वेदीदो गंत्तूणं बारह तह जोयणसहस्साणि।
वायव्वदिसेण पुणो होइ समुद्दम्मि वरदीवो।।४०।।
बारहसहस्सतुंगो वित्थिण्णायामतेत्तिओ चेव।
कंचणवेदीसहिओ मरगयवरतोरणुत्तुंगो।।४१।।
ससिकंतसूरकंतो कक्केयणपउमरायमणिणिवहो।
वरवज्जकणयविद्दुममरगयपासादसंजुत्तो।।४२।।
गोदुमणामो दीवो णाणातरुगहणसंकुलो रम्भो।
पोक्खरणिवाविपउरो जिणभवणबिहूसिओ दिव्वो।।४३।।
वेदी से वायव्य दिशा की ओर बारह हजार योजन जाकर समुद्र में गौतम नामक उत्तम द्वीप है। यह दिव्य द्वीप बारह हजार योजन ऊँचा, इतने ही विस्तार व आयाम से संयुक्त, सुवर्णमय वेदी से सहित, मरकत मणिमय उत्तम तोरणों से उन्नत; चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, कर्वेâतन एवं पद्मराग मणियों के समूह से सहित; उत्तम वङ्का, सुवर्ण, विद्रुम एवं मरकत मणिमय प्रासादों से संयुक्त; नाना वृक्षों के वनों से व्याप्त, रम्य, प्रचुर पुष्करिणियों एवं वापिकाओं से युक्त और जिनभवनों से विभूषित है।।४०-४३।।