, अव्यय सुख पाऊँ झटिति से।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय,हो मम बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।
अर्हन् मुख से निकली गणधर, रचित सुबारह अंग महान्।
बुद्धिमंत मुनिपुंगव से, धारित बहुअर्थ सहित अमलान।।
मोक्ष अग्र का द्वार चरित, व्रत फलयुत ज्ञेयजगत् दीपक।
सर्वजगत् में सार सर्वश्रुत, को नित वंदूँ भक्तीयुत।।१।।
श्री जिनेंद्र के मुख पंकज से, प्रगट दिव्यध्वनि वचनस्वरूप।
इन्द्रभूति यतिपति गणधर ने,श्रुत को धारण किया अनूप।।
उन गणधर देवों ने द्वादश, अंग सहित द्रव्यश्रुत को।
किया प्रकाशित इस पृथ्वी पर, नमूँ नमूँ मैं सब श्रुत को ।।२।।
इक सौ बारह कोटि तिरासी, लाख अठावन सहस रु पाँच।
द्वादशांग श्रुत के पद इतने, वंदन करूँ नमाकर माथ।।३।।
अर्हत् कथित अर्थमय सम्यक्, गूँथा है गणधर गुरु ने।
उस श्रुतज्ञान जलधि को शिर से, प्रणमूँ भक्ति समन्वित मैं।।४।।
हे भगवन्! श्रुतभक्ती कायोत्सर्ग किया उसके हेतु।
आलोचना करना चाहूँ जो, आंगोपांग प्रकीर्णक श्रुत।।
प्राभृतकं परिकर्म सूत्र, प्रथमानुयोग पूर्वादिगत।
पंच चूलिका सूत्र स्तव, स्तुति अरु धर्म कथादि सहित।।
सर्वकाल मैं अर्चूं पूजूँ, वंदूँ नमूँ भक्ति युत से।
ज्ञानफलं शुचि ज्ञान ऋद्धि, अव्यय सुख पाऊँ झटिति से।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।